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रमेली! वर्ष २०१२, काल-बेला की वो अज्ञात पुजारिन!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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लक्खी की पकड़ से हट गया साधू! उसकी नज़रों ने कुछ पकड़ लिया था! इसी की जांच करने लगा था वो! छीन-झपट बहुत होती है इस क्षेत्र में! इसीलिए, कोई भी चीज़ अगर बिना मेहनत के मिले तो कौन नहीं लेना चाहेगा! इसीलिए, इस साधू के हाव-भाव बदल गए थे, उसे गन्ध आ गयी थी किसी पकड़ की जैसे! उसने आसपास देखा था और नज़रें उसकी जा कर उसी, उस दीवार पर जा रुकी थीं!
"आ?" बोला जोगन से वो!
और जोगन चल पड़ी उसके साथ, वे चले दोनों और उस दीवार को पर कर गए, आ गयी वो बगिया! यहीं तो मिलती थी मृदा उस से! यहां से रास्ता था उसके आने जाने का! यही शायद उसने पकड़ लिया था!
"जोगन?'' बोला वो,
"हो!" बोली वो,
"जा, लड़की को ला!" बोला वो,
"हो!" बोली वो,
और चल पड़ी लड़की को लेने! वो वहीँ खड़ा रहा, आसपास नज़रें मारता हुआ! साधू पकड़ वाला था, इसीलिए पकड़ लिया था उसने एक ही नज़र में सबकुछ जैसे! पीछे देखा जब देर हुई तो, रमेली नहीं आ रही थी, उसको, उसकी माँ समझा रही थी, बाबा समझा रहे थे, वो जोगन हाथ चला रही थी, लेकिन रेमली, नहीं आ रही थी!
तब वो खुद मुड़ा और चल पड़ा रेमली के पास जाने के लिए! पहुंचा और खड़ा हो गया, देखने लगा उसे, होंठों पर मुस्कान लाते हुए, एक चौड़ी सी!
"छोड़ दो इसे!" बोला वो,
और जोगन ने हाथ छोड़ दिए उसके!
"ऐ लड़की!" बोला वो,
थोड़ा और पास आते हुए!
"सुन लड़की!" बोला वो,
रेमली, मारे डर के उसे देखे! घबरा गयी थी, कभी नहीं साबका पड़ा था उसका ऐसे किसी साधू से या इस प्रकार के अवसर से!
"मैं जान गया हूँ!" बोला वो,
अब माँ-बाबा डरे! क्या जान गए हैं साधू?
"लक्खी?" बोला वो,
"जी?" बोले बाबा,
"इसे जाने दे!" बोला वो,
छोड़ दिया रमेली को, और जाने दिया, रमेली, तेज से, जैसे भाग सकती थी, भाग कर लौटने लगी!
"जा, तू भी जा!" बोला वो रेमली की माँ से!
रेमली की माँ, जैसे किसी मुसीबत से छूटी हो, फौरन ही, लौट पड़ी!
"लक्खी?" बोला वो,
"जी?" बोले बाबा,
"काल से यारी की है?" पूछा उसने,
"क्या?" यकीन ही नहीं हुआ कि कहा क्या साधू ने!
"बता?" बोला वो,
"नहीं समझा जी मैं?" बोले वो,
"काल से यारी की है क्या?" बोला ज़ोर से वो इस बार!
"जी. काल?" बोले बाबा,
"हाँ, काल, मौत!" बोला वो,
मौत सुन, अब हुई सिट्टी-पिट्टी गुम!
"ज....जी?" बोले बाबा,
"तेरी इस लड़की पर, झाला है!" बोला वो,
"झाला?" नहीं समझे बाबा और पूछा,
"हाँ, झाला!" बोला वो,
"क्या हो जी झाला?" पूछा बाबा ने,
"तेरी लड़की यहां की नहीं!" बोला वो,
"जी?" फिर से समझ नहीं आया!
"तेरी लड़की इस दुनिया की नही!" बोला वो,
"क...क्या जी...मतलब?" बोले बाबा, पांवों में कंपन्न होने लगी थी!
"ये वो ही कुबड़ी है?" पूछा उसने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"जन्म वाली?" पूछा उसने,
"हाँ जी" बोले वो,
"ठीक होने लगी है?" बोला वो,
"हाँ जी" बोले वो,
"कब से?" पूछा उसने,
"आठ-दस माह हुए जी" बोले वो,
"कोई आया था?" पूछा उसने,
"कोई? कौन कोई?" पूछा बाबा ने,
"कोई साधू?" बोला वो,
"नहीं जी?" बोला वो,
"फिर?" पूछा उसने,
"क्या जी?" बोले वो,
"कोई तो आया था!" बोला वो,
"नहीं पता जी?" बोले वो,
"कोई दवा लाया था बहाने से?" पूछा उसने,
अब डाला ज़ोर दिमाग पर! हाँ, हाँ! आया था, वो बुधिया!
"ह...हाँ जी..हाँ जी!" बोले बाबा,
"कौन?" पूछा उसने,
"वो बुधिया!" बोले वो,
"कौन बुधिया?" पूछा उसने,
"वो, ऊँचे गाँव वाला?'' बोले वो,
"वो, बैद्य?" पूछा उसने,
"हाँ जी, वो ही!" बोला वो,
"वो आया था?" पूछा हैरानी से,
"हाँ, वो ही आया था जी, एक दवा दे कर गया था, रमेली के लिए, उसने खायी तो असर दिखने लगा!" बोले बाबा,
"अच्छा?' बोला साधू!
और कुछ देर, चुप रहा!
"जोगन?" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हो?" बोली उचक कर वो!
"जा, झारी ले आ तो?" बोला वो,
"हो!" बोली वो,
और चल पड़ी, साधू बाबा के सामान की तरफ! एक झोले में से से कुछ सामान निकाला, सामान में से एक लकड़ी की पेटी सी निकाल ली, और पेटी खोल एक गठरी निकाल ली, गठरी उठा, चल पड़ी वो साधू की तरफ! और थमा दी उसे!
"जोगन?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
इस बार फिर से कंधे उचका कर!
"अंदर से पानी ला?" बोला वो,
"हो!" बोली वो अपना चोगा ठीक किया, एड़ियों की तरफ से उठाया, पांवों में आ रहा था बार बार, सो इस बार पकड़ लिया, गले में लटकीं स्फटिकों की और मूंगों की मालाएं, छट्ट-छट्ट सी आवाज़ें करती हुईं, उसके साथ बजती चली गयीं!
"ये जान का सुआल है, जाना लक्खी?" बोला वो,
उस गठरी को झाड़ते हुए!
"क्या जी?" बोले बाबा,
"जान का सुआल है ये!" बोला साधू,
"जी नहीं समझा मैं?" बोले बाबा,
"जानेगा!" बोला साधू!
और वहीँ बैठ गया उकड़ू, पीछे देखा, तो एक लोटे में पानी ला रही थी वो जोगन, आयी और पानी दे दिया साधू को!
"ले, पकड़?" बोला वो,
और वो गठरी उस जोगन को दे दी, और ले लिया पानी! अब हाथ में रखा पानी, कुछ छींटे उसने सामने डाले कुछ पढ़ते हुए, और इस तरह से चारों तरफ डाल दिए!
"ला?'' बोला वो,
"हो" बोली जोगन,
और दे दी गठरी उसे, अब उसने ख्लो गठरी, गठरी में से, कुछ रस्सियां सी निकलीं, ये कोई वनस्पति सी थी, दो धागे से निकाल लिए और उनको, घुटनों पर रख लिया! बाकी को गठरी में रख कर, एक बड़ी सी गाँठ बाँध दी!
"ले?" बोला वो,
इस बार, चुपके से ही ले ली गठरी जोगन ने!
"ये दियो?" बोला वो,
जोगन झुकी और उन दो रस्सियों को पकड़, पानी में भिगो लिया! पानी में भीगते ही, वो कुछ मोटी सी हो गयीं! अब उनको, पकड़, उसने अपने घुटने में फटकार दी, करीब आठ या दस बार, पानी छिटक गया, और तब वो लक्खी की तरफ घूमा!
"लक्खी?" बोला वो,
"हाँ जी?" बोले बाबा,
"ले, ये ले" बोला एक रस्सी देते हुए उनको!
"इसे अपनी लड़की के सीधे हाथ में बाँध दियो!" बोला वो,
"अच्छा जी" बोले बाबा,
"और सुन?" बोला साधू,
"हाँ जी?" बोले बाबा,
"खीर के लिए चावल, खांड बंधवा दे, पूजा होगी" बोला वो,
"अभी?" पूछा बाबा ने,
"और कब?" बोला साधू,
"अभी, ले कर जानी है" बोली जोगन!
"अच्छा जी!" बोले बाबा,
"और हाँ?" बोला वो,
"जी?" हाथ जोड़ते हुए लक्खी ने कहा,
"लड़की को, उधर, देख उधर, किधर?" पूछा उसने,
वो सामने की दीवार दिखाते हुए,
"उधर जी" बोला लक्खी,
"हाँ, भूल से भी जाने मत दियो!" बोला साधू,
"अच्छा जी!" बोले लक्खी!
"झाला है!" बोला साधू,
"झाला? ये क्या हुआ?" पूछ ही लिया लक्खी ने,
"बसेरा!" बोला साधू,
"बसेरा?"" पूछा लक्खी ने,
कुछ समझ ही नहीं आ रहा था उन्हें!
"हाँ, बसेरा! साँपन का!" बोला साधू!
"साँपन?" डर के पूछा लक्खी ने,
"हाँ!" बोला साधू,
"सांप तो निकला था एक?" बोले बाबा,
"क्या?" हैरानी से पूछा साधू ने,
"हाँ जी, एक" बोले वो,
"कब?" पूछा उसने,
"छह माह हुए?" बोले वो,
"कैसा था?" पूछा उसने,
"ये नहीं देखा" बोले वो,
"बड़ा था, छोटा था?" पूछा साधू ने,
"छोटा सा था" बोले वो,
"कैसे रंग का?" पूछा उसने,
"जी, काला ही होगा" बोले वो,
"किसने पकड़ा था?" पूछा उसने,
"यहीं के हैं जी दो?" बोले वो,
"बुला?" बोला साधू,
"मिल जाएँ तो लाऊं" बोले वो,
"हाँ, यहीं हूँ मैं! जा!" बोला साधू,
अब जोगन भी बैठ गयी, उस दीवार को देखने लगी! वो साधू भी, बार बार उसी दीवार को देखे, कुछ देर बाद, एक आमदी को ले आये लक्खी!
