ये घटना इतिहास में बेहद पुरानी है! ऐसे तो बहुत सी किवदन्तियां अक्सर ही सुनाई दे जाती है, दो का चार और चार का बतंगड़ बना दिया जाता है! वैसे, अब चाहे उसे बतंगड़ ही खो, उसका कुछ न कुछ आधार तो रहा ही करता है! ये आठ भी कुछ ऐसी ही बानगी है, जो आज से करीब तीन सौ वर्ष पूर्व घटी थी! इसका स्थान और उसके कुछ गूढ़ विषयों का आना जाना लगातार चलता ही रहेगा! ये गाठ है एक नव-यौवन रमेली की! रमेली की पूर्व-पीढियां नृत्यांग में काफी प्रसिद्ध थीं! उसकी माँ, कहते हैं, कि उसे किसी अंदरूनी राजपुरुष का हित मिला हुआ था, वो कौन था, ये तो अब अज्ञात ही है! इतना बता सकता हूँ कि ये रमेली, उम्र के आठ वर्ष से, कूबड़ की शिकार होने लगी थी, ऐसा घृणा और ऐसी औलाद! ये औलाद तो उनके रसूख की ही मूल-आधार हुआ करती थीं! आप समझ सकते हैं प्रिय से और विवशता भरे प्रिय से, किस प्रकार का व्यवहार होता रहा होगा! रमेली किसी भी प्रकार से, 'सामने' लायी जाने वाली कन्या तो थी ही नहीं! क्या करती बेचारी! जो काम आता, साफ़-सफाई का, फूलों का, बुहारी का, छाजन का, बस वहीँ तक सीमित थी! वर्ष के सोलह आने तक, उसकी देह में कूबड़ उसका, जो उसकी रीढ़ की हड्डी में स्थित था, अब साफ़ दीखने लगा था, उसको समझा दिया गया था, कि उसकी हद और उसकी जद कहाँ तक है! इस प्रकार ये रमेली, हास्य-विनोद के अतिरिक्त किसी और काम की नहीं थी, उसकी छोटी बहन, उर्मा, अवश्य ही उसे हृदय से प्रेम करती थी! ये तो भगवान का न्याय था, उसकी ही कृति थी, वो अपनी कृति में, किस प्रकार से दौड़ उत्पन्न कर सकता है! यही बात लोग नहीं समझ पाते! किसी को काला बनाया, किसी को गोरा, किसी को गठीला और किसी का गठाव, कूबड़ में रख दिया! कन्धे झुका कर, मुंह ढक कर, ताने सुन सुन कर, खैर, अब तो उसको आदत हो चुकी थी! इतने के बावजूद भी रमेली ने, इस रचने वाले ईश्वर से कोई मांग नहीं की थी, कोई फ़रियाद नहीं, कोई भिक्षा नहीं! ईश्वर ने जो किया था, उसमे वो सन्तुष्ट ही थी! कोई सन्ताप नहीं!
लेकिन मित्रगण! वो जो ऊपर बैठा है न? उसके खेल ही निराले हैं! देखता तो वो सब है, और निगाह भी रखता है! बस, उसका निर्णय कब आये, ये तो बस वो ही जाने! अब इस गाथा को आरम्भ करता हूँ!
उम्र का सोलहवां चल रहा था, उस शाम रमेली, बगिया से, फूल लेने गयी थी, हाथ पहुंचता नहीं था, सो, एक थैली लगी डंडी इस्तेमाल किया करती थी! ये बगिया उस समय, उस स्थान से थोड़ा अलग ही थी, जहाँ पर रास-रंग दिया करता था, रमेली, दिन में तो बुहारी कर, उस खूबसूरत स्थान को देख लेती थी, जहाँ तक गर्दन मुड़ती वहां तक! चलो कुछ और नहीं तो उसके छांटे फूल ही सही! ऐसे सन्तोषी थी ये रमेली! पीछे से, रियाज़ करने की आवाज़ें आ रही थीं! ये सब शाम की महफ़िल के लिए था! शाम को, राव सिंह, जो कि एक एक राज-परिवार से सम्बन्ध रखते थे, आ रहे थे, तो साज-सज्जा आज विशेष ही थी!
"आज बूटे ही लेना रमेली?" बोली रमेली की एक जानकार, जो वहां पर, यही काम करती थी!
"हाँ, बूटे ही लूंगी!" बोली रमेली!
"आज सब पसन्द आया तो तेरे लिए भी वस्त्र आएंगे!" बोली वो,
चुपचाप हो कर सुनती रही, आदत थी, नया तो कुछ आज तक उसे मिला ही नहीं था, हाँ अन्न अवश्य मिलता था नया, भोजन, उसकी छोटी बहन उसके ही साथ भोजन किया करती थी! बस, यही नया था रमेली के लिए तो! तो चुपचाप, होंठ भड़क कर, उसकी अंदर की दबी आह, फूंक बन, दोनों होठों से निकल गयी बाहर!
"जल्दी ला? काम बहुत है?" झोली फैलाती हुई उसकी वो जानकार बोली, वो बेचारी, बदन को साधते हुए, अपनी झोली खाली करने के लिए, चली उस जानकार के पास! और खला दी अपनी झोली एक हाथ से पकड़ कर!
"वो चम्पा कैसे लाएगी? किसी को भेजूं?" बोली वो,
"ले आयूंगी!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा उसने,
"चुनने ही हैं न?" पूछा उसने,
"हाँ, चुनने ही हैं!" बोली वो,
"ले आयूंगी!" बोली रमेली!
"जल्दी करना?" बोली वो,
"हाँ, करूँगी!" बोली वो,
और उसकी जानकार, लौट पड़ी, अब रह गयी वो अकेली ही, जो दूसरी सखियाँ थीं वे, गुट बना बना, अपने फूल चुन रही थीं! और इधर, अपना मुंह ढके, रमेली, चली जा रही थी, अपना कूबड़ सम्भाले हुए! पहुंची वो चम्पा के पौधों तक, फूल न मिले अच्छे उसे! जो उठाती, वो मुरझाये हुए थे! अब क्या करे? समस्या तो कोई न थी, बस उसे, अपना कूबड़ साधने से, सांस चढ़ने लग जाती थी! बैठ गयी, सोचने लगी, क्या करूँ! खाली हाथ गयी, तो अम्मा सुनाएगी, मुरझाये ले जाउंगी, तो बुद्धिहीन है! एक तो वैसे ही कमर पर शाप लाद रखा है! खैर, उसे तो आदत थी! उठी, कूबड़ को बाँधा उसने, और झुक कर, हाथों से छू छू, चम्पा के फूल उठाने लगी! भर लिए फूल लेकिन कोई भी ऐसा फूल नहीं था आज, ज्सिमे यौवन भरा हो! न ले जाने से तो बेहतर ही है फूल ले जाना! सो ले चली! आयी उधर!
"एक काम कर, खीटा(एक छोटी सी चारपाई, जिस पर फूल डाल दो, तो पानी रिस जाता है उनका, धुलाई करते वक़्त) पर धो कर डाल दे, हाथ चला तेजी से, और चली जा अब कक्ष अपने!" बोली उसकी माँ!
"हाँ माँ! अभी!" बोली वो,
फूल धोये, और खीटा पर डाल दिया, हो गया उसका काम अब! शेष जो था, उस कूबड़ी का नहीं था, वो तो सोलह श्रृंगार धारण करने वालियों का ही था! उठी, और चली गयी! जाने के बाद, थोड़ा सा सत्तू पिया उसने, और लेट गयी! भूमि पर लेती, तो नज़र चाँद पर चली गयी! सोचने लगी कुछ! तेरी कलाएं कटती हैं तो पावन हो जाती हैं! ये ही तो सौभाग्य है! पर वो क्या करे? न हंसी ही, न सन्ताप ही व्यक्त किया! नींद लग गयी! रियाज़ के और गाने के, घुंघरुओं के वो स्वर, उसे अब मल्हार से लगते थे, कोई लोरी सी, जिसे सुन वो सो जाया करती थी!
खैर, राव सिंह प्रसन्न हुए! और कुछ 'विशेष-रकम' रमेली की माँ के हाथ पर रख दी!
"उम्मीद करता हूँ उस फूल चुनने वाली को ये इनाम अवश्य ही मिलेगा!" बोले वो,
"जैसे हुकुम की आज्ञा!" बोली माँ,
सब संजा दिया गया, वो कक्ष बन्द कर दिया गया, उर्मा आयी तो भोजन करवाया रमेली को उठा कर! और रमेली, रोज की तरह से ही अपना जगह बना उस बिछावन पर सो गयी!
सुबह हुई, फारिग हुए सब, दूध-घी सब हो गया, और तब, एक पीढ़ा(छत सा बैठने का रस्सियों से बना खटोला) ले जाती दिखी रमेली उसे!
"रमेली?" बोली माँ,
"हाँ माँ?'' बोली वो,
"इधर आ?" बोली माँ,
आज फिर कोई हिमाक़त हुई, ये ही सोचा, चल पड़ी, साधते हुए, अपने कूबड़ को!
"बैठ?" बोली माँ,
"पहले छाजन कर लूँ माँ?" बोली रमेली,
"कर लियो!" बोली माँ,
घबरा गयी रमेली! चेहरा उठाया माँ ने उसका, जहाँ तक उठ सकता था, आँखों के कोटर, बेतरतीब से हुए पड़े थे, कानों में उसके, बहुत अंतर था, लगता था, कि एक न एक दिन दिन ये कूबड़ में समा जायेगी, रह जाएगा पुलिंदा मांस का, हड्डियों का, एक लोथड़ा!
"मेरी बेटी! क्या लिखवा लायी है तू भी?" बोली माँ,
उन बेतरतीब से कोटरों में से, जल को भी समझ नहीं आया कि कहाँ से, नीचे ढलके वो! ये दर्द था, अंदर का दर्द! लेकिन कहे किस से!
"चलती हूँ माँ, पूजन हो गया होगा!" बोली रमेली!
"हाँ, जा! भूख लगे तो बता दियो! मेरा ही टुकड़ा है तू!" बोली माँ, आंसूं पोंछते हुए अपने!
सबसे बाद में पूजन करती थी वो, क्या पूजन! कैसा पूजन! न झुका ही जाए, न झुक कर, सही से उठा ही जाए! जैसा बन पड़े, करे, मन में शान्ति ले और लौट जाए! टेढ़ी-मेड़ी, जैसा बन पड़े चलना!
ये जीवन है, कभी नहीं रुकता, ठहरना उसको आता नहीं, बताता है नहीं कि जाना कहाँ है! ले चलता नहीं कहीं! बस, उस कूबड़ी के साथ भी कुछ ऐसा ही था!
और एक दिन.......
खबर मिली, कि पूरी की पूरी संगत को, प्रासाद में बुलाया गया है, एक आयोजन है! सभी आएंगे उधर, मान-सम्मान की बात है! सुना! ये भी सुना उस रमेली ने! कोई फ़र्क़ ही नहीं, आयोजन पहले भी हुए थे, उसे क्या मिला, बस एकांत! यहीं रह गयी थी वो! सो, इस बार भी सही!
कुछ न बोल सकी, बोलती भी क्या भला! था ही क्या उसके पास! माँ-बाप और बहन का साथ न होता तो ये जीवन उसका कैसे कटता ये भी जानती थी वो! कभी कभी लगता है कि भगवान भी, पक्ष लिया करता है! सबल और और सबल और निर्बल को, मरते दम तक निर्बल! कहीं तो धन के अम्बार और कहीं, धन का टोटा! चलो यहां धन की तो कोई बात ही नहीं थीं, वस्त्र भी कितने ही मांगती वो, बस, तन ही तो ढकना था, सो मिल ही जाता था! रही भोजन की, तो जो सभी को मिलता, उसे भी मिल जाता था! आगे की चिंता नहीं करती थी रमेली! उसे तो जैसे अपना भाग पता ही था! सौ छीके फूटें या एक, चाटना तो ज़मीन से ही था! इसीलिए, लिखा के भगवान भी न जाने किसी किसी के साथ, अत्यंत ही निर्दयी हो जाता है! अब ये उसकी मर्ज़ी, कोई बांच सके न, कोई बता सके न!
"रमेली?" बोली माँ,
"हाँ माँ?" बोली वो,
"आज कोई ख़ास काम नहीं, भोजन बनेगा ही!" बोली माँ, एक गठरी में कुछ वस्त्र बांधते हुए!
"कोई बात नहीं माँ!" बोली रमेली!
"अगर हो सके तो महावर घोट लेना, लगता है कि कल तक खत्म हो जाए!" बोली माँ,
"हाँ माँ!" बोली वो,
माँ ने कुछ एक दो बातें और समझायीं, और डाल दिया उसके बेतरतीब से कानों में! माँ देखती, तो एक हूक सी उठ जाती! क्या भाग्य लायी है बेचारी! कौन क्या करेगा इसका मेरे बाद? कौन किसका हुआ है आज तक? तो माँ, उतना अवश्य ही करती थी, कि उसे खुश रखे!
तो, चले गए वो लोग, रह गयी वो और दो और सखियाँ, महावर मंगवाई गयी, घोट ली गयी, और ढक कर, चाँद तले, रखवा दी! और हो गयी निश्चिन्त! लेट गयी इत्मीनान से, कितनी जगह लेती थी वो! कुछ नहीं! कुछ भी तो नहीं! उस शाम मन न लगा उसका, न जाने क्या बात थी, कहते हैं न, जब मन दुखी होता है तो कोई सुझा कर भी बहला नहीं सकता! चल दी वो बाहर, सखियाँ अपने अपने वस्त्रों की साज-सज्जा में लगी थीं! चली गयी बगिया की तरफ! देखा आयुधों को, कल के लिए फूल चाहिए थे, आज अभी, ताज़े गिरे थे, सोचा ले लिए जाएँ! झुकी और उठाने लगी वो फूल! फूल चुन लिए उसने, और एक गीत उसके मुंह से निकलने लगा, जिसमे, साजन का इंतज़ार करते हुए, कोई दुल्हन पीएलओ का इंतज़ार करती है! ये गीत, अच्छा लगता था उसे! सिर्फ गीत ही, और कुछ नहीं!
रात घिरने लगी, झींगुरों ने बता दिया कि अब उसका समय आ चला है, अब रात्रि के प्राणी ही जागेंगे! तो फूल ले, चल पड़ी वो! कुछ ही दूर का फांसला, पिछले कुछ दिनों से, सांस फूल देता था उसकी, शायद जानती नहीं थी, कि उसका कूबड़, खाये जा रहा है उसको, उसकी प्राण-शक्ति भी! कौन बताये ऐसा कड़वा सच! ऐसा नहीं कि वो समझती नहीं, बस इतना, कि जब तक रहे, अच्छी रहे, और वैसे भी, इस पिंजरे जैसी देह से उसको आज़ादी हो!
