वर्ष २००६ ...मै उन दिनों दिल्ली में ही था, सर्दी के दिन थे, कोहरा अधिक पड़ रहा था, मै अपने स्थान पर धूप का आनंद ले रहा था, शर्मा जी भी मेरे पास ही थे, वो कोई किताब आदि पढ़ रहे थे और मै कुछ लेखन-कार्य में व्यस्त था, तभी शर्मा जी के फ़ोन की घंटी बजी, उन्होंने फ़ोन उठाया, फ़ोन हमारे ही एक परिचित जिनका की नाम शील था, का था, वो दिल्ली आये हुए थे किशनगढ़ से और मिलने को इच्छुक थे, शर्मा जी न मुझे देखा और बोले," शील का फ़ोन है, वो किशनगढ़ वाले, मिलने को कह रहे हैं" और उन्होंने फ़ोन मुझे पकड़ा दिया, मैंने बात की, हाल-चाल पूछे और उनको अगले दिन ११ बजे सुअभ का समय दे दिया, अगले दिन वो ११ बजे सुबह आ गए, कुशल-मंगल हुआ, तो उन्होंने बताया की उन्होंने एक नयी फैक्ट्री खोली है किशनगढ़ में, पत्थरों की कटाई का काम है और ये फैक्ट्री उन्होंने अपने बड़े लड़के नवीन को दे दी है, ये कोई ३ महीने पहले की बात थी, एक रात जब नवीन फैक्ट्री से वापिस आ रहा था तो पीछे से चौकीदार का फ़ोन आया की फैक्ट्री में अचानक ही आ लग गयी है, नवीन वापिस भागा, तो देखा की फैक्ट्री के गोदाम के एक कमरे से लपटें उठ रहीं थीं, उसने फायर-ब्रिगेड को फ़ोन किया, थोड़े समय बाद अग्नि-शमन दस्ता वहाँ आया और कोई आधे घंटे में आग बुझा दी, आग लगने का कोई कारण स्पष्ट नहीं था, चौकीदार ने बताया की वो जब खाना खा रहा था, तब उसको वहाँ जलने की बदबू आई थी, देखने पर पता चला कि ये आग गोदाम के एक कमरे से आ रही थी, तभी चौकीदार ने नवीन को फ़ोन किया था, सुबह नवीन अपने पिता के साथ वहाँ आया तो कमरे का हाल देखा, कोई ज्यादा नुक्सान नहीं हुआ था, लकड़ी का कुछ कबाड़ और दरवाज़े की खिड़की में आग लगी थी, बात आई-गयी हो गयी, उसके कोई पंद्रह दिनों के बाद रात को फिर चौकीदार का फ़ोन आया की फैक्ट्री में फिर से आग लग गयी है और उसने फायर-ब्रिगेड को फ़ोन कर दिया है, जब नवीन वहाँ पहुंचा तो आग भड़की हुई थी, अब की आग मुख्य दफ्तर के कमरे में लगी थी, करीब दो घंटे बाद आग पर काबू पाया जा सका, पंद्रह दिनों में ये दूरी बार आग लगी थी, उन्होंने आग का कारण देखा तो कुछ पता नहीं चल सका, हाँ इस बार डेढ़-दो लाख के नुक्सान का अनुमान था.............
