ये सर्दियों के दिन थे, नव-वर्ष आने माँ चंद ही दिन शेष बचे थे! मै यहीं दिल्ली में आराम कर रहा था, शर्मा जी नित्य नियमानुसार मेरे पास आते रहते थे! एक बार वो दिन में ४ बजे करीब आये, उन्होंने अपने एक जानकार के बड़े बेटे के बारे में एक अजीब सी बात बतायी! उनके अनुसार उनके ये जानकार जयपुर में एक सरकारी पद में तैनात हैं, अपने बड़े लड़के, रचित, की शादी उन्होंने अभी १० माह पहले ही की है, करीब एक महीने से वो लड़का रचित घर में किसी को भी नहीं पहचान रहा है! न माँ को और न बाप को! और न ही अपनी बीवी को! उन्होंने उसका इलाज वहाँ कराया, अच्छे से अच्छे चिकित्सक को दिखाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ, वो लड़का भी एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक है, अभी २ साल पहले ही लगा है, उन्होंने इस लड़के का मानसिक इलाज भी कराया लेकिन सब बेकार अब वो उसको लेके दिल्ली आये हैं, वो चाहते हैं की आप एक बार उस लड़के को देख लेते तो शायद कोई ऊपरी चक्कर हो तो पता चल जाता!
"ये रचित के पिता जी आपके जानकार है?" मैंने सवाल किया,
"जी हाँ, मेरे पुराने जानकार हैं वो गुरु जी" उन्होंने बताया,
"जयपुर में ही रहते हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" उन्होंने बताया
"आपने बताया कि शादी को १० माह हुए हैं और इस लड़के रचित को ये समस्या एक महीने से है, यही न?" मैंने पूछा,
"हाँ जी!" उन्होंने कहा,
"अच्छा, अब वो लड़का कहाँ दाखिल है?" मैंने पूछा,
"जी ******* अस्पताल में" उन्होंने कहा,
"ठीक है उनको बोलो कि हम आज शाम ७ बजे वहां पहुँच जायेंगे" मैंने कहा,
"जी मै अभी कहे देता हूँ!" उन्होंने कहा,
शर्मा जी ने फोन करके उनको इत्तला कर दी, मैंजे शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, कभी-कभार मनुष्य से जाने-अनजाने में कोई गलत काम हो जाता है, उस के कारण से भी ऐसा होना संभव है!"
"जी गुरु जी" उन्होंने कहा,
"कोई बात नहीं शर्मा जी! देख लेते हैं कि लड़के के साथ समस्या क्या है!" मैंने उठते हुए कहा,
मै अन्दर गया और कुछ सामान आदि निकाल कर रख लिया, थोडा भस्म भी रख ली!
मैं वापिस फिर शर्मा जी के पास आ गया, और बोला, "वैसे अब लड़के की हालत है कैसी और ये इसको कब यहाँ लेके आये थे?"
"अभी पता करता हूँ" उन्होंने कहा और उनको फोन कर दिया,
फोन काटने के बाद बोले, " जी वो उसको यहाँ कल रात लाये हैं।
"और हालत कैसी है? मैंने पूछा,
"जी हालत जस की तस ही है" उन्होंने बताया,
"मामला गंभीर लगता है" मैंने कहा,
"हाँ जी लग तो ऐसा ही रहा है" वो बोले,
"चलो ठीक है, हम यहाँ से ६ बजे निकल जाते हैं, सात या सवा सात तक पहुँच जायेंगे" मैंने कहा,
"हाँ, पहुँच जायेंगे, और शायद ये विजिटिंग-टाइम भी है, कोई दिक्कत नहीं होगी!" उन्होंने कहा,
हम शाम ६ बजे वहाँ के लिए निकल गए!
हम साढ़े सात बजे वहाँ पहुंचे, यातायात में फंस गए थे! खैर, शर्मा जी ने अपने परिचित को फोन कर दिया था इसीलिए वो हमको नीचे ही मिल गए, उनका नाम विजय था, काफी परेशान थे वो, उनके चेहरे से साफ झलक रहा था, वो हमको रचित के पास उसके कमरे में ले गए, रचित सो रहा था, मैंने उसके हाथ और पाँव के नाखून देखे, वो नाखून जो मै जानना चाहता था, बता चुके थे! अब मेरा उसके बारे में जानकारी जुटाना आवश्यक था, मैंने उसके पिता से बात की, उनको थोडा कमरे से बाहर लाया, मैंने पूछा, "विजय साहब, एक बात बताइये मुझे"
"जी पूछिए?" उन्होंने कहा,
"रचित की तबीयत कब से खराब है?" मैंने पूछा,
"आज कोई ४० दिन हो गए हैं जी" उन्होंने बताया,
"क्या ४० दिनों पहले रचित कहीं गया था, बाहर, कहीं घूमने? मैंने पूछा,
"हाँ जी, अपने बीमार होने से पहले, वो अपने विद्यालय के बच्चों को पिकनिक ले कर गया था, उसके साथ और दो तीन अध्यापक भी थे" उन्होंने कहा,
"अच्छा, कहाँ गया था?" मैंने सवाल किया,
"एक मिनट रुकिए, उसकी पत्नी को पता है, वो भी यहीं है, मै पूछ के आता हूँ" उन्होंने कहा और वो आपिस अन्दर एक दूसरे कमरे में चले गए!
