ओह! अब आया समझ! बाबा ने क्या किया था! मित्रगण! ये एक बेहद ही खतरनाक विद्या है! इसे, जमभाक-विद्या कहते हैं! ये विद्या, भारत में बेहद पुरानी है, अब इसका कोई प्रयोग नहीं करता, या फिर इसके अब जानकार हैं ही नहीं! ये जूनागढ़ की विद्या है! इसमें, अदल-बदल होती है! अब समझिए आप! आल्हा-ऊदल में से, आल्हा को ये विद्या मिली थी! कल्ला जी राठौर को, कहते हैं, स्वयं श्री भैरव नाथ जी ने पारंगत किया था! पूज्य श्री गोगा वीर को, श्री गोरखनाथ जी ने ये विद्या प्रदान की थी! इस विद्या का फल, बेहद ही भयानक हुआ करता है! बाबर के पुत्र हुमायूं को, एक बंगाल के तांत्रिक ने, इसी जमभाक-विद्या से पुनः प्राण दिए थे! इस विद्या का कोई जानकार, मैंने तो देखा नहीं, कोई हो, तो समक्ष नहीं आया! आया भी हो, तो मैं जान न सका! जूनागढ़ में दो गुप्त तांत्रिक-स्थल हुआ करते थे, अब नहीं हैं, कुछ जो शेष थे, वे छिटक गए! आज भी, अनजान से मन्दिर, स्थल प्राप्त हो जाते हैं! कुछ भूमिगत हैं कुछ अब खण्डहर हैं! तो ये बाबा ढाढर, अवश्य ही सम्बन्ध रखता होगा या तो जूनागढ़ से, या फिर, जिसने उसे पारंगत किया होगा इस विद्या में, उसका सम्बन्ध रहा होगा! इसमें, साधक, जब प्राण जाते देखता हे, तब, वो किसी पर भी, शत्रु-दल से या, 'मूल-बीज' पर ये विद्या, संचरित कर देता है! फलस्वरूप, दोनों की ही मृत्यु हो जाया करती हैं, यदि कोई विद्या-सम्प्पन जानकार हो, तो वो, इस विद्या-वेध को, किसी वृक्ष, कुआँ, बावड़ी आदि में उतार देता है! वृख ठूंठ हो जाएगा, कुँए का जल विषैला हो जाएगा, बावड़ी सूख लेगी! ऐसा ही होता है!
"सुना?" बजाए गाल अपने!
"जय हो!" बोला साधू,
अब तो जैसे सम्बल मिल गया था साधू को! वाक़ई में, अब गौणक के सामने, धर्म-संकट आ पड़ा! क्या करे? इसके प्राण ले, तो रमेली भी जाए? न ले तो धन जाए, रक्षण टूटे? क्या करे वो?
"ढाढर!" गूंज एक दीर्घ सा स्वर!
"सम्मान से बोल?" चीखा बाबा!
"ढाढर!" आयी फिर से आवाज़,
ढाढर आगे गया! चेहरे पर मुस्कान आयी! आगे बढ़ा और रुक गया, यहां एक टीला था, मिट्टी का, यहां, कुछ बाम्बियां सी भी बनी थीं, यहां, सर्पों का वास था! अब ये सर्प, उस स्थान से, उस गौणक से कोई सम्बन्ध रखते थे, ये तो मात्र ये बाबा ही बता सकता था!
"ढाढर?'' आयी आवाज़,
"सौदा?' बोला ढाढर,
"नहीं" आया स्वर,
"फेर?" बोला वो,
"धन चाहता है?" पूछा किसी ने,
''हाँ! धन भी और कांडल भी!" बोला वो,
"जितना उठा सके दोनों हाथों से, ले जा, फिर कभी न लौटना!" आया तेज स्वर!
"दोनों हाथों से? बस?" बोला वो,
''हाँ!" आया स्वर,
बाबा हंस पड़ा! उसे जीत की महक आने लगी!
"नहीं, सगरा लूंगा!" बोला वो,
"नहीं ढाढर!" आया स्वर फिर से.
"कौन रोकेगा?" बोला वो,
"मैं!" आया स्वर!
"तू?" बोला वो, और हाथ में हाथ मारा उसने! हंसने लगा!
"तूने आंका नहीं मुझे ठीक से!" बोला वो,
"मान जा!" आया स्वर,
"नहीं!" बोला वो,
"मान जा!" आया स्वर!
"नहीं!" चीख कर बोला बाबा!
"लौट जा फिर!" आयी आवाज़,
"लौट जाऊं?" बोला वो,
"हाँ ढाढर!" स्वर गूंजा!
ये स्वर, मात्र ढाढर को ही आ रहे थे सुनाई! ये सब तिलिस्म से भरा था! उस रात, चंडी सच में ही नाचने वाली थी वहां! आज कोहराम मचना ही था! अब देखना था तो ये, कि. होता क्या है? क्या हुआ रमेली का? बाबा का क्या हुआ? उन दोनों का क्या हुआ? क्या हुआ था उस रात?
"अम्मा?" बोला मैं,
अम्मा ने गला साफ़ किया अपना, चुप सी हो गयी अम्मा! अम्मा की चुप्पी, उस बाबा के गंडासे की तरह लगने लगी थी!
"उधर...." बोली अम्मा,
"किधर?' पूछा मैंने,
"माँ कह रही हैं, वहां उस तरफ, उधर, बियाबान में!" बोला मोहन,
"क्या है उधर बियाबान में अम्मा?" पूछा मैंने,
"वो..मन्दिर!" बोली वो,
"मन्दिर?" पूछा मैंने,
"हो!" बोली अम्मा!
"कौन सा मन्दिर मोहन?" पूछा मैंने,
"वही मंदिर!" बोले वो,
"लेकिन इस घटना में अभी तक कोई मन्दिर नहीं आया?" पूछा मैंने,
"आएगा" बोला वो,
"अम्मा?" बोला मैं,
"हो?'' बोली अम्मा,
तभी, सामने से, दरवाज़े के बाहर से, एक टेम्पो गुजरा, टेम्पो पर नाम लिखा था, टेम्पो-सर्विस वाले के, नाम था भवानी! और उस टेम्पो के पीछे, कुंडली मारे, दो सांप बनाये गए थे!
सांप! वो भी सांप ही थे! साँपन का एक मानव से प्रेम! मामन्व, जो अपंग और ळुरूप थी! जिस से, हर कोई बचकर चलता था! वो कुबड़ी!