अगले दिन की बात होगी, या फिर, एक आद दिन गुजरा होगा, आज कोई सेठ आने वाले थे, संग उनके कुछ मेहमान भी थे! सेठ जी ने कह दिया था, मेहमान खुश तो समझो सब बढ़िया! उसके बाद, उनको उनको हिस्सा भी दे दिया जाएगा! ये बातें कभी न सोचती थी रमेली! उसे क्या लेना देना था इन सबसे! लेकिन, नगर-सेठ आने वाले थे तो तैयारियां होने लगी थीं! रमेली को, हमेशा की तरह से समझा ही दिया गया था कि वो बस, पीछे ही रहे, बाकी तो वो, अपने बेतरतीब सी आँखें झपक कर, समझ ही जाया करती थी!
वो दिन, आ गया, वो सांझ भी, आ गयी! सामान्य सी ही सांझ, उसके लिए तो सामान्य ही थी, कौन क्या पहन रहा है, क्या सज रहा है, क्यों सज रहा है, इस से उस बेचारी को क्या मतलब! फूल चुनने थे, चल पड़ी! जैसे ही चली, कि एक सखी माँ से बतियाती मिली, बोल रही थी, आज फूल, बोटन से लेने पड़ेंगे, ताज़ा तो नहीं हैं आज, सुबह शायद अंधियारी चली होगी, कच्चे ही टूट गए!
"मैं देख आती हूँ!" बोली रमेली!
"देख लिया है, कोई फूल नहीं है उधर रमेली!" बोली माँ,
"मैंने देखे थे, आती हूँ" बोली वो,
और अपनी देह का सन्तुलन बनाते हुए, चल पड़ी आगे, अब घुटनों पर हाथ रखना पड़ जाता था उसे कई कई बार, ऊपर की देह, सम्भलती नहीं थी! ऐसा, धीरे धीरे उसे महसूस होने लगा था! तो वो गयी उधर, हाथ में एक डलिया लिए, आसपास निगाह डाली तो कोई फूल नहीं था, जो थे भी, तो सन्केर दिए गए थे, अब कीचड़-काकड़ लगी थी उन पर, ये तो इस्तेमाल नहीं हो सकते थे! वो डलिया रखे नीचे उस चम्पा के पेड़ के, अपना पसीना पोंछने लगी, उचक कर डाल डाल देखा, बूटे ही थे, और कुछ नहीं, कच्चे थे, हाथ लगाते ही टूट जाते, फिर कल का प्रबन्ध नहीं होता! उठी वो, नहीं मिला कोई भी फूल, रख आयी डलिया को, वहीँ, जहाँ से फूल उठाये जाते तह! बोटन पास की ही रहने वाली थी, फूलों का कारोबार ही समझो उसका, हाँ, मौके को ताड़कर ही दाम वसूलती थी! अब यही तो असल व्यापार है! तो, रमेली की माँ ने भेज दिया था, चार की जगह एक ही डलिया मिल पायी, कुछ पुराने थे, वही गूंथ भी लिए गए!
रास-रंग शुरू हो गया! और जब फूल बिखरने का समय आया, तो माँ की आँखें चकाचौंध हो उठीं! बोटन के अतिरिक्त, सभी फूल ताज़े हिले थे! जैसे अभी कोई रख कर गया हो! माँ ने कुछ नहीं सोचा उस वक़्त तो, बस लड़कियों को बुलाया और फूल उठवा लिए! और जब फूल बिछावन पर गिरे, तो मारे सुगन्ध के सभी मोहित से हो लिए! रंग, आरम्भ हुआ, और माँ बार बार उन फूलों को देखे! ऐसा कैसे हुआ? फूल अभी तक तो नहीं थे? कौन रख गया!
तो महफ़िल अब खत्म हुई, इनाम बांटा जाने लगा!
"सुन?" बोला नगर-सेठ का मुंशी, रमेली की माँ से!
"जी हुज़ूर!" बोली वो,
"ये फूल वाली कौन है?" पूछा उसने,
"मेरी ही बच्ची है हुज़ूर!" बोली माँ,
"कभी लायी नहीं?" पूछा उसने,
अब माँ के सामने घड़ों पानी फूटा! क्या बताये, कैसे बताये! खैर, जो सच था, वो बता दिया गया, मुंशी ने तो हाव-भाव ही टेढ़े-मेढ़े कर लिए! नगर सेठ भी मुंह बिचकाने लगा! लेकिन बोला कुछ नहीं!
"कोई बात नहीं, मेहनत की है उसने, ये लो, दे देना उसे! दे देना!" बोला वो, दो बार!
माँ ने पोटली छोटी सी, कौंच के देखी, इसके अवश्य ही अशरफी या गिन्नियां ही होंगी! चलो, कोई बात नहीं, धन ही तो चाहिए, यही तो पेशा है उनका!
माँ बढ़ चली रमेली की तरफ, रमेली, फूलों को अभी भी चुन रही थी, सुआं हाथों में ही था अभी भी!
माँ ने कुछ बोलना चाहा, लेकिन वो तो अपने गीत में लगी हुई, टांकण कर रही थी फूलों का! अपने आप में ये दृश्य आप चित्रित कीजिये! हृदय ही फट जाएगा इस दृश्य को चित्रित करते हुए! रमेली को कुछ पता नहीं कि कौन आया और कौन देख रहा है! कौन सा इनाम? इनाम से भला उसे क्या? इनाम आखिर किसलिए! क्या ये कम नहीं कि एक कूबड़ी को छत मिली है? नहीं तो राज्य-क्षमा, कुष्ठ के रोगियों की भांति वो, गाँव के बाहर न बैठी होती? न लगी होती क़तार में, कि अन्न के दो टुकड़ें मिलें? न अपने तन का कष्ट लिए, झुक कर पानी ही पीती? कौन पिलाता उसे ओख से पानी? ये सब, किताबों की बातें हैं, किताबों में ही अच्छी लगती हैं! असल में क्या है, मैं जाऊं, आप जानो! बस कहते ही तो नहीं मुंह पर? नहीं तो, क्या क्या नहीं निकल जाए इस मुंह से!
तो माँ के मुख से हूक निकल आयी! आवाज़ न आने दी, वस्त्र में ही दम तोड़ दिया माँ की हूक ने! हूक वो सुन लेती, तो क्या बीतती उस पर! ये तो सरासर उपहास उड़ान ही हो जाता! माँ लौट चली! खुले आकाश के नीचे, झोली भी कैसे फैलाये! किस को दौड़ दे वो! बेचारी रमेली! माँ ने आंसू पोंछे, और धो लीं आँखें, भले ही वो कूबड़ी थी, लेकिन दीखता था उसे, भाव थे उसमे भी! ये अलग बात है, कि उसकी नज़र, हमारी तरह नहीं थी! संक्षिप्त ही लघु था उसके लिए तो! खैर, माँ कमरे में आयी!
"रमेली?" बोली माँ,
''हाँ माँ?" बोली वो,
बिन पीछे देखे!
"किसमे लगी है?" पूछा माँ ने,
"कुछ नहीं, सांझ के लिए, टांकण कर रही हूँ माँ!" बोली रमेली!
"एक बात पूछूँ?" बोली माँ,
अब देखने की कोशिश की उसने, पीछे, माँ जानती थी, पीछे सहारा है नहीं, गिर जाएगा माँ का ये सलोना फूल का टुकड़ा! तो मैं, जल्दी से आगे चली गयी, ताकि उसे, देखने में कोई परेशानी न हो!
"हाँ माँ?" बोली रमेली!
माँ ने, उसकी पलकों के ऊपर से, फूल की एक लड़ हटाई, उसे तो भान भी नहीं था कि आँख में चुभ जाती वो लड़, तो माँ को ही ढूंढती!
"तो कल फूल आयी थी?" पूछा मैंने,
"हाँ माँ!" बोली माँ के कंधे से, सर लगाते हुए!
"कहाँ से?" पूछा माँ ने,
हट गयी वो! गौर से देखा माँ को! फिर, बेतरतीब सी मुस्कान छलक उठी उसके बेतरतीब होंठों पर!
"वहीँ, अपनी बगिया से माँ!" बोली वो,
"लेकिन दोपहर तक तो कोई फूल था नहीं?" बोली माँ,
"अब मैं क्या जानूँ, जितना देख सकी उतने पर तो थे ही, कुछ चुन भी लिए थे मैंने, गिरे हुए!" बोली वो,
"तेरे फूल नहीं मुरझाये मेरी बेटी!" बोली माँ, और गले से लगा लिया माँ ने!
कितना सुकून मिलता है, माँ से गले मिलते हुए! जुड़ने को जी करता है अपने ही मूल-खण्ड से! सच है, माँ से बड़ा कुछ नहीं, पिता के साये से बड़ा, आकाश भी नहीं!
"रमेली?" आयी पिता जी की आवाज़!
"हां पिता जी?" बोली वो,
"आ इधर!" बोले वो,
"अभी आये हो क्या?" माँ ने पूछा पिता जी से,
"हाँ, कुछ अवेर हुई!" बोले वो!
"सामान मिल गया?" पूछा माँ ने,
"हाँ!" बोले पिता जी,
और रमेली, उतर कर, पिता जी के पास चली आयी!
"कैसे ही मेरी बच्ची?" पिता जी ने, सर पर हाथ फिराते हुए पूछा!
"अच्छी हूँ, आपके लिए जल ले आऊं?" बोली वो,
"न! तू यहां बैठ!" बोले पिता जी,
और गठरी खोली एक, उसमे से एक और गठरी, और निकाला एक वस्त्र! चमकदार सा! बेहद ही शानदार! लेकिन उसकी चमक, न समझ सकी रमेली! उसे भला इस चमक से क्या?
"देख! तेरे लिए लाया हूँ मेरी गुड़िया!" बोले पिता जी!
कुछ न बोली रमेली!
"अरे? पसन्द नहीं आयी क्या?" पूछा पिता जी ने!
"बाबा?" बोली वो,
"हाँ?" बोले वो,
"उर्मा पर सजेगी ये बहुत!" बोली रमेली, सच में ही, दिल से बोलते हुए!
"तुझ में और उसमे, कोई फ़र्क़ है क्या रमेली?" बोले वो,
अब कुछ न बोली! पिता जी उठ खड़े हुए, आँखों में अब, पानी आने वाला था, और रमेली की आँखों में पानी, पिता जी के लिए तो, जम(यम) का बुलावा था!
"सुन, पहन लेना, मेरी भी सोचा कर, तू पहनेगी तो देख, तेरे बाबा को कैसे सुकून मिलेगा! ले, पहन लेना!" बोले वो,
काँधे पर डाल उस वस्त्र को, पिता जी, चोरी से बचते हुए, निकल आये बाहर कमरे से, कहीं उनके आंसू देख लेती रमेली, तो न जाने क्या होता! एक बाप का कलेजा, फट ही जाता!
बाबा गए, तो उसने, तह लगा कर, रख दिया वस्त्र वहीँ! गठरी में बाँध दिया! और फिर से टांकण में जुट गयी रमेली!
मित्रगण!
दिन गुजर जाते हैं, हफ्ते बनते हैं, हफ्तों से फिर महीने! आँखों ही आँखों में समय, चला चला जाता है!
उस शाम....फूल चुनते वक़्त आवाज़ सी आयी उसे कुछ, ये आवाज़, किसी इंसान कि तो हो नहीं सकती थी, खैर, उसने, दरकिनार की वो आवाज़ और लग गयी फूल चुनने में! आवाज़, फिर से हुई, पीछे से आयी थी, तेजी से घूम नहीं सकती थी, ज़मीन से सहारा लिया तो देखा सामने, कुछ भी न था! वो मुड़ गयी! जैसे ही मुड़ी दूर, थोड़ा सा ही, एक छोटा सा नाग था, छोटा सा ही, करीब आधे फुट का ही! सांप का निकलना तो यहां आम ही बात थी, सांप कहाँ किसी को काट रहे थे! आवाज़ का स्रोत पता चला तो निश्चिन्त हो गयी! और वो नाग, न डिगा वहां से, उसके चलते हाथों को कभी देखता और कभी रमेली को, फन झुका कर देखता!
"जाओ! जाओ!" बोली वो,
न गया वो, वो तो जैसे, खेलने आया था उस से, रमेली के हाथ आगे चलते तो हाथों को देखता, फिर फन उठा, रमेली को देखता!
"जाओ! कोई देख लेगा! फेंक देगा बाहर! जाओ!" बोली वो,
और सांप ने जैसे सुन ली, तेजी से भाग चला बायीं तरफ जहाँ कुछ झाड़ियां थीं! चलो, जान बची उसकी! उठायी डलिया और चल पड़ी, सन्तुलन बनाते हुए अपनी उस कूबड़ी देह का!
कुछ सोचा? कुछ सोचा हमारी इस रमेली ने? नहीं! सरल-हृदय रमेली क्या सोचती! सांप तो आते ही थे! चला आया होगा कहीं से! और फिर, नाग, देवता भी तो हैं! आ रहे होंगे कहीं से, या, जा ही रहे होंगे कहीं! मन ही मन, एक प्रणाम भर लिया उसने! और रुक गयी! भारी देह से, घूमकर, उसने देखा उस तरफ! वो नाग, छोटा सा, अपना छोटा सा फन फैलाये, कुंडली मारे, उसे ही देख रहा था! उस रोज, अपहली बार उसके होंठों पर, सच्ची मुस्कान आयी! सच्ची मुस्कान! मित्रगण! कहीं ढूंढे से नहीं मिलती ये सच्ची मुस्कान! जब सन्तान, पिता का हाथ थामे, ऊँगली पकड़े, अपनी छोटी छोटी टांगों में वजन लगाते हुए, सन्तान चलती है, ठुमके से लगाती हुई, तब उस पिता के होंठों पर सच्ची मुस्कान होती है! जब सन्तान, पिता के बलिष्ठ हाथों में, सुरक्षित महसूस करती है, तब आती है उसके चहेरे पर ये सच्ची मुस्कान! जब माँ, भूखी सन्तान को, दूध पिलाती है, तब आती है ये सच्ची मुस्कान! नहीं तो, इस सच्ची के पीछे क्या क्या खेल हैं, सभी जानते हैं! ये तो भगवान का शुक्र है, उसने भावों की रकम तय नहीं की, नहीं तो हम जैसे, तरसते ही रह जाते! ये विभाग उसने अपनी तरफ ही रखा! यहां कोई फ़र्क़ नहीं!
तो वो नाग वहीँ बैठा था, देख रहा था उसे! फन छोटा था, देह छोटी सी, तो ज़ोर लगाना पड़ता था, ज़ोर लगाते हुए, कभी कभी पीछे को गिर पड़ता था! ये देख, रमेली की मुस्कान फिर से तैरी! न भय, न कोई डर! चल पड़ी उसकी तरफ! और कुछ ही दूर पर रुक गयी! नाग की गुलाबी आँखें चमक रही थीं, अपनी इन्हीं आँखों से तो वो गजरात को रोक दे बीच मार्ग!
"आप गए नहीं?" बोली वो,
नाग ने कोई भाव ही न दिया!
"चले जाओ! कोई देख लेगा!" बोली वो,
एक बार को पीछे मुड़कर देखा रमेली ने, था तो कोई नहीं, लेकिन कब कोई आ जाए, क्या पता!