"कोई लपेट-झपेट का मामला है क्या?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ! है! लेकिन काफी तगड़ा!" मैंने कहा,
"तगड़ा मतलब? किसी ने करवाया है क्या??" उन्होंने हैरत से पूछा,
"लगता नहीं कि करवाया है" मैंने बताया,
इतने में विजय वापिस आ गए और बोले, "हाँ जी, वो जयपुर शहर घूमने गए थे उस दिन, किला और संग्राहलय आदि गए थे" विजय ने बताया,
"अच्छा, ठीक है, इससे अधिक जानकारी तो केवल रचित ही दे सकता है, ठीक है उठने दो उसको" मैंने कहा,
"लेकिन साहब, वो किसी को पहचानता नहीं है, अजीब सी भाषा बोलता है, समझ में एक शब्द भी नहीं आता" वो बोले,
"जी बहुत अच्छा" वो बोले और चले गए वापिस,
मै और शर्मा जी कैंटीन में चले गए, वहाँ बैठे और चाय आदि का आर्डर दिया, हम करीब एक घंटे वहां बैठे, तभी विजय वहाँ आये और बोले, "साहब, रचित उठ गया है!"
अन्दर आये तो मैं सभी को वहाँ से हटवा दिया, केवल विजय को ही रहने दिया,
"रचित, ओ रचित?" विजय ने रचित के कंधे हिला कर कहा,
रचित ने अपने झुकाए सर को ऊपर किया और विजय को देखा, फिर शर्मा जी को और फिर मुझे उसके चेहरे में कोई भाव नहीं था! उसके बाद वो हम तीनों से नज़रें हटा कर छत को देखने लगा, मै उसकी प्रत्येक गतिविधि पर नज़र बनाए हुए था! मैंने विजय और शर्मा जी को अपने पीछे खड़े होने को कहा, वो पीछे हो गए, अब मैंने उससे कहा, "रचित?"
उसने मुझे देखा, अपने नथुने फुलाए और तेज-तेज साँसें लेने लगा! लेकिन बोला कुछ भी नहीं! विजय उसकी इस हरकत पर नाराज़ होने लगे, मैंने अपने हाथों से उनको चुप रहने को कहा,
मैंने फिर से आवाज़ दी, "रचित?"
उसने फिर से पहले वाली गतिविधि दोहराई! लेकिन बोला फिर भी नहीं!
मैंने शर्मा जी को अपने पास बुलाया और विजय को बाहर जाने को कहा, मैंने शर्मा जी से कहा,"इस लड़के को फौरन ही छुट्टी दिलवाओ यहाँ से, इसके पिता से बोलो, अभी इसी वक़्त!"
"ठीक है, मै अभी कहता हूँ" वो बोले और बाहर चले गए!
करीब पांच सात मिनट के बाद वो अन्दर आये लेकिन साथ में रचित की माता जी और पत्नी भी आ गयी अन्दर
"गुरु जी, विजय और उनकी पत्नी तो तैयार हैं, लेकिन रचित की धर्मपत्नी का विचार है की रचित को यहीं रहने दें तो अच्छा रहेगा, चिकित्सीय लाभ होगा रचित को" शर्मा जी ने कहा,
मै वहाँ से पलटा और रचित की धर्मपत्नी से बोला, "आपका नाम है क्या?"
"जी लीना" उसने कहा,
"अच्छा, लीना आखिरी बार आपने अपने पति के मुंह से अपना नाम कब सुना था?" मैंने लीना से सवाल किया,
मेरे इस सवाल से वो थोडा सकपका गयी फिर बोली, "जी जब से इनकी तबीयत खराब हुई है, तब से नहीं सुना अपना नाम इनके मुंह से, कोई ४०-४२ दिन हो गए हैं, न जाने कौन सा रोग हो गया है इनको" उसने कहा और उसकी आँखों में आंसू छलक आये!
"घबराइये नहीं, रोइये मत, हिम्मत से काम लीजिये! रचित को कोई रोग नहीं है!" मैंने कहा,
"कोई रोग नहीं है??? तो..........तो.....फिर.......ये क्या है ये रोग हो तो है, डॉक्टर कह रहे हैं कि इनके मस्तिष्क में आवश्यक रक्त-प्रवाह नहीं हो रहा?" उसने कहा,
"सुनिए लीना, आप यहाँ आइये, देखिये आपके पति अभी आप सभी का नाम लेंगे!" मैंने कहा,
उन सभी को बेहद हैरत हुई! लीना को तो जैसे गश आने वाला हो! मैंने लीना को आगे बुलाया और फिर रचित से कहा, "रचित?"
