वर्ष २००७ की एक घटन...
 
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वर्ष २००७ की एक घटना वल्लभगढ हरियाणा

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श्रीशः उपदंडक
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मित्रो ये घटना एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो कि एक समृद्ध परिवार से सम्बन्ध रखता था, उसका नाम था उदित, आयु होगी 30-३७ वर्ष, शादी-शुदा, एक बेटी है उसके, स्वयं भी सरकारी नौकरी में था, और उसकी पत्नी भी, वो बेहद अविश्वाशी व्यक्ति था! चुनौतियाँ उसको पसंद थीं, गूढ़ विद्यायों का अध्ययन किया करता था, परन्तु आलोचक के रूप में, वो मेरे संपर्क में वाराणसी से आया था, अपने पिता कि मृत्योपरांत वो वाराणसी आया हुआ था, एकरात मै अपने दो साथियों के साथ शमशान में पूजा हेतु गया हुआ था, ये एक छोटी सी पूजा थी, कुछ मंत्र पुनर्जीवित करने थे, मध्य रात्रि कोई २ बजे का समय होगा, एक चिता कि लकड़ी से अग्नि प्रज्वलित कि गयी थी, पूजा के मध्य वो लड़का उदित वहाँ आया और हमको वहाँ बैठ के देखने लग गया, वो न जाने कहाँ से शमशान के इस भाग में प्रवेश कर गया था! मैंने अपने एक साथी से उसको वहाँ से जाने को कहा, वो लड़का नहीं गया, हैरत थी, उस पैर तो एक जूनून सा सवार था, अगर मै उठता तो पूजा खंडित हो जाने का डर था, आखिर मेरा दूसरा साथी वहाँ गया, वो तब भी नहीं माना! अब मुझे उठना ही पड़ा! पूजा खंडित हो ही चुकी थी! मैंने उसको देखा, अच्छे-खासे परिवार से था वो! हाथ में सोने का कड़ा और गले में सोने कि एकचैन थी, मैंने उससे पूछा,

"कौन हो तुम? इतनी रात को यहाँ क्या कर रहे हो?

"जी मेरा नाम उदित है, मै यहाँ अघोरियों कि पूजा देखने आया था, मुझे बहुत शौक है इस बारे में" उसने बताया,

"कहाँ के रहने वाले हो तुम? मैंने पूछा,

"जी दिल्ली का, मै दिल्ली में रहता हूँ" वो बोला,

"वाराणसी घूमने के प्रयोजन से आये हो या किसी और प्रयोजन से?" मैंने पूछा,

"जी मै पिताजी के देहांत पश्चात यहाँ आया हूँ, आज पूजा समाप्त हुई है" उसने जवाब दिया,

"उदित तुम जानते हो? तुमने हमारी पूजा खंडित कर दी! मै चाहूँ तो तुमको अभी इसकी सजा दे सकता हूँ" मैंने कहा,

"क्या आप मुझे जान से मार दोगे? उसने डर के बोला,

मुझे उसके भोलेपन से थोडा प्रभावित हुआ, मैंने कहा, "उदित, ऐसे विषयों को ऐसे नहीं जाना करते, कोई और होता तो तुम्हारी पिटाई करवाता और तुम्हारा ये सोना सारा छीन लेता"


   
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श्रीशः उपदंडक
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मै उसको डराना चाहता था, लेकिन वो डरा नहीं, मुझसे बोला, "मेरे मन में अनेकों प्रश्न हैं, जिनका कोई उत्तर नहीं देता, कृपया मुझे उसके उत्तर दें" ये कह के वो मेरे पाँव पे पड़ गया, मैंने उसको उठाया, और बोला कल मुझे दिन में यहीं मिलना, कोई नहीं रोकेगा, मै जहाँ तक होगा वहाँ तक आपके प्रश्नों का उत्तरदूंगा,

उसने खुश होके दोबारा मेरे पाँव पड़े और उसने कल दोपहर १ बजे आना तय कर लिया.

अगले दिन वो दोपहर १ बजे आ गया, मैंने उससे उसके परिवार के बारे में पूछा, उसने बेहिचक सब बता दिया, मैंने उससे पूछा, "उदित? क्या जानना चाहते हो तुम? क्या प्रश्न हैं तुम्हारे?"

उसने प्रश्नों कि झड़ी लगा दी! मैंने कहा, "उदित एक एक करके पूछो!"

उसने पूछा, "गुरु जी? (उसने पहली बार मुझे गुरु जी संबोधित किया था) क्या भूत-प्रेत होते हैं?"

