ज्ञान बाबू की डायरी...
 
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ज्ञान बाबू की डायरी, वर्ष १९८७....

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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ी धीमे हुई, मेरी नज़रें फौरन ही एक निशानी को देखने के लिए दौड़ पड़ीं! वो जच्चा-बच्चा केंद्र! वो अस्पताल! लेकिन वो कहीं नहीं था यहां, यहां, जहां उसे होना चाहिए थे, कोई काम्प्लेक्स बना था!
"ये लो साहब!" बोला वो,
और हम उतर गए उधर! ये जगह तो भीड़ भरी थी अब! पीछे कई दुकानें थीं और कुछ कार्स भी खड़ी थीं! ये सत्तासी वाली जगह नहीं लगती थी! खैर, हमने पैसे दे दिए उसे और वो, सलाम कर, चल पड़ा वापिस! हमने वहीँ खड़े खड़े आसपास का मुआयना किया!
"वो अस्पताल, यहां होना चाहिए?'' कहा मैंने,
"हां, उस डायरी के हिसाब से तो!" बोले वो,
"पूछते हैं!" कहा मैंने,
"किस से?" बोले वो,
"हां, किस से! एक काम करते हैं, इसी काम्प्लेक्स में चलते हैं!" कहा मैंने,
"ये ठीक है, चलो!" बोले वो,
और हम चल पड़े अंदर उस काम्प्लेक्स के लिए, बाहर अभी गार्ड तैनात नहीं था, जैसे ही हम अंदर आगये कि एक गार्ड आया दौड़ा हुआ, सीधा हमारे पास!
"जी, कोई मदद कर सकता हूं?" बोला वो,
"हां, मदद!" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"देखिये, ये साहब यहां, सन सत्तासी में रहा करते थे, तब यहां ऐसा कुछ न था, इस जगह, एक जच्चा-बच्चा केंद्र हुआ करता था! उसी बारे में जानना है!" बोला मैं,
"सन सत्तासी?" बोला वो,
"जी!" कहा मैंने,
"कोई मदद नहीं कर सकता जी में, मुझे छह साल हुए यहां आये हुए!" बोला वो,
"अच्छा..तो कहां से पता करें?' पूछा मैंने,
"नहीं बता सकता, कोई बुज़ुर्ग आदमी हो, तो मदद कर सकता है!" बोला वो,
"हम तो बहुत दूर से आये हैं, हम तो जानते नहीं किसी को?" कहा मैंने,
"आप किसी दुकान वाले से पूछें?" बोला वो,
"ठीक! धन्यवाद!" कहा मैंने,
और हम दोनों बाहर चले आये! उस काम्प्लेक्स से बाहर! आये और उस चौराहे पर ही खड़े हो गए!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"ये रहा वो काम्प्लेक्स, और ये रहा वो चबूतरा, जिस पर ये ट्रांसफार्मर रखा है, इसका मतलब वो नाला यहां होगा, अब सब ठीक है, इस जगह से जाया जाए तो हम उसके बाद बाएं मुड़ेंगे और फिर उस मकान का पीछे का हिस्सा होगा, मतलब उस अमरुद के पेड़ वाले प्लॉट के सामने! और उस से आगे, बाएं हाथ पर, वो खाली प्लॉट! याद है न?' पूछा मैंने,
"हां, याद है, वो टूटी दीवार वाला!" बोले वो,
"हां, वही!" कहा मैंने,
"तो सामने से देखें?" बोले वो,
"अभी नहीं! आओ आप!" कहा मैंने,
और मैं उनके साथ, उस जगह के लिए चल पड़ा, जहां से उस मकान का पीछे का हिस्सा पड़ता!
"यहां से बाएं हाथ पर!" कहा मैंने,
"यहां तो अब जगह ही नहीं!" बोले वो,
"हां, देख लो!" कहा मैंने,
"२९ सालों में देख लो क्या हो गया!" बोले वो,
"हां, ये देखो आप!" कहा मैंने,
"ये तो कोई स्कूल है शायद?" बोले वो,
"हां, कोई स्कूल ही है, प्राइवेट!" कहा मैंने,
"आओ, यहां से इस तरफ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और मैं चल पड़ा आगे, उनके चलने की आवाज़ नहीं आयी संग तो पीछे देखा, सिगरेट जला रहे थे, जला ली तो कश छोड़ा और दौड़ कर आये मेरे पास!
"ये लो!" बोले वो,
मैंने सिगरेट ली और होंठों के बीच रख ली! कभी कभी सिगरेट बेहद ही काम आती है, उसी में से ये भी एक था!