रचित ने फिर से वही सब दोहराना शुरू किया! मैंने अब एक मंत्र-पढ़ा और उसको अपनी ऊँगली पर अभिमंत्रित किया और वो मैंने रचितके सर पर रख दी! रचित ने अपने जबड़े भींच लिए! जैसे बहुत तेज पीड़ा हुई हो!
मैंने कुछ समय के लिए उसके अन्दर बैठी शय को कैद किया था!
थोड़े समय बाद रचित ने आँखें खोल दी! मैंने उससे कहा, "रचित?"
उसने अब कोई प्रक्रिया नहीं की! मैंने उसका चेहरा पकड़ के उसक बीवी की तरफ किया, और मैंने कहा, " इनका क्या नाम है,ये कौन है?
"ये लीना है, मेरी पत्नी!" उसने कहा!
फिर सभी की ओर देखा और बोला, "वो मेरे पिता जी हैं, विजय गुप्ता, वो मेरी माता जी सुनीता"
मैंने उसके सर से हाथ हटा लिया! वो बिस्तर पर लेट गया और पूर्ववत रोगी हो गया!
लीना के तो होश ही उड़ गए! वो बुरी तरह से रोई, रचित की माता जी भी और विजय भी!!
मै शर्मा जी को लेकर कमरे से बाहर चला गया!
थोड़ी देर बाद लीना, रचित की माता जी और विजय भी बाहर आ गए!
लीना जे रोते-रोते गुहार की, हाथ जोड़ के गुहार की! विजय साहब की आँखों में भी आंसू आ गए थे! लीना बोली, "गुरु जी, हमारा उद्धार कर दीजिये! इनको बचा लीजिये गुरुजी!"
यही बात रचित की माता जी और विजय साहब ने भी की! मैंने उनको भरोसा दिलाया कि रचित ठीक हो जाएगा! घबराने के कोई आवश्यकता नहीं है!
लीना जे अस्पताल से रचित की छुट्टी करवा दी, और हमको भी साथ जयपुर ले जाने को कहने लगी! मैंने उसको बताया की मुझे काफी तैयारियां करनी हैं, आप इसको लेके चलिए मै कल जयपुर पहुँच जाऊँगा! विजय ने हाथ जोड़ कर कहा, "गुरुजी बचा लीजिये मेरा बेटा, सब आपके हाथ में है"
"घबराइए नहीं विजय साहब! रचित को कुछ नहीं होने दूंगा मै! बेफिक्र जाइये आप! मै कल सुबह यहाँ से निकल जाऊँगा जयपुर के लिए शर्मा जी के साथ!" मैंने कहा,
"गुरु जी, दया करना हम पर" उसने कहा और मेरे पाँव छू लेने के लिए नीचे झुकी, मैंने पाँव पीछे हटा लिए! एक सच्चा अघोरी कभी भी किसी भी स्त्री को अपने पाँव नहीं छूने देता!
मैंने कहा, "आराम से ले जाओ रचित को, कुछ नहीं होगा उसके साथ!"
हमने उन लोगों से विदा ली, अब मुझे दो काम करने थे एक तो ये पता लगाना था कि रचित के साथ हुआ क्या है और दूसरा उसी के अनुसार क्रिया का आरम्भ भी करना था!
हम वहां से चले तो रास्ते में शर्मा जी ने सारा 'सामान' ले लिया! इसकी आवश्यकता थी आज!
हम अपने स्थान पर पहुंचे, स्नान किया और क्रिया आरम्भ करने के लिए अलख उठायी! अलख जितना भड़कती है, उतना ही तीव्र क्रिया-निष्पादन होता है! अलख-भोग दिया! अलख भड़क गयी!
अब मैंने एक थाली में मांस रखा! उसको शराब से डुबोया, काल नमक डाला, एक नीम्बू निचोड़ा! और कारिन्दा हाज़िर किया! कारिन्दा हाज़िर हुआ! मैंने उसको उसका उद्देश्य बताया! कारिंदे ने अपना भोग चखा! और रवाना हो गया!
१५ मिनट के बाद कारिन्दा पुनः हाज़िर हुआ! उसने जो बताया वो वाकई प्रशंसा के लायक था! मैंने कारिंदे को खुश होकर एक बार एक और भोग दे दिया! कारिन्दा खुश होकर चला गया!