मैंने उसको उसका उत्तर देने से पहले पूछा, "एक बात बताओ उदित? जो मै कहूँगा, तुम उसका विश्वाश करोगे?"

उसने कहा," हाँ गुरु जी, मै करूँगा"

मैंने उत्तर दिया, "हाँ होते हैं"

"क्या मै उनको देख सकता हूँ? उसजे पूछा,

"बिना मेडिकल की डिग्री लिए बिना क्या आप किसी का इलाज कर सकते हो उदित? मैंने पूछा,

"जी नहीं" उसने उत्तर दिया,

"तो आपके पास वो डिग्री नहीं है, इसीलिए नहीं देख सकते आप" मैंने कहा,

"वो डिग्री लेने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा? वो बोला,

"त्याग! त्याग, जीवन के सभि सुखों का त्याग, भोजन का त्याग! इन्द्रिय-सुखों का त्याग कर सकोगे? मैंने कहा,

"मै कर सकता हूँ, गुरु जी मै कर सकता हूँ वो बोला,

"और आपकी पत्नी जो आपके ऊपर ही आपके घर में अपना जीवन निर्वाह करने आई है? और वो पुत्री जिसको एक बाप का प्रेम, स्नेह चाहिए? उसका क्या होगा? मैंने कहा,

"वो मेरे घर में सुरक्षित हैं, उनको कोई कमी नहीं होगी कभी" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अर्थात तुम ये सब सीखने के लिए अपनी ज़िम्मेवारियों से भागना चाहते हो!" मै बोला,

"नहीं गुरु जी, मै उनका भी निर्वाह करूंगा!" वो बोला.

"कैसे? मैंने पूछा,

"वो मै कर लूँगा! आप मेरा यकीन कीजिये" उसने कहा,

"नहीं उदित नहीं, ये कार्य दुष्कर है, एक बार घुसोगे तो आप कभी दुबारा नहीं वापिस आ सकते यहाँ से मैंने बताया,

"आप बताइये तो? वो बोला,

"नहीं मै नहीं बता सकता, दूसरा प्रश्न पूछो" मैंने कहा,

"आपने मेरे पहले प्रश्न का ही उत्तर नहीं दिया?" वो मायूस हुआ,

"ठीक है, तुम एक काम करो, तुम देखना चाहते हो न की भूत-प्रेत होते हैं या नहीं? मैंने कहा,

"डरोगे तो नहीं?" मैंने दुबारा पूछा,

"बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं" वो बोला,

तब मैंने अपने एक साथी को बुलाया, उसको आसन लगाने को कहा, उसने आसन लगाया, मैंने उसके आस-पास पानी डाला, और मंत्र पढने लगा!

मेरा वो साथी, जिसका की नाम वासुदेव है, एकदम शांत हो गया, लेटा और लेट के बैठ गया, आलती-पलती मार के, मैंने उस से पूछा, "बताओ तुम्हारा नाम क्या है?

"नारायण दास गुप्ता" इतना सुनते ही उदित की घिग्घी बंध गयी, वो मेरे से एक छोटे बच्चे की तरह चिपक गया,

मैंने फिर पूछा, "ये जो लड़का है मेरे साथ ये कौन है?"

"मेरा बड़ा बेटा उदित गुप्ता" उसने जवाब दिया,

"अपनी पत्नी का नाम बताओ" मैंने कहा,

"परमेश्वरी देवी" वो बोला,

"मृत्यु कैसे हुई तुम्हारी? मैंने पूछा,

"हृदयाघात से"

"घर का पता बताओ" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने घर का पता बता दिया,

"अभी तुम कहाँ हो?" मैंने पूछा,

"झुग्गियों में हूँ, मेरे पास जूतियाँ नहीं हैं, इसीलिए" वो बोला,

"किसकी झुग्गियों में हो? मैंने कहा,

"चामड देवी के सेवक मसान के यहाँ" वो बोला

"ठीक है, अब जाओ तुम" कुछ कहना है क्या उदित से?" मैंने कहा,

"हाँ, उदित बेटे रश्मि का ब्याह कर देना सकुशल" ये कह के वो वापिस चले गए!

"क्या हुआ उदित? मैंने उसको पकड़ा और अपने सामने लाया,

उसको काटो तो खून नहीं! "मुझे लगता है की आपको सारी जानकारियाँ मिल गयी होंगी अब!" मैंने हंस के कहा!