"जय महाराज जी की!" बोला वो आदमी,
''आ, बैठ!" बोला साधू,
बैठ गया वो आदमी वहीँ!
"तूने पकड़ा था वो सांप?" पूछा साधू ने,
"हाँ जी, मैं, और एक और है, वो गया हुआ है" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हूँ, अच्छा कैसा था वो सांप?" पूछा उसने,
"छोटा था" बोला वो,
"कितना?" पूछा उसने,
"जी, इतना" बोला हाथ से बताते हुए,
"बच्चा होगा?" बोला वो,
"हाँ जी" बोला वो,
"किस रंग का?" पूछा उसने,
"चांदी के जैसा" बोला वो,
"चांदी जैसा?" पूछा उसने,
"हाँ जी" बोला वो,
"घेरा कैसा था?" पूछा उसने,
"जी , ऐसा, गोल" बोला वो,
अबकी फिर हाथ से बताया उसने,
"अच्छा" बोला वो,
"जी, सुनहरे रंग का" बोला वो,
"सुनहरा?" पूछा उसने,
"हाँ जी" बोला वो,
"अकेला ही था?" पूछा उसने,
"हाँ" बोला वो,
"कहना छोड़ा?" पूछा उसने,
"उधर, परे में" बोला वो,
"वहां जो बाम्बी हैं?'' पूछा उसने,
"हाँ जी" बोला वो,
"ठीक" बोला वो,
और लगा सामान समेटने,
"जा, बस" बोला वो,
और वो आदमी हाथ जोड़, पाँव पड़ उसके चला गया वहां से!
हाँ लक्खी?" बोला वो,
"जी?" बोले वो,
"अब जा रहा हूँ" बोला वो,
'अच्छा जी" बोले वो,
"तू सामान बंधवा दे" बोला वो,
"जी महाराज" बोलव बाबा,
"और सुन?" बोला वो,
"हाँ जी?" बोले बाबा,
"लड़की पर नज़र रख" बोला वो,
"जी" कहा उन्होंने,
"कहीं न आये जाए" बोला वो,
"अच्छा जी" बोले वो,
"ये झाला है, वो आएगा ज़रूर" बोला वो,
"कौन जी?" गहराते हुए पूछा लक्खी ने,
"वो, सांप" बोला वो,
"सांप?" बोले वो,
"हाँ, रूप बदल कर!" बताया बाबा ने,
"ज..जी?' बोले वो,
"सावधान रह" बोला वो,
"जी" बोले वो,
"ये धागा आज ही बाँध दियो" बोला वो,
"अच्छा जी" बोले वो,
"आसपास देखता हूँ अभी" बोला वो,
"जी" बोले वो,
"जोगन?" बोला वो,
"हो?" कहा उसने,
"खड़ी हो?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"लक्खी से झाड़ू ले आ?'' बोला साधू,
"अच्छा" बोली वो,
"तब तक मैं रास्ता देखूं" कहा उसने,
"हो" बोली वो और खड़ी हो गयी!
"जा लक्खी, झाड़ू दे दे इसे" बोला साधू,
"हाँ जी" बोले बाबा,
जोगन गयी और चली झाड़ू लेने, साधू ने, आसपास देखा तब, बार बार दीवार पर जाकर, उसकी नज़र रुक जाती थी! उसने वहीँ जाकर देखा फिर, अंदर झाँका! इतने में जोगन भी ले आयी झाड़ू!
"आ, इधर?" कहा उसने,
"हो" बोली वो,
"अंदर चल ज़रा?" बोला वो,
"हो" बोली वो,
अब रुक गया वो, कुछ मंतर चलाया उसने, और आँखें बन्द कीं अपनी, जब खोलीं तो पीछे देखा!
"नाग हैं" बोला वो,
"नाग?" बोली जोगन,
"हाँ, नाग!" बोला वो,
"लड़की पर?" बोली जोगन,
"ना!" बोला वो,
"फिर?" पूछा उसने,
"नाग प्रसन्न हुआ है!" बोला वो,
"लड़की पर?" पूछा उसने,
"हाँ!" बताया उसने,
"तब?" पूछा उसने,
"मिलेगा!" बोला वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"सबकुछ! देख तू!" बोला वो,
जोगन चुप, कुछ आया समझ, कुछ नहीं!
"चल, उधर चल ज़रा!" बोला वो,
"हो" बोली जोगन,
और साधू, चलने लगा आगे आगे!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वाह रे बाबा! जब रमेली दुखी थी, तब कोई नहीं आया! जब उसकी देह उसे, खुद ही खा रही थी, तब कोई साधू, महाराज नहीं आया! तब किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया! तब उसे, कैसे निकाल बाहर सा किया था! अब, जब किसी दैविक-शक्ति की सहायता मिली है उसे, तब सभी आने लगे हैं! ये साधू! कौन कहता है ये साधू है! वो जानता है, पहचान गया है, ये भी जान गया है कि रमेली से प्रसन्न हैं नाग! रमेली को, उन नागों के देवता, काल-बेलिया का आशीष मिलना आरम्भ हो गया है, खुशियां आने लगी हैं, ये तो वो देवता जानें और के रमेली! ये साधू? इसका भला क्या काम? अवश्य ही मन में कुछ लालच है इसके! अवश्य ही!
"जोगन?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"ये नाग कैसे आये यहां?" पूछा उसने,
"आप ही जानो महाराज!" बोली वो,
"क्यों आये?" बोला वो,
"नहीं मालूम महाराज!" बोली वो,
"ये अपंग लड़की, क्या देगी भला?" बोला वो,
"नहीं पता महाराज!" बोली वो,
"यही सोच रहा हूँ मैं!" बोला वो,
दाढ़ी खुजाते हुए, फेर दाढ़ी पर हाथ उसने और चलाया अपना खोपड़ा, खोपड़ा ज्सिमे अक्ल तो थी नहीं, क्योंकि, अक्ल तो तभी भाग ली थी खोपड़े से, जब पहली बार उस रमेली को यहां देखा था!
"कुबड़ी क्या दे सकै है?'' बोला अपने आप से,
"नहीं जानू महाराज!" बोली जोगन,
"देह तो बासी है?" बोला वो,
"हो, महाराज!" बोली वो,
"और काम क्या?'' बोला वो,
"नहीं जानूँ महाराज!" बोली वो,
"है कुछ न कुछ तो!" बोला वो,
"क्या महाराज?" बोली वो,
"कोई पूज्जा?" बोला वो,
"कैसी महाराज?" बोली वो,
"मतलब, कोई पूजा की क्या?" बोला वो,
"नहीं जानू महाराज!" बोली वो,
"तो रीझा क्यों?" बोला वो,
"नहीं पता महाराज!" बोला वो,
"जोगन?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"कढ़ौती लाइयो?" बोला वो,
"अभी लायी महाराज!" बोला वो,
कढ़ौती एक घास-फूस से बनी गुड़िया सी होती है, इसमें प्राण डाले जाते हैं, ये जवाब देती है, और राजस्थान में एक प्राचीन जनजाति भी है इस नाम से, उनका काम यही होता था, खोयी चीज़ ढूंढने का, काम पता लगाने का, पन-ओझा आदि का! अब तो ये सब ख़तम सा ही है, हाँ, कहीं कहीं, दूर-देहात में मिल जाएँ तो अलग बात है!
जोगन आयी दौड़े दौड़े, कुछ लोग, दीवार के बाहर से, उन दोनों को देख रहे थे, उन्हें तो सबकुछ नया सा और अजीब ही लग रहा था, बालक-बालिकाएं भी इकठ्ठा हो लिए थे उनको देखने!
"लो महाराज!" बोली वो,
और वो कढ़ौती दे दी साधू को!
"माटी खोद!" बोला वो,
"हो!" बोली जोगन,
और हाथों से मिट्टी खोद ली उसने, खड़ी हो गयी हाथ झाड़ते हुए फिर!
"लो महाराज!" बोली वो,
"पीछे हो जा!" बोला वो,
"हो!" बोली वो और पीछे हो गयी!
अब साधू ने उस गड्ढे में वो कढ़ौती खड़ी की, और पढ़ कुछ, फिर उँगलियों से उस कढ़ौती के पाँव ढकने लगा!
"छोडूं तब! बतावै जब!" बोला वो,
और नीचे झुक, कान रख दिए उस कढ़ौती के पास उसने! पूछे जाये और हिले जाए, पूछे, और मिट्टी हटा दे! और इस तरह, पूरी मिट्टी हटा दे, उठा ली कढ़ौती!
"जोगन?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"ऐ, रख आ!" बोला वो,
"लाओ महाराज!" बोली वो,
और उसे, बालक की तरह से पकड़, चल दी रखने!
"यहां हो सारे!" बोला वो,
और आगे चला गया, पीछे देखा, जोगन आ रही थी!
"जल्दी बढ़?" बोला वो,
और वो ये सुन भाग ली आगे की तरफ! आ गयी वहां!
"महाराज?" बोली वो,
"सुन?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"यहीं हैं सारे!" बोला वो,
"यहां?" बोली वो,
"हाँ!" बोला वो,
"कहाँ महाराज?" पूछा उसने,
"आ!" बोला वो,
और जेब से एक कपड़ा निकाला, हाथ में बाँधा और माथे पर, तीन बार घूंसे से मारे धीरे धीरे!
"चलती आ!" बोला वो,
और आगे चल पड़ा! कई जगह गया, कुछ देखा, पांवों से इधर उधर कुछ डंडियाँ हटायीं लेकिन कुछ नहीं दिखा!
"ज़ोर बहुत है!" बोला वो,
"हो!" बोली जोगन!