कारिदे ने बताया, कि रचित जिस दिन विद्यालय के बच्चों को पिकनिक के लिए ले गया था, उस दिन वो आमेर के किले में भी गए थे, किले में जब वो काफी अन्दर चले गए थे तो रचित को लघु-शंका हुई, वो आसपास किसी को न पाकर किले की एक कोठरी में लघु-शंका के लिए गया! और निबटाने के बाद वापिस आ गया! अब जो समस्या हुई थी वो इसी कोठरी से हुई थी! वहाँ बसने वाली रूहें रचित पर हावी हो गयीं थीं! जिस कोठरी में वो गया था, उस कोठरी को पहले फांसी लगने वाले कैदियों के लिए पृथक रखने के लिए प्रयोग किया जाता था! जिस दिन रचित यहाँ आया था, उसी दिन उसको ये समस्या हो गयी थी!
ये मेरे लिए प्रामाणिक जानकारी थी! अब मै आगे की रण-नीति बना सकता था! मैंने शर्मा जी को इससे अवगत करा दिया!
अब बारी थी अपने महा-प्रेतों की दावत का इंतजाम! मैंने उसको दावत करवाई और खुद भी शर्मा जी के साथ छक के खा पीके सोने के लिए चले गए अपने कमरे में!
सुबह हम उठे, नित्य-कर्मों से निवृत हुए और अपना सामान उठाया और जयपुर के लिए रवाना हो गए! विजय को फ़ोन शर्मा जी ने कर ही दिया था, सो कोई परेशानी नहीं हुई, हम जयपुर पहुँच गए, सीधे विजय के घर!
विजय और उनके परिवारजनों ने हमारा स्वागत किया! लीना दौड़े-दौड़े आई और फिर से मेरे पाँव छूने के लिए नीचे झुकी, मैंने फिर से पाँव पीछे हटा लिए! मैंने लीना से कहा, "लीना, कोई परेशानी तो नहीं हुई?"
"नहीं गुरु जी, जब से आप मिले हैं, ये भी शांत हैं, लेकिन डर के मारे आँखों से नींद उडी हुई है" उसने बताया,
"कोई बात नहीं लीना, मै आप सभी की हर संभव मदद करूंगा!" मैंने कहा,
लीना दौड़ती हुई रसोई में गयी और चाय बना कर ले आई, हमने चाय पी और उसके, रचित, के बारे में बातें करने लगे, अभी बातें कर ही रहे थे कि अन्दर से रचित आया और हमको बोला, "चल निकल बाहर यहाँ से, निकल बाहर"
मैंने अपना कप रखा और खड़ा हो गया, लीना उसको अन्दर ले जाने लगी तो उसने लीना को एक लात मारी खींच के! वो बेचारी वहीं टेबल पैर गिर गयी और फूट फूट के रोने लगी,
रचित ने फिर कहा, "तूने सुना नहीं??? निकल बाहर यहाँ से?"
मैंने कुछ नहीं कहा, बस उसको देखता रहा! उसने आगे बढ़ कर शर्मा जी को हाथ उठा कर मारना चाहा, मैंने उसके गाल पर एक झन्नाटेदार झापड़ दिया! वो पीछे जाकर गिरा! विजय और उनकी पत्नी मूक होक बेचारे हो रहे सारे प्रकरण को देख रहे रचित ने गाली-गलौज करते हुए उठने की कोशिश की, तो मेरे इशारे पर शर्मा जी ने उसको एक लात मारी, वो फिर नीचे गिर गया! फिर उसने उठने की कोशिश नहीं की!
मै आगे बढ़कर उसको उठाने गया! मैंने उसको जैसे ही हाथ लगाया वो एक झटके से उठा और उकडू बैठ गया और बोला, "तेरे को न छोडूं अब मै, बादल पै हाथ उठाया!"
वो उकडू बैठा था मैंने उसको उसकी छाती में लात टिका कर नीचे गिर दिया! वो फिर गिर गया! और फिर उठा गया! बोला "रे आइयो ज़रा!"
"बुला साले को, बुला अपने बाप नै!" मैंने कहा,
तब वो सीधा तन के खड़ा हो गया, एक सैनिक की तरह! और बोला, "फंदा डालूँगा तेरे को, फंदा!"
"बचेगा तो डालेगा न!" मैंने कहा और उसके एक और दिया खींच के!
वो अब सुबकने लगा! रोने लगा! बोला, "बाबा मुझे बचाइयो, मुझे बचाइयो!"
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
"डालचंद जाम है मेरा, मुझे बचाइयो" उसने हाथ जोड़ कर कहा!
फिर अचानक से चुप हो गया, और बोला, "तेरा कलेजा खा जाऊँगा मै, कलेजा!"
"कितने हो तुम यहाँ? ये बताओ?" मैंने कहा,
"क्यूँ बताएं हम?" एक साथ कई आवाजें आयीं!
"बताते हो या नहीं?" मैंने कहा,
"१६ हैं, और तू अकेला!" वो बोला,
"मै अकेला ही तुम्हारे और तुम्हारे कुनबे के लिए काफी हूँ!" मैंने कहा!
"जंग होगी! वाह जंग होगी!" वो बोला,
"हाँ! जंग तो होगी ही!" मैंने भी जवाब दिया!
