ये कहानी अति-विशिष्ट है मित्रो! मै इस कहाँ को जाम लूंगा 'नरसिंहगढ़ की वो प्रचंड साधिका जिससे में वर्ष २००६ और वर्ष २००९ में अंतिम बार मिला था! इस साधिका का नाम सुनंदा था! आयु उस समय रही होगी कोई ४०-४२ वर्ष!
मुझे उस समय एक समाचार मिला, समाचार ये था कि जिला ग्वालियर में एक दूर दराज गाँव में एक खेत में ट्रेक्टर चलाते समय कुछ जंजीरें मिली थीं! जब उन जंजीरों को और खोदा गया तो वो काफी आगे तक चली गयीं थीं खेत के मालिक ने सोचा कि वहाँ कोई अथाह खजाना दबा है! उसने चुपके चुपके वो काम शुरू किया किसी तांत्रिक से मिल कर लेकिन तांत्रिक सफल न हो सका और वो वहाँ से भाग गया! २-३ वर्षों की मेहनत के बाद कुछ नहीं मिला और मालिक का काफी पैसा तबाह हो गया! लेकिन उसने हिम्मत न हारी और दूर दराज से तांत्रिक-मान्त्रिक बुलाता गया! लेकिन कोई हल न मिल सका!
आखिर एक दिन ये समाचार नरसिंहगढ़ में रहने वाले बाबा ग्यास को मिला! बाबा ग्यास जाना-माना इल्म करने वाला था! आयु भी होगी कोई ७० वर्ष! वो एक बार वहाँ गया और जाते ही उसने अगले दिन खेत में खड़े हो कर ये बता दिया कि वहाँ अकूत खजाना दबा है! हाँ है करीब ४० फीट नीचे! मशीन मंगवाई गयी! और जैसे ही मशीन चैन कट कर अन्दर कोई १० फीट तक पहुंची किसी रहस्यमय शक्ति ने मशीन को ऊपर करी ५ फीट उठा कर फेंका! वहाँ हडकंप मच गया! सभी भागे लेकिन रह गया बाबा ग्यास!
ग्यास वहीँ खड़ा रहा! कुछ देर अमल किया और फिर एक जगह जा के खड़ा हो गया! उसने ज़मीन पर अपने चाकू से कुछ रेखाएं आड़ी डालीं पूरे खेत में पानी भर गया! ग्यास ने फिर अमल किया तो पानी सूख गया! बाबा ग्यास वहाँ से निकल आया!
ग्यास ने बताया कि वहाँ पर अकूत धन-दौलत दबी है लेकिन वहाँ के पहरेदार बहुत ताक़तवर हैं और उसको उनसे लड़ने के लिए १ महीना चाहिए! अगले महीने कि चाँद-तारीख पर वो ये काम कर देगा!
और अपने वायदे के अनुसार ग्यास वहाँ आया, रात को अपने साथ २ आदमी लाया था, उसने अमल करना शुरू किया! १ घंटे अमल करने के बाद वो खड़ा हुआ! और फिर ज़मीन पर सरसों पढ़कर चारों दिशाओं में फेंकी! और फिर एक जगह अपने साथियों से खोदने को कहा!
उसके आदमियों ने वहाँ खोदना शुरू किया! करीब ४ फीट खोदने के बाद वहाँ से एक बक्सा निकाल लिया!
वे उस बक्से को अन्दर एक जगह ले गए! बक्सा पीतल का बना हुआ, और उसका मुंह संग से चिपका हुआ था! ग्यास ने अमल पढ़ा! और बक्सा खुलवाया! बक्से में से बाल, पुराने कपडे, राख, कालिख निकले, लेकिन खजाने का एक भी अंश नहीं!
ये देख ग्यास को गुस्सा आया और उसने पढ़ी हुई सरसों ले पूरे खेत में बिखेर दी, और वहाँ से चला गया! उसके बाद से वो वहाँ कभी नहीं आया!
समय गुजरा! वहाँ कोई २ महीनों के बाद २ व्यक्ति आये, उन्होंने कहा कि उनको ग्यास ने भेजा है और अब वो ये काम करवाएंगे और काम करेगी एक साधिका! जिसके पास अमोघ-सिद्धि है!
अब अँधा कहा चाहे, दो आँखें!!! मालिक ने हाँ करदी!
वे व्यक्ति वहाँ पर पूर्णिमा के दिन आने को कह गए! पूर्णिमा आने में ११ दिन शेष थे!