"छोडूं नहीं!" बोला वो,
"मतना छोड़ो!" बोली वो,
"पकड़ के लाऊं!" बोला वो,
"पकड़ो महाराज! पकड़ो!" बोली वो,
और वो, फिर से आगे चला! आसपास देखते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"समझा नहीं आता जोगन?" बोला वो,
"क्या महाराज?" बोली वो,
"नाग यहां क्यों आएगा?" बोला वो,
"पता लगाओ महाराज?" बोली वो,
"क्या सिद्ध किया है?" बोला वो,
"किसने महाराज?" बोली वो,
"इस कुबड़ी ने?" बोला वो,
"ना महाराज!" बोली वो,
"कैसे पता चले?" बोला वो,
"लड़ाओ जंतर?" बोली वो,
"लड़ा रहा हूँ" बोला वो,
"काढ़ो पता?" बोली वो,
"हाँ जोगन!" बोला वो!
साधू का दिमाग खराब हुआ था, आखिर कोई नाग यहां क्यों आएगा? नाग का आना अपने आप में बहुत बड़ी बात है! जैसे कोई सिद्धि ही मिली हो! और अगर मिली है तो उस रमेली को क्या ज़रूरत और कैसे मिली? यही जानना चाहता था वो!
तभी एक जगह रुक गया वो!
"रुक जा?" बोला वो,
"हो, महाराज!" बोली वो,
"यहां!" बोला वो,
"क्या महाराज?" बोली वो,
"यहां तक आयी थी वो लड़की!" बोला वो,
"वो कुबड़ी?" बोली वो,
"हाँ, कुबड़ी ही!" बोला वो,
"यहां क्या करने आयी होगी?" चलाई अपनी खोपड़ी उसने, अब जितनी भी थी उसमे!
"जोगन?" बोला वो,
"जी महाराज!" बोला वो,
';समझ नहीं आता!" बोला वो,
"क्या महाराज?" बोली वो,
"गड़बड़ है!" बोला वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"रोकता है कोई!" बोला वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"नहीं पता जोगन!" बोला वो,
"कैसे जनेगा?" बोली वो,
"रुक जा!" बोला वो,
"अच्छा महाराज!" बोली वो!
उसने कुछ जंतर चलाये, सब बेकार! उसने कुछ अमल भी किये, सब फट गए! घबराया तो बिलकुल नहीं वो! घाघ था! भिड़ने को तैयार!
"बिन लड़े न टूटे!" बोला वो,
"अब महाराज?" बोली वो,
"चल, वापिस!" बोला वो,
"फिर?" बोली वो,
"रात को आवेंगे!" बोला वो,
"यहां?" बोली वो,
"हाँ!" बोला वो,
"हो!" बोली वो,
और दोनों चल पड़े, एक जगह, कुछ लकड़ियाँ लीं, ढेर बना दिया लकड़ियों का, निशानी के तौर पर! ताकि रात को सब दिखा जाए आराम से!
"आ जा!" बोला वो,
"हो!" बोली वो,
और दोनों चल पड़े वापिस, वे चले तो तमाशबीन लोग, पहले छितराए! सभी को, अपनी अपनी दिशा में जाते हुए देखा गया तब!
"ओ लक्खी?" बोला वो,
आ गया था लक्खी के कमरे के सामने!
"आया जी!" बोले वो,
और एक थाली नीचे रखते हुए, आये बाहर तक!
"सामना बाँध दिया?" पूछा उसने,
"हाँ महाराज!" बोले वो,
"ला फिर!" बोला साधू!
"लाया जी!" बोले वो, और चले अंदर! आये बाहर, काँधे पर झोला और एक पोटली लिए!
"लो जी!" बोले वो,
"ठीक" बोला वो,
"जी" बोले वो,
"सुन?" कहा साधू ने,
"आज्ञा?" बोले वो,
"रात को आऊंगा अब!" बोला वो,
"जी" बोले वो,
"धागा बाँध दिया?" पूछा उसने,
"हाँ जी" बोले वो,
"बंधवा लिया?' पूछा धीरे से,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बस!" बोला वो,
"जोगन?" बोला वो,
"हो?" कहा उसने,
"ले उठा इसे?" बोला वो, पोटली देते हुए!
"अच्छा लक्खी!" बोला साधू,
"जी" बोले वो,
और चल दिए बाहर के लिए सामान ले जाते हुए अपना! वे गए तो माँ आ गयी वहां!
"क्या बोले?'' पूछा उन्होंने,
"रात को लौटेंगे" बोले वो,
"रात को?" पूछा माँ ने, हैरानी से,
"हाँ" बोले वो,
"क्यों?" पूछा माँ ने,
"नहीं पता!" बोले वो,
और तभी पीछे से................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उधर, रमेली, अपने कमरे में बैठी थी, न जाने उसकी पीठ पीछे क्या क्या हो रहा था! कौन नाग और क्या झाला! उसे तो कुछ नहीं हुआ था? कुछ हुआ था क्या? क्यों वो साधू और वो जोगन पीछे ही पड़ गए थे? माँ-बाबा कैसे हाथ जोड़ जोड़ उनके आगे पीछे हो रहे थे, कैसे हुकुम चला रहे थे और कैसे हुकुम बजवा रहे थे दोनों! चली किसी नाग से मिल भी ली तो क्या हो गया? कुछ मांग लिया क्या उन्होंने? या काट ही लिया किसी को? अरे नाग ही तो हैं? सभी नाग ऐसे ही तो होते हैं? तभी तो देवता कहलाये जाते हैं? इन साधू और उस जोगन को क्या हुआ ऐसा?
बेचारी रमेली! सोच रही थी, सभी नाग देवता ही तो हैं! कैसी भोली थी बेचारी! लेकिन, इसी भोलपन से तो वो नाग-कुमारी मृदा चली आयी थी उसके पास! उसकी इसी श्रद्धा ने तो उस मृदा के बाबा को, बुधिया बना के भेज था! सच बात हे, भोलेपन से साचा और कुछ नहीं, और भगवान इस भोलेपन के ही तो दास बन जाते हैं! किस 'अभोले' को भगवान मिले! किसी को नहीं! सूरदास को कान्हा मिले, भोलेपन से, रसखान को कान्हा मिले, भोलेपन से, विश्वास से, रैदास को गंगा माई मिलीं, विश्वास से, भोलेपन के विश्वास से! और कौड़ी-पीर को माँ जमना मिलीं, भोलेपन से! भोले को तो भोले मिल ही जाएंगे!  कभी कुछ बन के और कभी कुछ बन के! यहां, नाग बन मिले! लेकिन दुनिया! है री दुनिया! न अच्छा खाते सुखी, न अच्छा रहते सुखी! न दुःख में दुखी न सुख में सुखी! फिर भी सामान लाखों का, समेटते रहते हैं हम इस दुनिया में! अब साधू बाबा को ले लो! दुनिया छानी, और टिके यहां जाकर! सोचा कि कुछ मिल ही जाए, कोई सिद्धि, रिद्धि, कोई विद्या कोई जंतर-मंतर!
"रमेली?" माँ बोली,
"हाँ माँ?'' बोली वो,
"धागा सम्भाल कर रखना?" बोली माँ.
"हाँ माँ" बोली धागे को देख कर, 
"रात को लौटेंगे वो" बोली माँ,
"कौन?" पूछा उसने,
"वो साधू और जोगन" बोली माँ,
"अब क्यों माँ?" पूछा उसने,
"पता नहीं, कह के गए हैं" बोली माँ,
"अच्छा" बोली रमेली,
तो जी, इस तरह, दोपहर बीती, सांझ ढली! आज उसको नहीं भेजा माँ ने फूल चुनने, आज उसकी जगह एक और लड़की गयी, रमेली, घर में ही रही!
घण्टा बीत गया, फूल नहीं आये! आयी तो लड़की, खाली हाथ!
"क्या हुआ?" माँ ने पूछा,
"कुछ नहीं हे आज तो?" बोली वो लड़की,
"क्या?" माँ ने अविश्वास से पूछा,
"हाँ, एक भी फूल नहीं?" बोली लड़की,
"ऐसा कैसे हो सकता हे?" बोली माँ,
"आप खुद देख लो?" बोली लड़की,
"कली भी नहीं?" पूछा गया,
"नहीं, पेड़ ही खाली है!" बोली लड़की,
"पागल है क्या?' माँ ने पूछा,
"आप देख लो?" बोली लड़की,
''चल दिखा?" बोली माँ,
और उठ कर चली, पहुंची, देखा तो न फूल ही न कली ही, पेड़, एकदम से खाली! माँ के तो होश उड़े!
"कौन ले गया?" बोली माँ,
"कोई नहीं" बोली लड़की,
"दोपहर में तो थे?" बोली माँ,
"अब नहीं हैं?" बोली वो,
"कोई आया था?" पूछा माँ ने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"ऐसा कैसे हुआ?" पूछा माँ ने,
"नहीं पता!" बोली लड़की!
"दूसरे पर देख?" बोली माँ.
"नहीं है" बोली वो,
"उस पर भी नहीं?" पूछा माँ ने,
"नहीं" बोली लड़की,
बड़ी अजीब बात हुई ये तो!
"आ संग?" बोली माँ,
"हाँ" बोली वो,
और चले दूसरी तरफ, यहां भी कोई फूल नहीं! और तो और, अनार के पौधों पर भी कोई कली नहीं!
"सुबह तक तो ढेर था यहां?" बोली माँ,
"मुझे क्या पता?" बोली वो,
"अब?" बोली माँ,
"क्या?'' पूछा उसने,
"एक काम कर, उधर से ले आ?" बोली माँ,
"अच्छा" बोली लड़की,
और माँ ने, पल्लू से बंधे कुछ सिक्के पकड़ा दिए उसे, अब मोल खरीदने थे! यहां तो एक घास के तिनके पर भी एक फूल नहीं था, जैसे किसी ने सारे तोड़ दिए हों और ले गया हो साथ अपने!