तब मैंने एक अभिमंत्रित लौंग अपने मुंह में चबाई और उस पर फेंक मारी थूक के!
उसने पछाड़ खायी और उठ के अपने कमरे की ओर भागा!
रचित अन्दर भागा! सीधे अपने बिस्तर पर! और वहाँ जाकर आलती-पालती मार कर बैठ गया! मै शर्मा जी को अपने साथ उसके कमरे में ले गया, और अन्य किसी को वहाँ आने से मना कर दिया! मै अन्दर पहुंचा, मैंने उससे कहा, "अपने सरदार को बुलाओ, मुझे बात करनी है अभी"
"हमसे न भिड़! तेरे लिए अच्छा है!" उसने कहा,
"सरदार कौन है तुम्हारा?" मैंने कहा,
"यहाँ सभी सरदार हैं, किससे बात करेगा?" वो बोला!
"तो ठीक है मै तुम सभी को अभी सबक सिखाता हूँ" मैंने कहा,
"मुझे छोड़ियो बाबा! रहम करियो बाबा, मै हूँ डालचंद" उनमे से एक बोला और उसने हाथ जोड़े!
"डालचंद, तू मुझे बढ़िया आदमी लग रहा है, चल तू अपने बारे में बता, तुम लोग १६ हो, और तू भी उन्ही में से एक है, चल तुझे नहीं मारूंगा मै, बख्श दूंगा, अब अपने बारे में बता ज़रा!" मैंने वहाँ कुर्सी पर बैठते हुए कहा,
"मै डालचंद हूँ बाबा, हांसी का रहने वाला हूँ, मुझे पकड़ लिया किलेदार, फांसी देने जा रहे है, मुझे बचाइयो बाबा, मुझे बचाइयो" वो हाथ जोड़े बोलता रहा,
"ये कौन है किलेदार? ये भी वही है क्या तुम्हारे पास?" मैंने पूछा,
"किलेदार भाग गया, हड़िया ने मार गिराया बाबा" उसने बताया,
"तुम यहाँ कितने हो? सच सच बताना?" मैंने कहा,
"बाबा १६ हैं, नए आने वाले हैं आज, तब २३ हो जायेंगे, मुझे न मारियो बाबा, मै बेकसूर डालचंद, ज़बरन लाये मुझे अपने साथ बाबा" उसने कहा,
"तुझे फांसी हुई?" मैंने पूछा,
"हाँ, तडके हुई फांसी, मै डालचंद" उसने बताया,
"कितनी उम्र है तेरी डालचंद?" मैंने पूछा,
"१८ का हूँ बाबा मै" उसने बताया,
बेचारे १८ के इस जवान को फांसी दे दी गयी होगी किलेदार के कहने पर
"अच्छा डालचंद, इतने सारे तुम लोग इसे क्यूँ मार रहे हो? क्या किया इसने?" मैंने पूछा,
"राणा गुमटी वाला, आया था, खाना लाया था, ये खाना खा रहे थे, इस लड़के ने पेसाब कर दिया, राणा गुस्सा हो गया, मै गुमटी पर खड़ा था, राणा ने हुक्म दिया इसको सजा देने का, सारे आ गए यहाँ, मुझे न मारियो बाबा" वो ये कह के रो पड़ा!
उसका कहना था, की वो वहाँ की एक गुमटी पर खड़ा था, उसको राणा ने कहा इसको सजा देने के लिए!
"ये राणा कहाँ है, तुम्हारे साथ ही है क्या?" मैंने पूछा,
"ना बाबा, वो गुमटी पर तैनात है" उसने कहा,
"और आज नया कौन आ रहा है?" मैंने पूछा,
"नए सैनिक आ रहे हैं बाबा" उसने बताया,
अब उसने सर झुकाया और फिर घुटनों पर बैठ गया, यानि की अब कोई और आ गया था!
"डालचंद?" मैंने कहा,
"साल गद्दार कहीं का डालचंद" वो बोला,
"तू कौन है?" मैंने पूछा,
"गाजी बाड़मेरिया" उसने कहा,
"तुझे भी फांसी दी गयी?" मैंने कहा,
"नहीं, हलाक़ किया गया मुझे" उसने बताया,
"गाजी तू सरदार है इनका?" मैंने पूछा,
"सरदार राणा है हम नौकर" उसने कहा,
"और राणा कहाँ है अब?" मैंने पूछा,
"गुमटी पर तैनात है" उसने कहा,
"तुझे उसने भेजा?" मैंने पूछा,
"हाँ, गद्दार का मुंह बंद करने आया मै" उसने कहा,
मै अब समझ गया था, ये हलाक़ या फांसी दिए गए सैनिक हैं, जिनको राणा नाम के एक सरदार ने कैद किया हुआ है, मनमर्जी करवा रहा है इनसे! लेकिन राणा अभी तक नहीं आया था! मैंने फिर पूछा, "गाजी?"