नवीन और उसके पिता ने वहाँ पूजा-पाठ करवा दी, मामला शांत हो गया लगता था, लेकिन कोई २० दिन बाद फैक्ट्री में फिर से आग लगी, फिर नुक्सान हुआ, और अभी तक वहाँ पर कोई ५ बार अपने आप आग लगती है, जिला-प्रशासन ने भी मामले का संज्ञान लेते हुए एक नोटिस ज़ारी कर दिया था, नोटिस बरती हुई लापरवाही की वजह से आया था, लेकिन बकौल शील
और नवीन किसी तरह की भी कोताही नहीं बरती गयी थी, आग लगने का कारण अभी भी अज्ञात था, तब किसी ने किसी ओझा-तांत्रिक का सुझाव दिया, उसको भी बुलाया गया, उसने भी वहाँ पूजा की और कहा की किसी साए की वजह से ऐसा हुआ था और वो अब उसने ठीक कर दिया था, लेकिन इसके अगले ही दिन वहाँ फिर से आग लग गयी, अब फैक्ट्री पर ताला लगना लाज़मी था, सो लग गया,
शील और नवीन को भारी नुक्सान हुआ था, और ये एक नयी मुसीबत और आ गयी थी, नवीन ने जिला-प्रशासन से १५ दिनों की मोहलत मांग ली थी, सारा सामान उठाने के लिए, मोहलत दे दी गयी थी, अब शील ने हमारा रुख किया और यहाँ आकर इसी सन्दर्भ में मुलाक़ात हुई थी आज! मैंने शील से पूछा, जब ये फैक्ट्री आपने ली थी, तब वहाँ पहले क्या था?
"जी मैंने एक बंद पड़ी फैक्ट्री खरीदी थी, यहाँ पहले भी पत्थरों का ही काम होता था, जगह माकूल थी सो खरीद ली" शील ने कहा,
"पहली फैक्ट्री क्यूँ बंद हुई थी?" मैंने पूछा,
"जी ये तो कोई ८-१० साल से ही बंद पड़ी थी, सुना था की मालिक यहाँ से बेचकर पूना चला गया था" शील ने कहा,
"अच्छा" मैंने कहा,
पहले वाला मालिक, पूना जा बसा था, और शील ने ये फैक्ट्री औने-पौने दाम में खरीद ली थी, वहाँ गड़बड़ तो अवश्य थी, जिला-प्रशासन ने १५ दिनों की मोहलत दी थी, और इसी में २ दिन गुजर चुके थे, १३ दिन शेष थे, आज का दिन भी जोड़ा जाए तो एक दिन और कम हो गया था! मैंने शील से कहा की ठीक है, आप रेल-टिकेट बुक कराइए हम कल ही चलते हैं, शील ने भी अपनी चाय ख़तम की और धन्यवाद करके चले गए! मैंने शर्मा जी से कहा कि वो अब तैयारी करें, कल दिन में रवानगी है, शर्मा जी ने रवानगी के लिए सारे प्रबंध कर लिए, और हम अगले रोज़ शील से मिलने पहुँच गए, शील ने हमको साथ लिया और हम रेलवे स्टेशन पहुंचे, ट्रेन में सवार हुए और किशनगढ़ जा पहुंचे, ये शहर अब आधुनिकता कि तरफ अग्रसर है, पत्थरों का काम होता है यहाँ, अजमेर भी ज्यादा दूर नहीं है यहाँ से, शील ने हमको अपने घर में ही ठहराया, अक्सर मै और शर्मा जी किसी के घर में नहीं ठहरते, किसी के निवास-स्थान में क्रिया-निष्पादन हेतु व्यावधान उत्पन्न होता रहता है, स्त्रियाँ यदि रजस्वला हों तो, स्त्रियाँ यदि गर्भवती हों तो, घर में यदि छोटे बच्चे हों तो, व्यावधान निश्चित ही होता है, हम ऐसी ही किसी परिस्थिति से बच के रहते हैं, सौभाग्य से शील के साथ उनका एक कनिष्ठ पुत्र चेतन और उसकी माँ और शील ही थे, उनके अतिरिक्त एक दो नौकर थे, नवीन उनसे थोडा दूर अपने
परिवार सहित रहा करता था, हम नहाए-धोये, चाय-आदि लिया, और थोडा आराम करने के लिए लेट गए, शील ने खाने कि तैयार करवा ली थी, मैंने अगले दिन सुबह फैक्ट्री जाने का कार्यक्रम तय किया, सुबह नवीन भी आ गया था, फैक्ट्री कि चाबियाँ वहीँ थीं उसके पास, मै शर्मा जी, शील नवीन की गाडी में बैठे और फैक्ट्री के लिए निकल पड़े, करीब पौने घंटे के बाद हम एक शांत जगह पहुंचे, यहीं दूर से वो फैक्ट्री दिख रही थी, फैक्ट्री ऊंची चारदीवारी से सुरक्षित थी, कोई दुर्भावना से भी वहाँ आग नहीं लगा सकता था, हम फैक्ट्री के गेट पर उतरे, नवीन भी बाहर आया, उसने फैक्ट्री के मैं गेट पे लगा ताला खोला, हम अन्दर दाखिल हुए! अन्दर घोर सन्नाटा था, फैक्ट्री काफी बड़ी जगह में बनी थी, और गोदाम उसके बीचोंबीच स्थित था, मैंने शील और नवीन को वहीँ रुकने को कहा और शर्मा जी के साथ जाके आस-पास का मुआयना करने लगा.............