उदित अभी भी मेरे साथी को देख रहा था, जबकि वो वहाँ से उठ चुका था! "क्या हुआ? मैंने पूछा,

"ये क्या है गुरुजी?????????????????? वो रो पड़ा, मेरे पिताजी आये थे यहाँ???????????? मैंने उनकी आवाज़ सुनी.........ये क्या है??????????" वो घबरा के बोला,

मैंने मामला भाँप के फ़ौरन तेजस्वी-मंत्र उदित के पीठ पर ठोक दिया! अब वो संयत हो गया था! वो मेरे पास २ घंटे बैठा रहा, और फिर मैंने उसको बाहर तक छुडवा दिया!

अगले दिन उदित अपनी माता जी को मेरे स्थान पर ले आया, मुझे ये अनुचित लगा वो आया और आते ही मेरे पाँव पड़ लिए, उसने अपनी माता जी से मुझे मिलवाया, वो रोते हुए बोली, "गुरु जी मुझे उदित ने सब बता दिया कृपया करके मेरी भी एक बार बात करवा दो"

मैंने कहा, "नहीं माता जी, आज नहीं करवा सकता, और अब नहीं करवा सकता, ये नियम के विरुद्ध है"

"एक बार महात्मा जी, गुरु जी केवल एक बार वो गिड़गिड़ा के बोली, आँखों में आंसू थे, मैंने कहा, "ठीक है, आप अन्दर आइये और उदित को यहीं रहने दो" वो एकदम से आगे बढ़ीं और मै उनको एक कमरे में ले गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने फिर से अपने एक साथी को बुलाया, "वासुदेव, इधर आ, आसन लगा" वासुदेव आया और आसन लगा लिया, मैंने मंत्र पढ़े, पानी डाला, वासुदेव गिरा, लेटा और फिर आलती-पालती मारके बैठ गया,

मैंने कहा, "माता जी बिना हाथ लगाए आप बात करें"

उन्होंने कहा, " आप कहाँ हो? और रो पड़ीं"

मैंने उनको मना किया की रोयें नहीं,

"तू क्यूँ आ गयी यहाँ रश्मि को छोड़ के? वो बोला,

"उसका मामा है उसके साथ" वो बोली,

"आप कैसे हो जी?" उन्होंने पूछा,

"मै ठीक हूँ, कल तेरा लड़का भी आया था यहाँ, मेरी बात हुई थी, मै तो चला गया, अब घर की देखभाल कर, रश्मि के हाथ पीले कर दीजो" वो बोला,

इतना कह के मैंने वासुदेव पर पानी मारा, वो गिरा और उठ के बाहर चला गया,

"महाराज, आप यहीं रहते हो? उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने उत्तर दिया,

"फिर" वो बोली,

"दिल्ली में" मै कहा,

"हम भी वहाँ रहते हैं महाराज, थोड़ी दया करो हम पर" वो बोली,

"आखिर जोर ज़बरदस्ती करके उदित ने मेरा पता ले ही लिया! मुझे अगले दिन दिल्ली जाना था, और उदित को आज ही, सो वो दुबारा मिलने की कह के चला गया अपनी माँ के साथ

मैंने उसी रात अपने काम निबटाये और अगले दिन की तैयारी कर ली वहां से निकलने की....

मै फिर दिल्ली आ गया, यहाँ शर्मा जी आये हुए थे, मेरी मुलाकात हुई, करीब २ दिनों के बाद उदित मेरे पास आया.

कोई २ दिनों के बाद उदित अपजे एक रिश्तेदार के साथ मेरे पास आया, मैंने शर्मा जी को उदित के बारे में सब बात बता दी थी, उदित आया था मुझसे मिलने, मैंने उसको अन्दर बुलाया और उसके आने का कारण पूछा, उसने बताया की वो मुझसे कुछ जिज्ञासा शांत करने आया है, मैंने उसको कहा की मेरे पास अब समय नहीं है उससे


   
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श्रीशः उपदंडक
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वार्तालाप करने का, कभी किसी दूसरे रोज़ आके मुझे मिले और हाँ, आने से पहले मुझे इत्तला अवश्य करे, वो वहाँ से चला गया, मैंने महसूस किया की उसको मुझसे ऐसी आशा नहीं थी, जैसे की मै उससे पेश आया था, मुझे उदित की हालत ज़रा अजीब सी लगती थी, एक ऐसा इंसान जो दो डगर के सामने खड़ा हो और उसको ये मालूम न हो की वो जाए किस पर!

समय बीता ३ महीने हो गए, एक रोज़ उदित फिर मेरे पास आया, अबके भी उसने मुझे इत्तला नहीं दी थी, मुझे गुस्सा तो आया लेकिन मैंने ज़ाहिर नहीं किया, मैंने उससे पूछा, "कैसे हो उदित?"