"जाओ!" बोली वो,
और एक फूल, सम्मुख रख दिया नाग के, नाग ने, फन टेढ़ा किया, पीछे किया और आगे चला आया! न घबराई वो!
"जाओ! कोई देख लेगा!" बोली वो,
नहीं, वो तो अडिग था! नहीं गया! दिखा दिया, कि उसे कोई डर नहीं! कोई आता हो, तो आये, कोई जाता हो तो जाए!
"जाओ! प्रणाम!" बोली वो,
और लौट चली वापिस! उस थड़ी पर चढ़ने पर, उसने देखा उधर, अभी भी बैठा था वहीँ! जैसे ही देखा, सरपट भागे चला आया उधर! अब घबराई वो! किसी ने देख लिया तो? कोई आ गया तो? क्या करे?
"जाओ! जाओ!" बोली वो,
"कौन है?" आयी आवाज़ माँ की,
"वो...कोई नहीं..." बोली वो,
माँ आ धमकी! आसपास देखा, तो कोई नहीं! बड़ी राहत पहुंची उसे! चलो, चले गए वो! कोई देख लेता, तो बाहर खदेड़ देता! तब दुःख होता रमेली को, कि उसके कारण से ही ऐसा हुआ! लेकिन वो चला गया! और माँ के संग, लौट आयी रमेली! लग गयी अपने कामों में ही! वहीँ रोज़मर्रा के से काम! वही, जिनकी उसे आदत थी!
अगले दिन की बात है, आज आकाश में बादल बने थे, फूलों में पानी लगा जाता तो गिचगिचा जाते, काम के नहीं रहते वो!
"रमेली?" बोली माँ,
"हाँ माँ?" बोली वो,
"आज तो आसार अच्छे नहीं, मेह पड़ सकता है!" बोली माँ,
"फूल लाने हैं न?" बोली वो,
"हाँ, ले आती तो अच्छा ही रहता!" बोली माँ,
"ले आती हूँ!" बोली वो,
"संग लेजा उर्मा को?'' बोली माँ,
"मैं ले आउंगी!" बोली वो,
और डलिया ले, चल पड़ी, गीत गुनगुनाते हुए, आयी उधर ही, तो देखा, ज़मीन पर, रेखाएं बनी हुई हैं! जैसे, किसे सांप में, रात भर इंतज़ार किया हो किसी का! इधर भी और उधर भी! लेकिन वो छोटा सा सांप, ऐसा कैसे करेगा! तो मिटा दिया मन से ये विचार उसने!
नीचे बैठी वो, और फूल उठाने लगी, कुछ बेकार हो गए थे, कुछ किसी काम के न बचे थे, सही फूलों से छू जाएँ तो उनको भी खराब कर दें! आज तो खूब मेहनत होगी, बार बार उठना, फूल झाड़ना, उठाना और चुनना, इसी में शाम हो जाती आज तो! अभी सुने दो ही फूल उठाये थे कि एक, ताज़ा सा फूल नीचे गिरा! ऊपर देखा, तो सूरज की चौंध थी, गर्दन ज़्यादा पीछे होती नहीं थी, कहाँ से गिरा, पता नहीं, सुने हाथ बढ़ाया ही था आगे कि, एक और फूल गिरा! फिर से ऊपर देखा, कोई नहीं, सूरज की चौंध! और जो फूल गिरे वो ऐसे, कि अभी अभी ही पके हों! महक ऐसी कि सोये हुए देवता भी जाग जाएँ!
उसने ध्यान नहीं दिया, फूल एक एक कर गिरने लगे, और उसकी डलिया भरने लगी! आज तो कमाल ही हो गया था, न कोई मेहनत और न सर-खपाई! सब का सब, नपा-तुला!
उसने डलिया भर ली, और लगी उठने, पाँव नहीं बना सका सन्तुलन, तो पीछे को गिरने लगी, डलिया छूटने को ही हुई तो तो लगा, किसी ने उसके कूबड़ पर हाथ रख दिया हो! नहीं गिरने दिया हो, उसने झटके से पीछे देखा!
वो! वही नाग, उधर बैठा था, कुछ ही दूर, बिन कुंडली मारे! बस, उसको ही देखते हुए! जब रमेली से नज़रें मिलीं तो चौड़ा फन बन्द कर लिया!
कुछ न समझ सकी वो! किसने छुआ था उसे? यहां तो कोई नहीं? कोई भी तो नहीं, यहां तो वो अकेली ही है, वो? और...और ये नाग! बस! कैसे हुआ ये सब? अब उसको थोड़ी जिज्ञासा सी हुई, फूलों की डलिया पकड़ी और चली नाग की तरफ! न चाहते हुए भी, होंठों पर, बरबस मुस्कान छलक आयी!
"हे नाग देवता!" बोली वो, हाथ जोड़ने का प्रयास करते हुए!
नाग ने जैसे कोई ध्यान नहीं दिया! हाँ, दो फूल और गिरे नीचे! बड़े दबे और महक वाले!
''आपने दया की?" पूछा उसने,
सांप ने फौरन ही झुंझला कर, ये दिखा दिया कि नहीं! कैसी दया! कोई दया नहीं वो तो बस उसे ही देख रहा था!
"कैसे धन्यवाद करूँ आपका?" बोली वो,
वो फूल तभी, तेज हवा के झोंके से, उड़ चले दूर! कुछ समझ ही न आया रमेली को! सीधी-साधी! जो बताया गया, मान लिया, नाग देवता होते हैं, उनका मान-सम्मान ज़रूरी होता है!
हाँ! ज़रूरी है इनका मान-सम्मान! कहने को जिव्हा तो दो हैं, पर बोल नहीं सकते! हाँ, देखते सब हैं! हम से तो बेहद समझदार हैं! तभी तो देवत्व प्राप्त किया है इन्होंने! ये सदैव ही पूजनीय हैं! ये बदल में कुछ नहीं मांगते, लोग इनको शत्रु समझा करते हैं! कैसी विडम्बना है, अन्न के प्रहरी होते हुए भी, हम इन्हें ही शत्रु मान लेते हैं!
"अच्छा! अब आप जाओ!" बोली वो,
एक अलग सा बन्धन महसूस करने लगी थी रमेली उस नाग के बालक से! और वो भी कम कहाँ था! सौ सौ बार न सुन ले कि जाओ जाओ! तब तक तो सुनता भी नहीं था उसकी! कभी फुफकारता भी नहीं था, उसे नज़रों में रखता था, की हम इसे निगेहबानी जेह सकते हैं मित्रगण? या फिर, मात्र एक छोटे से सांप की एक छोटी सी ही जिज्ञासा!
"जाओ! अब लौट जाओ! देखो, कोई तो होगा तो तुम्हारा इंतज़ार करता होगा! जाओ! अब लौट जाओ!" बोली वो,
और वो सर्प, लहराता सा, जैसे सब सुना उसने, और समझ भी लिया, चला उसकी तरफ! और सीधे ही सम्मुख आ बैठा! कितने प्यारे नयन थे उसके! चमकता हुआ श्याम-नील वर्ण! चमक ऐसी कि आँखों में जो गिरे तो निकले नहीं वो!
''अब जाओ!" बोली वो,
सर्प ने सुना, और दौड़ता हुआ चला गया, हाँ, उसकी एड़ी को छूते हुए! सुनता क्या, सर्प नहीं सुनते, सुनते हैं तो भी अंतः-कर्ण-श्रवणेंद्रि के कारण ही! तो उसे सुन लिया, यही लिखूंगा मैं भी अब!
तो सर्प, लहराता हुआ चला गया, चला गया जहाँ से रोज आता था, उसको देखता था, कुंडली मार, आराम से देखता रहता था! दोपहर, ढलने को ही थी, अचानक से उस र ऊपर उठा, चौंध सी पड़ी! एक पीले से रंग की बदरी, सूरज से लोहा ले रही थी! बहुत तेज चमक थी उसमे! देखा न गया तो सर किया नीचे और सन्तुलन बनाते हुए लौटने लगी! अपना काम किया उसे, वही सब, जिसकी आदत थी उसे! हाँ, उस दिन, सन्ध्या में, उसे, उस छोटे से सर्प का विचार ज़रूर आया था! जिसका कोई बोली वाला मित्र नहीं होता न, उसके सभी मित्र हो जाते हैं! क्या पंछी और क्या पशु, क्या पत्थर, पेड़ और क्या, वो ज़हरीला सा सर्प!
उसी रात.....
पंख झपकते झपकते लेट गयी थी वो! पसीना आ रहा होता तो भी कुछ किया न जा सकता था, अब तो प्रातःकाल ही स्नान होता! उस रात करीब दो का वक़्त होगा, गहरी नींद में थी रमेली! कि उसे, स्वप्न में कुछ दिखाई दिया! उसने देखा कि एक पीले रंग की बदरी सी, जैसी उसने दिन में देखि थी, जिसमे बहुत चमक थी, फिर से सूरज पर आ बिछी है! चमक ऐसी, कि सर के कपड़े को आगे रख आँखों के, सहारा ले, देखा जाए! स्वप्न में समय दिन का ही था! कि कुछ सुनाई दिया उसे!
"बैद्यनाथ जी आये हैं! बैद्यनाथ जी आये हैं!"
बैद्यनाथ? वो कौन हैं? कहाँ से आये हैं? किस कारण से आये हैं, अब उनका इस, रंगशाला से क्या काम! सब चले तो वो भी चली! फ़र्क़ इतना कि सब कुलांच भर चले, वो बेचारी, ज़मीन से तालमेल कर आगे चली! आंगन था सामने, एक वृद्ध व्यक्ति बैठा था, उसे जल पिलाया गया था, और कुछ लो उसके पास आ बैठे थे, कोई पाँव छू रहा था तो कोई हाथ जोड़े बैठा था!
"कहाँ से आ रहे हो बैदू बाबा?" बोली माँ, रमेली की!
"गया था री!" बोला बैदू!
"कहाँ?" पूछा माँ ने,
"तेरी लड़की के लिए!" बोला वो,
"उर्मा का घर देखने?" पूछा मैंने, खुश होते हुए!
बैदू चुपचाप बैठा रहा, एक बर्तन निकाला झोले में से उसने, कपड़े से साफ़ किया और जल भर, जल से साफ़ किया और रख दिया!
"बोल न बैदू?" बोली माँ,
"अरी क्या बोलूं?" बोला बैदू!
"उर्मा के लिए घर देखा? कैसा है घर? वर कैसा है?" बोली माँ!
"ना!" बोला वो,
"ना?" बोली हैरानी से माँ!
"तो क्या देखा?" बोली माँ,
"कुछ लाया हूँ लड़की के लिए तेरी!" बोला वो,
"उर्मा के लिए?" पूछा माँ ने,
"ना!" बोला वो,
''अरे तो कौन?" बोली वो, इस बार गुस्से से!
"तेरी कुबड़ी के लिए!" आयी आवाज़ एक औरत की, घुटनों पर हाथ रखे खड़ी थी, चांदी के जेवरों ने जहाँ कान फाड़ दिए थे, वहीँ अभी जीभ सुरक्षित थी! कुबड़ी! कौन कुबड़ी? माँ को आ गया गुस्सा! सुनाई खरी खरी! माँ सुनाये, तो वहां के लोग हंसें!
"अब कुबड़ी को कुबड़ी ही तो कहेंगे!" आयी एक मर्द की आवाज़!
और रमेली, बेचारी....रो भी न सकी! अपना तो कुछ नहीं, ये तो था ही, कुबड़ी तो थी ही वो, हाँ, माँ को कही-सुननी पड़ी, तो बहुत दुःख हुआ रमेली को! क्या करे वो? जन्म ही ऐसा दिया भगवान ने! तो, हर बार की तरह, बात आई-गयी होने ही वाली थी!
"अरी? रमेली?" आयी आवाज़, बैदू ने बुलाया था!
रुक गयी वो, आखिर में, अपमान कैसे करती, बाबा से भी दो चार ज़्यादा ही होगा बैदू!
"इधर आ?" बोला बैदू!
चली बेचारी, जैसे ही चली, सन्तुलन बनाया, कई, बढ़िया देह वाली और वालों ने, हंस कर जैसे उसका स्वागत किया!
"आ, आ बेटी!" बोला बैदू!
आ गयी वो, लोग जाने लगे थे, अब भला ऐसी कोई दवा है, या बनी जिस से कूबड़ खत्म हो भला! वही सब, ये लगा और वो लगा! जी मना लो बस, खुश हो जाओ कुछ देर के लिए, या फिर, कुछ दिनों के लिए ही!
"आ, बैठ!" बोला बैदू!
बैठ गयी, एक टांग सीधी न हो, दूसरी मुश्किल से टेडी हो, उसका कूबड़, निगले जा रहा था उस कुबड़ी को!
"सुन बेटी, ये ले!" बोला बैदू!
उसने हाथ में लिया, ये कोई जंगली सा फल था, सूखा हुआ, लेकिन इतना कड़ा नहीं था, खजूर जैसा ही था वो!
"बेटी! ये पहाड़ी बूटी है! बहुत कम मिलती है, और, इसे सर, सांप ही पहचानते हैं, इंसान नहीं!" बोला बैदू!
सांप? सांप ही पहचानते हैं?
"अब बोलेगी कि कहाँ से मिली? किसने दी, कौन लाया, उसने कैसे पहचानी! तो बस ये बातें छोड़! और सुन, अभी बताता हूँ तुझे, कि कैसे प्रयोग करनी है ये! रुक, बता देता हूँ!" बोला बैदू!
ये स्वप्न ही था, सब स्वप्न में ही हुआ था, असल ज़िन्दगी से, कोई सरोकार हो या नहीं, पता नहीं जी!
"अरी! अरी ये बातें मत न सोच, दूर से आया हूँ, तेरे लिए ही तो! बेटी, आ समझा दूँ तुझे कि कैसे प्रयोग करनी है! ठीक है?" बोला बैदू!
बाबा बैदू से बातें करते देख, लोग तो निकल ही लिए थे, अब कौन सी दवा होगी! दवा ही होती अगर कोई तो कुछ करवा ही न लेती कुछ! अब इस बुड्ढे को और उस कुबड़ी को बतियाने दो! गुड़ न दे, गुस जैसे बात ही कर दे! यही बहुत!
"सुन बेटी!" बोला वो,
"तड़के उठ हजन, सूरज निकले नहीं, एक टुकड़ा काट लेना, चबा लें, ख़त्म होने तक ऐसा ही करना! ठीक?" बोला वो,
क्या करती बेचारी! जैसे कही, गाँठ बाँध ली, ठीक है, ये भी सही, नहीं तो याद है उसे, कैसे जोहड़ों की कीचड़ में छोड़ देती थी माँ, कि कुब्ब कम हो! न हुआ! चलो कोई बात नहीं, बैदू बाबा की बात भी रखी जायेगी!
"ठीक है? देख, देवतान ने चाही, तो सबकुछ अच्छा होगा! तू चिंता मत करियो! आया कभी तो, सुद्ध-ठीक ही मिलेगी मुझे तू!" बोला बाबा,
और एक कपड़े में लपेट कर, वो बूटी दे दी उसे! दो बात और बताई कि कैसे लेनी है! और फिर, अपना अंटर-बण्टर समेट खड़ा हो गया!