सिक्के पकड़, वो लड़की चली वहाँ से, और माँ, सोच में डूबी हुई, चल पड़ी अपने कमरे की ओर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब लड़की गयी जी बाहर की तरफ, अब तो मोल ही खरीदने पड़ते, फूल नहीं मिल पाते तो समस्या ही हो जाती, रंगशाला का सारा काम और साज-सज्जा फूलों से ही होता था! पिछले बचे फूल काम आते नहीं, इसीलिए नए फूल लाना बेहद ज़रूरी था! माँ का दिमाग गरम हो चला था, भला, सुबह जो फूल गए थे, अपनी आँखों से देखे थे, दोपहर तलक तक भी फूल थे, अब कौन ऐसा आ गया कि एक भी फूल न बचे? क्या आकाश खा गया उन्हें या फिर खुद पेड़ ही? माँ कमरे में लौट चली,
कमरे में आयी तो, कमरे में, रमेली अकेली ही बैठी थी, कुछ माह्वर सी तैयार करते हुए,
"रमेली?" बोली माँ,
"हाँ माँ?'' बोली वो,
"तूने सुबह फूल देखे थे?" पूछा माँ ने,
"फूल?" बोली वो,
"पेड़ पर?" बोली माँ,
"हाँ?" बताया उसने,
"अब एक भी नहीं?" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"हाँ, एक भी नहीं?" बोली माँ,
"कौन ले गया?" पूछा उसने,
''कोई भी नहीं आया?" बोली माँ,
"तब कहाँ गए?" पूछा उसने,
"मुझे क्या मालूम?" बोली माँ,
"अब?" बोली वो,
"मोल लेने भेजा है" बोली माँ,
अभी बात चल ही रही थी कि वो लड़की आ गयी, खाली हाथ, इशारा किया उसने, कि नहीं मिले फूल!
"क्या हुआ?" पूछा माँ ने,
"नहीं हैं" बोली वो,
"क्या?' बोली माँ,
"हाँ, नहीं हैं" बोली वो,
"कौन मिला?" पूछा माँ ने,
"आयी" बोली वो,
"क्या बोली?'' पूछा फिर से,
"मना कर दिया" बोली वो,
"कुछ भी नहीं?" बोली माँ,
"ना, कुछ भी नहीं" बोली वो,
"कहीं और से?" बोली वो,
"बन्द है" बोली वो,
"क्या और कहीं नहीं?" पूछा माँ ने,
"नहीं" लड़की ने रखी डलिया, दलिया में सिक्के रखे, और चल पड़ी बाहर!
ये तो बड़ी मुसीबत हुई, अब कहाँ से लाएं फूल? समय पहुंच ही रहा था, पूजन का भी और रंगशाला का भी, नहीं मिले तो किसे होगा? माँ का तो सांस सा फूला!
"अब क्या करें?" बोली माँ,
"क्या?" पूछा रमेली ने,
"फूल कहीं नहीं?'' बोली माँ.
"मैं लाऊं?" बोली वो,
माँ हैरान!
"तू कहाँ से लाएगी?" पूछा,
"कोशिश करती हूँ" बोली वो,
"कहाँ से?" पूछा माँ ने,
"देखूं तो सही?" बोली वो,
"कोई और भी जगह है क्या?" माँ ने पूछा,
"पता नहीं" बोली वो,
"पहेली मत बुझा?" बोली माँ,
"सच कह रही हूँ" बोली वो,
"कुछ सच?" पूछा माँ ने,
"शायद मिल जाएँ?" बोली वो,
"जा फिर?" बोली माँ,
"जाती हूँ" बोली रमेली, सामान छोड़ा वहीँ, पसीना पोंछा कोहनी से, बांस की डंडी वही रखी घोलने वाली और चली डलिया तक,
"किसी को भेजूं?" बोली माँ,
"नहीं" बताया उसने,
"ले आएगी अकेली?" पूछा माँ ने,
"हाँ" कहा उसने,
"पड़ोस में जाए?" बोली माँ,
"देखो अब?" बोली रमेली,
डलिया से सिक्के निकाले, और माँ के हाथों में रख दिए, फिर देखा माँ को,
"दूसरी डलिया?" बोली वो,
"एक ही बहुत?" बोली माँ,
"लाओ तो?" बोली वो,
माँ उठी, डलिया को साफ़ किया और दे दिया उस रमेली को!
"यहीं बैठो" बोली रमेली,
"अच्छा, जा?" बोली माँ,
चली गयी रमेली, माँ ने पसेचे सेदेखा, वो जा रही थी, पहले अपने वाले पेड़ों के पास, वहाँ रुकी, देखा, कुछ नहीं, फिर चल पड़ी, इस बार, उधर, उस दीवार के आगे, अब माँ को न दिखे!
रमेली उस बगिया में आयी, चली एक तरफ, देखा उधर, तो फूल ही फूल! मुस्कुरा उठी वो, तोड़ने लगी फूल एक एक करके!
पीछे से आवाज़ आयी!
"रमेली!" आयी आवाज़,
पीछे देखा तो वही लड़की! मुस्कुरा पड़ी वो!
"आओ, इधर से ले लो!" बोली वो,
और खुद ही, तोड़ तोड़ भरने लगी उसकी डलिया!
"कोई आया था" बोली रमेली,
"वो साधू?" बोली लड़की,
"हाँ" बोली वो,
"तो क्या हुआ?" बोली हंसकर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं डर गयी थी!" बोली रमेली,
"रमेली, मेरे होते हुए कभी नहीं डरना!" बोली वो,
मुस्कुरा पड़ी रमेली!
"फूल चाहिए न?" बोली मृदा,
"हाँ, आज हमारे यहां एक भी फूल नहीं" बोली वो,
"कोई बात नहीं, यहां से ले जाया करो!" बोली मृदा,
"बार बार?" बोली रमेली,
"तो क्या हुआ?" पूछा उसने,
रमेली ने फूल उठने शुरू किये, कि उसके हाथ पर बंधा वो धागा सा दिखाई दिया उसे, मृदा आगे आयी!
"रमेली?" बोली मृदा,
"हाँ?" बोली वो, ज़रा चौंक कर,
"ये किसने बाँधा?" पूछा उसने, धागे की तरफ इशारा करते हुए,
"ये, माँ ने बाँधा" बोली वो,
"क्या साधू ने ऐसा कहा?" पूछा उसने,
"हाँ, उन्हीं ने" बोली वो,
"उठो?" बोली मृदा,
उठ गयी रमेली,
"हाथ आगे करो?" बोली मृदा,
रमेली ने हाथ आगे किया और उस धागे को, छुआ, छूटे ही, उसने, पीले से रंग से हट कर, हल्का-पीला सा रंग ले लिया!
"लो, ये भी फूल लो!" मुस्कुराते हुए, मृदा ने, ताज़े फूल उठाकर, दे दिए उसे, रमेली ने, वो सभी फूल, अपनी डलिया में रख लिए!
"रमेली?" बोली मृदा,
"हाँ?" कहा उसने,
"मैं छोटी बहन हूँ न तुम्हारी?" बोली मृदा,
"हाँ!" बोली वो,
"कभी भी, याद करना, मैं आ जाउंगी!" बोली वो,
मुस्कुरा पड़ी रमेली, उसे तो भान ही नहीं था कि मृदा का आशय है क्या!
"अब जाती हूँ" बोली रमेली,
"हाँ"' कहा मृदा ने,
मृदा ने कन्धे  पर हाथ रखा उसके, और रमेली, लौटी वहाँ से वापिस फिर, रह गयी देखती हुई मृदा उधर!
मृदा के पीछे तभी, कुछ आहट सी हुई, उसने पीछे मुड़कर देखा, उसके बाबा थे ये! वे चले आये मृदा के पास!
"मृदा!" बोले वो,
"जी?" बोली वो,
"रमेली बहुत प्यारी बेटी है!" बोले वो,
"हाँ!" बोली मृदा,
"परन्तु, अब राह कठिन होने को है!" बोले वो,
"जानती हूँ" बोली वो,
"क्या तब भी?" पूछा बाबा ने,
"हाँ!" बोली वो,
"प्रत्येक रूप से?" बोले वो,
"हाँ!" बोली वो,
"मृदा?" बोले वो,
"हाँ?" कहा उसने,
"हम नाग हैं!" बोले वो,
"और वो, एक सामान्य सी मानव!" बोली वो,
"हाँ!" बोले वो,
"कहिये?' बोली वो,
"उनकी प्रवृति और प्रकृति, हमसे सदैव पृथक हैं!" बोले वो,
"हाँ, जानती हूँ" बोली वो,
"मेरा आशय?" बोले वो,
"हाँ, वो भी!" बोली वो,
"अब वो ठीक होने को है" बोले वो,
''हाँ!" बोली वो,
"तब समझती हो?" बोले वो,
"हाँ!" बोली वो,
मुस्कुरा पड़े बाबा उसके, और लौट चले वापिस, रह गयी मृदा वहीँ, वहीँ, उसे तो रहना था उधर ही! कारण तो ज्ञात ही था!
"इतने सारे फूल?" माँ के तो होश उड़े!
"हाँ माँ!" बोली वो,
"कहाँ से?" पूछा माँ ने,
"वहीँ, उधर से!" बोली वो,
"कोई था नहीं?" बोली माँ,
"हाँ, था न?" बोली वो,
"कौन?" पूछा माँ ने,
"मेरी सखी है न?" बोली वो,
"सखी?" माँ के मन में, फाट पड़े अब!
"हाँ माँ" बोली वो,
"कौन सखी?" पूछा माँ ने,
"जिनकी वो बगिया है?" बोली वो,
"लेकिन वहां तो कोई नहीं रहता?" बोली माँ,
"वो दूर गाँव में रहते हैं!" बोली रमेली,
और अपना काम कर, वो फूल रख, बाहर चली गयी, कुछ वस्त्र धोये थे उसने, उनको लेने के लिए, और इधर माँ, माँ के मन में कुछ और ही आने लगा!
मित्रगण!
उसी रात करीब नौ बजे के बाद, उस स्थान पर, छौहन साधू ने प्रवेश किया, आज अपने साथ एक और सहायक ले आया था!