अब चूँकि ये फैक्ट्री काफी बड़े क्षेत्रफल में फैली थी तो आधा घंटा हो गया हमे घूमते-घूमते , तभी मेरी निगाह वहाँ एक ख़ास जगह पड़ी, ये ज़मीन फकोरी की ज़मीन के तल से थोड़ी ऊंची थी, जैसे की वहाँ कुछ दबाया गया हो और बाद में उसको ढँक दिया गया हो, मै वहाँ गया और थोडा अनुमान लगाया, मैंने शक्ति का आह्वान किया, शक्ति उपस्थित हुई तो मुझे उसने एक ऐसी बात बतायी की सारे कारणों का पर्दाफाश हो गया!
इस फैक्ट्री में ३ बार फैक्ट्री बनी थी लेकिन चली कोई भी नहीं थी, जो यहाँ आया वो उभर नहीं सका और उसका कारोबार तबाह होता चला गया, सिवाय एक के, वो तो लाला धाम चंद, ये जगह पहले उसी के पास थी, लाला धाम चंद के कोई औलाद नहीं थी, पहले गरीबी में जीवन बिताया था, पिता से अनबन होने के बाद वो कहीं अलग रहता था, ये बात कोई सन १९६९ की थी, पिता की मृत्यु पश्चात उसको कुछ पैतृक संपत्ति प्राप्त हुई थी, उसके पिता का जेवर बनाने का कारोबार था, उसने भी वो काम सीखा था, धाम चंद ने यहाँ आके ये ज़मीन खरीदी और २ कमरे बना के यहाँ अपनी बीवी के साथ रहने लग गया, थोडा-बहुत जुगाड़ आदि करके चांदी का थोडा सा काम उस के पास आने लगा, उसे यहाँ रहते-रहते कोई २ साल हो गए थे, लेकिन धाम चंद की वित्तीय हालत अभी भी कोई ख़ास नहीं बदली थी, थोड़े में ही गुजारा करना पड़ रहा था, धाम चंद संतोषी आदमी था, जितना मिलता गुजारा कर ही लेता, धाम चंद की ज़मीन में एक पुराना सा चबूतरा था छोटा सा, वो जब से आया था उसकी भी साफ़-सफाई करता रहता था, एक रात.............
एक रात धाम चंद को काम करते करते काफी देर हो गयी, उसने कुछ क़दमों की आवाज़ सुनी, उसने बाहर देखा तो कोई नहीं था, उसने दूसरे कमरे में झाँका खिड़की से तो उसकी पत्नी भी
सो रही थी, उसने सोचा कोई कुत्ता जानवर आदि होगा, उसने अन्दर आके दरवाज़ा बंद कर लिया, थोड़ी देर बाद दरवाज़े पर दस्तक हुई, एक बार, दो बार, फिर तीसरी बार भी, धाम चंद ने दरवाज़ा खोला तो एक मुसलमान बुज़ुर्ग दरवाज़े पर खड़े थे, ऊपर सफ़ेद कुरता और नीचे एक तहमद, धाम चंद ने पोछा, "आप कौन है? शायद आप किसी गलत जगह आ गए हैं?"