और फिर पूर्णिमा का दिन आया! उज्जवल कपड़ों में आभूषित एक साधिका वहाँ आई! हाथ में चांदी का त्रिशूल धारण किये!
उसने वहाँ आते ही पूजन आरम्भ किया और पूरे खेत कि परिक्रमा लगायी! फिर एक जगह आ कर बैठी! कुछ गणित किया और फिर आगामी सप्तमी के दिन वहाँ दुबारा आने को कहा!
समय बीता और सप्तमी आ गयी और वो साधिका भी!
सप्तमी के दिन साधिका उज्जवल श्वेत वस्त्र धारण ज करके चटख लाल धारण किये! साथ में उसके ४ सहयोगी! साधिका खेत के मध्य बैठी और धूनी रमा ली! वहाँ यज्ञादि जैसी संपूर्ण तैयारी की और पूजन में लग गयी! करीब रात्रि एक बने खेत का एक हिस्सा ऐसे हिला! वहाँ भूमि से अग्निपात होने लगा! वहाँ वो साधिका निरंतर अपने पूजन में व्यस्त रही! सुबह के ४ बज गए लेकिन कुछ हासिल न हुआ, जैसा पहले थे ऐसा ही रहा! लेकिन साधिका कुछ समझ चुकी थी! वहाँ कोई ऐसी वैसी शक्ति नहीं २ प्रबल शक्तियां थीं. इनमे से एक स्त्री शक्ति और एक पुरुष शक्ति थी! साधिका डटी रही! उसने अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी तक पूजन किया परन्तु असफल!
साधिका खिन्न मन के साथ उठी! और फिर अमावस के दिन आने को कह गयी! ये कह के कि वहाँ कोई और हाथ न डाले नहीं तो वो उसकी मृत्यु की ज़िम्मेदार नहीं होगी!
तब तक मालिक का छोटा भाई राहुल मेरे पास किसी जानकार के मातहत वहाँ आ चुका था! वो अपने हिस्से के खेत के लिए काम करवाना चाहता था, अक्सर मै ऐसे काम करता नहीं हूँ लेकिन यहाँ एक ऐसी महाशक्ति थी जिसको यदि प्राप्त कर लो तो आपको
और किसी सिद्धि की आवश्यकता नहीं पड़ेगी! अत: उसका साक्षात्कार करने हेतु मै राजी हो गया!
मै तेरहवीं के दिन वहाँ पहुंचा! राहुल के खेत का मुआयना किया, राहुल के बड़े खेत में जाने की अनुमति नहीं थी अत: मै राहुल के खेत में ही रहा!
मेरे साथ शर्मा जी थे, मैंने खेत का नक्शा शर्मा जी से एक कागज़ पर बनाने को कहा! उन्होंने खेत का नक्शा बनाया, मैंने गौर से देखा, जहां जिस खेत में साधिका पूजन करने आई थी वो एक पूर्वी दिशा में पड़ने वाला स्वास्तिक के चिन्ह जैसा स्वरूप था! अर्थात यहाँ जो कुछ भी है वो पूर्ण नियोजित एवं व्यवस्थित है!
अब मुझे अपना कारिन्दा हाज़िर करना पड़ा! कारिंदे ने वहाँ जाना स्वीकार न किया! अब मुझे लगा कि सच में ही वहाँ बहुत प्रबल शक्ति है! मैंने अपना एक खबीस बुलाया! खबीस हाज़िर हुआ! खबीस से मैंने उसको उसके काम के बारे में बताया! खबीस चला वहाँ से! सारे खेत का चक्कर लगाया और वापिस आ गया!