"जा, अब जा बेटी!" बोला वो,
और काँधे पर, अपना झोला सम्भाल, चलता चला गया बाहर के लिए! रह गयी अकेली वो! और आँख खुल गयी! बाहर तो अभी अँधेरा था, लगा, हाथों में कोई बूटी है, जब हाथ देखे, तो सभी खाली! सपने भी उपहास उड़ाते हैं आज ये भी समझ आ गया था उसकी! फिर नींद नहीं लगी उसकी! उठ गयी, स्नान-ध्यान से निबटी और लगी अपने कामों में, चारा पशुओं का, वही काट कर रख दिया गया था, तो नांद में डाला उसने, और छोड़ दिए पढू, भूखे पशु, लगे चारा लीलने!
उसी दिन दोपहर को, उसकी आँख लग गयी थी, अपने कक्ष में लेटी थी वो! कि बाद से कुछ आवाज़ें आयीं! कुछ बालक, बालिकाएं औरत और मर्द, चले जा रहे थे एक तरफ! लगता था कोई गली-व्यापारी आया है, कुछ सामान लेकर, बालक तो डलियाओं में अन्न भरे चल पड़े थे, अन्न देते और बदले में कुछ फल, कुछ मिठाई, कुछ नारियल आदि ले लेते थे! सोचा, शायद वही आया होगा! अब भला उसका क्या मतलब! लेटी ही रही! आँख मूंदने की कोशिश की तो आँख न लगे, बाहर से कुछ आवाज़ें आएं, बाल ख़ुशी में भागें, बालिकाएं, उछल-कूद करें!
"रमेली?" आयी आवाज़ एक!
उठ गयी वो, आवाज़ माँ की थी!
"हाँ माँ?" बोली वो,
"आ ज़रा, इधर आ?" बोली माँ,
"आयी माँ" बोली वो,
कपड़े ठीक किये, कुछ सामान वापिस रखा बिस्तरे पर, और चल दी बाहर की तरफ! जैसे ही चली, कि आँखों में तेज चमक सी कौंधी! सर ऊपर किया किसी तरह, तो एक पीली बदरी, सूरज पर बिछी थी, चमक ज़्यादा था, तो आँखें फेर लीं अपनी!
''आ!" बोली माँ,
"कहाँ माँ?" पूछा उसने,
"कोई आया है!" बोली माँ,
"कौन आया है?'' पूछा उसने,
"चल तो सही!" बोली माँ,
और ले चली उसको अपने संग, एक टांग से लँगड़ाती, एक आँख से सामने देखती, टेढ़े सर से, चल पड़ी बेचारी! कौन मिलेगा उस से भल? कोई काम होगा, उसी लिए बुलाया होगा, फूल टांकने का या फिर झाड़ू-बुहारी का! वो आयी उधर, तो जो देखा उसे देख चौंक उठी वो! ये कौन? कहाँ देखा है इसे? कहीं तो देखा ही है, है कौन?
"आ बेटी!" बोला वो वृद्ध!
"अरे बुधिया? बहुत दिनों बाद लौटा?" बोली माँ,
'हाँ री! घूमने का काम है, कभी कहाँ और कभी कहाँ!" बोला वो,
"हाँ, तेरी जड़ी काम की होती है, हम तो सोच रहे थे, कि कहीं पूरा ही न हो गया हो!" बोली वो, हंसते हुए!
"ऐसे कहाँ री! जीवन के दंड हैं, जन कितने हैं अभी भरने! ऐसे कहाँ कोई पूरा!" बोला वो भी हंसते हुए!
"ले बुधिया!" बोली एक वृद्धा!
पानी था, ओख लगा कर, पानी पिया, दो गिलास पानी, धूप में घूम कर आया था, दो गिलास जल तो लगता ही! थोड़ा चेहरा धोया और पोंछ उसने!
"मैं आया तो था यहां, लेकिन मिला कोई नहीं?" बोला वो!
''कब?" पूछा मैंने,
अब बताये दिन, उन दिनों में फुर्सत ही कहाँ!
"और सुना, क्या लाया!" बोली माँ,
"ख़ास!" बोला वो,
"क्या ख़ास?" पूछा माँ ने,
"लग गयी तो याद करेगी!" बोला वो,
"हैं? क्या लग गयी?" पूछा माँ ने!
"देख अभी!" बोला वो,
और झोले में हाथ डाल, खंगालने लगा कुछ! और इधर रमेली, कुछ समझ ही न आये, कभी पीली बदरी को देखे, कभी बुधिया को!
"तू जो रिस्ता लाया था, खूब जम रहा है!" बोली माँ,
"काम ही जन्मे वाला करता हूँ री!" बोला वो,
''एक काम कर न?" बोली माँ,
"क्या? झोला छोड़, बोला वो!
"एक ऐसा ही रिस्ता ला दे, उर्मा के लिए!" बोली माँ,
"उर्मा?" बोला वो,
"हाँ, इस से छोटी है न?" बोली माँ,
''और ये?" बोला इशारा करते हुए रमेली की तरफ!
"क्यों मज़ाक़ उड़ाता है हमारा तू भी!" बोली माँ,
"कैसा मज़ाक़?" फिर से झोला टटोलते हुए बोला!
"तू तो जाने है न सबकुछ?" बोली माँ,
"हाँ तो?" बोला वो,
"तो क्या?" बोली माँ,
और तब, लौटने को हुई रमेली! देह में ही तो विकार था, दोष था, समझ में थोड़े ही!
"रुक बेटी!" बोला बुधिया!
रुक गयी वो, लेकिन पीछे न देखा, या यूँ कहो, देख ही नहीं पायी वो!
"सुन?" बोला बुधिया!
"बेटी?" आयी आवाज़ बुधिया की!
"रुक जा रमेली?" बोली माँ,
रुक गयी वो! जी पर चाकी चली थी, भले ही रुक गए थे चाक, लेकिन विवशता का अन्न, चाकों के बीच से जा रिसा था! क्या करती! चाकी भी उस की और चाक भी उसके! और तो और, चाकों के बीच से जो रिसा अन्न का चूरा वो भी उसीका!
"अरे बुधिया?" बोलते हुए आये बाबा रमेली के!
"आओ लक्खी!" बोला बुधिया!
"बड़े दिनन में लौटा भाई तू तो?" बोले बाबा,
"ऐसा ही है लक्खी! जल का जीव, कित बह जाए, पता कोई ना!" बोला वो,
"अब कहना से आया है?" पूछा बाबा ने,
"दूर से आया हूँ कहीं!" बोला वो,
"अरे बुधिया?" आयी एक बूढ़ी औरत की आवाज़!
''आ जा! आ जा!" बोला बुधिया!
"तू तो गायब ही हो गया?" बोली वो बूढ़ी औरत!
"हाँ, लेकिन ज़िंदा हूँ!" बोला वो,
"नज़रफोड़वा लाया है?" पूछा बूढ़ी औरत ने!
"अब तुझे भी नज़र लगने लगी री!" बोला हंसते हुए!
"बच्ची को चाहिए!" बोली वो,
"हाँ, लाया हूँ, देता हूँ, ले...रुक....हाँ...ये ले!" बोला वो,
और एक झालर सी दे दी, उस झालर में, एक धागे में कुछ बीज से पिरोये हुए थे, निकाल कर दे दी उसने वो उस बूढ़ी औरत को!
"ला! भिजवाती हूँ दाम!" बोली वो,
"कोई ना! आते जाते हो जाएगा!" बोला वो,
"तेरा कुछ पता नहीं, कब जाए और कब आये!" बोले बाबा हंसते हुए रमेली के!
"कोई न ले जाता किसी का, सब यहीं का यहीं है! मेरा होय तो मिलेगा, न होए तो हाड़ फोड़ो या मांस, कुछ न मिले!" बोला बुधिया!
"ये तो सही कहीं तूने!" बोले बाबा!
"अरे हाँ, बेटी? ओ रमेली?" बोला वो,
"ले! तेरे लिए आया, और इन्होंने घेर लिया!" बोला वो,
"लक्खी, जल ही पिला दे!" बोला वो,
''अभी ले!" बोले लक्खी, और रमेली के माँ को ले चले संग! पानी भिजवा देते उसके हाथों! अब बुधिया का क्या है, ज़ुबान जोड़ी टी फिर क्या सांझ और क्या सुबह! थकता ही नहीं ये तो!
"आ बेटी, यहां बैठ!" बोला वो,
बड़ी मुश्किल से बैठ पायी रमेली उधर! बुधिया देखता रहा उसका दुःख...दुःख...इसीलिए तो आया था वो!
"बेटी, इस बार दूर गया था, पहाड़ी पर, वहां कोई मिला मुझे, बाबा था कोई, उसने कुछ बताई मुझे, और देख...ये दिया मुझे, जंगली बूटी है बेटी, इसका तरीका बताये देता हूँ! सुन रही है न?" बोला बुधिया,
"हाँ बाबा!" बोली वो,
"टिक के बैठ जा, आराम से!" बोला वो,
बुधिया ने, अपना तौलिया सा, नीचे बिछा दिया, और बैठने को कहा, जैसे ही बैठी वो, कि दोनों टांगें ही उठ गयी, इस कूबड़ ने तो उसका अब खाना शुरू कर ही दिया था, कुछ समय और बीतता तो बस, खटिया से लग जाती, और पता नहीं, वो खटिया, उसका कब साथ छोड़ती! या तो वो खटिया छोड़ती या फिर खटिया ही उसे छोड़ देती, एक न एक दिन!
"सुन, सूरज निकलने से पहले, स्नान कर लियो, और देख ये, इसका एक टुकड़ा, काट कर खा लिया करियो! ये दो महीने चल जाएगा, मैं फिर से लौटूंगा, देखने को तुझे ,मेरी बेटी! सुन लिया?" बोला बुधिया!
"हाँ बाबा!" बोली वो,
सामान समेटने लगा बुधिया, रह रह कर देख लेता कि की पानी ला रहा है भी या नहीं! उठने को हुई रमेली, तो सहारा दे कर उठाया बुधिया ने उसे!
"इसका दाम बाबा?" बोली वो,
"चल? बेटियों से भी कोई दाम लेता है? मेरी बच्ची तू ठीक हो जायेगी, मुझे विश्वास है!" बोला वो,
डांट-डपट दिया था दाम के नाम पर बुधिया ने! अब कहाँ बचे हैं ऐसे बुधिया! और कहाँ ऐसे लोग! बुधिया तो लौट गए! शनैष्चर्या ही रह गए!
"समझ ली? या और बताऊं?" बोला वो,
"समझ गयी!" बोली वो,
"जा, पानी भिजवा दे, भूल गयी माँ तेरी लगता है!" बोला वो, हंसते हुए और झोला, अपने काँधे रखते हुए!
''अभी लायी बाबा!" बोली वो,
और ढुलकती-ढुलकाती सी, बेतरतीब सी, चल पड़ी वापिस, पानी लेने, बुधिया के लिए! जब पहुंची अंदर, तो माँ जा रही थी पानी लेकर, चलो अच्छा हुआ, वो सीढ़ी अपने कक्ष में चली आयी!
हाँ, वो दवा, वो सूखे खजूर सी बूटी उसने लेनी शुरू कर दी, खा ही लेती थी, मन में कुछ न कुछ, भले ही एक कण बराबर, उम्मीद तो सभी के ही रहती है! सो, वैसी रही होगी, मैं मानता हूँ!
इतना बता, मोहरी चुप हो गयी! उसने पानी पिया कांपते हाथों से! मोहरी, उम्र में करीब अस्सी के आसपास रही होगी! साथ में उसका बड़ा लड़का, मोहन भी था, मोहन की पत्नी, चूल्हे पर, ककड़ी-खीरे की सब्जी बना, अब रोटियां बेल रही थी हाथों से, मोहन की लड़की, सिल-बट्टे पर, लाल मिर्च की चटनी पीस रही थी, एक पीतल की कटोरी में, सूती कपड़े से बंधी, बांस की लकड़ी, उस कटोरी में थी! बत्ती के नाम पर, एक लट्टू जल रहा था, दीवार से लटकता हुआ, ईंटों पर, तेज प्रकाश ने, कालिस्ख जमा दी थी, तो लट्टू काफी पुराना था, पता चलता था!
"लो जी!" बोला मोहन,
मैंने वो पीतल का गिलास पकड़ा, उसमे धुंगार वाली छाछ थी, हींग-ज़ीरे की महक वाली छाछ और छाछ में तैरते कुछ ज़ीरे के काले टुकड़े! नमक मुझ से पूछ कर डाल दिया गया था! मैंने घूंट भरा, कोई खान से लाये हमारे इस देसी खाने का स्वाद! कहीं से भी नहीं! सच कहूँ तो देवता भी तरसें इस स्वाद के लिए! जी किया, आज तो इसी से ही पेट भर लूँ! ऊपर से, चूल्हे से निकलते ईंधन की सौंधी महक! राख का वो रंग! रोटी पर लग आये तो राख भी मेवा बन जाए! अब नहीं बचा जी कुछ! सब खत्म होता जा रहा है! कोई परवाह भी नहीं करता अब! क्या खा रहे हैं हम और अपनी सन्तानों को क्या खिला रहे हैं, कुछ नहीं सोचते! भला अब सोचें भी कैसे! हमारी तो दिनचर्या ही अब खराब हो गयी! चूल्हे की पानी की रोटी पर, साग रख कर खाइये! तब पता चलता है कि क्या हो रहे हैं हम!
जिन मित्रों का सम्बन्ध गाँव से रहा होगा, वो शायद जानते ही होंगे, कि कैसे गाँव में कोई आया करता था, साइकिल पर एक लकड़ी की पेटी बांधे हुए, पेटी भी साइकिल की रबर से ही बनी होती थी! कैसे उसको देख, बच्चे अपने अपने घरों से मुट्ठी भर नाज लाकर देते थे उसे, और और बदले में बर्फ देता था! 'आइसक्रीम' कहते हैं हम उसे! उसमे नारियल की गिरी हुआ करती थी! कितने चाव से खाते थे बच्चे सभी! उस बर्फ पर तो कोई सरकारी मोहर नहीं होती थी! खूब खायी बच्चों ने, और उन्हीं गाँवों से, नामी-गिरामी पहलवान भी हुए, फौजी भी और रसूखदार भी! तो बदला क्या? बदला हमारा मिजाज़! हमारी कवायद, पैसे वाले ऊँचे, बाकी नीचे! खैर साहब, अभी तो कहते हैं कलयुग पालने में ही है, जब जवान होगा, तब न जाने क्या होगा!
"ताई?" आयी आवाज़ किसी लड़की की!
अंदर आयी थी एक लड़की, खाली कटोरा लिए, नमस्ते की उसने, और उसकी ताई ने, भगोने में से, कुछ सब्जी, निकाल कर दे दी उसे! लड़की, मुस्कुराती हुई चली गयी! और उधर, मोहन के लड़के ने, चारपाई पर खेस बिछा, पानी का जग रख, ढक कर रख दिया था, हरी-मिर्च, प्याज और अचार आदि रख दिए थे, कसर थी तो बस यही, कि अब जाया जाए और भोजन किया जाए, छाछ ने तो वैसे ही आग में घी का काम कर दिया था!