बुज़ुर्ग बोले, "हाँ, मुझे जाने में कहीं देर हो गयी, क्या आज रात में यहीं ठहर जाऊं? बाहर अँधेरा भी है और मुझे साफ़ दिखाई भी नहीं देता, कल तडके ही मै अजमेर रवाना हो जाऊँगा, अगर मै यहाँ रुक सकता हूँ तो आपकी बहुत कृपा होगी"
धाम चंद संस्कारी और धार्मिक, दयालु इंसान था, उसको बुज़ुर्ग पे दया आ गयी, उसने उनका हाथ पकड़ के अन्दर बुला लिया और दरवाज़ा बंद कर लिया........
धाम चंद ने फ़ौरन एक चारपाई बिछायी और बिस्तर लगाया, बुज़ुर्ग से खाने की पूछी, बुज़ुर्ग ने बताया की उन्होंने खाना खाया हुआ है, और इस तरह से उनकी बातें चलती रहीं, धाम चंद ने पूछा, "बाबा, इतनी रात गए आप आ कहाँ से रहे हैं?"
"वो बोले, "बेटा, मै आगरे का रहने वाला हूँ, आगे-पीछे कोई नहीं अकेला हूँ तेरे जैसे भले इंसानों से मेरा खाने का और कपड़ों का इंतजाम हो जाता है, सुबह मै आगरे से निकला था, लेकिन सवारी न मिलने की वजह से मै यहाँ आ गया, तेरे यहाँ मैंने ये डिबिया जलती देखी तो मै यहाँ आ गया"
"कोई बात नहीं बाबा, आप आराम से यहाँ रात काटिए, सुबह नहा-धो के खाना खा के आराम से अजमेर जाइए!" धाम चंद ने कहा और अपने काम में मशगूल हो गया,
"तुम क्या काम करते हो बेटे?" बुज़ुर्ग ने पूछा,
"बाबा मै चांदी के जेवर, अंगूठी, बिछुए आदि बनाता हूँ, बस ऐसे ही जीवन कट रहा है, औलाद कोई है नहीं, इलाज करवाया, कोई फायदा नहीं हुआ, अब मै अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ सकता, कहाँ जायेगी बेचारी? अब जो नसीब में है, उसी में संतोष है"
"तुम सोने के जेवर क्यूँ नहीं बनाते?" बुज़ुर्ग ने पूछा,
"बाबा इतना पैसा नहीं है मेरे पास, जो कुछ था वो मैंने ये ज़मीन खरीद ली , इसमें लग गया" धाम चंद ने बोला,
"तुम अपना सामान कहाँ देते हो?" उन्होंने पूछा,
"यहीं एक लाला जी हैं, वहीँ देता हूँ, आदमी भले हैं, जो दे देते हैं उसी में गुजारा हो जाता है" धाम चंद ने कहा,
"एक बात कहूँ? मानोगे? वो बोले,
धाम चंद ने सोचा शायद बाबा खाना वगैरह मांगेंगे तो धाम चंद ने कहा, " हाँ बाबा बोलिए"
"तुम कल कितने बजे जाओगे दुकान पर? बाबा ने पूछा,
"यही कोई ११ बजे" धाम चंद ने कहा,
"तुम कल ११ बजे न जाओ, तुम २ बजे जाना" बाबा बोले,
"क्यूँ बाबा? लाला नाराज़ होगा, मेरी रोज़ी-रोटी का सवाल है" धाम चन्द ने कहा,
"मै तुमको अपने तजुर्बे के साथ कह रहा हूँ, एक बार मान लो मेरी बात बेटा" बाबा बोले
"ठीक है बाबा, मै २ बजे जाऊँगा, अच्छा बाबा आप सो जाइए और मै भी" धाम चंद ने कहा,
बाबा बैठे रहे, लेटे नहीं, वो दोनों हाथ उठा कर जैसे इबादत कर रहे हों ऐसा वो कर रहे थे, धाम चंद ने सोचा जैसे हम लोग करते हैं ऐसा ही बाबा कर रहे हैं, सोने से पहले परमेश्वर का नाम!