"अम्मा?" कहा मैंने!
अब न बोली वो कुछ भी, घुटनों पर हाथ रखे, चुप ही बैठी रही, मैं, अम्मा की झुर्री भरी गर्दन देख रहा था! कितना समय गुजर गया था, अम्मा की आँखों के सामने से!
''अम्मा?" बोला मैं,
और तब, अम्मा ने मुझे देखा और.....................
अम्मा की चुप्पी तो जैसे उस रमेली की दशा की तरह थी! वो दशा, जिसके बारे में शायद रमेली भी न जानती थी! मैंने अम्मा से कई बार गुज़ारिश की और तब, फिर से ये गाथा आगे बढ़ी!
रात का वो समय! वो बाबा ढाढर और उसके दो साथी! वो साधु और वो बीनू! आँखों में तो वैसे सपने थे ही, उन सपनों की गर्द ने, लालच का पर्दा डाल दिया था, सोच पर, या कहूँ कि विवेक पर!
"गौणक?" चीखा बाबा!
गौणक ने कुछ न कहा!
"गौणक! चाहता है कि सब सही रहे, तेरी वो प्यारी लड़की ज़िंदा रहे, तो, मान ले मेरी बात! ये सारा धन, सौंप दे और बचा ले उस लड़की को!" बोला वो,
अट्टहास गूँज उठा उधर!
"ह्म्म्म, तू तो सोचता है, मैं झूठ बोल रहा हूँ?" बोला वो,
"धन?" आया स्वर!
"हाँ, धन!" बोला वो,
"सारा?" बोला गौणक!
"हाँ, सारा!" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों नहीं?" बोला वो,
"ये तेरा नहीं!" बोला वो,
"तो किसका?" पूछा उसने,
"तेरा विषय नहीं!" बोला वो,
"फेर क्या लड़की का?" बोला वो,
"तेरा विषय, ये भी नहीं!" बोला वो,
"तू ऐसे न बाज आएगा!" बोला बाबा,
"जा ढाढर! बहुत हुआ!" अब इस स्वर में चेतावनी थी!
"मुझे ललकारता है?'' बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"फेर?" पूछा उसने,
"प्राण शेष रहेंगे तेरे!" बोला वो,
"मुझे भय दिखाता है?" बोला वो,
"नहीं, असलियत!" बोला गौणक!
"तू? तू है क्या?" बोला वो,
"गौणक!" बोला वो,
"बस?" बोला वो,
"हाँ!" कहा उसने.
"मैंने टिका दिए कई गौणक!" बोला बाबा,
"असत्य!" बोला वो,
"असत्य?" बाबा भरभराया ये सुन!
"हाँ, वे गौणक नहीं थे!" बोला वो,
"फेर? क्या थे?" बोला वो,
"लघुज!" बोला वो,
बाबा को काटो तो खून नहीं! ये क्या कहा गौणक ने? लघुज? नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! कदापि नहीं!
बाबा ने बुदबुदा के कुछ गालियां दीं! अपनी खीझ निकाली! साधू और बीन, दोनों ही, काठ की तरह से देखते रहे वो सब!
लघुज! हाँ, ये होते हैं लघुज! ये धन के रक्षक हुआ करते हैं! इन्हें, देखने वाले बताते हैं, कि ये कभी सर्प, कभी देव से लगते हैं! और कभी कभी,आधा सर्प और आधा देव सा लगते हैं! ये संख्या में दो ही रहते हैं! एक श्याम और एक श्वेत! ये, दयालु होते हैं, किसी भी धन का लालच रखने वाले 'कारीगर' को कई बार समझते हैं जो समझ जाता है, कुछ लेकर ही आता है, जो नहीं समझता, वो फालिज खा ज़िंदगी भर, खटिया नहीं छोड़ता! उसकी आधी देह, श्याम और आधी देह, श्वेत से पड़ी रहती है!
तो बाबा ने जिनको झुकाया होगा, मुझे तो अभी भी सन्देह है, कि वे लघुज ही रहे हों! मान भी लिया जाए तो भी बाबा को धन प्राप्त होता, धन प्राप्त होता तो वो यहां क्यों चला आता? खैर, यहां तो लगता था कि, बाबा ने शायद तज़ुर्बा लिया ही होगा और तब, जाकर, वो यहां आया होगा!
"नहीं!" चीखा वो,
"हाँ ढाढर!" बोला वो,
"बस?" बोला वो,
"अभी भी अवसर है!" कहा गौणक ने,
"नहीं चाहिए अवसर!" बोला वो,
"विचार कर ढाढर!" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"हठ त्याग दे!" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"तब परिणाम जानता है?" बोला गौणक,
"मुझे पता है परिणाम!" बोला वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"मैं धन तो अवश्य ही लूंगा!" बोला वो,
"दिया है अवसर!" बोला गौणक,
"सारा!" बोला वो,
"असम्भव!" बोला, इस बार क्रोध में गौणक!
"असम्भव?" बोला बाबा,
"हाँ!" बोला वो,
"लेकर ही जाऊँगा!" बोला वो,
"बस!" बोला गौणक!
बाबा हंस पड़ा! उपहास उड़ाने लगा!
"तू देखता जा!" बोला बाबा,
"बस! धृष्ट?" बोला गौणक!
"अच्छा?" बोला वो,
और तभी उस भूमि में आवाज़ सी हुई! ज़मीन जैसे जगह जगह से खुल गयी! सर्प, निकलने लगे! विषैले! बड़े बड़े! हर तरफ से! हर जगह से! ये देख, बीनू और साधू, उछलने लगे डर के मारे! अब नहीं रहा गया उनसे! वे भाग लिए! अब बस जान ही बचानी थी उन्हें! अब भाड़ में गया धन! जान ही न होगी तो धन का क्या लाभ? भाड़ में जाए ये बाबा! वे दौड़े! गिरते पड़ते हुए बाहर तक पहुंचे, सामान भी न उठाया उन्होंने! मुंह से लार टपकने लगी! वे जो दौड़े, और फिर कभी, नज़र ही न आये!
और उधर बाबा! वो नहीं घबराए रत्ती भर भी! मन्त्र पढ़ और उस दंड से, एक घेरा खींच दिया अपने चारों ओर! अब नहीं आ पाए सांप उधर! उस घेरे के पास ही, कुंडली मारते हुए! उनकी हिस्स-हिस्स से वो स्थान गूंजने लगा! बाबा सभी को देख रहा था!