"आ जाओ जी!" बोला मोहन,
मैं और मेरे साथ जो थे, श्रीमान, कर्ण साहब, उठ चले!
"मोहन जी?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"अम्मा की कुर्सी भी वहीँ लगा दो?" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
और ऐसा ही हुआ, अम्मा की कुर्सी लगा दी गयी, बिठा दिया गया अम्मा को! अम्मा को रात में कुछ कम ही नज़र आता था, इसीलिए सहारा देना पड़ता था! लेकिन अम्मा इस उम्र में कुर्सी पर बैठ जाए तो बतियाये, ये अपने आप में कम नहीं! हमारा तो पता नहीं, कि कुर्सी ऊपर कि हम ऊपर! सब मोटा नाज! उसी का कमाल है ये! जैसा नाज होगा, वैसा घाटन(पाचन) होगा, जितना रगड़ेगा उतना निखरेगा! अब पियो कोल्ड-ड्रिंक और ताक़त मांगो गामा पहलवान की! ऐसा तो हरगिज़ नहीं होता! जैसा खाओगे, वैसा पाओगे! साधारण सी बात है!
अब लगा दिया गया भोजन, एक तश्तरी में वो सब्जी! हल्दी की ख़ुशबू उठे, सिल पर मसाले पीसें और महक न आये, असम्भव! तो जी हमने खाना शुरू किया!
और तब, मोहन के कहने पर, मोहरी अम्मा ने आगे बताना शुरू किया!
जेठ से पहले के दिन थे वो, अभी बूटी ले ही रही थी रमेली! असर हो या न हो, कोई लाभ नहीं इसके लिखने का, किसी के विश्वास को नहीं उकेरा जा सकता, न कागज़ पर ही, न किसी के मन पर ही! मानो तो भगवान, न मानो तो पत्थर!
उस दोपहर, बच्चे खेल रहे थे, खेलते खेलते बच्चों ने रमेली से कहा की पास की बगिया में, कच्ची अम्बियाँ लगी हैं! सुगन्ध ऐसी है की पूछो मत! अब रमेली भी तो बालिका ही थी! वो अलग बात कि समझ किसी में पहले उपजती है और किसी में बाद में, उसने मना किया, खूब ही मना किया! अब चूँकि रमेली नहीं जाती तो अम्बियाँ मिलती कहाँ से! वो कुबड़ी थी, अम्बियाँ ले भी जाती तो कोई कुछ कहता भी नहीं उसे! इसीलिए बच्चे ज़िद कर रहे थे, जब नहीं मानी, तो बालपन में जैसे बच्चे चिढ़ाये करते हैं, उसको भी चिढाया उन्होंने! मन ही मन, हंस पड़ी वो! और कुछ ही देर में, खुद ही चल पड़ी! अब बच्चे मशगूल दूसरे खेलों में! बच्चों का क्या, पानी अच्छा लगा तो गीले हुए, कीचड़ अच्छी लगी तो बने मेंढक! उनका क्या मन!
तो वो पहुंच गयी बगिया! जितना देख सकती थी देखा, ऊपर उचक सकती नहीं थी, गिर ही जो जाती! ऊपर से चटकती धूप! आँखों के कोटरों से वो परेशान! क्या करे! सोचा किसी पेड़ की टेक ली जाए और तब देखा जाए, क्योंकि वहां तक की तो अम्बियाँ, बच्चे तोड़ ही चुके थे!
"क्या ढूंढ रही हो?" आयी एक आवाज़!
ये आवाज़, नयी थी! उसने कभी नहीं सुनी थी, एक बारगी तो घबरा ही गयी, जैसे चोर रँगे हाथों धर लिया गया हो! जैसे अब तक की टूटी हुई अम्बियोँ का सारा हिसाब उसे ही करना हो!
सिहर ही गयी थी बेचारी!
"सुनो?" आयी फिर से आवाज़, ये पीछे से आयी थी आवाज़! उसने पीछे पलटने की कोशिश की, पांवों में बिखरे सूखे पत्ते, और खड़खड़ कर उठे! अब कोई अवसर भी नहीं था उसके पास की उसे देखा ही नहीं गया है! वो पीछे घूमी, तो एक कन्या दिखी उसे! लेकिन, रूप-रंग में बड़ी ही सुंदर! और हौला बैठा उसे! किसी सेठ की लड़की होगी ये, ये तो बहुत ही नकचढ़ी होती हैं, अब क्या होगा?
"कौन हो तुम?" पूछा उस लड़की ने,
"र...रमेली" बोली वो,
"रमेली?" बोली वो लड़की, वहीँ खड़े रह कर ही!
सर हिला कर, नज़रें बचा कर, हाँ कही उसने!
"यहां अम्बियाँ लेने आयी हो?" पूछा लड़की ने,
सर हिला कर, न कही, जानती तो थी ही कि अगला सवाल क्या होगा! फिर भी बन जाए बात तो गनीमत ही हो!
"कहाँ रहती हो रमेली?" पूछा उस लड़की ने,
उसने इशारे से, बताया कि इधर, मुंह से न बोली कुछ भी!
"अम्बियाँ लेने आयी थीं?" पूछा लड़की ने!
सर हिलाकर, अब हाँ कह ही दी! अब छिपा कर करना भी क्या! दो से एक में ही बात निबट जाए तो इस से भला और क्या!
"आ जाओ!" बोली वो लड़की और आगे आते हुए, उस रमेली के कन्धे पर हाथ रख दिया उसने! काँप ही गयी रमेली उसका स्पर्श पा अपने कन्धे पर!
''आओ?" बोली वो लड़की!
कहाँ? नज़रों में सवाल किया लेकिन एक ही आँख की नज़र से, कहीं उस कुबड़ी का खिंचा चेहरा देख लेती, तो पता नहीं क्या क्या होता फिर! कहीं धकिया कर ही न निकाल दिया जाए उसे वहां से!
''आओ रमेली?" बोली वो लड़की!
न हिली, ज़मीन पर ही देखती रही, न जाने किस घड़ी में यहां चली आयी थी, अब माँ-बाबा को खबर लगेगी तो पता नहीं क्या क्या होगा!
"अम्बियाँ नहीं चाहियें?" बोली लड़की मुस्कुराते हुए!
सर हिला कर, ना कर दिया उसने!
"आओ, मत घबराओ! आओ, मैं हूँ तुम्हारे साथ!" बोली वो लड़की!
और उसे, कन्धे से पकड़, आगे ले चली! पाँव रुकें, फिर बढ़ें, रस्सी सी बंधे और फिर खुलें! क्या करे वो!
"उधर आओ! आओ! चलो!" बोली वो लड़की,
और रमेली को, कन्धे से पकड़, ले चली वो लड़की आगे, और आगे!
बेचारी रमेली! चल पड़ी उस लड़की के साथ! चली नहीं, चल पड़ी, या यूँ कहें कि चलना पड़ा! जब चोर पकड़ा जाता है और कुछ रास्ता नहीं दीखता निकलने लक, तो सारा तिकड़म लगाना भूल ऐसा हो जाता है कि सारे जहाँ में उस से मज़बूर, विवश, भूखा या सत्य हुआ और कोई नहीं! लेकिन रमेली! वो तो बेचारी तिकड़म ही न जाने कि क्या होता है! चल पड़ी सो चल पड़ी! आप सुखी तो जग सुखी! खुद सच्ची तो मिलेगा भी कोई सच्ची ही!
"रमेली!" बोली वो लड़की, इस बार मुस्कुराते हुए!
"ह..हाँ?" फूटे मुंह से ये शब्द बस!
"अम्बियाँ पसन्द है?" पूछा लड़की ने,
ना में सर हिलाया उसने, अब न में ही हिलाती, खुद तो आ नहीं रही थी, बच्चों ने ज़िद पकड़ी, उनका जी रखने के लिए, चली आयी थी यहां, इस बगिया तक!
"बोलो रमेली?" बोली लड़की वो!
"वो, बच्चे....मांग रहे...थे.." बोली बेचारी, डरी डरी सी!
"डरो मत! घबराओ मत! अरे जैसी बेटी मैं ऐसी बेटी तुम भी!" बोली वो लड़की!
मित्रगण! ये सुनते ही, न जाने कब का कोई पुराना सा सैलाब रुका था आँखों में, बह निकला! हाँ, इस सैलाब में बाँध काफी थे, बाँध, कुछ तो शर्म के, कुछ विवशता के! इसीलिए सैलाब, धीरे धीरे ही ढुलका!
"क्या हुआ रमेली?" घबराई वो लड़की उसको देखा, हाथ-पाँव से फूल गए उसके तो! चली तेजी से, और रमेली को काँधे से लगा लिया उसने! ओह....कौन लगाता था काँधे से उसे! कौन, उसके काँधे ही मिलते थे आपस में बस! जब ऐसा हुआ, तो सर का पल्लू ढुलक गया! और उसका चेहरा, वो बेतरतीब सा चेहरा, वो उसके, अलग अलग माप के कोटर , खिंची हुई सी सीधी आँख, जो ऊपरी पलक में. सूजन का सा प्रभाव देती थी, सामने आ गयी उस लड़की की! घबरा गयी रमेली! अब क्या होगा? क्या सोचेगी? कहीं अपने वस्त्र को, तन को झाड़ेगी तो नहीं? अब नहीं, तो बाद में?
एक हल्की सी आह सी निकली रमेली के मुंह से! इस आह को मैं, मित्रगण, लिख भी नहीं सकता! इस आह में, आवाज़ थी भी, और नहीं भी, ये नमी से भरी भी थी, और खुश्क भी, इस आह में दर्द था और दर्द की वजह भी! इस आह में, उस रमेली का अस्तित्व भी था और उसकी अस्तित्वहीनता भी! बड़ा ही मुश्किल है लिखना! कैसे लिखूं, कैसे बताऊं? आप स्वयं ही महसूस कर लें, तो बेहतर होगा!
आँखों से आँखें मिलीं! एक पल, रेत का महल सा ठहर गया! पता नहीं कब हवा चल जाए और रेत का महल, चकनाचूर ही हो जाए! एक पल को ही आँखें मिलीं और उस लड़की ने, रमेली का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले लिया! अब नहीं रुका गया रमेली से! अब नहीं थमा सैलाब! अब नहीं रुका वो तूफ़ान! आंसू, झर झर बहने लगे! किसको कोसे? भगवान को? खुद को? अपने भाग्य को? किसको? आंसू बहते चले गए उसके! उस लड़की के हाथों तक आ चले, हाथों से होते हुए, कलाइयों तक और कलाइयों से होते, नीचे ज़मीन तक, जहां उनका गंतव्य था!
"रमेली?" बोली वो लड़की, और अपने हाथों से आंसू पोंछे उसके!
रमेली, फूट फूट रोये! उसका रोना, वो पेड़, वो शाखें, वो पत्ते और वो घास भी सुने, कहते हैं जिनमे हृदय नहीं होता! भान नहीं होता! सभी सुनें उसका रोना!
"ना! ना रमेली ना!" बोली वो लड़की!
आंसू पोंछे जाए और समझाये जाए उसे! रमेली जैसी ही हो जाए! रमेली रोये, वो चुप कराये!
"क्यों रोती हो रमेली?" बोली वो लड़की!
"क्यों?" फिर से बोली वो,
और इस बार, जब बस नहीं चला, नहीं देखा गया रोना उसका, तो अपनी छाती से भींच कर लगा लिया गले!
"आओ! आओ रमेली! अब नहीं रोना, देखो, मुझे भी रोना आ रहा है, नहीं! रोना नहीं! तुम मेरी बड़ी बहन जैसी हो रमेली! मेरी बड़ी बहन!" बोली वो लड़की!
हटी थोड़ा और अपनी आँखों से उस लड़की को देखा!
ना! ये असलियत तो नहीं! नहीं ये हक़ीक़त नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! नहीं, कदापि नहीं!
"क...कौन हैं आप?" रमेली ने हिम्मत बाँधी और पूछा,
"बहन! छोटी बहन!" बोली वो लड़की!
"छोटी बहन?" अचरज से पूछा उसने,
"हाँ! रमेली की छोटी बहन!" बोली वो,
असमंजस में थी वो! ये कौन है? कोई..?
"आओ?" बोली वो लड़की!
और ले चली हाथ पकड़ कर उसका आगे! एक जगह, जहां पर, तीन चार बिटौरे रखे थे, उनमे से आगे चलती हुई, ले गयी वो!
"सोच रही हो कि मैं कौन हूँ? हैं न रमेली?" पूछा उस लड़की ने!
सर हिलाकर, हाँ कही! मुंह से न बोल सकी भोली सी रमेली!
"मेरा नाम, मृदा है! मैं पास के गाँव में रहती हूँ! ये मेरे बाबा की भूमि है, आज दिन में आयी थी उनके साथ, मेरे बाबा आने वाले होंगे, वो बहुत खुश होंगे! फिर चाहो तो साडी अम्बियाँ ले जाना!" बोली मुस्कुराते हुए!
भोली रमेली को क्या पता कौन सा गाँव कहाँ, और ये बगिया किसकी! जो सुना, यकीन किया! ऐसी थी वो भोली बावरी रमेली!
"रमेली?" बोली वो लड़की!
"हाँ?" बोली वो, अब खुलने लगी थी, समझ आने लगा था कि सारा संसार ही बैरी नहीं है, सभी के हृदय पत्थर नहीं कुछ मोम भी रखते हैं! समझने लगी थी, और जब, कोई मीठी बात कहे, तो जी को बल तो मिलता ही है!
"आओ? बैठो? यहां बैठो?" बोली वो, कुश की बनी चटाई पर, हाथों के इशारे से!
"बैठ जाओ! हाँ!" बोली वो लड़की!
एक नज़र हर तरफ डाली रमेली ने, कैसे कैसे प्यारे प्यारे फूल थे वहां! रंग-बिरंगे! तितलियाँ खेलती हुईं उन पर, भँवरे तितलियों को घुड़कियाँ देते हुए! कैसे सुंदर, पीले, नीले, सफेद से फूल!
"फूल पसन्द हैं न तुम्हें?" बोली मृदा,
रमेली अवाक! कैसे पता इसे!
"देखा है मैंने, कई बार तुम्हें, फूल चुनते हुए, चुगते हुए, उनकी मालाएं बनाती हो न? टांकण करती हो न? देखा था मैंने तुम्हें!" बोली मृदा!
रमेली को आज क्या हुआ? ये कैसा दिन आया आज? और ये, लड़की मृदा, कैसे अचानक मिल गयी?
तभी एक आवाज़ सी आयी, एक छोटा सा बछड़ा था, दौड़ा आ रहा था, गले में घण्टी टाँगे हुए! वो उनके पास से, होता हुआ गुजर गया!
"रमेली? बाबा आ गए मेरे!" बोली और उठ खड़ी हुई!