"लक्खी?' बोला वो,
"जी?" बाबा ने हाथ जोड़ कहा,
"लड़की कहाँ है?" पूछा उसने,
"यहीं है महाराज!" बोले वो,
"बुला?'' आदेश सा दिया उसने,
"अभी" बोले वो,
और चले बुलाने लड़की को, उधर, उस साधू ने,अपना सामान निकाल लिया था, कुछ सामान लाया था अलग सा ही, जैसे, किसी सांप को पकड़ने आया हो!
"जोगन?'' बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"लड़की को, तार लेना!" बोला वो,
तार लेना मतलब, अपने संग ही रखना!
"हो महाराज!" बोली वो,
"ले जाऊँगा आज ही!" बोला वो,
"महाराज!" बोली जोगन!
और रमेली के बा, आ रहे थे, रमेली साथ ही थी उनके, माँ भी, माँ के चेहरे पर चिंता बहुत थी! बहुत!

   
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श्रीशः उपदंडक
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आ गए वे दोनों साधू के पास, साधू ने, उस रमेली को ऐसे देखा जैसे कि वो कोई शिकार हो! रमेली, बेचारी, अनजान सी, वहीँ खड़ी रही!
"जा लक्खी?" बोला वो,
"जी?" बोले बाबा,
"जा, ये यहीं है!" बोला वो,
"अच्छा जी" बोले बाबा,
और चल दिए वहां से, रह गयी माँ उधर, अब देखे रमेली को!
"तू जानती है कुछ?" बोला साधू, रमेली की माँ से!
"क्या जी?" बोली माँ,
"तेरी लड़की पर झाला है!" बोला वो,
"झाला?" माँ न समझ पायी!
"हाँ, झाला! नहीं जानती?" बोला साधू,
"नहीं जी?'' बोली वो,
"तेरी लड़की नागों के लपेटे में है!" बोला वो,
"नागों?" माँ ने घबराते हुए, थूक गटकते हुए पूछा!
"हाँ, नाग!" बोला वो,
"अब?" माँ तो घबरा ही गई!
"तू चिंता मत कर!" बोली जोगन,
"मेरी बड़ी लड़की है जी ये" माँ बोली, पसीने लाते हुए,
"कुछ नहीं होगा इसे!" बोला वो साधू,
"जी" बोली माँ,
"बस लड़की को समझा दे कि ये वो ही करे जो मैं कहता हूँ!" बोला वो साधू,
"जी, वही करेगी!" बोली माँ,
"ठीक! अब जा!" बोला साधू!
तो ये सुन, माँ चल पड़ी, ज़्यादा दूर नहीं गयी, एक पेड़ के पास, जाकर, बैठ गयी, हालांकि अब कुछ सुनाई नहीं देता उसे!
"ओ लड़की?" बोला साधू,
रमेली ने उसकी तरफ देखा!
"सच सच बता!" बोला वो,
"क्या?" घबराते हुए पूछा उसने,
"कौन मिलता है तुझसे?" पूछा साधू ने,
"मेरी छोटी बहन" बोली वो,
सीधी-साधी थी, झूठ भला क्या जाने बोलना!
"क्या नाम है?'' बोला वो,
"मृदा" बोली वो,
"मृदा! उम्र क्या होगी?" बोला वो,
"छोटी है मुझ से" बोली वो,
"और कौन आता है उसके साथ?" पूछा उसने,
"उसके बाबा" बोली वो,
"बाबा?" बोला साधू चौंक कर!
"हाँ" बोली वो,
"और कौन?" पूछा उस से,
"कोई नहीं" बोली वो,
"क्यों मिलते हैं तुझसे?" पूछा उसने,
"मुझे क्या पता?" बोली वो,
"हम्म! बहन!" बोला वो,
रमेली, इस बार तो झुंझला ही गयी! तभी, उस साधू की नज़र पड़ी उस धागे पर, जैसे ही देखा, हाथ पकड़ लिया रमेली का!
"ये?" बोला वो,
"क्या महाराज?" बोली जोगन,
"ये तो....?" बोलते बोलते रुक वो,
"क्या जी?" सहायक बोला वो,
"ये?'' बोला वो,
"ये धागा?" बोला सहायक!
"हाँ?" बोला वो,
"देखूं?" बोला सहायक,
और जैसे ही हाथ लगाया कि वो काँपा! छिटक गया दूर जैसे, अंगूर के गुच्छे में से टूट कर, कोई अंगूर गोल गोल घूमता दूर जा पड़ा हो! ये देख सभी के होश उड़े! साधू ने जा कर, फौरन उसे जा पकड़ा! और आ गया गुस्से में!
आया वो गुस्से में रमेली के पास!
"तू फिर गयी थी?" बोला चीख कर,
न बोली रमेली कुछ भी!
"बता?" चीख कर बोला वो,
"हाँ" बोली रमेली,
"क्यों?" पूछा उसने,
"फूल लेने" बोली वो,
"कहाँ से?" पूछा उसने,
"बगिया से" बोली वो,
"चल, चल ज़रा?" बोला वो,
और जोगन ने हाथ रख रमेली के कन्धे पर, आगे बढ़ी वो!
"ठहर जोगन?" बोला वो,
"क्या महाराज?" बोली वो,
"ओ, बाती ले आ?'' बोला वो,
"अभी महाराज" बोली जोगन
लौटी और झोले में से, एक डिबिया निकाली, उसकी बत्ती खींची और जला दी, थोड़ा उजाला सा हो गया था!
"चल, आगे चल?" बोला वो,
जोगन आगे चली!
"रुक?" बोला वो,
रुक गयी जोगन!
"लड़की?" बोला वो,
रमेली ने देखा उसे, इस बार तो गुस्से में!
"चल, तू चल आगे?" बोला वो,
रमेली चल पड़ी, पीछे पीछे वो! आ गयी दीवार, और फिर वो रास्ता, अंदर जा, दाखिल हुई रमेली, पीछे पीछे सब!
"जोगन?" बोला वो,
"महाराज?" बोली वो,
"मेरे पीछे रह!" बोला वो,
"महाराज!" बोली वो,
"डिबिया दे तो ज़रा?" बोला वो,
अब डिबिया ली उसने, उसके हाथों से, हाथ में ले, कोई मन्त्र सा पढ़ा, पढ़ते ही, उसके चेहरे पर गंभीरता दौड़ आयी!
"तू पीछे जाओ सब!" बोला वो,
सभी पीछे हो गए उसके!
"यहीं रुकना, आगे नहीं बढ़ना, यहां सांप ही सांप हैं!" बोला वो,
सांप? कहाँ? एक भी नहीं? एक भी नहीं! सोचे रमेली!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जोगन?" बोला वो,
"महाराज?" बोली वो,
"ज़रा मेरी पुतली निकाल?" बोला वो,
"अभी" बोली वो,
उस जोगन ने, सामान लिया उस सहायक से, झोले में खटर-पटर की, और एक थैली सी निकाल ली, थैली का मुंह खोला, रस्सी खींच कर, और एक कपड़े की सी बनी हुई पुतली निकाल ली!
मित्रगण! मैंने सुना भी है और इसके सबूत भी देखे हैं, कि ये पुतली एक 'पुतली-तन्त्र' का हिस्सा रही है! राजस्थान में तो बहुत ही ज़्यादा, जो जानकार हैं, वे कालांतर में अलग अलग हिस्से में, पूरे देश में, इसको ले गए! इस पुतली में कोई शक्ति प्रविष्ट कराई जाती है, तब ये, उस पुतलीवाले से वार्तालाप करती है, इस सभी कार्य करने में, अथवा, मार्ग दिखाने में काम में लायी जाती रही है! कहते हैं, राजस्थान के कई किलों में तो आसाद-प्रासाद, बावड़ी, शीश-महल आदि बनाये जाते थे, इन्हीं पुतलियों द्वारा इंगित हुआ करते थे! विश्वास तभी हो सकता है कि जब इनको देखा जाए! इन स्थानों को, कई बावड़ियां, आज भी ठंडा, मीठा जल दे रही हैं, कुछ मियादी थीं, मियाद पूरी होते ही ख़त्म हो गयीं! पानी कहाँ है भूमि में, क्या बोया जाए, कब कैसे हो, ये सब जाना जाता था! इन पुतलियों की शक्ति का लाभ लेने हेतु, बलियां भी चढाई जाती थीं! अब जो जानकार शेष हैं, या तो वो आगे बता नहीं रहे, या, कोई सीखने वाला ही नहीं अब! जीवमान अब बदल गया है, लोगों की सोच, आचार-व्यवहार, आदि सब! ऐसी एक जोगन से मैं मिला था, ये नीमच की बात है, कई वर्ष हुए, उस जोगन ने, पुतली से पूछ सबकुछ बता दिया था! ये पुतली, ख़ास सामग्री से, ख़ास वक़्त पर, ख़ास ही तरीके से बनाई जाती थीं! ये 'बंजार-विद्या' का ही हिस्सा है!
खैर, उस साधू को पुतली दे दी गयी, उसने एक जगह बैठ कर, एक जगह साफ़ की, और एक चित्र सा, ऊँगली से बनाया, अब उस चित्र के बीचोंबीच वो पुतली टिका दी! ये पुतली, काले रंग की कमीज़ सी, काला घाघरा सा बाँधा हुआ था, हाथ में, एक चाक़ू और दूसरे हाथ में, एक कोड़ा सा था!
वो साधू बैठ गया नीचे, और कुछ मन्त्र पढ़े! वो इस पुतली को जगा रहा था! उसके शब्द, सभी अजीब से ही थे! ये शब्द, शङ्ग-स्वर के हुआ करते हैं! प्रत्येक शब्द, नाक के अंदर, अं पर समाप्त होता है!
"बता?" बोला वो,
और मुंह रखा पास पुतली के,
उसे कुछ उत्तर मिला था!
"कितने?" पूछा उसने,
और फिर से मुंह आगे किया, सर, हाँ में, दो बार हिलाया उसने,
"कौन?" बोला वो,
और उसे उत्तर मिला,
"कब?" पूछा उसने,
"अच्छा!" बोला वो,
और एक जयनाद सा किया!
"बीनू?" बोला वो,
बीनू उस सहायक आगे आया, और खड़ा हो गया उधर!