"बोल?" उसने कहा,
"राणा कब आएगा?" मैंने कहा,
"वो इसको लेने आएगा" उसने कहा,
उसका मतलब था, इसकी, यानि रचित की आत्मा को लेने आएगा!
"गाजी? मेरी बात सुन, तुम उस राणा के चक्कर में सारे मारे जाओगे, ये राणा कहाँ है, मुझे बता ज़रा, कौन सी गुमटी पर तैनात है?"
"पुलिया वाली गुमटी" उसने कहा,
"वहाँ तो कई पुलिया होंगी? मै कैसे जानूंगा?" मैंने कहा,
"परचम वाली गुमटी" उसने बताया,
"सुन अपने साथ वालों से पूछ, यहाँ से छूटना चाहते हो क्या?" मैंने कहा,
"रुक जा, लेकिन वो कैसे?" उसने पूछा,
"वो छोड़ तू इनसे पूछ, ज़ल्दी बता" मैंने कहा,
"रुक जा" उसने कहा, और रचित भाव-शून्य बैठ गया, फिर बोला,"राणा मारेगा" उसने कहा,
"राणा नहीं मारेगा, मैंने कहा न?" मै बोला,
"छुड़ा दे भाई, तेरी मर्जी" वो बोला,
"डालचंद को बुला" मैंने कहा,
"हाँ बाबा, मै डालचंद" उसने कहा और हाथ जोड़ के बैठ गया,
"डालचंद, हांसी जाएगा?" मैंने पूछा,
"ले जइयो बाबा, ले जइयो बाबा" उसने कहा,
ये डालचंद इन सब में सबसे कम उम्र का था, डर रहा था बहुत!
"चलो, सारे बाहर निकलो यहाँ से अब, राणा के पास जाओ, बोलो तुमको भगा दिया" मैंने कहा,
"अच्छा, हम जाते हैं, राणा के पास" अब की गाजी बोला,
रचित ने झटके खाए और उसमे से एक एक करके सारे निकल गए! रचित को होश आ गया! अब मैंने अपना जंगाल-प्रेत वहाँ हाज़िर किया! और उसको रचित के पास खड़ा कर दिया, ताकि वहां अब किसी की आमद ज हो!
होश आते ही रचित ने आवाज़ लगाई, "पापा? मम्मी? लीना?"
सभी वहाँ दौड़े आये! सभी रचित के पास आके बैठ गए! लीना का रो रो के बुरा हाल था! मैंने विजय से कहा, "सुनो, इसको अभी कुछ खिलाना-पिलाना नहीं! अभी काम आधा हुआ है, वैसे तो अब इसको कुछ नहीं होगा, लेकिन अब इसको अकेला नहीं छोड़ना, मै अभी कहीं जा रहा हूँ, ३-४ घंटों में वापिस आऊंगा"
"गुरु जी, बड़ा एहसान है आपका" विजय ने कहा और रुलाई फूट पड़ी!
"हिम्मत मत हारो, अब इसको कुछ नहीं होगा,अब मै निकल रहा हूँ!" मैंने कहा,
"शर्मा जी चलिए! किले चलिए, चलिए राणा से मिलते हैं! वो परचम वाली, पुलिया वाली गुमटी पर तैनात है!" मैंने कहा,
"चलिए गुरु जी, राणा से मिल लिया जाए!" उन्होंने मुस्कुरा के कहा,
रास्ते में मैंने एक जगह एक छोटे से ढाबे पर गाडी रुकवा दी, शर्मा जी को चाय के लिए कह दिया, वो चाय बोलने चले गए, फिर मेरे पास आ गए और बोले, "गुरु जी, कमाल है, ये बेचारे २००-३०० सालों से आज तक अभी तक नौकरी कर रहे हैं!"
"शर्मा जी, हज़ारों सैनिक मरे, लाखों मरे होंगे, किस किस का अंतिम संस्कार हुआ होगा? हज़ारों फांसी चढ़े, हत्याएं हुई, बस या तो दफना दिए गए या फिर बहा दिए गए!" मैंने कहा,
"सभी किलों का ऐसा हाल होगा गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ सभी किलों का अक्सर" मैंने जवाब दिया,
इतने में चाय आ गयी, हमने चाय ख़तम की और फिर आगे चल पड़े,
किले पहुंचे, टिकेट लिए और अन्दर गए, किला काफी बड़ा है, सारी गुमटियां एक जैसी हैं! न तो परचम वाली गुमटी दिखी,
और न ही परचम वाली जैसी! अब खबीस को बुलाने के आलावा और कोई तरीका नहीं था! मैंने वही एक जगह खबीस को बुलाया, खबीस आया, और मैंने उससे पूछा, खबीस आगे आगे चला, हम पीछे पीछे! काफी दूर जाके वो रुक गया और वो गुमटी दिखादी! जहां राणा आज भी तैनात है!