"गौणक?" चीखा बाबा,
गौणक का स्वर गूंज, एक हुंकार सी!
"क्या समझता है? ये रोक लेंगे मुझे? हैं? रोक लेंगे? देख! खुद देख!" बोला वो, और पढ़ मन्त्र उसने, और वो दंड, बाहर, घेरे के छुआ दिया! अभीष्ट हुआ! बाबा के लिए तो अभीष्ट! वे सांप, जैसे सभी, हवा में ही लोप हो गए! उनको लोप होते देख, बाबा के गला फाड़ने का कोई ठिकाना न रहा!
"बस?" चीखा बाबा,
आगे आया, दंड उठाकर, कमर में, खोंस लिया था गंडासा उसने!
"बस? अब? अब क्या करेगा?" बोला बाबा,
अट्टहास सा गूंजा!
"चला जा! चला जा मूर्ख!" बोला गौणक!
"नहीं चल रही? है न? नहीं चल रही न?" बोला वो,
और फिर से, हंसने लगा!
"अरे मूर्ख! तेरी विद्याओं की आन रखते हुए, फिर से कहता हूँ, जा लौट जा! लौट जा!" बोला गौणक!
"मान?? न न! ना! मान नहीं! भय! भय!" बोला बाबा,
"तू हिम्मत वाला है ढाढर! जा! चला जा!" बोला गौणक!
"नहीं जाऊँगा!" बोला वो,
और ढाढर, बैठ गया ज़मीन पर! उठायी मिट्टी! पढ़ मन्त्र! और फेंक दी सामने! और हंसने लगा गाल फाड़ फाड़ के! ढाढर के मन्त्र ने, सर्पों के बिलों में आग लगा दी! पर, कुछ ही पलों के लिए! एक झोंका सा चला, और आग शांत हो गयी!
"ढाढर?" आया स्वर,
"डर गया?'' बोला वो, और हंसा!
"नहीं!" बोला वो,
"तो, सामने आ?'' बोला वो!
"तू इस योग्य ही नहीं!" बोला गौणक!
"योग्य?" बोला बाबा, और दंड घुमा, हंसने लगा!
"ये ढाढर, वो ढाढर है, जिसने झुका दिए सारे!" बोला वो,
"अब बहुत हुआ!" बोला वो,
"अच्छा?'' बोला वो,
"हाँ!" बोला गौणक!
और तब, हवा में एक प्रकाश का बड़ा सा पुंज चमका! और जो आया समक्ष, वो तो भीमकाय था! किसी यक्ष समान! वो हवा में उठा था! लाल रंग की वेशभूषा में! चन्द्र जैसा रंग था उसका, आभूषणों से युक्त था! चौड़ा माथा, चौड़ा वक्ष! भाव, क्रोध के!
"तू....?" बोला वो,
"गौणक!" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
अब गौणक ने लगाया अट्टहास!
''तू गौणक नहीं!" बोला वो,
"कौन हूँ मैं?" बोला गौणक!
"तू तो नाग है!" बोला वो,
'हाँ, नाग हूँ!" बोला वो,
"तब तो और सरल हो गया मेरे लिए!" बोला बाबा!
"नहीं मूर्ख!" बोला वो,
"हाँ!" बोला वो,
"अभी एक अवसर और देता हूँ! लौट जा! लौट जा वापिस!" हाथ से इशारा करते हुए बोला वो!
"चाहे प्राण क्यों न जाएँ!" बोला वो,
"ढाढर!" बोला वो,
"हाँ?? तैयार है?'' बोला बाबा,
"कुछ ही क्षण शेष हैं!" बोला गौणक!
"मुझे धमकाता है? हैं? धमकाता है?" बोला बाबा,
और कमर में खोंसा गंडासा निकाल लिया हाथ में! गुस्से में काँप उठा वो! अब नहीं थी सुध उसे! अब क्या होने वाला था, नहीं जान पाया वो ढाढर!
गुस्सा फटा! और ढाढर, न जाने क्यों दौड़ चला गौणक की ओर! गुस्से में भाग लिया था आगे!
"रुक जा ढाढर?" बोला गौणक!
नहीं रुक वो, दौड़ा और तभी, मारने के लिए गौणक को, वार कर दिया! गौणक का वो क्या बिगाड़ता! गौणक लोप हुआ और दूसरी जगह प्रकट हुआ!
"रुक जा! रुक जा ढाढर!" बोला वो,
नहीं रुका वो! और फिर से किया वार उसने!
"रुक जा?" बोला चीख कर वो गौणक!
और इस बार, जैसे ही वार किया उसने, वो उड़ा हवा में! उल्टा हुआ, सर नीचे और पाँव दोनों ऊपर! लाख यत्न किये, अब न चली उसकी! और अगले ही पल, धड़ाम से नीचे गिरा वो! लम्बी लम्बी साँसें ले, वहीँ घुटनों पर बैठ गया!
"गौणक? अब पछतायेगा तू! पछतायेंगे ये सब! ये सब! नहीं बचेगी लड़की! नहीं बचेगी!" बोला वो,
और हुआ खड़ा, गौणक को घूर के देखा, जबड़ा भींच लिया उसने और अगले ही पल?
अगले ही पल....
बाबा ने एक हाथ से अपने केश पकड़े ऊपर से, एक महामंत्र सा पढा और खच्च!
खच्च!
बाबा का सर, खुली हुई आँखों से, नीचे लुढ़क गया! लहराया धड़ उसका, और पीछे जा गिरा! फरसा नीचे गिरा, तड़प उठा धड़, खून का फव्वारा छूट पड़ा! कमर की तरफ से उठा, पांवों को उठाकर, धड़ ने कुछ चक्कर सा काटने के लिए, ज़ोर लगाया और...शान्त हो गया....बाबा ने, स्वयं ही अपना सर, काट डाला था! गौणक हुआ लोप! छा गया सन्नाटा! बाबा का सर, खून के सैलाब में डूबा पड़ा था, पूरी ज़मीन गीली हो गयी थी! लेकिन उसने ऐसा किया क्यों?