खबीस ने जो बताया उससे तो मेरे भी रोंगटे खड़े हो गए! यहाँ खजाना तो है! लेकिन ये खजाना एक राजकीय दीवान के सुपुर्द था! मै क्षमा चाहूँगा, न तो उस दीवान का, न उस समय के राजा का और न ही उक्त समय आपको बता सकता हूँ, ये दीवान बेहद धर्मभीरु,दयालु और सभी का हितैषी था! उसने जब यहाँ पर ये खजाना गड़वाया उस समय वहाँ, ११ कक्ष बनवाये गए थे, सभी कक्ष एक दूसरे से एक मात्र एक ही दरवाज़े से जुड़े थे, अर्थात एक कमरे से होकर ही दूसरे कमरे माँ जाया जा सकता था! ये कक्ष ज़मीन से ४० फीट नीचे पत्थर की ८ मोटी मोटी पटियायों से ढके थे और हर एक पटिया की मोटाई १० इंच थी! ये सब तो ठीक था, हासिल भी किया जा सकता था, परन्तु उस दीवान ने यहाँ एक स्थान बनवाया था और वहाँ एक सिद्ध पुरुष और एक सिद्ध स्त्री साधिका को रखा था! मंदिर बनवा कर! ये दोनों सिद्धात्मायें उस समय बाबा बालकनाथ के साधक थे! पूर्ण सिद्धता में पारंगत थे! अतः उनसे वैर लेने का अर्थ एक ही था मृत्यु का वरण करना!
साधक का नाम बाबा कौहिर और साधिका का नाम शौम्या था! ये सुनकर मेरी हिम्मत जवाब दे गयी! मैंने हाथ खड़े कर दिया! और मना कर दिया! लेकिन मेरे हृदय में एक जिज्ञासा पाँव मारे जा रही थी! वो साधिका सुनंदा! वो कैसे काम करेगी यहाँ?
तेरहवीं को मैं यहाँ आया था, और अमावस के दिन उस साधिका ने आना था, सोचा उससे मिल के ही चलें!
और फिर ऐसे ही अमावस का दिवस आ गया! दिन में ४ बजे करीब वो साधिका आ गयी!
साधिका से मेरी दृष्टि मिली और उसकी मेरे से! दो मतों के विभिन्न मतान्तर वालों का दृष्टि सम्बंध! साधिका उसके बाद अपने पूजन स्थल में चली गयी! उसके साथ उसके ४ सहायक थे! साधिका ने आज पीत-वस्त्र धारण किया था! हाथ और गले में तुलसी की मालाएं धारण किये! माथे पर चन्दन धारण किये! और ऐसे ही उसके सहायक! साधिका ने आसन लगाया! । पीला आसन! वेदिका सम्मुख रखी! चन्दन, ब्रह्मदंडी इत्यादि की लकडिया इस वेदिका में डाली और फिर उसने गेंहू की एक बोरी पर पवित्र-जल छिड़का! उसके सहायकों ने उस बोरी में से फिर गेंहू निकाल कर साधिका और अपने चारों ओर एक वृत्त बना दिया! करीब १२ फीट का वृत्त! साधिका उसके मध्य में बैठी थी! मैं राहुल के खेत से उसको देख रहा था! वो मेरे से कोई १५-१६ फीट दूर होगी! अब वहाँ उत्पन्न शक्तियों को केवल दो ही व्यक्ति देख सकते थे मै और वो साधिका! मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा! और अपने एवं शर्मा जी के नेत्रों पर उसका अभिमंत्रण किया और आँखें खोल लीं साधिका का पूजन आरम्भ हो गया! 'स्वाहा!' 'स्वाहा!' की ध्वनि से वो स्थान गूंज उठा!
यही कोई २ घंटे बीत चुके थे! अब साधिका खड़ी हुई! उसने अभिमंत्रित गेंह भूमि पर मारे! वहाँ भूमि पर हलचल हुई! भूमि फाड़कर एक घड़ा घूमता हुआ बाहर निकला! चूंकि अभी वो घूम रहा था तो कोई उसको हाथ नहीं लगा सकता था, अत: साधिका ने गेंहू के दाने उस पर मारे! घड़ा स्तंभित हो गया! और भूमि पर गिर गया!
साधिका के एक सहायक ने वो घड़ा उठाया! घड़ा खोल गया! अन्दर से जले हुए चावल और मक्का के दाने निकले! खजाना तो निकला था लेकिन किसी शक्ति के प्रभाव ने उसको नष्ट कर दिया था! साधिका ने घड़े को यथावत रख दिया! और फिर भूमि पर अभिमंत्रित गेंहू के दाने मारे! फिर से भूमि में से एक घड़ा निकला! चांदी का घड़ा! वो भी घूमता हुआ! साधिका ने उसको स्तंभित किया! घड़े का घूर्णन बंद हो गया! साधिका के सहायक ने वो घड़ा खोला! उस घड़े में से चन्दन की जली हुई लकड़ियाँ निकलीं धन फिर नष्ट कर दिया गया था!