"बीनू?" बोला वो,
"हो?" बोला वो,
"खूजम कोहा!" बोला वो,
इस का अर्थ हुआ, तू तैयार रहना!
"हो!" बोला वो,
और कन्धे से, एक दंड सा उतार लिया, इस दंड पर, एक तरफ, लोहे के कुछ छल्ले से पड़े थे, और नीचे, धनुष की तरह से एक डोर लटकी थी! लगता था, कि वो सांप पकड़ने वाले हैं!
अब साधू ने, वो पुतली उठा ली, उसे ऐसा अपकड़ा और बिठाया गोद में, जैसे कि वो कोई छोटी सी बालिका हो!
वो आगे चला, हिलते-हिलाते! साधू वाक़ई में ही, खेला-खाया था! उसे अनुभव था, ये तो पता चल ही रहा था!
"ओ ओप!" बोला साधू और रुक गया!
वो रुका तो सब रुके! हाथ रखे उस रमेली पर, जोगन भी रुकी! वो बेचारी रमेली, कुछ समझ ही न पाए!
"आ लिया!" बोला साधू,
"बीनू?" बोला वो,
"हो?" बोला वो,
"यहां आ?" बोला साधू,
"हो!" बोला सहायक, और आगे आ गया!
"बिल दिखा कोई?" पूछा उसने,
अब की डिबिया आगे, आसपास देखा,
"नाह जी!" बोला वो,
"आगे देख?" बोला वो,
"हो!" बोला सहायक,
अब उसने आगे, पीछे, हर तरफ देखा, कोई बिल नहीं!
"दिखा?" पूछा साधू ने,
"नाह जी!" बोला वो,
"रुक!" बोला साधू,
और उसने एक चित्र सा खींच फिर, ज़मीन पर ऊँगली से, रख दी वो पुतली उधर! सर हिलाया पांच-छह बार!
"कारी! जम जम कारी!" बोला साधू,
और लगा दिए कान पुतली के पास ही, झुक कर, बैठ कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बीनू?" बोला वो,
"हो?" कहा उसने,
"तैयार रह!" बोला वो,
"हो!" बोला वो,
अब खड़ा हुआ साधू, और लिया उसने वो दंड हाथ में, छल्लों को फटकारा उसने और पढ़ एक मन्त्र!
"हो जाओ पीछे!" बोला वो,
सभी हुए पीछे! और उस साधू ने, उस दंड से, वो ज़मीन छुआ दी! जैसे ही ज़मीन छुआई, मिटटी ऊपर उठी और कुछ आवाज़ करते हुए, फट पड़ी! एकदम से, साधू नीचे बैठा! और देखने लगा वो जगह!
"निकल गया!" बोला वो,
"हो?" बोली जोगन,
"निकल गया, यहां था!" बोला वो,
"सांप?" बोला बीनू,
"हाँ, निकल गया!" बोला वो,
क्या सही और सधा हुआ वार किया था साधू ने! वो पारंगत था, साफ़ पता चलता था, ख़ाक-धूर नहीं छानी थी उसने ज़िन्दगी में!
"जावेगा कहाँ?" बोला वो,
और दंड ले लिया हाथ में!
"बीनू?" बोला वो,
"हो?" बोला बीनू,
"यहां आ!" बोला वो,
आ गया बीनू साथ में ही!
"ये डिबिया पकड़?" बोला वो,
बीनू ने डिबिया ले ली!
तभी एक आवाज़ सी हुई, बड़ी ही तेज! सर्र की सी आवाज़! आसपास से, जैसे ही आवाज़ सुनी उस साधू ने, फौरन ही दंड उठा लिया अपना!
"सौगन्ध कोकड़ की! कौन है?" बोला वो,
और आसपास देखा उसने, अब कोई आवाज़ नहीं थी!
"बीनू?" बोला वो,
"हो?" बोला बीनू,
"यहां बसेरा है, बड़ा बसेरा! ध्यान रख!" बोला वो,
"हो, महाराज!" बोला वो,
"आगे चल?" बोला वो,
और अँधेरे को चीरते हुए, वे आगे बढ़ चले, यहां तो पेड़-पाड़ थे, काफी घनेरा था यहां! साधू ने, डिबिया खुद ली अपने हाथ में और रुक गया वो!
"लड़की?" बोला वो,
अब रमेली ने देखा उसे,
"इधर आ?'' चीखा वो!
उस जोगन का हाथ झिड़क उसने, और सरपट, दौड़ ली वहाँ से, अपने आवास की तरफ! वे सभी चिल्लाते रह गए, लेकिन रमेली, नहीं रुकी!
"अब?" बोला बीनू,
"जान दे!" बोला वो,
"कोई फरक नाह?" बोला वो,
"ना!" बोला वो,
"जोगन?" बोला वो,
"हो महाराज?" बोली वो,
"आगे आ?" बोला साधू,
अब वो जैसे ही आयी आगे, कि सामने से, तेज आवाज़ हुई! सभी ठिठक कर रह गए! सभी चुप!
"शहहह!" बोला साधू,
अब सभी चुप!
"हिलना नहीं!" बोला फुसफुसा के,
कोई न हिले!
"ऐ?" बोला साधू!
और लिया दंड आगे उसने!
"सौगन्ध कोकड़ की! जो भी हो सामने आ!" बोला वो,
कोई नहीं आया उधर!
"सौगन्ध कोकड़ की!" बोला वो,
नहीं आया कोई भी!
"ऐसे नहीं मानेगा?" बोला साधू,
कोई हरकत नहीं!
"जला दूंगा एक एक को!" बोला बुक्का फाड़ते हुए सा वो!
कुछ पल बीते, और कोई नहीं आया!
"नहीं बाजेगा?" बोला वो,
कोई नहीं जी, कोई नहीं आया!
"ख़ुम्बो वाली तैय्या माता!" बोला साधू,
और आवाज़ हुई इस बार! जैसे किसी सांप ने फुंकार भरी हो! ठीक सामने से ही! साधू ने डिबिया आगे की, और देखा कुछ, लगा, कोई खड़ा है उधर, पेड़ के सहारे, जैसे छिप रहा हो!
"धोरै आ रहा हूँ!" बोला वो,
और आगे चला साधू!
"यहीं रहो!:" बोला अपने साथियों से वो! और खुद चला आगे, कुछ दूर जाकर, ठहर गया!
"सामने क्यों नहीं आता?" चिल्लाया साधू!
नहीं, कोई पेड़ के पीछे ही रहा, कोई नहीं आया सामने उस समय!
"न बाजेगा?" बोला वो, और दंड, किया आगे, लोहे के छल्ले फटकारे उसने, और चिल्लाया बड़ी ही तेज..


   
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श्रीशः उपदंडक
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रुके गए थे वे सभी! जो कुछ भी था, उस दंड लिए साधू को दीख रहा था! साधू सिद्धहस्त था इस विद्या में! पहचान ही गया था वो!
"सामने आ?" बोला वो,
कोई नहीं आया,
"नहीं आता?" बोला वो,
कोई नहीं आया!
"खेंच लाऊंगा!" बोला वो,
और अबकी बार, चल पड़ा, हाथ में डिबिया लेकर! सीधा गया और उस पेड़ तक पहुंचा! वहां तो कोई नज़र नहीं आया उसे! जो भी था, चला गया था!
"खेल दिखाता है?" बोला वो,
शान्ति, हर जगह शान्ति!
"कोई बात नहीं, मुझे नहीं जानता!" बोला वो,
और उसने उस डिबिया जको नीचे रखा, नीचे रखा तो पीछे देखा, कोई नहीं था, उसके साथी, पीछे अँधेरे में खड़े थे!
"सुन ले! चला जाऊँगा! नहीं आऊंगा! सुन ले!" बोला वो,
अब भी कोई हरकत नहीं!
"नहीं आएगा, तो खेंच लाऊंगा!" बोला वो,
नहीं जी, कोई नहीं आया!
"नहीं मानेगा ऐसे?" बोला वो,
और साधू, धम्म से नीचे बैठ गया!
"अब देख, हैं जाने दूंगा!" बोला वो,
और उसने डिबिया की रौशनी से, एक घास का टुकड़ा लिया, ये पौधा था कोई सूखा हुआ! और पढ़ मन्त्र!
जलाया वो टुकड़ा और फेंक दिया सामने! भक्क की सी आवाज़ हुई और वहां, मिट्टी सी उडी!
"भाग ले! भाग ले जितना भागना है!" बोला वो,
उसने फिर से एक टुकड़ा लिया, जलाया और फेंक सामने ही! इस बार आवाज़ सी हुई! वो हुआ खड़ा!
:"क्या चाहता है?" आयी आवाज़, किसी मर्द की सी!
"आया न?'' बोला वो,
और हंस पड़ा तेज तेज!
"क्या चाहता है?'' आयी फिर से आवाज़!
"एक बलेरी!" बोला वो,
बलेरी, मायने, ताक़त, कोई विशेष ही ताक़त!
"नहीं!" आयी आवाज़,
"नहीं?" बोला वो,
"नहीं" आयी आवाज़,
"शकता?" बोला वो,
"नहीं" आयी आवाज़,
"देना होगा!" बोला वो,
अब कोई आवाज़ नहीं!
"फूंक डालूंगा!" बोला वो,
कोई आवाज़ नहीं!
उसने फिर से घास ली, मन्त्र पढ़, और जलाई, फेंकी सामने!
पटाक! पटाक!
आवाज़ हुई और मचा कोहराम सा! सैंकड़ों सर्प, वहां आ गए! कोई कहीं भागे और कहीं! साधू वहीँ बैठा रहा, हाथ ऊपर किये हुए!
"फूंक डालूंगा!" बोला तेज तेज!
तभी अचानक, एक रौशनी सी हुई और सभी सर्प लोप हो गए! वो साधू खड़ा हुआ! किया दंड आगे!