हम गुमटी के पास आये! ऊपर के लिए टूटी-फूटी सीढियां थीं, और पास में एक बड़े से अहाते में बनी कोठरियां! मैं वहाँ बीच में आया, लोगों की भीड़-भाड़ थी नहीं! मैंने तब कलुष-मंत्र पढ़ा, और उसका अपने और शर्मा जी के जेत्रों पर प्रयोग किया! हमने अपने नेत्र खोले! और.......
वहाँ पर हमको भाले लिए सैनिक दिखाई दिए! बोरियां खींचते हुए! मैंने गुमटी को देखा! गुमटी पर भीड़ लगी थी! हम वहाँ की तरफ बढे, वहाँ एक लड़का दिखाई दिया, कम उम्र का! वो हाथ जोड़े खड़ा था, यही था वो डालचंद! हम आगे गए! वहाँ एक लम्बे-चौड़े आदमी को कुछ लोग घेरे खड़े हुए थे! हम वहाँ बढे!
"राणा कौन है यहाँ पर?" मैंने कहा,
सारे वहाँ से हट गए, केवल एक रह गया! लम्बी दो-फाड़ दाढ़ी! सर पर टोपी पहने! कमर में तलवार खोसे! दोनों बगल के नीचे खंजर म्यान सहित लगाए हुए! नीचे लाल रंग की बड़ी बड़ी चोंचदार, घुमेर-जूतियाँ पहने!
उसने हमको देखते ही तलवार म्यान में से खींच ली और बोला, "बस बस! आगे न बढ़ना, काट के नीचे फेंक दूंगा!"
"तो तू ही है वो राणा!" मैंने कहा,
"हाँ मै ही हूँ राणा वीर सिंह!" उसने अपनी छाती ठोंक कर कहा!
"अच्छा राणा वीर सिंह! नमस्कार!" मैंने कहा,
मेरा नमस्कार सुन कर वो थोडा नरम हुआ, उसने अपने आसपास खड़े लोगों को देखा, फिर मुझे और बोला, "नमस्कार!"
उसने अपनी तलवार वापिस म्यान में डाल ली! मै आगे बढ़ा!
"राणा साहब! काहे को उस लड़के को सजा दे रहे हो आप, माफ़ कर दो, माफ़ कर दीजिये बच्चा समझ के!" मैंने कहा,
"कौन बच्चा?" उसने कहा,
"वही जिसने वहाँ कोठरी में पेशाब किया था?" मैंने बताया,
"नहीं, उसे माफ़ नहीं करूँ मै, खाना बिगाड़ दिया मेरा" उसने कहा,
"उसने जान बूझकर नहीं किया राणा साहब!" मैंने कहा,
"नहीं, तुम क्यूँ सिफारिश करो उसकी?" उसने कहा,
"मै तो विनती कर रहा हूँ आपसे राणा साहब!" मैंने कहा,
"और मेरा खाना? मेरे आदमियों का खाना? खराब किया न उसने?" उसने कहा,
"कर दिया बेचारे ने, मालूम न पड़ी होगी उसे, मालूम पड़ती तो न करता!" मैंने कहा,
"नहीं माफ़ न करूं उसे" उसले गर्दन हिला के ना कहा!
"खाना मै खिला दूंगा राणा साहब, आपको और आपके आदमियों को! मैंने कौल दिया आपको!"
उसने हैरत से सभी को देखा जैसे सभी की राय ले रहा हो!
"आप बोलिए राणा साहब! जो खाना चाहो, मै खिलाऊंगा आपको!" मैंने कहा,
"तुम दोनों आदमी बढ़िया दीखते हो, आओ मेरे साथ!" उसने कहा और हमको अपने पीछे आने को कहा! हम उसके पीछे हो गए, वो नीचे उतरा और एक बड़ी सी कोठरी में चला गया, हम भी चले गए!
वहाँ कमसे कम ४० आदमी लेटे पड़े थे! "ये हैं मेरे आदमी, लेटे पड़े हैं, उठते नहीं, इनको उठाओ!" उसने कहा,
"ये नहीं उठेंगे राणा साहब, ये छूट गए हैं, चले गए" मैंने कहा,
उसको एक धक्का पहुंचा! वो नीचे बैठा जैसे की बहुत दुखी हो, मैंने कहा, "राणा साहब, ये कौन है?"