धाम चंद ने एक चादर निकाली ज़मीन पर बिछाई और लेट गया, बाबा को ओढने के लिए एक खेस दिया और अपने लिए एक चादर सिरहाने रख ली............
सुबह हुई, धाम चंद उठा तो देखा बाबा वहाँ नहीं हैं, बिस्तर आदि तय किया हुआ वहीँ चारपाई पर रखा है, उसने सोचा की शायद निवृत होने गए होंगे, अभी आ जायेंगे, लेकिन समय बीता, बाबा नहीं आये, ११ बज चुके थे, सोचा शायद बाबा अब अजमेर चले गए होंगे, सुबह उठाना उचित नहीं समझा सो बिना उठाये ही चले गए होंगे, उसने अपना चांदी का सामान निकला, लेकिन धाम चंद ने बाबा से कहा था की वो २ बजे जाएगा आज, तो सोचा चलो २ बजे ही जाया जाए!
धाम चंद २ बजे ठीक दुकान पर पहुंचा, दुकान पर पहुँचते ही, मालिक गुस्सा हो गया, बोला, "ये क्या समय है आने का? तुम्हारी वजह से देखो वो सेठ यहाँ ११ बजे से बैठे हैं, जो सामान मैंने तुमको दिया था, वो इन्ही का है, इन्होने अजमेर जाके सोने का काम करवाना है, अब कब
जायेंगे और कब काम करवाएंगे? किसी की शादी का जेवर बनाना है, परसों देना है, आज का दिन तो गया, कल कारीगरों की छुट्टी है, मेरा तो सत्यानाश कर दिया तुमने?"
धाम चंद घबराया, हिम्मत करके बोला, आप अगर बुरा न मानें तो मै कुछ कहूँ?"
"बोलो? क्या कहना है? मालिक बोला,
"आप मुझे सोने के जेवर दिखाइए , मै वैसे हू-बा-हू जेवर बना दूंगा" धाम चंद बोला,
सेठ और मालिक के पास कोई चारा नहीं था, अजमेर जाने का सेठ के पास कोई अब कारण नहीं था, कल कारीगरों की छुट्टी थी और परसों जेवर देना था!
सेठ राजी हुआ, उसने जेवर दिखाए, धाम चंद ने देखा और कहा, ये मै आपको कल दे दूंगा, डेथ ने जेवर के लिए सोना तुलवाया, १७ तोले सोने के जेवर बनाने थे, १७ तोले नापा गया सोना, एक बार नहीं कई बार! धाम चंद वो सोना लेके आ गया और लग गया काम पर! घर आके सोना टोला तो सोने में साढे ७ ग्राम का इजाफा था! उसने बार-बार तोला, सोना साढे ७ ग्राम फालतू ही था! उसने वो सोना अलग रख दिया, की कल सेठ को मै ये वापिस कर दूंगा, ये गलती से फ़ालतू आ गया है, उसने सोचा और काम पर लग गया.............................
रात गहराई, रात के वक़्त दरवाज़े पर दस्तक हुई, पहले धाम चंद डरा कि कोई चोर-उचक्का तो नहीं? आखिर उसने हिम्मत करके दरवाज़ा खोला, दरवाज़े पर वोही बाबा खड़े थे! धाम चंद ने अन्दर बुलाया, बिठाया, धाम चंद बोला," बाबा आज सुबह आप कहाँ चले गए थे? मैंने आपको काफी ढूँढा, लेकिन फिर मैंने सोचा कि आप शायद अजमेर चले गए!"
"हाँ बेटा मै अजमेर ही गया था, अब आ गया वापिस" वो बोले,
"तो सुबह आगरे जाओगे वापिस? धाम चंद ने पूछा,
बाबा ने जवाब नहीं दिया, बल्कि धाम चंद से पूछा," आज २ बजे गए थे न तुम दुकान पर ?"
धाम चंद ने सारी बात बतला दी!