उसने ऐसा किया, क्योंकि वो जान गया था कि वो जीत नहीं पायेगा! उसका कुआं कितना गहरा था, वो जानता था! उसने ले लिए थे अपने ही प्राण! अपने ही नहीं, बल्कि उस रमेली के भी! मर गयी, तत्क्षण रमेली! उड़ गए थे उसके प्राण! न कोई चिन्ह, न कोई संघर्ष, शांत सी पड़ी थी, करवट लिए वो, रात थी....कोई जान न सका!
कुछ पल बीते.....और उस बगिया में, वो नन्हा सा सर्प आया, प्रकाश कौंधा और वो, मृदा का रूप ले गया, साथ में, उसके बाबा भी प्रकट हुए.....सन्न थी वो मृदा....उसी के कारण, रमेली की मृत्यु हुई, न वो मिलती उसे, न कोई आता, और न उसके सर ये पाप लगता.....रोना जानती ही नहीं थी....बर्फ की तरह से खड़ी हो गयी...और अचानक ही, गौणक प्रकट हुआ, आया उस मृदा के संग...कुछ वार्तालाप सा हुआ, और सभी हुए लोप!
मर गयी रमेली! वो कुबड़ी! अच्छा ही हुआ! बहुत ही अच्छा! शायद, ये संसार उसके लिए था ही नहीं, संसार, उसके सरल स्वभाव के योग्य था ही नहीं....यहीं तो कहा जा सकता है, है न? बताएं आप?
वो रात का, समय था, भोर होने में, कुछ ही देर थी, ये काल-बेला थी, उस रात की काल-बेला!
सुबह हुई, रमेली तो उठ जाया करती थी शीघ्र ही? आज? आज क्या हुआ? उसे? पौ फटने को है, आज के फूल? आज के चौका-बर्तन? झाड़ू-बुहारी? माँ ने बाहर झाँक कर देखा, बस, कुछ ही देर में, सूर्य निकल आता, पक्षी तो आ गए थे, लेकिन, सब शांत थे...बस कोई ही, बोलता था, जैसे, उनको सब पता हो!
"रमेली?" बोली माँ,
बाहर से ही आवाज़ दी माँ ने,
"रमेली?" बोली माँ,
न उठी रमेली!
"दिन निकलने को है ओ रमेली?" बोली माँ,
बड़बड़ सी करते हुए, माँ, चली रमेली की तरफ, रमेली सर धँसाये अपनी बाजुओं में, घुटने मोड़े, लेटी हुई थी...शांत सी!
"रमेली?" माँ ने छूकर जगाने की कोशिश की,
नहीं हिली, वो तो उठा जाती थी सबसे पहले?
"रमेली?" बाजू पकड़ते हुए बोली माँ, बाजू, अकड़ गयी थी, देह ठंडी पड़ गयी थी...माँ का दिल धड़का....आशंकाएं उभर आयीं दी में, और तभी बाहर नज़र गयी, वही नन्हा सा सर्प, देख रहा था अंदर ही....माँ घबरा गयी...कहीं...??
"रमेली? रमेली? रमेली?" चिल्लाई माँ!
माँ की चिल्लाहट सुन, बाहर से दौड़े आये बाबा उसके...
"क्या हुआ?" बाबा ने पूछा,
"रमेली....रमेली....?" बोली माँ,
पिता जी ने छुआ, और सब समझ गए.....आंसू बहाने लगे, उनको रोता देख, विलाप करते देख, सभी जागे हुए, दौड़े चले आये उधर, खबर फैलते देर न लगी, रमेली मर गयी!
माँ ने सर्प देखा था, कहीं सर्प ने न काटा हो? लेकिन झाग नहीं, देह नीली नहीं, फिर?
"जाओ, अरे जाओ, लाओ...ले आओ दादा को...अरे ले आओ दादा को कोई...मेरी बच्ची...." रोते रोते बोली माँ,
दादा? वो बूढ़ा सपेरा? हाँ, वही! और, लगा दी दौड़ दादा को लाने के लिए, मातम छा गया था उधर....
सूरज निकल चुका था! लेकिन रमेली का सूरज, डूब गया था..उसके यहां, विलाप मचा था, जो सुनता, दौड़ा चला आता, कोई कहता कि किसी सर्प ने काट लिया है, कोई कहता कि सोते हुए ही प्राण निकल गए, कोई कहता कि उसने स्वयं ही, कोई विष खा लिया होगा, अपनी दशा पर, कोई कहता कि शायद, ऊपरी चक्कर हो, जितने मुंह, उतनी बातें! रमेली की छोटी बहन का भी बुरा हाल था, माँ, तो भूमि पर टिक गयी थी, कभी उठती, रमेली को देखती और फिर से गिर जाती..उनका विलाप सुन, वहां के श्वान भी, अजीब अजीब सी आवाज़ें निकालते थे....सबकुछ ख़तम सा हो गया था....रमेली...जा चुकी थी...उस जगह, जहाँ न रूप मायने रखता है, न देह, न रंगत न संगत....
करीब, एक घण्टे के बाद, उषर, लँगड़ाता हुए, वो बूढ़ा सपेरा दादा चला आया, उसकी उम्र करीब अस्सी के पास तो रही होगी, संग उसके, उसका पोता भी चला आया था..वे कक्ष में गए...
"लक्खी?" बोला दादा,
"हाँ बाबा?" बोले लक्खी, टूटी सी आवाज़ में,
"लड़की को नीचे रख?" बोला वो,
"जी बाबा" बोले वो,
और हाथ लगा, रमेली को नीचे रख दिया, नीचे जैसे ही रखा, कि कोई भागता हुआ आया, चिल्ला चिल्ला के बोला कि बगिया में, सर कटी लाश पड़ी है बाबा ढाढर की....
"ढाढर?" बोला लक्खी,
इस से पहले कुछ बोलते वो, लोग, चादर आदि ले, चले गए बगिया में, उढा दी चादर उसकी देह को....
"औरतों को भेज यहां से?" बोला दादा,
बड़ी मुश्किल से समझाया माँ को, बहन को रमेली की, और बाहर भेज दिया, कुछ औरतों ने मदद की थी इसमें..
अब जांच की दादू ने, माथा देखा, उसकी ठुड्डी पकड़ी, छुआ, होंठ खोल के देखे, फिर पेट देखा, गर्दन देखी....
"न लक्खी! सांप ने न काटा" बोला दादा,
"क्या?" बोले लक्खी,
"हाँ, मसूड़े नीले नहीं, नाख़ून नीले नहीं, पेट फूला नहीं, ना, सांप ने ना काटा" बोला दादा,
रही सही उम्मीद भी गयी....