"वो उठा, दोनों हाथ एक दूसरे में फंसाए और बोला, "जब जंग हुई यहाँ, तो हम खूब लड़े, ८२ बचे, कुछ कूद गए, कुछ भाग गए, मैंने अपना परिवार यहाँ से भगा दिया, नीचे एक खास जगह, उस गुमटी से वो जगह दिखती है, मेरा परिवार वहाँ है आज तक, मै यहाँ दुश्मनों का रास्ता रोके खड़ा हूँ हम ४२ हैं यहाँ, दुश्मन कभी भी आ सकता है, हम डटे हुए हैं, मरेंगे या मारेंगे, हटेंगे नहीं, उस दिन हम यहाँ १७ आदमी थे तैनात, हरकारा खाना लाया था, ३ दिनों से खाना नहीं खाया था, हम खाना खाने बैठे, उसने ने पेशाब कर दिया, मुझे गुस्सा आ गया, मै छोड़ दूंगा उसको, लेकिन मेरा एक काम करना पड़ेगा, तुमको मेरे परिवार को भी खाना खिलाना होगा, भूखे हैं वो भी" उसने कहा,
ये सुन कर मेरे हृदय में एक हुक सी उठ गयी, मन किया की इसको सारी सच्चाई बता दूँ!
"आओ मेरे साथ, लेकिन किसी को बताना नहीं, मैंने यकीन किया तुम पर" उसने कहा और फिर से गुमटी पर चढ़ गया हम भी चढ़े, उसने दूर एक जगह दिखाई, झाड-झंकाड़ वाली जगह, एक दम बियाबान में, नीचे की तरफ!
"वहां एक गोल कोठरी है, वहाँ है मेरा परिवार चुपके से दे आना खाना" उसने कहा,
"ठीक है राणा साहब मै दे आऊंगा" मैंने कहा,
"हाँ भला होगा तुम्हारा, हमको भी खिलाना खाना भूखे हैं बहुत" उसने कहा,
"कितने आदमी हो आप सभी राणा साहब?" मैंने पूछा,
"२३ हैं मुझे मिला के" उसने कहा,
"तो आप चलिए मेरे साथ सभी, सभी को खाना खिलाता हूँ" मैंने कहा,
"मैं ये गुमटी नहीं छोड़ सकता, दुश्मन आ सकता है" उसने बाहर देख के कहा,
"अच्छा, मै आपके लिए यहीं ला दूंगा, बाकी को भेज दो मेरे साथ" मैंने कहा,
"जाओ भाई खाना खा के आओ सभी, फिर तैनात हो जाओ" राणा ने कहा और एक पाँव किले की मुंडेर पर और एक पत्थर पर रख लिया,
"क्या लाऊं आपके लिए राणा साहब, मेरा मतलब दारु चलेगी?" मैंने कहा,
"हाँ हाँ क्यूँ नहीं, तुम बहुत अच्छे आदमी हो, कहाँ के हो? उसने पूछा,
"जी राणा साहब मै दिल्ली से हूँ, और ये भी" मैंने शर्मा जी की तरफ इशारा करके कहा,
"अच्छा, वहाँ तो फडनवीस का आदमी तैनात है, पहले सांगानेर में था!" उसने कहा,
"हाँ हाँ! सही कहा आपने राणा साहब, अच्छा मै अब चलता हूँ! मै आपका खाना भी ले आऊंगा!" मैंने कहा,
हम वहाँ से निकले, मै दूसरे सभी को कहा की वो वहाँ पहुंचे, जहां राणा ने भेजा था, किसी से कुछ ना कहें, चुपचाप खड़े रहें! उन्होंने इत्मीनान से सुना!
हम दोनों बाहर आये, मैंने शर्मा जी को कहा, "शर्मा जी, अभी विजय को फ़ोन कीजिये, २५ आदमियों की मिठाई, पूरी, सब्जी, और कचौड़ियाँ मंगवा लें! देर ना करें, हम अभी एक घंटे तक आ रहे हैं! शर्मा जी ने फोन किया और जैसा मैंने कहा था वैसा कह दिया,
हम विजय के घर पहुंचे, वो सारा सामान मंगवा चुके थे, हमको वापसी में डेढ़ घंटा लगा था, रास्ते में से राणा साहब के लिए एक बोतल ले ली थी!
मै घर पहुंचा, तो मैंने एक बड़े कमरे में दरिया बिछवा दीं खाना दोने और पत्तल में लगवा दिया गया! और विजय को बाहर जाने को कहा! विजय बाहर गए, मैंने दरवाज़ा बंद किया, कमरा कीला और सभी को बुला लिया! ये १८ आदमी थे, उनको छक के खिलाया गया! खुश हो गए सारे के सारे!
मैंने सभी को वहाँ से जाने को कहा, लेकिन अपना अपना नाम बता कर! उनमे से ४ मुस्लिम थे, ३ मराठा, ४ कोंकण की तरफ से, ४ हांसी, आज हरियाणा में है ये, तब हरियाणा नहीं था, ३ मेवात से थे!
अब राणा साहब के लिए खाना ले जाना था, उनके परिवार के लिए भी! मैंने शर्मा जी को साथ लिया और वापिस किले की तरफ गए! वहाँ पहुंचे! राणा साहब मिल गए! वहाँ वो हमको वापिस देख कर खुश हुए।