"लड़ता है!" बोला वो,
"जा!" आयी आवाज़,
"नहीं!" बोला वो,
"जा लौट जा!" आयी आवाज़,
"नहीं!" बोला वो,
"जान गंवाएगा!" आयी आवाज़,
"कौन लेगा?" बोला वो,
"मैं!" आयी आवाज़,
"तू कौन?" बोला वो,
"सिद्धक!" बोला वो,
"कहाँ का?' पूछा उसने,
"यहीं का!" आयी आवाज़,
"तब तो ज़ोर जमेगा!" बोला वो,
"जा, छोड़ रहा हूँ!" आयी आवाज़,
"तू?" बोला वो, और हंस पड़ा!
"जा!" आयी आवाज़,
"सामने तो आ?" बोला वो,
"रुक नहीं पायेगा!" आयी आवाज़,
"आ तो सही?" बोला वो,
"जा, लौट जा!" आयी आवाज़,
"नहीं आएगा?'' बोला वो,
"जा! जा!" आयी आवाज़!
इस से पहले कि वो साधू कोई जंतर चलाता, पेड़ हिला बड़ी तेज! और वो डिबिया, बुझ गयी! घुप्प अँधेरा छा गया वहां!
"सामने आ?" फिर भी बोला वो,
"वहीँ हूँ" बोला वो,
"सामने?' पूछा उसने,
"हाँ, जा लौट जा!" बोला वो,
अब साधू ने पुतली की आगे! और लड़ाया जंतर! हरा सा प्रकाश हुआ, और उसे कुछ क्षण के प्रकाश में कुछ दिखा!
"लौट जा!" आयी आवाज़,
"बलेरी!" बोला वो,
"नहीं!" बोला कोई,
"बलेरी!" बोला वो,
"जा!" इस बार घुड़क दिया उसे!
"नहीं!" बोला साधू,
"जा, अब और अवसर नहीं दूंगा!" आयी आवाज़,
"तू? तेरी ये मज़ाल?" बोला वो साधू!
और तभी हुआ एक विस्फोट सा! दूर थोड़ा और वो साधू, उठा हवा में! उसने फौरन ही, पुतली से कुछ कहा, जैसे ही कहा, नीचे गिर पड़ा! और उसके चेहरे पर, किसी ने जैसे पाँव रख दिया दबाकर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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साधू के होश गुम! उसके साथ आये जोगन और वो सहायक, इस से पहले कि कुछ समझते, साधू की निकली चीख ने अंदर तक कंपा कर रख दिया उन्हें! वे दोनों, पागलों की तरह से उस साधू को ढूंढने लगे! जो डिबिया गिरी थी, उसकी आंच से उधर की झाड़ियों ने आग पकड़ ली थी! साधू अभी भी चिल्ला रहा था कि तभी...
"इस बार अवसर दिया!" आयी आवाज़,
और साधू के चेहरे से पाँव हटा लिया किसी ने, जैसे ही पाँव हटाया कि वहाँ जलती हुई आंच, बुझ गयी! ये देख लिया था उस जोगन और सहायक ने, फौरन ही दौड़ कर वहां आ गए! आते ही, हाँफते हुए साधू को, उठाया उन्होंने और उसको पकड़, ले गए एक तरफ!
"नहीं! ऐसे नहीं!" बोला हाँफते हुए वो साधू!
"महाराज?" बोली जोगन!
"ऐसे नहीं जाने दूंगा!" बोला साधू,
"दिन में?" बोली जोगन,
"हाँ, दिन में!" बोला साधू,
बड़े ही जीवट वाला था साधू, वैसे जीवट कहा जाए या फिर घोर मूर्खता, ये तो वही जाने! बलेरी मांगी थी उसने, इस बलेरी का अर्थ हुआ कि, किसी ही सांप से नागमणि मिल सके उसे, किसी भी मणिधारी सांप से! इसे ही बलेरी कहते हैं! यही हांसिल करने की शक्ति मांगी थी उसने! या फिर शकत, इस से किसी भी सांप के काटे का कोई असर नहीं पड़ता उसे, लेकिन उसकी प्रवृति जान, वहां के बसे नाग ने, साफ़ मना कर दिया था उसे! ये साधू लड़ा भी, लकें अभी उसने मुंह की खायी, अब कल सुबह आने की बात कर रहा था! खैर, ये साधू इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं था ये सब!
वे निकल गए बाहर वहाँ से, सामान आदि उठा कर, अब वो आवासीय परिसर में पहुंच गए थे! साधू ने अपना सामान अपने हाथों में पकड़, कन्धों पर लटका लिया था!
"लक्खी?" बोला साधू,
कोई नहीं आया, शायद आवाज़ न पहुंची हो,
"लक्खी? ओ लक्खी?" फिर से चीख साधू,
और इस बार, लक्खी आये बाहर, साधू की हालत देखी तो कुछ सकपका सा गए!
"जी?" बोले वो, हाथ जोड़ते हुए,
"पानी भिजवा?" बोला साधू,
"अभी लो" बोले वो,
और साधू, वहीँ एक जगह बैठ गया, उसके बैठते ही, उसके साथी भी बैठ गए! पानी आने का इंतज़ार करने लगे! लक्खी ने पानी के लिए, एक और आदमी को कह दिया था, वो आदमी बस पानी लाने को ही था,
"कुछ पता चला जी?" घबराते हुए पूछा लक्खी ने,
"हाँ" बोला वो,
"क्या जी?" पूछा फिर,
"तेरी लड़की न बचे" बोला वो,
"क्या जी?" बोले डरते हुए लक्खी!
"हाँ, न बचे" बोला साधू,
"ऐसा न कहो महाराज, बचा लो, हम तो सरन में हैं आपकी.." बोले लक्खी,
"फंस गयी लड़की" बोला वो,
"कैसे?" पूछा गया,
"खुद बुलाया उसने तो!" बोला साधू,
"उसे क्या मालूम जी?" बोले वो,
"सब मालूम" बोला वो,
और तब, पानी आ गया, उन तीनों ने, पानी पिया, चेहरा हाथ आदि धो, पानी के वो मटका, वापिस रख दिया!
"लक्खी?" बोला साधू,
"जी?" बोले वो,
"हम तीनों का प्रबन्ध कर, रात का" बोला साधू,
"जी महाराज" बोले वो,
और ले चले उनको एक तरफ, यहां भी कुछ कक्ष से बने थे, यहीं किसी में प्रबन्ध हो सकता था उनके ठहरने का,
"सुन?" बोला साधू,
"जी?" बोले लक्खी,
"यहां खटिया लगवा दे" बोला साधू,
"जी" बोले वो,
यहां पर, एक तरफ छोटा सा मन्दिर था. यहां खुला था, हवा भी ठीक ही थी! इसीलिए साधू ने यहीं रुकने को कहा था उस रात!
दो आदमी आ गए, और खटिया लगवा दी गयीं, वे अब आराम से चारपायी पर चढ़ बैठे! सामान सारा, खटिया के नीचे सरका दिया!
"महाराज?" बोले लक्खी,
"बोल लक्खी?" बोला वो,
"भोजन?" पूछा लक्खी ने
"हाँ, भिजवा दे" बोला लक्खी,
"अभी महाराज" बोले वो,
और चले गए वहां से, रह गए वे तीनों उधर!
"क्या दिखा?" पूछा जोगन ने,
"बहुत कुछ" बोला वो,
"मिल जाएगा?" बोली वो,
"हाँ" बोला वो,
"खाली छूटे न?" बोली वो,
"कुछ भी ना!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ भी छूटे नहीं! वाह री जोगन! नाच न जाने, आंगन टेढ़ा! कुछ भी छूटे नहीं! अब इसे मूर्खता न कही जाए तो भला क्या कहा जाए! जीवनदान मिला! अभयदान ही कहिये! लेकिन ये सभी दिमाग से पैदल थे! माना कि शक्ति का संचय करना, ठीक है लेकिन, इस तरह से मोल-भाव करना, तैश में आना, ये तो साक्षात् मृत्यु का वरण करने सा ही हुआ! कोई भी शक्ति, बिना श्रम किये, नहीं प्राप्त होती! शक्ति ही सबसे पहले, उस संचय करने वाले को आंकती है, उसका मानसिक सन्तुलन देखा करती है, तब उसके बाद, किसी सक्षम गुरु के सान्निध्य में ही, वरण हुआ, जाना जाता है! स्मरण रहे, कोई भी शक्ति, किसी की दास नहीं! एक छोटे से छोटा प्रेत भी दास नहीं होता, सिद्ध करने का आपको मार्ग मिला, उस से वार्तालाप करने का, वो कार्य करेगा, लेकिन बदल में अवश्य ही कुछ मांगेगा! कोई भी प्रेत, सदैव मुक्ति ही मांगता है अपनी, उसको, दास बना कर ये क्षुद्र ओझे, गुनिये आदि उसे, मुक्ति का लालच दिखा कर, अपने कार्य सिद्ध करते रहते हैं! ऐसा करना, महापाप कहलाता है! और ये क्षम्य भी नहीं!
और यहां, यहां तो जीवनदान ही मिला! नाग अपने लोक में, स्वच्छन्द हैं! इनकी यक्ष, गांधर्व, असुर या राक्षस, विद्याधर आदि से सन्धि रहा करती है! नागों के विषय में जानकारी जुटाई जाए तो बहुत कुछ समक्ष आता है! उड़ीसा में, एक पर्वत है, यहां नागों का वास है, यहां अक्सर ही दीख सकते हैं वो, अब प्रश्न उठता है कि ये मनुष्यों से क्यों दूर रहते हैं, मित्रगण, मनुष्य वो जीव है, जो अपने से ही झूठ, मिथ्या वचन बोलता है, ये कभी भी विश्वास के योग्य नहीं है! इसके पास, साम-दाम-दंड-भेद, सभी प्रकार के 'अस्त्र' हैं, ये विद्या सीख कर, कुछ भी कर सकता है! जिसे सर्वजन अनैतिक कहें, उसे ये नैतिक कहता है!