लक्खी का रोना फूटा, आंसू पोंछे और बैठ गए वहीँ...
"अब देर न कर, रिवाज कर, और मिट्टी लगा ठिकाने" बोला दादा,
"बाबा?" बोले लक्खी,
"हाँ?" बोला दादा,
"देख लो, बचा लो मेरी बच्ची को, देख लो.." रो रो के बोले लक्खी!
"जब कुछ है ही नहीं बचा हुआ, तो भला क्या देखूं?" बोला, खांसते हुए, दादा,
"कुछ तो होगा, कुछ तो, दादा?" बोले वो,
"अरे ना है!" बोला दादा, और चलने लगा बाहर को,
"दादा?' बोले लक्खी,
"क्या?" बोला वो,
"सुबह सर्प देखा था, कमरे के बाहर, देख लो दादा...देख लो?" बोले लक्खी,
"सुबह?" पूछा उसने,
"है, सुबह" बोले वो,
"किसने?" पूछा दादा ने,
"रमली के माँ ने" बोले रोते हुए,
"बुला?" बोला दादा,
बिन बोले, चल पड़े बाहर, और रोते हुए, माँ चली आयी अंदर, रमेली को देखा, तो धाड़ मारने लगी माँ!
"क्या देखा था?' बोला दादा,
"सर्प" बोले लक्खी,
"हैं री?" बोला दादा,
"हाँ" सुबह...वहां" बोली इशारे से बताते हुए, दादा को,
"एक काम कर?" बोला दादा,
"क्या दादा?'' बोले लक्खी,
"सुन री?" बोला वो,
माँ ने आँखें उठा, देखा दादा को, सिसकियाँ गर्दन हिला कर रख रही थीं माँ की, बोली, बनते न बन रही थी!
"कपड़े खोलकर इसके, देखियो, कोई निसान है क्या? देख ऐसा निसान होगा, देखियो ढंग से?" बोला दादा,
और तब दादा अपने पोते के साथ, लक्खी के साथ, तमाम पुरुषों के साथ, चले सब बाहर की तरफ, हट गया सामने से!
"बच जायेगी लड़की दादा?"
"पता चलै अभी?" लाठी टेकता हुआ बोला दादा,
उधर, माँ ने कपड़े खोले रमेली के, खूब देखा, खूब ही देखा..कोई निशान नहीं मिला, माँ तो अब और तेज रोई...आवाज़ दी लक्खी को, कपड़े उढा दिए गए रमेली की देह को..
वे चले आये अंदर,
"मिला कोई निसान?" पूछा दादा ने,
माँ कुछ न बोली, कुछ बोल ही न सकी...!
"लक्खी?" बोला दादा,
लक्खी ने, मरी सी सूरत से देखा दादा को, जवाब....मालूम था जैसे..
"क्या करूँ बता?" बोला दादा,
क्या बोलते रमेली के बाबा? अब कुछ न बचा था, आखिरी उम्मीद भी बुझ चुकी थी, रमेली, रमेली को मृत्यु अपने संग ले गयी थी! क्या हुआ उस बेचारी के साथ! चढ़ गयी एक अड़ियल और नीच बाबा की भेंट बेचारी वो कुबड़ी! क्या यही अंत होना था उसका? क्या यही भाग लिखवा कर लायी थी वो?
"जो एक दाना भी होता, तो बचा लेता, अब कुछ नहीं कर सकता में, कुछ नहीं बचा, इस लड़की की अब मिट्टी सुंधा...लक्खी, आना जाना सब चलता है, कोई कब और कोई कब....अब देर न कर...मुझे भी बहुत दुःख है" बोला दादा,
और अपने पोते के संग, हाथ जोड़ सभी को, लँगड़ाते हुए, लाठी टेकता हुआ चला गया!
अब और रोना-पीटना शुरू हो गया! उम्मीद न थी कोई भी! वो रमेली, जु खुद एक फूल थी, आज ज़मीन पर पड़ी थी! सभी के आँखों में पानी था, ये तो कड़वा सच है, आज उनके साथ, कल हमारे साथ....क्या पता..कब डोर टूट जाए!
लक्खी की तो आँखों का पानी सूख गया, माँ, बार बार गिर जाती, उर्मा का हाल, बहुत बुरा....
क्योंच्च देर हुई, लोग जुड़ने लगे लक्खी के पास आकर, बस, यही कहते कि, अब देर न करो, मिट्टी खराब न हो...देर भली नहीं....
"लक्खी?" आयी एक आवाज़,
ये कौन? किसने दी आवाज़ उन्हें? नहीं पता क्या, इस लड़की के बारे में?
"लक्खी? ओ रे लक्खी?" आयी फिर से आवाज़, और कोई कमरे में घुसा! ये तो बुधिया था! बैदू बुधिया!
"क्या हुआ?" पूछा बुधिया ने,
लक्खी से तो कुछ बोला न गया, हाँ, लोगों न बता दी, कि क्या हुआ है, लड़की, अब न रही...
बुधिया आगे आया, लड़की को देखा, बैठा नीचे, और माथे पर हाथ रखा! फिर बालों पर हाथ फेरा, एक लट में, लगा दी एक गाँठ! लोग, हैरत से देखें उसे!
"लक्खी?" बोला बुधिया,
लक्खी ने, बुझती आँखों से देखा उसे,
"तीन तरह का अन्न मंगवा, सेर सेर भर!" बोला बुधिया,
ये क्या कहा? अचरज! तीन तरह का अन्न? सेर सेर भर?
''और सुन, इतना गोबर इकठ्ठा करवा, जिसमे ये लड़की छिप जाए, मिलेगा?" बोला वो बुधिया!
"ह.....हाँ बुधिया!" कुछ आस बंधी! मरता, क्या नहीं करता!
"तीन तरह का अन्न?" बोले लक्खी,
"हाँ, मंगवा?" बोला वो,
"है जी, घर में है" एक बोला उधर खड़ा हुआ,
"जा तो, लेकर आ?" बोला बुधिया,
वो आदमी, दौड़ता हुआ चला गया अन्न लेने!
"सुन री? रोवे मत? मरा न हूँ अभी? तू, लड़की को नहला? समझी?" बोला वो रमेली की माँ से,
अब क्या था! कुछ जान में जान पड़ी!