"वो रहा चौराहा!" बोले वो,
"हां, आओ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और मैं, एक मकान के पीछे जा रुका! उस मकान की चारदीवारी हुई, हुई थी, लेकिन उसके बाद, एक शानदार सा मकान था! उस पर लाल पत्थर की टाइल्स लगी थीं! घर आलीशान कहा जाए तो कोई बड़ी बाद नहीं! और रही बात उस प्लॉट की, जहां वो तालाब पड़ा करता होगा, अब वहां तीन मंज़िला इमारत तामीर हो गयी थी! कोई कह नहीं सकता था यहां कभी वो तालाब भी हुआ करता होगा!
"सब बदल गया!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"देखो आप!" कहा मैंने,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
और मैं चला उस बड़े से मकान की तरफ से बाएं मुड़कर, चौराहे से बाएं! तभी रुक गया! चौंक गया मैं!
"रुको!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' बोले वो,
"वो, रेलवे-लाइन!" कहा मैंने,
"ओ हां!" बोले वो,
"उधर होनी चाहिए!" कहा मैंने,
"हां! उधर ही!" बोले वो,
"आओ देखें ज़रा!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम चल पड़े उधर के लिए, दोनों ही तरफ अब मकान बने थे, दुकानें और गैराज आदि, गाड़ियां खड़ी हुई थीं!
हम करीब आधा किलोमीटर से ज़्यादा आ गए थे, वो बड़ा सा मकान अब नहीं दिख रहा था, वहां बीच में कई बड़े बड़े मकान बन जो गए थे!
और ठीक सामने एक जगह, कोने पर धूप से टकराती हुईं, जंग खायी हुईं पटरियां दिखाई दीं! दोनों ही तरफ कूड़ा-मलबा पड़ा था उसके! और ठीक दाएं पर, वो टूटा सा केबिन था खड़ा हुआ! जिसका अब कुछ नहीं बचा था! न सीढ़ी, न खम्भे और न ही छत, बस दो टूटी हुई सी दीवारें!
"ये वो केबिन!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"यहां तक दौड़े आये थे ज्ञान बाबू!" कहा मैंने,
"यहां आती थी वो गाड़ी! उनके हिसाब से!" बोले वो,
"हां, यहीं!" कहा मैंने,
"कुछ सालों में ये भी न रहेगा!" बोले वो,
"हां, यही होगा!" कहा मैंने,
"लेकिन वो उनको नज़र क्यों आती थी?" बोले वो,
''आती नहीं, दिखाई जाती थी!" कहा मैंने,
"समझ गया, लेकिन क्या फायदा?" बोले वो,
"शायद, राजेश जी के परिवार के जीते जी, ये रेलवे-लाइन चलती होगी, सर्विस में होगी!" कहा मैंने,
"ये सम्भव है!" बोले वो,
"आओ, वापिस चलें!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
और हम लौट पड़े! आ गए उधर ही, यहां एक दुकान से ठंडा पीया, और फिर चल पड़े, उस बड़े से मकान के साथ से निकलते हुए, हम अब उस मकान के पास आये जहां ज्ञान बाबू कभी ठहरे थे! मेरी आंखें भारी हो गयीं...क़दमों के साथ साथ....बाहर लगा एक पत्थर देखा जो दीवार में ही लगा था, ये किसी बागची साहब का था, नीचे उनके दो पुत्रों के भी नाम लिखे थे! पता वही था! जगह भी वही थी!
"यही जगह है वो!" कहा मैंने,
"आदेश करो!" बोले वो,
"घण्टी बजाओ!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और बजा दी घण्टी! सामने के ही दरवाज़े से, एक बनियान पहने, धोती पहने, बैकोलाइट का चश्मा पहने, एक पचपन के आसपास के एक सज्जन बाहर आये! हमने नमस्ते की उनसे, वे बंगाली में कुछ बोले तो उन्हें बता दिया कि हम दूर से आये हैं इसी मकान की तलाश में! वे चौंके तो ज़रूर, लेकिन अंदर बुला लिया उन्होंने, बेहद ही भले सज्जन थे ये साहब!