"लेकिन बाबा उहोने मुझे १७ तोले सोना दिया, और जब मैंने उसको यहाँ नापा तो ये साढे ७ ग्राम फ़ालतू निकला! मै कल वापिस कर दूंगा ये सोना उनको, ये मेरा नहीं है " धाम चंद ने कहा,
"हाँ ये तेरा नहीं है, मेरा है! जब वो सोना तोल रहे थे तो मैंने सोने के तराजू वाले प्याले के नीचे ऊँगली रख दी थी,, जिस से ये साढे ७ ग्राम फ़ालतू हो गया"
"आपने ऊँगली रखी? लेकिन आप तो वहाँ थे ही नहीं?" धाम चंद ने हैरत से कहा,
"मै तो वहीँ था बेटा तेरे साथ!" बाबा बोले,
"खड़ा हो, आ मेरे साथ" बाबा ने ये कह के धाम चंद का हाथ पकड़ा और दूर वो छोटा सा चबूतरा दिखाया, "तू उसकी साफ़-सफाई करता है न? उस चबूतरे की? बाबा ने इशारा किया,
"हाँ बाबा, करता हूँ"
"मै वहाँ का पीर हूँ बेटे" बाबा बोले,
धाम चंद गिरते-गिरते बचा! बाबा बोले, " देख बेटे, तू मेरे बारे में किसी को न बताना, मै हमेशा तेरे साथ रहूँगा, तुझे कभी कमी नहीं होने दूंगा, नहीं बतायेगा न?"
"नहीं बताऊंगा बाबा, जैसा आप कहो" धाम चंद उनके पांवों में गिर पड़ा!
बाबा ने कुरते की जेब में हाथ डाला, एक गुलाब का फूल निकाला और बोले, "ये ले इसकी २ पंखुड़ी अपनी बीवी को खिलाना और बाकी ज़मीन में गाड़ देना, देख धाम चंद मेरा वचन तेरे से है, तेरी औलादों से नहीं, और हाँ ये जो सोना बचा है वो तू इकठ्ठा कर, तुझे और काम मिलेगा, मै ऐसे ही तेरा सोना बढ़ा दिया करूँगा, अपने जेवर बना और दुकान खोल! ये कह के बाबा उठे और चबूतरे की तरफ बढे और गायब हो गए!
वक़्त बीता, धाम चंद के दो औलाद हुईं, दोनों लड़के, धाम चंद का काम ऐसा चला की उसने अपनी दुकान खोल ली, बाबा का मिलना धाम चंद से ज़ारी रहा वर्ष १९९२ तक, धाम चंद स्वर्ग सिधार गया, लड़के व्यवसाय संभाल चुके थे, वो धाम चंद की जगह छोड़ कर दूसरे आलीशान मकान में रहने लगे, बाबा की खिदमत धाम चंद के साथ ही ख़तम हो गयी! २ साल बाद वो जगह धाम चंद के लड़कों ने बेच डाली, वहाँ कई फैक्ट्री बनीं लेकिन कोई शराबी कोई कवाबी! बाबा ने किसी को रहने नहीं दिया! हाँ, नवीन ने तो और हद कर दी थी, उसने बाबा का वो चबूतरा जहां उनकी मज़ार ज़मीन में दफ़न थी, वहाँ झाड-झंखाड़ जलाने के लिए आग लगवा दी, कर्मचारियों के लिए ४-५ कमरे बनवा दिए, और इंसानी गंदगी से वो जगह लबरेज़ हो गयी! इसीलिए वहाँ आग लगती थी बिना किसी कारण के, मैंने शील से कह के वहाँ की सफाई करवाई, और वो मजार ज़मीन से निकाल दी, उसकी मरम्मत करवाई और आज वहाँ साफ़-सफाई के साथ उनके यहाँ नवीन सबसे पहले जाके अगरबत्ती लगाता है, दिवाली, होली
पर मिठाई चढ़ाता है! हर अवसर में न्योता देता है! उसके बाद वहाँ कभी कोई समस्या नहीं हुई, काम स्थायी हो गया! आज शील और उसका पूरा परिवार सुख से वहाँ रह रहा है!
----------------------------------साधुवाद---------------------------------