साधिका क्रोधित हुई! उसने तुलसी के दाने लिए! अभिमंत्रित किया और भूमि पर मार दिए! भूमि कांपी! अब भूमि में से एक चौकोर बक्सा निकला! साधिका के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव झलके!
ये बक्सा घूम नहीं रहा था, बस भूमि फाड़ कर बाहर आ गया था! साधिका के एक सहायक ने वो बक्सा खोला! और उसमे से अब निकले पत्थर! मिट्टी और पत्थर!
साधिका को भयानक क्रोध आया! उसने उस शक्ति से साक्षात्कार करने हेतु मंत्रोच्चार किया पूरा एक घंटा! लेकिन कुछ न हुआ!
साधिका ने मंत्रोच्चार और तीव्र किया! अब कि बार भूमि में से दो पुरुष आकृतियाँ
बाहर आयीं! वो आकृतियाँ केवल मै, शर्मा जी और वो साधिका ही देख रहे थे! उन आकृतियों में से एक ने कहा, "क्या चाहिए?"
"तुम कौन हो, पहले ये बताओ?" साधिका बोली,
"हम यहाँ के परिचारक हैं, तुम्हे क्या चाहिए?" वो बोला,
"यहाँ का समस्त धन चाहिए मुझे!" साधिका ने कहा,
"वो तुम्हारा नहीं है, चले जाओ यहाँ से अभी इसी क्षण"वो बोला,
"जिसके तुम परिचारक हो वो स्वयं क्यूँ नहीं आता यहाँ? जाओ उसको भेजो अभी इसी क्षण!" साधिका ने कहा,
"वो नहीं आयेंगे यहाँ, अब तुम यहाँ से जाओ, हमे बाधित न करो" वो बोला,
"बाधित? मै तुमको बाँध लूंगी!" साधिका ने कहा!
"जाओ पुत्री जाओ!" वो बोला
लकिन साधिका ने एक कमलगट्टे की माला उठायी, अभिमंत्रित की और धारण कर ली!
परन्तु साधिका रुकी नहीं! उसने अपना मंत्रोच्चारण जारी रखा और जैसे ही अभिमंत्रित जल उन आकृतियों पर फेंका, वेदिका बुझ गयी! आकृतियाँ लोप हो गयीं! वो दो घड़े और बक्सा भी लोप हो गए! साधिका एक पल के लिए भयभीत हो गयी! मेरा मन चाहा कि उसको आने वाले अप्रत्याशित संकट से अवगत करा दूं लेकिन मेरा वहाँ न तो कोई औचित्य ही था न कोई और अन्य कारण! एक प्रकार से मै वहाँ जा सकता था, यदि वो साधिका स्वयं मुझे बुलाये वहाँ
साधिका ने वेदिका पुनः प्रज्वलित की! और मंत्रोच्चार आरम्भ किया! उसके सहायक तत्पर हो गए! उसने संभवतः प्रत्यक्ष मंत्रोच्चार आरम्भ किया था! कोई १० मिनट के बाद वहाँ एक पुरुष प्रकट हुआ! सर पे टोपी पहने हुए!
"तुम कौन हो?" साधिका ने पूछा,
"मैं दीवान हूँ यहाँ का" उसने कहा,
"अच्छा! तो ये धन तुम्हारा है!" वो बोली,
"नहीं! मेरा नहीं मै तो सेवक हूँ, ये धन उनके पुत्र-वंश हेतु संरक्षित है" उसने कहा,
"मुझे नहीं मालूम! यहाँ कौन सरंक्षण कर रहा है?" वो बोली,
"बाबा कौहिर और साध्वी शौम्या के सरंक्षण में है ये स्थान" उसने कहा,
"जाओ! उनको भेजो फिर, मैं सेवकों से बात नहीं करती!" उसने कहा!
मै उसकी इस हिम्मत की दाद देता हूँ! एक बार भी अटकी नहीं! घबराई नहीं! चेहरा ऐसा की जैसे किसी प्रशासिका का होता है! अभिमान से भरपूर!