"आ लक्खी?" बोला वो,
"ह....हाँ" बोले वो,
"आ बाहर" बोला बुधिया,
और वे, दोनों बाहर चले, संग उनके, और भी लोग चले साथ में, कुछ अविश्वासी, कुछ विश्वासी, बस विश्वासी लोग अधिक पास थे, बाकी, तमाशबीन से!
बुधिया ने, आसपास देखा, और एक जगह पहुंचा, रुक गया उधर,
"लक्खी?" बोला वो,
लक्खी दौड़े फौरन उधर के लिए!
"सुन, इधर, सवा हाथ का गड्ढा खुदवा ले, अभी, लड़की की देह बराबर, समझा?" बोला बुधिया,
लक्खी को कहने की ज़रूरत न पड़ी, विश्वासी लोग, फौरन दौड़ पड़े, कुदाल और कस्सी लेने!
ले आये, और बुधिया ने, गड्ढा खुदवा दिया!
"अन्न?" बोला वो,
"लो!" बोला वो आदमी,
बुधिया ने, पोटलियां खोलीं और, उस गड्ढे में, अन्न बिखेर दिया, जगह जगह!
"लक्खी?" बोला बुधिया,
"हाँ?" बोले वो,
"गोबर उठवा" बोला वो,
"ह..हाँ" बोले वो,
और चल पड़े, कुछ लोग भी चले साथ, छीकड़ों में, भर लाये गोबर, और बुधिया के कहने पर, डाल दिया गड्ढे में, लाते जाते, और डाले जाते, बुधिया, हाथों से बराबर किये जाता उसे!
"जा? देख नहला दी?'' बोला वो,
लक्खी ने लगाई दौड़,
"रुक जा?" बोला बुधिया, लक्खी रुके,
"नहला दी हो, तो किसी कपड़े में लपेट देना, देख, बन्धन कोई न हो, चादर लियो, और लपेट दिया, फौरन ला इधर!" बोला बुधिया,
ले आये लपेट कर, माँ भी आयी, सभी आ गए,
"सुन री? एक दीया ला, बड़ा सा, जो सारी रात जलै!" बोला बुधिया,
माँ लौट पड़ी,
"लक्खी, यहां लिटा दे इसे, सर उधर रख!" बोला वो,
और.......................!!
लक्खी ने, और दो और साथियों ने, उस गड्ढे में, जिसने तीन तरह का अन्न और गोबर डाला गया था, उस रमेली की देह को लिटा दिया गया! रमेली की बहन, एक बड़ा सा दीया ले आयी, ये प्रज्ज्वलित था..
"बेटी? इसे यहां, यहां रख दे" बोला बुधिया,
और वो दीया, सर की तरफ रख दिया गया, दीया अपने कर्म पर सतत लग चुका था! एक पतला सा कपड़ा, रमेली की देह पर, मुख पर रख दिया गया था!
"लक्खी?' बोला बुधिया,
"हाँ, बाबा?" बोले वो,
"तू, इसे छोड़ कहीं नहीं जाना, यहीं बने रहना" बोला वो,
"हाँ बाबा" बोले लक्खी,
"और सुनो रे?" बोले वो आसपास खड़े लोगों से,
"कोई सर्प आये, चाहे कोई भी, कुछ नहीं कहना उसे" बोला वो,
लोगों ने, खामोशी की भाषा में, हाँ कहा! और बुधिया, एक तरफ बैठ गया, वो बैठा रहा, एक घण्टा, दो घण्टे...लोग उसे देखते थे, वो कभी कुछ पढ़ता और कभी कुछ पढ़ता...
"बाबा?' बोले लक्खी,
"हाँ?" बोला वो,
"मेरी बेटी,,,बच जायेगी ना?" बोले लक्खी,
बुधिया के बूढ़े होंठों पर, मुस्कान आयी, सफेद दाढ़ी, ठुड्डी के पास से हिली, बाबा ने हाथ फेरा दाढ़ी पर!
"लक्खी?" बोला बुधिया,
"हाँ बाबा?'' बोले वो,
"सब, देख, उसके हाथों में है" बोला बुधिया, आकाश की तरफ हाथ करते हुए!
"हाँ बाबा, लेकिन मेरी बेटी का क्या कुसूर था? ईश्वर इतना पत्थर कैसे हो सकता है?" बोले लक्खी,
"इसका उत्तर अभी नहीं, बाद में, अपने आप मिल जाएगा लक्खी, सब्र रख!" बोला बुधिया!
दोपहर बीती, और सन्ध्या आयी, कुछ थे, जो अभी भी वहीँ बैठे थे, और कुछ लोग, लौट चले थे, कुछ आते और कुछ जाते! बस, बुधिया और लक्खी, दोनों ही न उठे, वहीँ बीते रहे, बीच बीच में बुधिया, उठ जाता, कहीं चला जाता और फिर लौट आता! आज तो चम्पा के फूल भी न खिले थे, चम्पा जैसे, शोक में डूबी थीं, चमेली के फूल खिले तो थे, लेकिन उनमे आज कोई सुगन्ध न थी...
"भोजन लोगे बुधिया?" पूछा लक्खी ने,
"नहीं" बोला वो,
"सुबह से भूखे हो" बोले लक्खी,
"कोई बात नहीं" बोला वो,
और फिर घिरी रात...........
अब लोग, बेहद ही कम हो गए थे, कुछ थक कर, चले गए थे और जो अब बचे थे, वे भी बैठे बैठे ऊंघ रहे थे, लक्खी से कह कर, दीये में और तेल डलवा दिया गया था, कमाल की बात थी, दीये के पास, कोई पतंगा नहीं था वहां!
रात के तीन बजे होंगे उस समय......
"लक्खी?'' बोला बुधिया,
"हाँ?" बोले वो,
"मैं आता हूँ अभी, काम है, कुछ, तू यहीं रहना" बोला बुधिया,
"कहाँ बुधिया?" बोले लक्खी,
"है कुछ काम, पूजा मान ले" बोला बुधिया,
"ठीक बुधिया" बोले लक्खी,
"लड़की की माँ को बुला ले यहां, तुम दोनों का यहां होना ज़रूरी है" बोला बुधिया,
"हाँ, बुला लेता हूँ" बोले लक्खी,
"अब चलता हूँ" बोला बुधिया,
और लक्खी की आँखों के सामने से, हटते हुए, बुधिया, चला गया वापिस.....वापिस ही चला गया था बुधिया....उस रोज के बाद से बुधिया वहां कभी न देखा गया...