"गुरु जी, मुझे सभी से विरक्ति हो गयी है, घर, परिवार सभी से" उसने कहा,

"ऐसा क्यूँ?" मैंने हैरत से पूछा,

"पता नहीं गुरु जी, मुझे अब अपना जीवन बेकार लगने लगा है, कुछ ऐसा की जैसे मै इस संसार में किसी और दुनिया से आया हूँ, न ही किसी को जानता हूँ और न पहचानता हूँ" उसने कहा,

"ये विरक्ति के लक्षण तो हैं उदित, परन्तु तुम अपना विवेक समाप्त करते जा रहे हो, और एक दिन मानसिक रूप से अशक्त और विकलांग हो जाओगे" मैंने कहा,

तब मैंने शर्मा जी से कहा कि वो इस पर विषय पर उदित से बात करें, शर्मा जी जे उदित को उठाया वहाँ से तो वो अनमने मन से उठा, शर्मा जी उसको थोड़ी दूर ले गए, एक जगह बैठे और उदित से बातें करनी शुरू कर दिन, तकरीबन एक घंटे बाद आये और बोले, "गुरु जी ये तो बेहद जुनूनी किस्म का आदमी है, कितना ही समझाओ, इसकी समझ में नहीं आता, अब नहीं बुलाना इसको यहाँ, मुझे गुस्सा आ रहा था इस पर, मन तो किया एक झापड़ मारके इसकी सारी विरक्ति निकाल दूँ"

"अब क्या कह के भगाया उसको? मैंने पूछा,

"मैंने कहा कि भाई तेरा यहाँ कोई काम नहीं है, हम कोई आबा-बाबा नहीं हैं यार? जा अपनी जिज्ञासा कहीं और जाके शांत कर!" वो हँसने लगे!

"सही किया, बहुत सही किया आपने!

इसके बाद मेरी और शर्मा जी के किसी दूसरे काम में बातचीत शुरू हो गयी, उदित की बात-चीत आई-गयी हो गयी,

और समय बीता कोई ४ महीने हो गए, मै और शर्मा जी उन दिनों कलकत्ता में थे, वहाँ एक जोगन काकी से मुलाकात होनी थी, ये जोगन हमारे लिए अनेक तंत्र-मंत्र के सामान लाया करती थी...


   
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श्रीशः उपदंडक
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अगले दिन हमारी मुलाकात काकी जोगन से हुई, उससे सामान खरीदा और फिर कलकत्ता के एक गुप्त-स्थान में आ गए, 3 दिनों तक यहीं रहे, तदोपरांत वापसी दिल्ली की राह पकड़ी, अगली रात तक हम दिल्ली आ गए,

अशी ३ ही दिन हुए थे कि उदित वहाँ आया, मैंने उसको वहाँ बुलाया और आने का कारण पूछा, अब तो मुझे भी उदित से खीझ होने लगी थी, मैंने उससे साफ़-साफ़ कहा, "उदित, ये मेरी और तुम्हारी आखिरी मुलाकात है तुमको जो कहना है वो कहो"

"गुरु जी मुझे अपना शिष्य बना लीजिये आप जो कहोगे मै करूँगा, मै आपके लिए दान-राशि लाया हूँ" ये कहके उसने एक बैग मेरे सामने रख दिया, मै जानता था कि उस्समे धज-राशि है, मैंने कहा, "उदित हम लोग सिर्फ शमशान हेतु ही दान लेते हैं, व्यक्तिगत नहीं, ये बैग उठा लो तुम और सुनो आज के बाद यहाँ नहीं आना तुम अगर आये तो ऐसी सजा दूंगा कि इस तरफ आने के विचार से ही चक्कर आ जायेंगे, दिखाई देना बंद हो जाएगा"

वो नहीं माना, मेरे पाँव पर गिर के क्षमा मांगने लगा, फूट-फूट के रोने लगा, मुझे उसकी आत्मा पे तरस आ गया! मैंने उसे उठाया और कहा, सुनो मै आने वाली अमावस को बल्लभगढ़ में यमुना किनारे एक क्रिया करने वाला हूँ, तुम शाम को हमे बल्लभगढ़ मिलो, वहाँ पहुँच के हमको फोन कर लेना, वो उठा, बैग उसने शर्मा जी को दिया, बोला, "गुरु जी इसको रख लो  "नहीं उदित ये हमारे लिए विष्ठा सामान है, हम नहीं ले सकते" ये कह कर मैंने वो बैग शर्मा जी से लेके उदित को वापिस दे दिया, उदित उठा और आगामी अमावस रात्रि को आने का कहा और फिर मैंने उसको भेज दिया!