"वो नहीं आयेंगे यहाँ" उस दीवान ने कहा,
"क्यूँ नहीं आयेंगे यहाँ?" वो बोली,
"वो चिर-निन्द्रालीन हैं" वो बोला,
"तो उठाओ उन्हें?" उसने कहा,
"नहीं, हम में सामर्थ नहीं" उसने कहा,
"ठीक है, मै उठाती हूँ उनको!" उसने कहा,
"नहीं! ऐसा न करना तुम पुत्री" उसने कहा,
"क्यूँ? मेरी शक्ति पर संदेह है?" वो बोली,
"नहीं, कोई संदेह नहीं लेकिन इस धन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं" वो बोला,
"अधिकार तो मेरा ही है, मै ले जा कर ही रहूंगी" वो बोली,
"तो सुनो पुत्री उनको जगाना मृत्यु को आमंत्रित करना होगा" उसने कहा,
"मृत्यु मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती!" उसने दंश से कहा,
"नहीं पुत्री जाओ, जाओ यहाँ से, अनिष्ट को आमंत्रित न करो" वो बोला,
"मै अनिष्ट से भयभीत नहीं हूँ!" उसने कहा,
"अनभिज्ञ हो तुम" वो बोला,
"तुम जाओ यहाँ से और उनको जगाओ!" वो बोली!
"समझाना मेरा कर्तव्य था, मैंने पूर्ण कर दिया आगे तेरी इच्छा पुत्री" उसने कहा और लोप हुआ!
साधिका ने मंत्रोच्चार का क्रम बदला, मंत्र धीमे हुए, अर्थात ये मंत्रोच्चार दीर्घ था!
"शर्मा जी, ये बेचारी अनभिज्ञ है वास्तविकता से!" मैंने शर्मा जी से कहा!
"हाँ गुरु जी! व्यर्थ में प्राणों का दांव लगाया है इसने, इसके सहायक भी जायेंगे इसके साथ साथ!" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ, ये निश्चित है!" मैंने समर्थन किया!
"क्या करें, चलें?" वो बोले,
"नहीं अभी ठहरो, देखते हैं आगे होता क्या है!"
ये क्षेत्र दूर दराज में था! आबादी से कोई ३० किलोमीटर दक्षिण में, वहाँ बस खेत ही खेत थे, या खेतों में पड़े झोंपड़े! खैर,रात्रि गहरा गयी थी! साधिका ने कुछ विशेष सामग्री निकाली और वेदिका में अर्पित की! भाव-भीनी सुगंध उठी! मोहित करने वाली!
साधिका खड़ी हुई! वेदिका के चक्कर लगाए और फिर फूल बिखेर दिए भूमि पर! और फिर अभिमंत्रित गेंह के दाने भूमि पर फेंके! ज़मीन हिली! लेकिन फिर शांत हो गयी! साधिका ने फिर दोहराया! फिर ऐसा हुआ! कई बार!
"ये क्या कर रही है गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"ये अमोध-प्रत्यक्षीकरण है!" मैंने कहा,
"अच्छा! तो ये उनको जगा रही है! "वे बोले,
"हाँ! निंद्रा भंग कर रही है उनकी!" मैंने कहा!
"क्या होगा इसका गुरुजी?" वे बोले,
"या तो ये जीवित ही नहीं रहेगी या फिर शुष्क हो जायेगी!" मैंने कहा,
तभी वहाँ बिजली सी गरजी! कम्पन हुआ! निंद्रा भंग हो गयी थी! मैं और शर्मा जी मुस्तैद खड़े हो गए! अन्य खेत वाले वहाँ से भागे! भूमि में से घूर्णन-ध्वनि आने लगी! यहाँ मैंने भी अपनी एक शक्ति का आह्वान कर लिया! प्राण-रक्षण हेतु! सिद्धात्मायें ये जानती हैं कि उन पर किस किस की दृष्टि जमी हुई है!
भयानक शान्ति हो गयी! पेड़-पौधों ने हिलना बंद कर दिया! समय को जैसे लकवा मार गया हो! मेरे हृदय में भी स्पंदन बढ़ने लगा!
तभी वहाँ ४ आकृतियाँ प्रकट हुई! साधु वेशभूषा में श्वेत वस्त्र-धारी! हाथ में कमंडल लिए! और नेत्रों में क्रोध लिए!
साधिका ने उनको देखा! हतप्रभ रह गयी!
"कौन हो तुम लोग?" उसने चिल्ला के कहा,
वे चारों एक पंक्ति में खड़े रहे लेकिन बोले कुछ नहीं!
"मैंने पूछा कौन हो तुम लोग?" साधिका बोली,
वे अब भी कुछ ज बोले!