लक्खी, अपनी पत्नी के संग वहीँ बैठे थे, सर को हाथों में पकड़े हुए, समय भाग रहा था..
और फिर आयी काल-बेला की घड़ी......कुछ क्षण, रुक कर, आगे बढ़े, जाने वाले क्षण, आने वाले क्षणों का हाथ पकड़े हुए, ले आये....
और उधर!
उधर, खांसी की आवाज़ आयी! सभी चौंक पड़े! ये खांसी? कौन? कौन?? दौड़ पड़े लक्खी और रमेली की माँ! जल्दी से कपड़ा हटाया, आँखें! खुल गयी थीं रमेली की! माँ बाप पर तो जैसे उस ऊपरवाले का आशीष टूटा! सभी हैरान! सभी के सभी! मौत से खींच लाया था वो बुधिया! आनन-फानन में, रमेली को खींचा गया, माँ की रुलाई फूट पड़ी, देखने वाले, वे भी रो पड़े, पिता जी की तो, ख़ुशी के मारे आवाज़ ही दब के रह गयी, उर्मा, जा दौड़ी अपनी बहन की तरफ! ये सब, इस बुधिया का ही कमाल था! बुधिया का ही!
लेकिन बुधिया? वो कहाँ है?
सभी को हैरत थी! ये तो असम्भव, सम्भव हो गया था! कौन मौत से लौटा है भला? कोई भी तो नहीं? लेकिन, उस रमेली को, सभी ने देखा था, रमेली की देह अकड़ी हुई थी, उसे तत्काल ही ले जाया गया था, स्नान करवाया गया और वस्त्र धारण करवा उसे उसके कक्ष में लिटा दिया गया था, वो जैसे किसी को न पहचान रही थी, न माँ को, न पिता जी को, वो, बस जीवित थी, उस देह में, बस इतना ही!
मित्रगण! चार दिन गुजरे, रमेली से बहुतों ने बात करने का प्रयास किया, वो नहीं बोली किसी से भी कुछ! सभी ने सोचा, कि वो लौट तो आयी है, परन्तु अब उसे होश नहीं, कोई भान ही नहीं, न हंस ही रही थी, न कुछ बोल ही रही थी!
चौथे दिन शाम के बाद, रात हुई, रात गहराई, कुछ सो गए थे, कुछ जागे थे, हाँ, शांति पसरी थी हर जगह! रमेली के पास ही उसकी माँ सोई थी, और बहन, थोड़ा दूर ही, कि अचानक ही रमेली के नेत्र खुले! उसने, बैठ कर, अजीब सी निगाहों से, आसपास देखा! कुछ सुनाई दिया, और वो, निकल पड़ी बाहर! सामने एक सर्प था, छोटा सा ही! वही सर्प! पहली बार मुस्कुराई रमेली, मन ही मन और उस सर्प के पीछे पीछे चल पड़ी! उसका चेतन जागने लगा, अवचेतन ने कड़ियाँ जोड़ दीं! वो चलती गयी, उस बगिया की तरफ, अंदर प्रवेश किया...आसपास देखा उसने....बेचैन सी हुई वो....कभी आगे देखे, और कभी पीछे, कभी सीधे हाथ, कभी बाएं हाथ! कोई नहीं दिखा उसे, मन की मुस्कुराहट, फीकी पड़े, इस से पहले ही....!!
"मृदा?" बोली वो,
"रमेली!" आयी पीछे से आवाज़, पीछे घूमी वो और दौड़ चली रमेली, जा कर, मृदा से लिपट गयी! आंसू बहते इस से पहले ही, मृदा ने उसको देखा, कांपती आँखों से, रमेली को देख, वो आज सबसे अधिक प्रसन्न थी!
"रमेली!" बोली मृदा,
"मेरी बहन!" बोली रमेली!
कुछ पल शान्ति के गुजरे...चैन के...सुकून के....इस पहले कि कुछ घटाएं चाहये, मृदा ने, रमेली के चेहरे को, दोनों हाथों में थामा और.....
"रमेली!" बोली वो,
"हाँ मृदा?'' बोली रमेली,
"ये संसार....ये संसार, हमारा संसार, पृथक है तुम्हारे संसार से, तुम पर विपत्ति आयी, और भी आ सकती हैं, रमेली? एक वचन दोगी? आज तुमसे, तुम्हारी छोटी बहन कुछ मांगती है!" बोली मृदा!
"क्या मृदा?" पूछा उसने, घबरा गयी थी रमेली!
"रमेली, आज के बाद, मैं कभी न लौटूंगी...!" बोली मृदा,
कहर सा टूटा! तूफ़ान सा चला! और रमेली, कांपते होंठों से, जब कुछ बोल न सकी तो, कौली भर ली मृदा की!
"क्यों मृदा?" बोली वो,
"तुम बेहद सरल हो, सरल विरल होता है, सरल पर आपत्ति टूट पड़ती हैं, आज कोई और था, कल कोई और होगा.....रमेली....!" बोली मृदा, बेहद ही दुःख भरी सी...
"हाँ बेटी!" आयी आवाज़, ये बाबा थे मृदा के, आ गए पास में, मृदा ने हाथ जोड़, प्रणाम किया, प्रणाम स्वीकार किया गया!
"हाँ बेटी, हम तुम्हारे साथ हैं, ये कोई नहीं मांगी, और भी लालची साधू आयँगे, और भी कई लोग....यदि....हम संग रहे तुम्हारे तो..." बोले बाबा,
अब न सहन कर सकी वो रमेली! फूट फूट के रोने लगी, उसको रोता देख, मृदा का कलेजा फटा, मृदा के बाबा, थोड़ा दूर हो गए....
"नहीं......नहीं.....नहीं मृदा....नहीं" बोली गिड़गिड़ाते हुए रमेली! मृदा क्या बोले? कुछ न बोल सकी!
तब बाबा आगे आये!
"बेटी! तुम रोओ नहीं...नहीं बेटी....तुम, जब भी स्मरण करोगी मृदा का...मृदा...आ जायेगी!" बोले वो!
मन-माफ़िक़ मुराद सी मिली!