रमेली को समय लगता था उठने में, लेकिन आज हैरत! आज नहीं लगा! वो तो सामान्य सी ही उठ गयी थी! ये भी हैरत ही थी! हो न हो, स्वप्न ही है ये! स्वप्न में संयोग तो होते हैं, परन्तु संयोग साकार हो जाएँ तो सन्देह होना तो जायज़ है ही! तो ये कोई स्वप्न ही है! अवश्य ही कोई प्यारा सा स्वप्न!
और उस बछड़े की घण्टी बजी, आ गयी धरातल पर एक ही क्षण में! सामने वही बगिया, आम की बगिया, फूल आदि आदि!
"मृदा?" बोले वो आते ही!
"हाँ, बाबा!" बोली मृदा!
"ये लो! खाओ दोनों!" बोले वो,
अरे? इतनी आसानी से? खाओ? बिन पूछे ही? ये कैसे लोग हैं?
"बाबा?" बोली मृदा,
"हाँ बेटी!" बोले वो,
"ये रमेली है, पास में जो घर हैं ना?" बोली वो,
"हाँ?" बोले वो,
"वहीँ रहती हैं! यहां दोपहर में, इस गर्मी में, अम्बियाँ लेने चली आयी थीं! मैं मिल गयी इन्हें!" बोली मृदा!
"अरे? बिटिया को कुछ खिलाया-पिलाया भी नहीं?" बोले वो,
"आपका ही इंतज़ार था बाबा!" बोली वो,
"अच्छा! हाँ, ये लो, पकी आमी हैं! खिलाओ रमेली को और खाओ! मैं आता हूँ अभी!" बोले वो, और चले गए!
"रमेली?" बोली मृदा,
"ह..हाँ?" बोली वो,
"बैठो, आओ! खाते हैं ये पकी आमी! मीठी होंगी, आओ, बैठो!" और बिता लिया पास! अच्छी अच्छी पकी हुई उठायीं मृदा ने, पोंछीं और खिलाने लगी रमेली को! वो आमियाँ ऐसी मीठीं , ऐसी मीठी कि कभी खायी ही न थी उसने तो! उसे तो घर में भी, बची-खुची ही मिला करती थीं! दबी हुईं और पिलपिली सी! रस कम और सूखन ज़्यादा!
"लो! जी भर के खाओ!" बोली मृदा!
उस रोज आमियाँ खायीं उसने, आमियाँ होती क्या हैं. उस दिन ही जाना उसने! अब देर होने लगी थी, माँ भी पूछती और बाबा भी, इसीलिए चलने की सोची उसने!
"लो! ये भी ले जाओ, खा लेना, और हाँ, फूल चाहिए हों तो जब चाहे ले लेना, तुम्हें कोई मनाही नहीं! ऐसा नहीं सोचना कि सिर्फ आज की ही बात है! जब चाहो आओ! जब चाहो!" बोली मृदा!
और उसे छोड़ने चली वो, पास में ही दूसरी बगिया था, उसी बगिया की तरफ बने कुछ कमरों में से एक में वो और उसकी छोटी बहन उर्मा रहती थीं! उस बगिया और इस बगिया में, ज़्यादा अंतर नहीं था, एक कच्ची सी दीवार बस! जिसमे से भी, कई रास्ते बना डाले थे बच्चों ने!
आ गयी अपनी बगिया में! पीछे देखा तो मुस्कुराती हुई मृदा दिखी, अब मुस्कुराई पहली बार रमेली! और चल पड़ी आगे, आगे आयी तो दो बालक मिले, पोटली देखी उसकी, तो फिर हुआ शोर! बालक मंडराने लगे! बालकों में ही बाँट दीं उसने आमियाँ! बालक कैसे, जम जम कर खा रहे थे वो आमियाँ! खाते जाते और उसको देखे जाते!
खैर, दोपहर थी, तो हाथ-मुंह धो, लेटने चली गयी! और इसी मुलाक़ात में खो गयी! लोग ऐसे भी होते हैं? इतने अच्छे? उसने तो सोचा था, ये रोग ही, कोई श्राप है, कोई छूता भी नहीं, बालकों को छूने भी नहीं देता? और वो? क्या नाम? हाँ! मृदा! और उसके, वो बाबा! कैसे लोग हैं! आमियाँ दे दीं सारी की सारी!
इसी उहापोह में नींद लग गयी उसकी! और कब खुली जब कुछ शोर सा हुआ! यानि कि, रंगशाला के लिए कुछ तैयारी हुई! वो उठी, और चल पड़ी, आज फूल लेने थे उसे! तो फूल लेने चली अपनी डलिया ले कर! जहां से चम्पा के फूल लेने थे! वो चली उस पेड़ के पास, और ये क्या?
ताज़े फूल! धेरी लगी हुई, फूल भी ऐसे, जैसे अभी टपके हों पेड़ से, बस उसी पेड़ के नीचे! उसने आसपास देखा, कहीं किसी और के तो नहीं? कोई बाद में ले जाने के लिए तो नहीं रख गया? तो, नहीं लिए उसने, अपनी छड़ी उठायी और ज़ोर लगा, हाथ उचका, और तोड़ने लगी फूल! जो गिरता, उठा लेती ऐसे ही जब एक फूल उठा रही थी, तो सामने वही, छोटा सा सर्प बैठा था! उसको देख, मुस्कुरा गयी वो!
"यहीं रहते हो?" बोली वो,
और उठा लिया फूल!
"कहाँ से आते हो? किसी ने देख लिया न तो जानते हो?" बोली फूल उठाते हुए!
"नहीं जानते न?" बोली वो,
और आगे बढ़, उठा रही थी फूल!
"किसी रोज कोई पकड़ लेगा, छोड़ आएगा दूर कहीं!" बोली वो,
और हंसते हुए, उठाती रही फूल!
"मानते ही नहीं हो! है न?" बोलती ही जा रही थी, बोलती ही जा रही थी वो! आगे देख नहीं रही थी, फूल उठाने में ही मगन थी!
"जानते हो न? लोग क्या करते हैं?" बोली वो,
और उठाये फूल!
"पकड़ कर छोड़ देंगे दूर कहीं, फिर देख लेना, फिर नहीं आओगे इधर! कितनी बार कहा तुमसे, लेकिन तुम तो ज़िद्दी हो बहुत!" बोली वो,
और फिर से मगन हो गयी!
"ओ रमेली?" आयी आवाज़ एक, कोई भागे आ रहा था वहां, उसने पीछे देखा, दो लादमी चले आ रहे थे उस तरफ ही, एक के हाथ में डंडा था और दूसरे के हाथ में एक झोला!
"हट? हट जा वहां से?'' बोला वो,
और जब तक वो कुछ समझे, डंडे से दबा लिया गया वो सर्प, और एक ही झटके में, झोले में डाल लिया गया!
धक् से रह गयी रमेली! ये क्या हुआ? क्यों पकड़ लिया उसे? कुछ कहता थोड़े ही था वो? कभी कुछ नहीं किया, फिर? फिर क्यों पकड़ लिया! उठी वो, थोड़ा ज़ोर लगाया और झोले वाले के हाथ से, झोला लेने चली!
"रमेली? क्या हुआ?" बोला वो,
"छोड़ो! छोड़ो उसे?" बदहवास ही हुई बोली वो!
"क्या? पागल है कुछ? आज सुबह से देख रहे थे इसे, यहां आता है ये, ज़हरीला है, अरे? मार थोड़े ही रहे हैं? छोड़ के आ रहे हैं! यहां बालक हैं छोटे छोटे! किसी का पाँव रख गया इस पर, तो पड़ जाएंगे लेने के देने! समझी?" बोला वो आदमी!
नहीं! नहीं समझी वो, उचक उचक कर, झोला छीने, जब नहीं बनी बात, तो वो आदमी, झोला ले भाग लिया वहां से, दूसरा भी खिसक! अब क्या करे वो? दौड़ सकती नहीं? भाग सकती नहीं? चिल्ला सकती नहीं? क्या करे?
डलिया छोड़ी वहीँ पर! फूल गिरें तो गिरें! कुचलें तो कुचलें! वो भागी! भागी बेचारी! उस कुब्ब को ढो भागी बेचारी! उसी दिशा में, जहां वे दोनों भाग लिए थे! "रुको!" "रुको!" चिल्लाते हुए! टांगों की पेशियाँ अकड़ीं! नसों पर नसें चढ़ें! दर्द हो, सो अलग! पर रुकी नहीं वो! भागती चली गयी, कभी ये टांग फिसले, कभी दूसरी! ऊपर से कुब्ब का बोझ! बोझ दबाये, टांगें आगे बढाएं! आखिर सांस फूली! रुक गयी! आसपास देखा, कोई नहीं! वो, मृदा भी नहीं, उसके बाबा भी नहीं! कोई नहीं! हाँ, दूर कहीं एक छोटी सी पहाड़ी थी, लेकिन पहुंच से बहुत दूर! क्या करे! सांस सम्भाले या खुद को? पांवों में दर्द हो, ऐसा तो कभी न भागी थी वो! चारों दिशा ही खाली! ऊपर देखा! बावरी! ऊपर थोड़े ही जाएंगे वो? कुछ कहा था शायद उसने! किस से? सूरज से? वो क्या करता! अरे वो तो देख ही रहा था सब होते हुए! उस से पता पूछ रही है? जा, लौट जा! यही तो है ज़माना! यही हैं ज़माने के रंग!
वो लौटी! फिर से भागते हुए! लँगड़ी सी! तिरछी सी, दौड़ क्यों रही थी? हाँ! समझ गया! समझ आ गया! दौड़ेगी, तो कम दूरी लगेगी उन्हें, उन्हें दोनों को, जो न जाने उस सर्प को कहाँ ले गए हैं छोड़ने? किस तरफ? कहाँ? इसीलिए दौड़ी, कभी घुटनों पर हाथ रखती, कभी खड़ी हो, आँखों को हाथ का सहारा दे, सामने देखती! सामने ही था उसका आवास का क्षेत्र! आयी भागी भागी तो नज़र आया कोई! वो ही, वो, डंडे वाला! वो ही तो ले गया था उसे भर कर! भागे, तेज और जा पकड़ा उसे!
"ए?" बोला वो आदमी!
"कहाँ है?" पूछा गुस्से से उसने! पकड़ते हुए, उसका कुरता, बीच में से!
"कौन?" बोला वो,
'वो, वो?" बोली वो,
अब दो चार इकट्ठे हुए, देखने कि देखें हुआ क्या? किसी को मालूम ही नहीं कि हुआ क्या था, तभी, माँ भी दिखी, आयी दौड़ते दौड़ते! छुड़ाने लगी हाथ रमेली का! लेकिन, रमेली की पकड़ ऐसी, कि कोई छुड़ा ही न पाए आज तो!
"कहाँ?" बोली रमेली!
"छोड़ मुझे?' बोला वो आदमी,
अब माँ ने छुड़ाया हाथ उसका! दोंनों को ही देखा!
"क्या हुआ रमेली?" पूछा माँ ने,
न दे जवाब, गुस्से से ही देखे उस आदमी को, वो आदमी, अपना कुरता सीधा करे, सरवटे पड़ गयीं थी रमेली की पकड़ से!
"क्या हुआ?" पूछा माँ ने उस आदमी से,
"सांप!" बोला वो,
"सांप?" माँ ने हैरानी से पूछा!
"हाँ, सांप!" बोला आदमी,
"क्या सांप?" बोली माँ,
"अरे! हमें बताया गया था कि इस बगिया में कोई सांप है, जो आता है, अब बालक भी खलेते हैं, कोई ऊंच-नीच हो जा, काट ले किसी को, तो कैसा बुरा होये?" बोला वो,
"हाँ, सांप का यहां रहना ठीक नहीं!" माँ बोली,
तो अब माँ को देखा उसने, एक ही आँख से!
"किसको काटा?' चिल्लाई रमेली!
'काट तो सकता था?" बोली माँ,
"यही तो समझा रहे हैं इस....इसे?" बोला वो,
"हाँ रमेली?" पूछा माँ ने,
"किसकी को काटा?" बोली वो,
"काट लेता तभी होश आता?'' बोली माँ!
"नहीं काटता!" बोली वो,
"क्यों?" बोला वो आदमी,
"बच्चा ही तो था?" बोली वो,
"बच्चा और ज़हरीला होता है!" बोली माँ,
"नहीं माँ" बोली वो!
"रमेली?" चिल्ला कर पड़ी माँ!
चुप रमेली अब!
"साँपों का क्या भरोसा?" बोली माँ,
"और क्या?' बोला वो आदमी,
"पाँव रख गया तो काट लेगा!" बोली माँ,
"हाँ, अब दवा-दारु के लिए भी कोई नहीं यहां!" बोला वो,
"जा रमेली?" बोली माँ,
न गयी वो, गुस्से से उस आदमी को देखे!
"कहाँ छोड़ा?' पूछा माँ ने,
"उधर, संपू में!" बोला वो,
संपू, मायने बाम्बी उधर की!
और ये सुन, चल पड़ी रमेली उधर के लिए!
"रमेली?" बोली माँ,
न सुनी एक भी बार!
"रमेली?" फिर से चीखी माँ!
न रुकी इस बार भी!
"रुक जा?" बोली माँ,
रमेली, टेढ़ी टेढ़ी चलती, चली जा रही थी उस बाम्बी की तरफ, जो यहां से कुछ दूर ही थी! लोगबाग जाते नहीं थे वहां, बस, नाग-पंचमी के रोज, जो सपेरा आता था, वो ले जाता था सामान आदि! देखा तो रमेली ने भी नहीं था वो स्थान, बस, पता ही था!
"डट जा?" बोली माँ, भागते हुए!
न देखे पीछे, चलती ही जाए!
"रुक? अरे रुक तो?" बोली माँ,
नहीं रुकना था, नहीं रुकी!
और इस तरह, चीखने चिल्लाने में, वो कुबड़ी पिछड़ गयी! माँ ने लपक लिया उसे, पकड़ लिया, साँसें बाँध लीं अपनी!
"कहाँ जा रही है?'' माँ ने पूछा,
"वो....सांप.." बोली इशारे से, हाथ उधर करते हुए!
"वो सांप?" बोली माँ,
"ह...हाँ" बोली वो,
"लेकिन क्यों?" पूछा माँ में,
अब कुछ जवाब दे! अब भला एक सांप का एक मानस से क्या लेना देना! बैर ही जो समझो! और तो कुछ नहीं!
"बता? क्यों?" पूछा माँ ने,
रमेली ने छुड़ाया हाथ और चल पड़ी आगे के लिए, माँ ने फिर से घेरा..और.......!!
"रमेली?" बोली माँ इस बार गुस्से से!
कशमकश ज़ारी ही रही हाथों की दोनों की! कभी ऐसी ज़िद नहीं करती थी रमेली! आज तो जी को कुछ ज़्यादा ही चोट पहुंची थी उसके! क्या कर रहा था वो सर्प उसका? क्या काटा किसी को? डसा? नज़र आया? किसको? किसको नज़र आया? जिसको आया नज़र, उसकी तरफ लपका? क्या नुकसान किया उसने! क्या किया उसने! यही दिमाग में चल रहा था उस रमेली के!