"ठीक है मै बुलवाती हूँ तुमसे!" उसने कहा और हाथ में गेंहू के दाने लेकर, अभिमंत्रित करके उन पर फेंक दिए! दाने उछले! और हवा में अग्नि-पुंज बनके वहीं गिर गए! साधिका के होश उड़ गए!
साधिका ने कमल-पुष्प अभिमंत्रित किया और फेंक दिया! वो भूमि पर गिरने से पहले ही लोप हो गया!
साधिका उठ के खड़ी हुई और बोली, "मुझे ये विद्या न दिखाओ, बताओ कौन हो तुम लोग? यहाँ के संरक्षक हो क्या?"
वे कुछ नहीं बोले, यथावत खड़े रहे! साधिका के सहायकों को कुछ नहीं दिख रहा था! अत: उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं!
साध्वी ने भूमि से एक मुट्ठी मिट्टी उठायी और हवा में फेंक दी! ये उसका शक्ति-प्रयोग था! लेकिन बार बार आह्वान करने पर भी उसकी शक्ति प्रकट नहीं हुई! वो अपने आसन पर टिक गयी! अपलक उन चारों को निहारती रही!
"जाओ पुत्री वापिस जाओ!" उनमे से एक ने कहा,
"नहीं, मैं धन के बिना कहीं नहीं जाउंगी!" साधिका अड़ गयी!
"ये धन तुम्हारा नहीं है" वो बोला,
"तो क्या हुआ? मै लेके ही जाउंगी" उसने कहा,
"हमें विवश न करो पुत्री, अनर्थ हो जाएगा!" वो बोला,
"कैसा अनर्थ? मेरे पास यथेष्ट-सिद्धि है!" वो बोली,
"उसका प्रयोग व्यर्थ जाएगा पुत्री! हम कौहिर बाबा के संगी हैं! तुम्हारा भला इसी में है के तुम वापिस चले जाओ!" वो बोला!
"कदापि नहीं ऐ संगियो!" उसने कहा और मंत्रोच्चार आरम्भ किया!
वो साधिका दरअसल मेरे मत की नहीं थी, इसी कारणवश में उसके शक्ति-उत्सर्जन-क्रम को नहीं समझ पा रहा था! हाँ इतना अवश्य था कि ये साधिका प्रबल और सक्षम थी! परन्तु ना जाने किस लालच से धन-मोह के पाश में बंध गयी थी!
वे चारों अडिग खड़े थे! उन पर साधिका का कोई वार नहीं चल रहा था! अंततः साधिका ने अपनी सिद्ध शक्ति का आह्वान किया! शक्ति सिद्ध थी अत: प्रकट हो गयी! शक्ति प्रकट तो हुई परन्तु वे साधू वहाँ डटे रहे!
जो शक्ति इस साधिका ने सिद्ध की थी, वो थी तो अमोघ परन्तु उसका उपयोग ये साधिका अनुचित कर रही थी! साध्वी ने मंत्रोच्चार करते हुए शक्ति को उन चारों से टकराने के किये अनुमोदन किया! शक्ति टस से मस न हुई! जल से जल पर वार नहीं किया जा सकता! ये इस साधिका की अनुभव हीनता का परिचायक थी! कुछ विलम्ब पश्चात वो शक्ति लोप हो गयी!
साधिका को सांप सूंघ गया! अब साधिका को चाहिए था कि वो वापिस हो जाए! परन्तु साधिका ने हार नहीं मानी! और एक नृप-वार उन चारों पर कर दिया! ये एक प्रकार का चाबुक होता है! वो चाबुक उन चारों को पड़ा! परन्तु वो अडिग खड़े रहे! उनमे से एक आगे आया और अपनी वैजयंती-माल से एक दाना तोड़ा और साधिका की तरफ फेंक दिया! साधिका की वेदिका बुझ गयी! सहायक हवा में उठे और कोई १०-१० फीट अलग अलग दिशाओं में गिरे! साधिका अपने आसन से १० फीट पीछे गिरी! लेकिन वो साधिका अब भी न समझी!
साधिका उठी! अपने थैले में से कौंच के बीज निकाले और अभिमंत्रित किया और उन पर फेंके! वो अंगार बन के नीचे गिरे!
"चली जाओ पुत्री! बस बहुत हुआ!" उनमे से एक ने कहा,
"नहीं! मै मर जाउंगी लेकिन भागूंगी नहीं!" उसने कहा!