"शर्मा जी, या तो अब ये सुधर जाएगा या फिर ये सुधारना पड़ेगा, ये ऐसी स्थिति में है कि अगर मै इसको कहूँ कि तू यहाँ कूद जा तो कूद जाएगा"

शर्मा जी बोले, "हाँ गुरुजी, इसको हटाओ अब, ये पागल हो गया है कोई कसर बाकी नहीं है!"

"हाँ शर्मा जी, ऐसा ही काम होना चाहिए" मैंने कहा,

अमावस आने में ४ दिन बाकी थे, मुझे किसी के लिए एक क्रिया करनी थी यमुना किनारे, वो लोग दिन में ४ बजे आ गए अमावस वाली रोज़ और हम अमावस को वहाँ पहुँच गए, उदित का फोन आया की वो रात्रि ८बजे तक फलाना जगह पहुँच जाएगा, मैंने आगे का मामला शर्मा जी के सुपुर्द कर दिया और क्रिया स्थान हेतु हम लोग चलने को तैयार हो गए! उदित आया, शर्मा जी जे उसको क्रिया स्थान से दूर रोक दिया, वो ऐसा तड़प रहा था जैसे कि जल बिन मछली! शर्मा जी ने उसको समझा-बुझा के शांत किया! मैंने करीब १२ बजे क्रिया समाप्त कि और उन लोगों को वहाँ से हटा दिया, मैंने शर्मा जी को बुलाया


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उदित को भी, मैंने शर्मा जी और उदित को मिट्टी में अपने तंत्र-त्रिशूल से मंत्र-खचित वृत्त में ही सीमित रहने को कहा, उदित आँखें फाड़ के ये सब-कुछ देख रहा था..

मैंने उदित को सख्ती से कहा, कि चाहे कुछ भी हो जाए, तुझे इस वृत्त में से बाहर नहीं निकलना, उसने सहमति जताई, मैंने क्रिया आरम्भ की.........

सामने नदी में से एक बूढा, अपनी पत्नी को लेके बाहर आया, बाहर आते ही उसकी पत्नी ने कहा की उसको भूख लगी है, खाना खिलाओ, उसके पेट में जुड़वां संतान हैं, बूढ़े ने ज़मीन खोद के एक छोटी भट्टी बनायी, और इधर-उधर से लकड़ियाँ ले आया, आग जलाई, लेकिन औरत बोली आग कम है, और ईधन लाओ, बूढा गया और ईधन लाता रहा, वो फिर बोली, और ईधन लाओ, बूढ़े ने कहा, की ईधन ख़तम है, अब क्या करु? तब बूढ़े ने उस औरत को उठाया और उसके पेट में लात मारी, मांस के लोथड़े बाहर गिरे! उसने उठा के वो लोथड़े ईधन में डाल दिए, औरत बोली ईधन कम है और चाहिए, तब बूढ़े ने चारों तरफ देखा और उदित की तरफ इशारा किया! और बोला, "बेकार में सारी मेहनत की, वो जो बैठा है उसको ही खा लेते!" और ये कह के उसने अपने टोकरे में से एक कुल्हाड़ा लिया और उदित का नाम लेते हुए बोला "आज तो तुझे ही खायेंगे हम!"

उदित घबराया, उठा और वृत्त में से बाहर निकल गया! और भागता चला गया! और एक जगह जाके गिर पड़ा! माया समाप्त हो गयी थी उसके वृत्त को लांघते ही!

शर्मा जी ने उसको उठाया, वो बेहोश था, १५-२० मिनट में होश आया, उसने क्षमा मांगी, शर्मा जी ने एक कस कर झापड़ दिया, उसका होंठ फट गया, उसने फिर क्षमा मांगी, शर्मा जी बोले," माँ******** तेरी वजह से हम भी मरने वाले थे, आज के बाद नज़र आ गया मुझे तो तेरे घर भेज दूंगा वो बुड्ढा"

उदित डर गया था, होश ठिकाने लग गए थे! हम उसको लेके उसके घर आये और घर के माने छोड़ दिया, वो अन्दर गली में चला गया,

७ दिनों के बाद मुझे खबर लगी की सदमे की वजह से उसको अस्पताल में भर्ती किया गया, लम्बे इलाज के बाद घर में उसकी मौत हो गयी, मैंने बाद में उसकी आत्मा प्रकट की और उसको सदा के लिए मुक्त कर दिया!

एक अविश्वाशी उदित.. मुझे आज भी याद है.

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------

 


   
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