"रमेली?" चीखी माँ,
और तब चुप सी हुई! सामने तो वो, बाम्बी भी न थी, कहाँ जाती! मन मसोस के रह गयी रमेली! कशमकश, खत्म हो गयी, और माँ उसे, ठेलते-ठालते, समझाते, पुचकारते ले चली वापिस! दो बार रुकी को, ऊपर देखा, चमकता सूरज, हंसता सा दिखे उसे! फिर देखा, उस रास्ते पर, उस रास्ते पर, पड़ी डंडियाँ देखीं, जो उस छोटे से सर्प सी लगें! लेकिन कुछ नहीं! पता नहीं कहाँ छोड़ आये थे उसे ये लोग! पता नहीं! कहते हैं, दुखी का कोई साथी नहीं, कोई किसी का दुःख बांटता नहीं, बस, दुःख को फीका ही करने वाले, सम्बन्धी, जानकार, हितैषी आया करते हैं! सुख चले हाथी सवार और दुःख का न कोई साथी यार! इसी थी सच्चाई! अब बताए, तो भी क्या बताए बेचारी! सर्प से ऐसा मेल? न सुना न देखा! पागल ही बाजैगी जो सुनै कोई तो! किस को समझाएगी, किसको बताएगी! न संगी न साथी!
आ गयी अपने कक्ष में, लेट गयी चुप अकेली! आज गुस्से में थी वो! देह में ही तो दोष था, स्वाभाव में थोड़े ही न? स्वाभाव में तो पक्की थी! तो गुस्सा दिखाया खूब! बहन को भी, माँ को भी और बाबा को भी! सब समझते थे ही, ज़िद कभी नहीं करती, जी पर चोट सी लगी हे बावरी के, तो कोई बात ना! अब रात भर का गुस्सा! सुबह, फिर से सब भूल, फन चुन लावेगी, अपनी राजी से ही!
हुई सुबह, आज कड़वी थी सुबह! और कुछ गहरी सी भी! सूरज न निकले थे अभी, नहीं तो आज दो-चार वो भी सुन ही लेते! गुस्सा, हाँ, अभी कुछ बाकी था नाक पर! उठी तो झाड़ू-बुहारी कर आयी, स्नान-ध्यान से निबट आयी और ले डलिया फिर, चल पड़ी फूल चुगने! सामने पेड़ को देखा, ऊपर की पुंगी पर, धूप आ लगी थी! आज ज़रा सूरज भी घबराए हुए से लगते थे, पुंगी से धूप ज़रा धीरे ही गिर रही थी नीचे! चली आगे, बैठी, और फूल उठाकर, झाड़ने लगी! तभी कुछ आवाज़ सी हुई पीछे, पीछे छबड़िया रखी थी, उसी के सहारे से कहीं से एक आवाज़ आयी थी! फूल छोड़ दिया, जगह पहचान गयी वो, घूमी और छबड़िया की तरफ हुई! तो सामने देखा, छबड़िया के कोने से, वही छोटा सा सर्प, निहार रहा था उसे! सर, हिलाता हुआ, दाएं और बाएं! जैसे उसे जतला रहा हो कि देख! आ गया मैं वापिस! आंसू ढुलक आये रमेली के तो! ज़माने की खोयी ख़ुशी ही मिल गयी! मन-मुराद भर गयी! जैसे सूखे में बारिश पड़ गयी! आंसुओं ने, चेहरे के भावों से हारना शुरू किया, आंसू अब, अपनी छोटी बहन, ख़ुशी को आगे लाने वाले थे! होंठों पर मुस्कान आयी और आंसू, अलविदा कह चले! दोनों ही, एकटक, देखने लगे एक-दूसरे को! जैसे, खुद प्रश्न भी करें, और उत्तर भी दें और दोनों ही सर हिला, हामी भी भर दें!
पीछे देखा, कोई नहीं, दाएं देखा, कोई नहीं, बाएं देखा, कोई नहीं! घुटनों पर ही चल आगे बढ़ी! बस कुछ ही आगे कि, छाती पर हाथ धर लिया रमेली ने! ये क्या? उसके तो पूंछ के पास, छोटा सा घाव था! उसमे से, खून रिस रहा था, आव देखा न ताव! न समझी कि ज़हरीला है या नहीं, काटेगा कि नहीं, हाथ बढ़ दिया आगे! और वो सर्प, हिला, हिल कर, पीछे हुआ, फन आगे किया, आँखों से आँखें मिलाईं उसने, गुलाबी सी प्यारी कबूतरी सी आँखें! उठ वो, और हाथ के इशारे से, रुकने को कहा, छबड़िया के पीछे जाने को कहा, उठ गयी, सांप, चल पड़ा, छबड़िया के पीछे जा छिपा, उन झरोखों से देखने लगा, रमेली को, जो उस छबड़िया में बने थे, देखा, भागती सी, खुद को सम्भालती सी चले जा रही थी रमेली! अंदर गयी, और कुछ ही देर में, अपनी बगल में कुछ छिपा लायी! आसपास देखा, कोई नहीं था!
आयी छबड़िया के पास, और छबड़िया को हल्के से पकड़ा, आगे सरकाया, वो सर्प फन झुकाये बैठा था, छिपा हो जैसे, रमेली को देख, फन खड़ा किया अपना! छोटा सा फन! सुनहरी छल्ला बना हुआ था, चन्दीले रंग की लकीरों के बीच! दोनों ने देखा एक-दूसरे को! और रमेली ने, अपनी बगल से कोई बर्तन निकाला! ये एक छोटा सा कलशनुमा बर्तन था, इसमें दूध था, दूध लेते आयी थी वो! वो कलश रख दिया उसके सामने! सर्प ने, रमेली को देखा, फिर कलश को! और कलश पर मुंह लगाया, कलश, न सम्भाल पाए खुद को! तो, उसने कलश से दूध निकाला और रखा अपने हाथ के अंजुल पर! सर्प ये सब देखता रहा, गौर से!
"लो! पियो!" बोली वो, फुसफुसाकर!
(मित्रगण! विज्ञान कहता है कि सर्प दूध नहीं पीते, लेकिन ऐसा नहीं है! गाँव-देहात में, नसग-पंचमी के दिन देख लीजिये! जान ही जाएंगे कि सर्प दूध पीता है भी या नहीं! हाँ, करणेन्द्रि नहीं होती, परन्तु ध्वनेन्द्रि ऐसी प्रबल कि कहीं दूर की भी ज़रा सी कम्पन्न भी सुन लें, भांप लें!)
"पी लो, कोई आ न जाए!" बोली फिर से फुसफुसा कर!
सर्प ने, रख दिया मुंह अपना और पीने लगा दूध! अब रमेली ने, टटोल कर देखा उस सर्प को, जहाँ चोट लगी थी, चोट? कहाँ गयी वो चोट? अभी तो देखी थी? कहाँ गयी? क्या नज़रों का धोखा था? हाँ, शायद! शायद धोखा ही था, या रहा होगा!
"सुनो, यहां मत आया करो!" बोली वो,
सर्प ने फन उठाया, जिव्हा से अनुमान लिया!
"उधर, देखो?" बोली वो, इशारा करते हुए एक तरफ!
अब सर्प ने भी उधर देखा!
"उधर आया करो! कोई नहीं देख पायेगा!" बोली रमेली!
सर्प ने, उसे देखा, जैसे, उसके भोलेपन में बह चला हो! जैसे, ये रमेली, उसको वो बता रही हो, जो उसे पता न हो!
"ठीक है न?" बोली वो,
अब सर्प के फन पर हाथ लगाते हुए, फिराते हुए! न कोई डर! न कोई भय! न अन्य कोई शंका! कुछ नहीं!
"मैं डर गयी थी, कि पता नहीं, कहाँ छोड़ आये हैं तुमको...इसीलिए, कल वहाँ आना! मैं तो आउंगी ही! ठीक?" बोली वो,
सर्प ने खाली हाथ चाटा, रमेली को होश आया जैसे, और, और दूध डाल दिया अपने हाथ में!
तो, दूध पिला दिया उसे! और वो भी, जैसे प्रसन्न हो, बहुत ही, उसके हाथ से, सर रगड़ता रहा अपना! मानो तो पत्थर मीत, न मानो तो सूरज भी सीत! यही हुआ था! वो सर्प, बहुत प्रसन्न था, लगता था अब तो, कि सच में ही लौट आया है उधर! उसी से मिलने! दो भिन्न जीव, परन्तु तारतम्यता एक समान! भाव, एक जैसे ही!
"अब जाओ!" बोली वो,
हाथ फिराते हुए, उस नन्हे से सर्प पर!
"सन्ध्या आउंगी! तुम भी आना!" बोली वो,
और सर्प, जैसे सब समझ गया हो, मुड़ा और चल दिया, बीच बीच में रुक कर देख लेता था! जब भी रुकता, देखता, हंसी सी आ जाती थी रेमली के चेहरे पर! चलो, कोई तो मिला! कोई तो मिला, जिसने उसके साफ़ और स्वस्थ मन को देखा! नहीं तो, हेय-दृष्टि ही डालते थे देखने वाले तो! कहीं छू ही न जाए, बचते थे उस से! लेकिन ये नहीं! ये तो, उसके मन का मीत था! आता था, मिलता था और लौट जाता था!
ऐसा, करीब, दो माह चलता रहा!
इस बीच, एक परिवर्तन देखने को मिला! शायद, बुधिया बाबा की दवा ने काम कर दिया था! उसका कूबड़ अब, उतना नहीं दीखता था, जितना कि पहले! ये सब देख रहे थे! सभी खुश भी थे, ख़ास कर, उसका परिवार! वो अब झुक भी लेती थी और ऊपर भी देख लेती थी, हाँ, चेहरे पर जो खिंचाव था, वो अभी बाकी था! सभ मानते थे कि बुधिया बाबा की दवा ने सटीक काम कर दिया है! और इसकी ख़ुशी, रेमली से अधिक और किसको होती भला! माँ तो, उसे देख देख, फूला नहीं समाती थी!
"बुधिया की दवा राम-बाण है!" बोली माँ, बाबा से,
"हाँ, सच में!" बोले वो,
"देखो तो सही, कैसा बदलाव है?" बोली माँ,
"हाँ, देखता हूँ, रोज ही!" बोले बाबा,
"हे मेरे भगवान! इसे ठीक कर दे! ठीक कर दे! सवा-मनी तेरे नाम कर दूँ!" बोली माँ, खुश होते हुए! अब तो सभी में चर्चा था, उतर रहा था कुब्ब का ज़हर उस दवा से! लाख जिए बुधिया! लाख फले! लाख बूटी सिद्ध हों उसकी! ऐसी ऐसी बातें, मन में आ ही जाती थीं माँ और बाबा के!
एक रात....पूनम की वो रात.....
एक फुफकार आयी उसे! वो उठ बैठी! आसपास देखा, माँ सोई थी, बहन भी, बाबा बाहर खटिया पर सोये थे, अंदर, और कोई नहीं था, उठ बैठी वो! फुफकारा कोई सर्प! लेकिन कहाँ? उठी, आहिस्ता से! खिड़की से बाहर झाँका, कोई नहीं, शायद, रात भी आधी ही ढली थी! अचानक ही बाहर नज़र गयी उसकी! बाहर की तरफ, एक छोटे से चबूतरे पर, जहां तुलसी माँ का दीया अभी जला ही हुआ था, सर्प बैठा था! वो समझ गयी! लेकिन इतनी रात गए?
टाप कर माँ की तरफ से, बहन से न छुए वो, चली बाहर की तरफ! जैसे ही चली कि वो सर्प एक तरफ भाग लिया! वो बिन कुछ बोले, चली पीछे उसके! आ गयी वो ही दीवार! खिली चांदनी और वो अकेली! अकेली? नहीं अकेली नहीं! सर्प आगे आगे! वो, पीछे पीछे! एक बिटोरे के पास आ कर, वो सर्प, गायब हो गया! उसने खूब देखा, कहीं नहीं? डंडियाँ देखीं, कहीं नहीं!
कहाँ गया? यहीं तो आया था वो? बुलाया भी, और अब कहाँ? खूब ढूंढा उसने, न दिखे! थोड़ा हुई परेशान वो! माथे पर, उस कुब्ब की सूजन पर, कुछ शिकनें सी आयीं! वो खड़ी रही, उधर ही!
और अचानक!
"रेमली!" आयी आवाज़ एक!
पहचानी आवाज़ उसने! ये तो, मृदा की आवाज़ थी! इतनी रात? और कोई भी नहीं यहां?
"रेमली!" आवाज़ फिर से आयी!
"मृदा?" बोली वो,
"हाँ!" बोली मृदा!
"कहाँ हो?" पूछा उसने,
"चली आओ, आगे!" बोली वो,
चली आगे, और आगे, तो उसे दिखाई दिया कोई खड़ा हुआ! ठिठक कर, रुक गयी! ये कौन? इतनी रात गए?
"रेमली!" आयी फिर से आवाज़!
"मृदा?" बोली वो,
"हाँ रेमली!" बोली मृदा!
"ये तुम हो?" पूछा उसने,
"हाँ! मैं!" बोली वो,
"कहाँ हो?" पूछा उसने,
"तुम्हारे सामने!" बोली मृदा,
"सामने कहाँ?" पूछा उसने,
"नीचे देखो!" बोली मृदा!
और जब उसने नीचे देखा! वो ही सर्प था! छोटा सा सर्प! चमकती हुई लाल आँखें, लेकिन उनमे, क्रोध नहीं था! घबराई तो वो ज़रूर! लेकिन घबराहट, मृदा के स्वरों ने, पहले ही छीन ली थी उसकी!
"मृदा?' बोली वो,
"हाँ?" बोला कोई!
और तब! दूधिया सा प्रकाश फूटा! आँखें चुंधिया गयीं रेमली की! सर हटा लिया! चमक ऐसी कि चांदी काली लगे!
"रेमली!" बोली वो,
सर आगे किया उसने! देखा उस मृदा को, फिर सर्प को ढूंढा! सर्प अब कहीं नहीं!
"मृदा, ये.....?'' पूरा न कर सकी सवाल वो कि..
"ये मैं ही हूँ! सर्प! छोटा सा सर्प! मृदा हूँ मैं! घबराओ नहीं! मत डरो!" बोली मृदा!
ये कैसे हो गया? ये क्या देख रही है वो? क्या ऐसा भी होता है? ये क्या है? कौन है ये सर्प?
"मैं, नाग-कुमारी मृदा हूँ रेमली!" बोली वो,
"ना.....कुमारी?" अविश्वास से, शब्द अटके उसके!
"हाँ, छोटी बहन! उस दिन, मुझे बहन कहा था न? मेरे बाबा के साथ?" बोली मृदा!
''अ...ह.....हाँ..." बोली मुंह के अंदर ही!
"रेमली!" बोली मृदा, और चली आयी सामने! सजी-धजी कोई देवी लगे वो! किसी और देस की, परदेस की! किस्से-कहानियों की सी!
आ गयी मृदा आगे, और रखा काँधे पर हाथ उसके!
"रेमली!" बोली वो,
"हाँ?" अब सहज सी हुई वो!