अब उनमे से सबसे लम्बे साधू ने अपना कमंडल लिया और जल के छींटे उस पर छिड़क दिए! प्रचंड शोर हुआ! साधिका हवा में लटक गयी! उलटी! सर नीचे पाँव ऊपर! असहाय हो गयी वो!
फिर एक साधु ने अभिमन्त्रण किया और एक कंटिका-माल उसकी तरफ फेंका! साधिका सीधी हुई परन्तु उसके गले में कंटिका-माल पड़ गया था! क्षण-प्रतिक्षण ये कंटिका माल उसको ग्रसित कर रहा था! वो नीचे बैठी! कंठ अवरुद्ध हुआ तो खांसी उठी! आँखें बाहर आयीं! मेरे सामने वो साधिका धीरे-धीरे मरने लगी! उसकी हालत दयनीय थी! उसके कंठ से वायु बाहर तो आ रही थी परन्तु अन्दर नहीं जा रही थी!
वो नीचे लेटे हुए तड़प रही थी! उस क्षण! ना जाने मुझे क्या हुआ! मै वहाँ से भागा साधिका की तरफ! और शूल-भंजन मंत्र से वो कंटिका काट दी! साधिका ने मुक्त होते ही मुझे देखा और अपना हाथ बढ़ाया, मैंने उसको उठाया और पीछे खड़ा कर दिया! अब मै और चारों साधू आमने-सामने थे!
वो मुझे क्रोध से देख रहे थे! मैंने मन ही मन शक्ति-आह्वान किया! मेरी प्रबल अघोरी-शक्तियां! तामसिक शक्तियां सदैव सात्विक शक्तियों की परम शत्रु हैं!
उन साधुओं में से एक ने एक माला का दाना तोड़ा और मेरी तरफ फेंका! मेरी कपाल-लोचिनी ने उसको लपका और निगल गयी! साधुओं के चेहरे पर हैरानी के भाव आ गए!
तभी एक ने कमंडल से जल के छींटे मारे! मेरी अष्टपर्णिका ने वे छींटे भूमि पर और हम पर गिरने से पहले रक्त में परिवर्तित कर दिए! मुझमे संचार हो गया! तभी एक साधू आया और बोला, "जाओ बालक, तुम भी जाओ और इसे भी ले जाओ! हमे बाधित न करो!"
"जैसी आपकी आज्ञा!" मैंने कहा!
उन चारों ने अपने हाथ अभय-मुद्रा में उठाये और लोप हो गए!
मैंने अपनी शक्तियां वापिस की! प्राण-संकट टल गया था! मैंने उस साधिका से कहा, "क्यूँ व्यर्थ में प्राण गंवाती हो तुम?"
उसने मुझे देखा लेकिन कहा कुछ भी नहीं! आज संभवत: पहली बार पराजय का सामना किया था!
"मेरी प्राण-रक्षा हेतु धन्यवाद!" उसने कहा,
"कोई बात नहीं, उठो अब, वापिस जाओ" मैंने कहा,
साधिका के सहायकों से सारा सामान उठाया और हम वहाँ से निकले!
"सुनो, अभी तो केवल संगी ही थे, उन्होंने दया की हम पर, न तुम बचतीं और न मै!" मैंने कहा,
"मै यहाँ पुनः अवश्य आउंगी" उसने कहा!
मै वहाँ रुक गया! उसको अब समझाना व्यर्थ था! हाँ उसने मेरा नंबर अवश्य ले लिए था!
मै अगले दिन शर्मा जी के साथ दिल्ली आ गया! साधिका जब भी कभी आती दिल्ली तो मुझसे अवश्य मिलती, बताया उसने कि वो और घोर सिद्धि करने जा रही है! फिर दो वर्षों तक बात ना हुई!
वर्ष २०१० जुलाई ३० में उसका फोन आया कि वो उस स्थान के लिए अब तत्पर है और मै वहाँ आ जाऊं! मैंने मना कर दिया!
3 अगस्त को मुझे समाचार मिला कि वो साधिका उसी खेत में मृत पायी गयी है सुबह! सहायक अंधे हो गए थे!
पराजय के घाव ने उसको हमेशा के लिए सुला दिया!
पराजय को स्वीकार करना चाहिए! पराजय ही आपकी विजय की कुंजी है! उसने ऐसा नहीं किया!
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अद्भुत लेखन, जितना पढो लगता है हर बार नया कुछ सीखना मिल रहा है, अद्भुत