हम अंदर आये, तो बड़ा घर था, लेकिन सबकुछ बदला सा! वैसा कुछ भी नहीं! उन्होंने हमें बिठाया और अपने किसी नौकर से पानी लाने को कहा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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पानी पिया तो  मैंने बात सीधे ही आगे बढ़ा दी, दरअसल ये इस मकान के चौथे मकान-मालिक थे, और उन्हें अब बारह बरस हो चुके थे, घर में कोई अपशकुनि न हुई थी और किसी को भी देखा नहीं गया था! दरअसल इन्होंने घर को पूर्ण रूप से शुद्ध करवाया था और इनके यहां पर इनकी कुल देवी का पूजन भी हुआ था! मामला सब समझ आ गया था! उन प्रेतात्माओं का अब कोई भी नामो-निशान बाकी न था.... अब मुझे नहीं पता कि उन्हें किसी ने पकड़ लिया या कहीं बांध दिए गए या फिर उनकी मुक्ति-अवस्था आ पहुंची थी जिस कारण से वे मुक्त हो गए! मैंने उस तहखाने के बारे में भी पूछा, उन्हें उस तहखाने का कोई निशान नहीं मिला था, वो शायद, उनसे पहले ही ढक दिया गया था! हम खड़े हुए, उन्होंने चाय की ज़िद की तो चाय पी हमने, उन्हें कारण भी बताया अपने आने का, उन्हें बेहद ही हैरत हुई ये जानकर कि ऐसा इसी घर में हुआ था! चाय पी और हम वापिस हो गए!
"सब ख़तम!" बोले वो,
"हां, सब ख़तम!" कहा मैंने,
"न जाने क्या हुआ उन सभी का!" बोले वो,
"कुछ नहीं कह सकता मैं!" कहा मैंने,
और हम वापिस हो गए! अगले दिन दिल्ली जा पहुंचे और उस से अगले दिन ज्ञान बाबू जी के पास! कुणाल साहब मिले, उन्हें हमारे बारे में बताया गया तो वे, थोड़े बेचैन हो उठे, खिचड़ी खा रहे थे, एक तरफ रख दी, और हमें नमस्कार की उन्होंने! हमने भी की और हम वहीँ, कुर्सियों पर बैठ गए!
"हो आये?" पूछा उन्होंने,
"हां!" कहा मैंने,
और मैं चुप हो गया...कुछ था ही नहीं मेरे पास कहने के लिए!
"कुछ मिला?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"सो तो है ही, मिलता ही नहीं!" बोले वो,
"जी?'' कहा मैंने,
"मिलता तो मुझे ही मिल जाता कि नहीं!" बोले वो,
"हां, यही बात है!" कहा मैंने,
एक लम्बी सी शान्ति....
"वो डायरी?" बोले वो,
"है, लाया हूं, दे दी है मैंने कुणाल साहब को!" कहा मैंने,
"जानता हूं! बेमायनी तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं ज्ञान बाबू? ये क्या कह रहे हैं आप?" कहा मैंने,
"पूछ लिया!" बोले हंसते हुए,
"ज्ञान बाबू?" कहा मैंने,
"हां जी?" बोले वो,
"क्या ये डायरी, साझा कर सकता हूं किसी से मैं?" कहा मैंने,
"क्यों नहीं! इसमें बस मैं ही मैं तो हूं! और कोई है ही कहां! हर जगह, बस मैं! बस मैं!" बोले वो, और मुस्कुरा पड़े!
इस इंसान ने, गम को हंसी की चादर उढाना अच्छी तरह से सीख लिया था, मैं तो क्या कोई भी, उनके सवालों के जवाब, उनके ही ढंग में नहीं दे सकता!
और हम उठ खड़े हुए...हाथ मिलाया कुणाल साहब से...
"रुकिए!" बोले ज्ञान बाबू!
"जी बाबू जी?'' कहा मैंने,
"एप्पल जूस आ गया है! आओ, एक एक कप हो जाए?'' बोले वो,
"जी ज्ञान बाबू! क्यों नहीं!" कहा मैंने,
और तब, करीब पांच मिनट में ही, छोटे गिलास आ गए, एप्पल जूस भरे, हमने पिए, और ज्ञान बाबू, जो पी रहे थे, उसे बस गीला किये जा रहे थे....मैं जान रहा था सब का सब!
"अच्छा ज्ञान बाबू! चलते हैं हम अब!" कहा मैंने,
"हां! ठीक! कभी जाओ उधर, तो पूछ लेना मेरे बारेमे, कि मैं किसी को याद भी हूं?" बोले वो,
अब नहीं रुका गया मुझ से, मैं तेजी से बाहर निकल भागा, सीढ़ियां उतर जल्दी जल्दी और चला आया बाहर! सीधा गाड़ी खोली और पीछे की सीट पर जा बैठा! ताज़ा हवा आयी और उस 'जलने की गन्ध' से निजात मिली!
साधुवाद!


   
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(@satishasankhla)
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वक्त के कैदी से हो गए ज्ञान बाबू तो, वाह ज्ञान बाबू कैसा स्वभाव रहा आप का और सब सच जानने के बाद भी उसी में जीवन गुजार रहे है।


   
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