"मुझे बहन कहा है न?" बोली मृदा!
"हाँ, हो तुम, मेरी बहन!" बोली वो,
और तभी, कुछ क़दमों की आवाज़ सी गूंजी, सर फेरा उसने उधर, कोई, आ रहा था! कोई तो!
कोई, सफेद सी पोशाक में, चला आ रहा था उधर के लिए! क़दम बड़े सधे से थे उसके! जब नज़रों में आया कोई, तो ये दो थे, दोनों ही पुरुष! लेकिन? ये क्या? बुधिया बाबा? ये बुधिया बाबा हैं? क्या वो ही आ रहे हैं? रमेली की समझ में कुछ नहीं आये! ये क्या हो रहा था! बुधिया बाबा, इस समय? अभी सोच में ही थी, कि वे दोनों आ गए, आते ही मृदा ने प्रणाम कुछ उन्हें, मृदा ने किया तो रमेली ने भी किया!
"रमेली बिटिया!" बोला वो बुधिया!
सर हिलाया हाँ में उसने!
"मैं, मृदा का पिता हूँ!" बोले वो,
"जी" बोली वो,
"और ये मृदा का भाई!" बोले वो,
"जी" बोली वो,
"मैं ही आया था, तुम्हारे पास, याद है?'' पूछा बाबा ने,
"हाँ!" बोली अब मुस्कुराते हुए!
"मेरी बेटी मृदा, इसने ही बताया था तुम्हारे बारे में!" बोले वो,
एक नज़र अब, मृदा को देखा उसने! मृदा मुस्कुराई!
"मृदा ने कहा था, कि वो तुमको देखती रहती थी, सामने कभी नहीं गयी! हमने, रमेली, इसे मना भी किया था, लेकिन मृदा नहीं मानी! बोली कि रमेली उसकी बड़ी बहन जैसी है!" बोले वो,
मुस्कुरा पड़ी रमेली!
"मृदा बहुत परेशान रहा करती थी बेटी, तुम्हारे लिए, सुबह-शाम, दोपहर, बस तुमको ही देखती थी!" बोले वो,
"बहन हैं मेरी बड़ी!" बोली मृदा!
"हाँ, सो तो है!" बोले वो,
"लेकिन बहन, हम नाग हैं, और तुम मनुष्य! तुम में और हम में, बहुत अन्तर है!" बोला अब मृदा का भाई!
"हाँ, हमारा सम्बन्ध, भले ही कैसा रहा हो, मनुष्य नागों से दूर ही रहता है!" बोले वो,
अब बात तो सच ही थी! ऐसा ही तो होता है!
"तुम ठीक हो जाओगे रमेली!" बोला भाई, मृदा का!
"हाँ बेटी, एकदम ठीक!" बोले बाबा उसके,
"लेकिन रमेली, कभी किसी को नहीं बताना, हम विवश हैं, हमारी विवशता तुम समझना, और ये बात कभी किसी को नहीं बताना!" बोले वो,
सर हिलाया रमेली ने अपना!
"रमेली!" बोला भाई उसका,
अब भाई को देखा रमेली ने!
"एक माह बाद, एक तिथि है, बता दिया जाएगा तुम्हने, बस उस दिन, बेलिया-नाग की पूजा करना!" बोला वो,
वो नहीं जानती थी, कि ये बेलिया-नाग कौन है, अनभिज्ञ थी, हाँ भी न कही और न भी न कही! लेकिन, समझ गयी मृदा!
"बेलिया हमारे कुल-देवता हैं रमेली! उन्हें ही प्रसन्न कर तुम्हारे लिए मनोकामना मांगी है! तुम अब ठीक होने लगी हो! मनुष्यों में, ऐसा नहीं होता, लेकिन हम नागों में, ये सब असम्भव नहीं!" बोली मृदा!
"बस, किसी को बताना नहीं कभी!" बोला वो भाई मृदा का!
"तब हम कुछ नहीं कर सकेंगे, देव-स्वीकृति मिली तुम्हारे लिए, इस मृदा ने, मना लिया है उन्हें, तुम्हारे स्नेह के कारण! तुम्हारे स्नेह, सदाचार, सौहार्द के कारण, देव बेलिया, प्रसन्न हुए हैं, वो दवा, मैंने तुम्हें जो दी थी, वो बेलिया की ही दवा थी!" बोले बाबा,
अब फिर से हाँ में सर हिलाया!
"मृदा, समीप ही, हमारा वास है! अब तुम हम में से हो! कभी दुखी मत होना! मृदा सदैव छोटी बहन की तरह, संग ही रहेगी तुम्हारे!" बोले वो,
क्या ये आशीष कम था? नहीं जी! ये तो, मृत-संजीवनी थी! संजीवनी,. जिसके लिए तो देवता तरस जाएँ! भ्रमित हो जाएँ, 'शत-प्रच्छक' कर ही प्राप्त हुआ करती हैं ये संजीवनी! रंग में, दिन में, सात बार रंग बदलती है, गन्ध में, तीन बार गन्ध बदलती हैं, दिन में चार बार, प्रकृति बदलती है, और नौ बार, अपना आकार बदलती है! इसे, कहते हैं, माना जाता है, यक्ष-भूमि पर उगाया गया है! सर्वत्र नहीं होती! सुमेक्ष यक्ष की आज्ञा हो, तभी प्राप्त होती है! सुमेक्ष को, इसका अधिपति माना जाता है! यही है संजीवनी! दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने, यहां पर रूप दी थी, अनुनय उपरान्त!
"रमेली!" बोली मृदा,
और वे दोनों, बाबा उसके, और उनका पुत्र, लौट गए वहां से!
"हाँ?'' बोली रमेली!
"आओ ज़रा!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा रमेली ने!
"आओ तो!" बोली वो,
"चलो! लेकिन....?" बोलते बोलते रुकी वो!
"रमेली?" बोली मृदा!
"हाँ?" बोली रमेली!
"लेकिन जैसे शब्द, अब कोई मायने नहीं रखते, अपनी छोटी बहन को आज्ञा दो, और होगा वही!" बोली गले लगाते हुए रमेली को!
"मृदा?" बोली रमेली,
"हाँ?' कहा उसने,
"मैं अकेली हूँ...." बोली रमेली,
अपना सारा दुःख सामने रखते हुए, लेकिन वो भोली, अब न जानती थी, कि उसे क्या मिला है! सदियों बीत जाएँ, लाख तप हो जाएँ, जन्म-जन्म लग जाएँ तब जाकर, कोई नाग सिद्ध हो! और यहां!
"अब नहीं हो अकेली! मैं हमेशा संग हूँ तुम्हारे!" बोली मृदा!
अब हल्की सी मुस्कुराहट होंठों पर आयी रमेली के, और मृदा, ले चली उसको अपने संग! जहाँ गयी, वहां एक फूस की जी झोंपड़ी पड़ी थी, आसपास की वनस्पतियां चमक रही थीं, कोई लाल सी, कोई नारंगी सी, कोई पीली सी!
"आओ, यहां आओ!" बोली वो,
मृदा ने, कंधे पर हाथ रख, अंदर चलने को कहा उसे, वो अंदर चली, अंदर देखा, तो सब चमकीला ही चमकीला था! सामने, एक आसन से पर, कुछ बर्तन रखे थे, ढके हुए, चांदी से चमक रहे थे! वो देखती ही रह गयी!
"आओ, बैठो!" बोली वो,
बिठा लिया संग अपने, और बर्तन पर से, ढक्कन हटा दिया! औटते दूध की सी खूब तेज महक सी उठी! ये दूध था, उसमे न जाने क्या क्या मिलाया गया होगा, उसका रंग कुछ लाल-पीला सा था! देखते ही, भूख लग जाए कुछ ऐसा ही!
"लो!" बोली मृदा, उसको एक पात्र देते हुए!
उस रात! रात? हाँ, हम आँखों वालों के लिए तो रात ही होगी वो! अब जिसकी आँखें रमेली जैसी हों तो क्या रात और क्या दिन! तो जी, रात ही कहूंगा मैं! रात को, भोजन करवाया मृदा ने उसे! ऐसा भोजन तो उसने, कभी सुना भी नहीं था! खाना तो दूर! और तो और, मृदा ने उसे खिलाया था! क्यों खिलाया था, ये भी समझ गया मैं! अब, उसका रोग कटने जो वाला था! वाह रे नीरी छतरी वारे! तेरे खेल तू ही जाने! फावड़े चला चला कुआं खोदा, निकला न बून्द भी पानी! और किसी ने नाख़ून रगड़ा, भर ज़ोर मेह बरसानी! तेरी लीला तू ही जाने! हमें तो मूठ ही रहने दे! न समझ आता है कुछ, न समझा ही जाएगा! तू लाख समझा, जन आवे समझ कि न! हाँ, समझा कौन? समझी वो रमेली! कभी सोचा ही नहीं था, बहन होगी वो, बहन! बहन एक नाग-कन्या की! बेटी एक नाग-बाबा की!
तो मित्रगण!
अब समय कहां रोके रुकता है! तो समय आगे बढ़ा! समय के साथ साथ, देह से वो कुब्ब वो ढलने लगा! जो देखे, हैरत में पड़े! लोग आएं, पूछें, दवा कहाँ से मिली, कौन लाया, कब आएगा, बहुत हैं ऐसे अभी, तेरे बहाने सभी का भला होगा आदि आदि! और इधर! उसका कुब्ब ढले तो यौवन खुल खुल आगे आये! लगे, कोई विशेष ही है ये रमेली तो! देख लो! भगवान की माया!
इस तरह छह माह बीतने को आये! रमेली अब भी फूल चुनती थी, झाड़ू-बुहारी लगाती थी! मालाएं बनाती थी, है, रंग-शाला की तरफ न जाती थी, माँ ने मना किया हुआ था और बाबा चाहते नहीं थे!
उस रोज....
दोपहर का दिन था....अब होता क्या है मित्रगण, जब तक कली, सोई रहे, तो भँवरे भी न डोलते आसपास! जब कली में, जान पड़ती है, और वो फूल बनता है, तो भँवरे तो भँवरे, भृंग जैसे कीट भी, आ मंडराने लगते हैं! यही लगता था, और ऐसा ही हुआ! होना ही था!
हाँ, तो उस दोपहर के थोड़ा बाद ही, छिटपुट सी बारिश हुई थी, लाल सी ज़मीन वहाँ की, सौंधी महक से, महक उठी थी! तितलियां, भँवरे, भृंग, पात-कीट आदि आदि, अपने घरौंदों से निकल, प्रकृति-विहार कर रहे थे! रमेली, अपने सर को ढके, फूल चुन रही थी, कि उसे लगा कोई आया है पीछे! झटके से पीछे देखा! जैसे ही देखा, सांस ऊपर की ऊपर, और नीचे की नीचे! वो उठ खड़ी हुई! कोई, दूर से, ज़्यादा दूर से तो नहीं, फिर भी, एकटक दृष्टि लगाए उसको देख रहा था! वो खड़ी तो हुई तो लौटने लगी! तेज क़दमों से!
"लड़की!" बोला वो,
ये कौन था? ये था, छौहन साधू! साधू! हाँ, वैसा ही! क्या पैठ थी पता नहीं, हाँ, लोग जानते थे उसके बारे में, कि उसके लिए कोई काम असम्भव नहीं! वो बैठ जाए तो ज़मीन फाड़ दे! और ऐसे लोग तो, अक्सर, 'गन्ध' ढूंढते ही रहते हैं! नज़रों में बांधते हुए, दोनों कांधों पर झबरे लटकाए हुए, एक महिला जोगन को संग लिए, आ गया था अंदर तक! उसके साथ साथ, और भी कई लोग, उसी आवास के, आ गए थे!
"लक्खी की लड़की है ये?'' बोला वो साधू,
"जी बाबा! जय हो!" बोली जोगन!
"लक्खी कहां है?" बोला वो,
"ऐ? जा, लक्खी को बुला?" बोली जोगन, एक आदमी से, आदमी तो भाग ही लिया!
"ऐ लड़की?" बोला वो,
आगे बढ़ने को हुई तो...
"रुक वहीँ?" बोला चीख कर!
रुक गयी बेचारी!
अब वो आगे चला, थोड़ा सा आगे, और हाथ उठाया अपना, आकाश की तरफ, तीन-चार बार बन्द किया और अपनी दाढ़ी पर फेर लिया हाथ!
"इधर आ?" बोला वो,
न आयी वो, खड़ी रही!
"ऐ? इधर आ?" बोली जोगन!
न आयी वो! वहीँ रही!
"सुनती ना?" बोला साधू ज़ोर से!
नहीं! नहीं सुनी उसने!
इतने में भागते भागते, लक्खी आ गया वहां! आते ही, साधू के घुटने पकड़ लिए! जोगन के चरणों में माथा रख दिया अपना!
"लक्खी?" बोला साधू,
"जी?" कांपते हुए से बोला वो,
"ये तेरी लड़की है?" बोला वो,
"हाँ जी" बोला वो,
"कौन सी?" पूछा उसने,
"बड़ी" बोला वो,
"क्या नाम?" पूछा उसने,
"रमेली" बोला वो,
अभी सवाल-जवाब चल ही रहे थे कि लक्खी की माँ भी आ गयी! आते ही, हुई लोट-पोट चरणों में उसके, जोगन ने उसके माथे सर रखा और बैठ गयी लक्खी की माँ, चौकड़ी मार, हाथ जोड़!
"कूबड़ इसी के है?" बोला वो,
"हाँ" बोला लक्खी,
"भर रहा है!" बोला वो,
"राजी!" बोला लक्खी!
"ऐ?" अब चीख वो, उस रमेली को देखा! अपना सर्प-दंड आगे करते हुए, एक बेंत से, मोड़कर उसे, सांप की शक्ल दी गयी थी! फन भी बना दिया गया था पीट कर, गरम कर!
"इसको बुला?" बोला वो,
अब माँ उठी, दौड़ पड़ी! गयी रमेली के पास, और कुछ खुसर-फुसर सी की, रमेली ने न में सर हिलाया अपना, साधू भांप गया!
"लड़की!" बोला वो,
अब तक, जल आ चुका था, दिया गया जल उन्हें, दोनों ने पिया, साधू ने बाकी बचा जल, सामने फेंक दिया!
"बुला?" बोला लात छुआते हुए लक्खी को! अब लक्खी भागा! पहुंच, तब भी न माने वो रमेली!
"ऐ लड़की? सुनती न?" बोली जोगन, गुस्से से, आँखें चौड़ी करते हुए!
"जा बेटी...." बोली माँ,
"जान, बाबा हैं, जाने हैं सब!" बोला लक्खी!
नहीं गयी! वहीँ खड़ी रही!
"जय मरघटनाथ!" बोला साधू! और अब खुद चला, जैसे ही चला, रुक गया! पीछे देखा, लोग खड़े थे, बाएं देखा, लोग थे, दाएं देखा, तो वो, दीवार थी! उसने दीवार को देखा, फिर रमेली को देखा! अचरज से आँखें फ़ैल गयीं उसकी! और फिर से आगे बढ़ा!
"हट जा!" बोला लक्खी से वो!