राजस्थान, ये, ब्रह्मक्षि प्रकार के नागों का वास है! यहां पर, पुष्कर की पहाड़ियां, नीमच के क्षेत्र, कोटा के आसपास का क्षेत्र, आदि, नागों द्वारा आवासित रहे हैं! नाग-विद्या का एक सम्पूर्ण अध्याय, तंत्र-शास्त्र में लिखित है! ज़हरमोहरा पत्थर, इसको तन्त्र में, विषहरणी-पाषाण कहलाया जाता है, इस पत्थर का स्वयं ही निर्माण नहीं होता, ये कहीं नहीं मिलता, अपितु इसे बनाया जाता है! इसमें, कुछ सामग्रियां सत्यंत ही सरल हैं, जैसे कीकर के पेड़ का रस, इसकी गोंद, नदी तल की काली रेत, नागफनी का रस, भुं-आंवला के रस आदि आदि, इसको बनाने के आवश्यक हुआ करते हैं! आज भी कई सपेरे इसको बनाना जानते हैं! लेकिन वे लोग, सिर्फ अपने चुने हुए लोगों को ही इसकी निर्माण-कला के विषय में बताते हैं!
ये सभी विद्याएं, नागों द्वारा ही विदित हैं! यदि किसी को कोई सर्प काट ले, तब कैसे, बिन औषधि के प्राण बचाये जाएँ, ये भी विदित है!
खैर, वे लोग सो गए, रात हुई, गहरी हुई, और फिर सुबह हुई! वे लोग जागे, जंगल-भ्रमण किया और स्नानादि से निवृत हुए! साधू महाराज ने तो जैसे यहीं डेरा डाल लिया था! ये साधू ऐसे बाज आने वाला नहीं लगता था!
"जोगन?" बोला वो,
"महाराज?" बोली वो,
"आज सूराख करना है!" बोला वो,
"जानती हूँ" बोली वो,
"आज न छोडूं!" बोला वो,
"हो!" बोली जोगन!
"तू एक काम कर?" बोला वो,
"क्या?" बोली वो,
"नज़र बाँध" बोला वो,
"किस पर?" बोली वो,
"उस लड़की पर" बोला वो,
"हो महाराज!" बोली वो,
"जित जित जाए, देख!" बोला वो,
"जी महाराज" बोली वो,
"बीनू?" बोला वो,
"हो?" बोला वो,
"सामान तैयार कर" बोला वो,
"कैसा, महाराज?" बोला वो,
"नीलिया" बोला वो,
"हो, महाराज" बोला वो,
"आज का दिन, खाली न छूटे" बोला साधू,
"हो" बोले दोनों ही,
अब कहते हैं न, कि यदि काल आ ही गया हो सम्मुख तो किसी भी कारण से बुला ही लेता है! इन्हें चेतावनी मिली, नहीं दिया ध्यान, जीवनदान मिला, अपने कारण, विद्या के कारण, ऐसा सोचा इन्होंने!
"बीनू?" बोला वो,
"हो?" कहा उसने,
"तू बगिया जा" बोला साधू,
"महाराज, हो?'' बोला वो,
"निसान लगा दे" बोला साधू,
"हो" बोला बीनू,
कुछ सामान तैयार कर लिया था बीनू ने...


   
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श्रीशः उपदंडक
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नाग! दरअसल, नाग कहते किसे हैं? क्या कोबरा को? या फिर, किसी फन वाले सर्प को? या ये कुछ और ही है? नाग का अर्थ है, विशेष-सर्प, ऐसा सर्प, पौराणिक मान्यता अनुसार, जो रूप बदलने का सामर्थ्य रखता हो! पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, ऐसा ही एक मामला मैंने सन २००३ में देखा था, उस दिन सुबह सुबह टहलते समय, मुझे एक खेत के बारे में बताया गया, कमाल की बात ये थी, कि उस खेत के साथ लगे खेतों में, जल भरा था, नहर टूट गयी थी, काम चल रहा था, मुझे जो बताया गया, वो सच में ही न केवल अद्भुत है, बल्कि, विश्वास करने से से भी परे है!
मुझे बताया गया, कि उस खेत को, 'पांडव-खेत' कहते हैं! दरअसल, बकासुर असुर के साथ जन भीम का मल-युद्ध हुआ, तो एक नाग-स्थल पर हुआ था, ये युद्ध तीन रात और चार दिन तक चला था, उस बकासुर का एक नाग, मित्र था, ये उसी का स्थल था, नीतिवान नाग होने के कारण, उस नाग ने, भीम को दंश नहीं मारा, अन्यथा, कुछ भी सम्भव था! भीम को वैसे भी, नाग-अमृत प्राप्त हुआ था, अब कुछ होता या नहीं, ये तो नहीं कह सकता, हाँ, जब उस नाग का स्थल, उस मल्ल-युद्ध में टूट-फूट गया, तब भीम ने, क्षमा मांगी और उस नाग को, कहीं और स्थल देने के लिए परामर्श दिया, नाग ने कहा, कि वो उस स्थल पर अकेला ही वास करता है, अतः भीम उसे उठाकर, जितना दूर, सूर्य की तरफ फेंक सकें, फेंक दें! ऐसा ही हुआ, और वो सर्प, यहां आकर, गिरा! अब भीम आये या नहीं आये वहां, पता नहीं! परन्तु उस खेत के विषय में, लोग अक्सर यही कहते हैं! उस खेत में, जल नहीं भरत, खजूर के पेड़ों पर, बारहों महीने, फल आते हैं, वहां पतझड़ नहीं आता, और अब से नहीं, बहुत दिनों से, वर्षों से, अंग्रेजों के ज़माने से, वो खेत वहीँ पड़ा है! और अब उस सर्प को वहां के लोग, देवता बोलते हैं! चाहे कोई विवाह हो, चाहे कोई अन्य उपलक्ष, वहां उस सर्प के लिए भोजन, दूध आदि रखा जाता है, नव-विवाहित दम्पत्ति वहां आशीर्वाद अवश्य लेते हैं! एक आश्चर्य और! वहां कभी भी किसी भी सर्प के काटने से कोई भी मौत नहीं हुई! खेतों में सर्प डोलते फिरते हैं, लेकिन लोग हाथ जोड़, उन्हें सम्मान दिया करते हैं! अब उस देवता के विषय में, मुझे बताया गया, हालांकि मैंने स्वयं नहीं देखा, वो देवता, कद में, चौदह फ़ीट तक का है, सफेद दाढ़ी-मूंछ, लाल रंग की गेंदनुमा आँखें, और शरीर बेहद ही बड़ा है! कई कई बार कुछ लोगों ने, उधर, एक चमकदार से राजा को देखा है, जिसे वे लोग, वही देवता मानते हैं! अब उनका विश्वास है, जांचा तो जा नहीं सकता! हाँ उस खेत में मैंने, चांदी के सिक्के, गहने, स्वर्ण के गहने आदि देखे हैं! वहां साँपों की एक बड़ी सी बाम्बी है, हज़ारों साँपों का वास होगा उधर!  मैंने भी, उधर, प्रणाम किया था उन देवता को!
एक और मामला, हालांकि बेहद ही पुराना है, करीब नब्बे साल पुराना, जिसका ज़िक्र अंग्रेजी-गैज़ेट में भी है, और एक डायरी में भी, वो ये कि एक अंग्रेज अधिकारी की बेटी को किसी सर्प ने डंस लिया, बहुत इलाज करवाया, कई डॉक्टर्स आये लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ, वे अधिकारी बेहद दुखी थे, तब, उनके अस्तबल में नौकरी करने वाले साईंस ने कुछ सलाह दी, सलाह कि उधर ही, पास में, एक बूढा सँपेरा रहता था, उस से भी मिल लिया जाए, अब मरता क्या नहीं करता, मान गए अधिकारी और उस बूढ़े सपेरे को ले आये, सपेरे ने देखा और देखते ही कहा, कि उस लड़की को, खण्डल(काला रसल्स वाईपर) ने काटा है! तब उस सपेरे ने, उस लड़की को, गोबर में डुबो दिया, नाक मुंह पर एक कपड़ा बाँध कर, डेढ़ घण्टे के बाद, गोबर में हरकत हुई, और लड़की उठ गयी! उठते ही चिल्लाने लगी, उसे अभी भी हर तरफ सांप ही सांप दिखाई दे रहे थे! खैर, इलाज हुआ और वो लड़की ठीक हो गयी! अधिकारी ने सपेरे को इनाम देना चाह, तब उस सपेरे ने, नाग-देवता का मन्दिर बनवा लिया! कोई नहीं रहा अब, बस वो मन्दिर ही है, बीहड़ में, एक सज्जन मुस्लिम प्रौढ़ उस मन्दिर की देखभाल किया करते हैं! ये एक छोटा सा मन्दिर है, पत्थरों का बना हुआ, लखौरी ईंटों का बना हुआ! पीपल ही पीपल, जामुन ही जामुन! तो अभी भी ऐसे स्थान हैं, जहां आज भी, कुछ न कुछ तो विद्यमान है!
जय हो नाग देवता की!
हाँ, तो बीनू अंदर, बगिया में चला गया था, साथ कोई नहीं था, साधू ने, एक अलग ही जगह, धूनी रमा ली थी, कुछ मंत्रोच्चार किये जा रहा था! जोगन, संग ही बैठी रही!
उधर, रमेली बाहर आयी, झाड़ू-बुहारी करने, वो जोगन उसे नज़र में बांधे हुए थी, उसका व्यवहार देखा जा रहा था शायद!
"आ ली?" बोला साधू,
"हो!" बोली वो,
"देखती रह!" बोला वो,
"हो!" बोली वो,
"बीनू लौटा?" पूछा साधू ने,
"नाह!" बोली वो,
"एक काम कर?" बोला वो,
"हो?" बोली वो,
"लड़की को बुला?" बोला वो,
"हो!" बोली वो,
और चल पड़ी रमेली की तरफ, बात की तो रमेली ने झाड़ दिया उसे! जब हाथ आगे बढाया उसे पकड़ने के लिए, तो ऐसा धक्का मारा उस जोगन को, कि चारों खाने चित्त हो गयी वो! उसको गिरता देख, रमेली भी, वापिस भाग गयी अंदर! ये सब साधू ने देखा, उसे हैरानी थी बहुत!
"कैसे?" पूछा उसने,
"कोई था, महाराज!" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
और उस जोगन ने बताना शुरू किया फिर!


   
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