"मेरे होते, तुम्हारा कोई अहित नहीं करेगा...मैं वचन देती हूँ मृदा, जब तक तुम्हारे रक्त की एक बून्द भी रहेगी...मैं..सदैव संग ही रहूंगी....रमेली!" बोली वो,
और रमेली जा दौड़ी मृदा की तरफ! कौली भरी! कोई नहीं! आसपास देखे! चिल्लाये! मृदा मृदा चिल्लाये! उसका रुदन, लोगों ने सुना, दौड़े भागे आये सभी! मृदा, वहीँ रोते रोते....बैठ गयी थी!
रमेली को लाया गया वापिस, माँ बाप ने लाख पूछी, तब, रमेली ने,सबकुछ बता दिया उन्हें! उन्हें हैरत हुई! बहुत ही हैरत! लेकिन ये सच, उन्होंने अपने सीने में ही दफन रखा!
दफन रखना ही बेहतर था, पता नहीं, कौन सा लालची, हठी, नीच क़िस्म का कोई और बाबा न आ धमके!
समय अपनी यादों की पालकी को कभी नहीं रोकता! वो सदैव आगे ही बढ़ता चला जाता है! उसे न रोकने वाला कोई, न टोकने वाला कोई! यहां भी नहीं रुका, और आगे ही बढ़ता चला गया, रमेली...उसका रंग-रूप, सुधरता गया, सुधरता गया और एक दिन, वो ऐसी हो गयी कि हाथ लगाओ मैली हो! ये सब, उस नाग-कुमारी मृदा के कारण था! मृदा न, नाग होते हुए भी एक मानव की व्यथा को देखा, अनुभव किया, संकट तारे उसके और जीवनदान भी दिया! उसने, अपने छोटी बहन होने का पूरा कर्तव्य निर्वाह किया! रमेली, अक्सर उस से मिलती ही रही! अपने सुख-दुःख बांटती रही!
लक्खी बेहद ही सीधे इंसान था, माँ भी, लक्खी के पास जो कुछ भी थोड़ा धन था, उस से उन्होंने, एक छोटा सा मन्दिर बनवाया, ये नाग देवता, देवनाग को समर्पित किया गया! जिस दिन, उस रमेली को जीवित किया गया था, उस दिन अमावस थी, सोमवती अमावस, कहते हैं, कि जब इस मन्दिर का निर्माण हो रहा था, तब, उसका अवलोकन, मृदा एवम मृदा के बाबा ने भी किया था, उनकी सलाह के अनुसार ये मन्दिर बनाया गया था!
समय बीत मित्रगण! चार-वर्ष बीत गए होंगे, उस मन्दिर में, मृदा, प्रत्येक अमाव को आती और अपने नाग-देवता देवनाग का पूजन करती! ये उसका नियम था, ये नियम आज तक ऐसे ही चल रहा है! उस समय, नगर-पालक, नगरपाल, अंजन देव, यही नाम बताया गया था मुझे, के पुत्र ने पहली बार रमेली को देखा, तो देखता ही रह गया! लक्खी और माँ को तो जैसे विश्वास ही न हुआ! विवाह, सम्पन्न हुआ, खूब दावत हुई, जो कि अक्षय सी रही! खूब जेवर चढ़ा, भँवरों से पहले, मृदा से मिली थी रमेली! उसे, उत्तम भविष्य की प्राप्ति हो, कहा था मृदा ने! विवाह हो गया, हाँ, फेरों के बाद, विदाई पर, वो बैदू बुधिया ने भी, कुछ भिजवाया था, ये स्वर्ण-हार था!
विदा हो गयी रमेली! मृदा, उसे देख, जहाँ प्रसन्न होती, वहीँ उसकी कमी भी खलती! ऐसा ही हाल कुछ रमेली का था, जब भी आती, घण्टों मृदा संग, बातें करती, अपना सुख-दुःख बांटती! अपने हाथों से वो रमेली, उस नाग-कन्या को भोजन भी कराती! सच में, वे सगी तो नहीं थी, प्रवृति भी, नैसर्गिकता भी पृथक थी, परन्तु वो एक थीं! एक देह, तो दूजी प्राण!
मित्रगण! ये थी रमेली की गाथा! सोचा, आपको भी बता ही दूँ, प्रयास किया मैंने, कि रमेली का चरित्र और मृदा का चरित्र सदैव ही मान-सम्मान से देखे जाएँ! बुधिया, लक्खी, माँ, उर्मा आदि सभी इस गाथा के चरित्र रहे!
वो मन्दिर, चम्पा के पेड़ों में के बीच, आज भी खड़ा है, आज भी आसपास से लोग, नाग-पंचमी को वहाँ जुड़ते हैं, उस स्थान पर, कोई भी सर्प द्वारा नहीं काटा गया! अब रही बात, रमेली के रक्त-अंश की, तो सम्भव है, वो आज भी हो, कहीं न कहीं! इसीलिए तो, मृदा, अपने नाग-देवता देवनाग का, आभार प्रकट करने आती है! कुछ लोगों ने देखा है उसे, उसे देवी का स्वरुप कहते हैं लोग! कहेंगे ही, ये सब, उसका देवत्व ही तो था!
अम्मा से ये सब, सुनकर, मेरी भी इच्छा हुई, ठीक रमेली जैसी ही, उस देव की प्रतीक्षा! मैंने की प्रतीक्षा, परन्तु न देख सका, वो रात की काल-बेला में आती है, मात्र जांच के लिए, श्रद्धा का आवरण नहीं हटाया जा सकता! मैंने भी नहीं हटाया, हाँ, बस इतना, कि एक बड़े मध्यम आकार के, मृद-भान में, दूध अवश्य रख आया उस मंदिर के समीप ही! वहां फैली, चम्पा, और उसके फूलों की महक, आज भी इस गाथा की याद कराती हैं!
रमली, मृदा और बाबा मृदा के...सभी के सभी...इस गाथा में, आज भी अमर हैं!
प्रणाम है उस सरल रमेली को......
रमेली...वो कुब्ब वाली लड़की........आज भी उसकी छोटी बहन, आ रही है, आभार व्यक्त करने को, अपने नाग-देवता का!
सादर प्रणाम इन सभी को!
साधुवाद!
@1008 हर कोई रमेली जैसा सरल हो जाये, तो विकट कष्ठ भी मिट जाते है, पर नजर तो लालची इंसान की ही लगती है, और परिणाम भी लालच ही भुगतता है। जय हो भैरव बाबा की।