ज्ञान बाबू की डायरी...
 
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ज्ञान बाबू की डायरी, वर्ष १९८७....

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श्रीशः उपदंडक
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नवम्बर १३, शुक्रवार, सुबह, ४ बजकर ५३ मिनट
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भले ही मैं इस रात पांच घण्टे ही सो पाया हूँ, लेकिन सच कहता हूँ, इस से अच्छी नींद मुझे, पहले कभी, यहां जब से आया हूँ, नहीं आयी! मेरी नींद साढ़े चार बजे अपने आप ही खुल गयी थी! न मुझे किसी ने जगाया और न ही कोई शोर हुआ था! लगता था जैसे, मैंने कल की रात शराब के कुछ प्याले लिए हों और उस सुरूर में नींद आ गयी हो! मैं उठा तब और खिड़की से बाहर झांका, सबकुछ अँधेरे में नहाया हुआ था, अभी भी, सूरज निकलने में बस कुछ देर हो तो हो! बाहर से, आज मुझे कुछ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ भी आयी थी, बाहर मेरी खिड़की पर लटकी हुई, उस गिलोय जैसी बेल को हिलते, देखने का भी मौका मिला था!
मैं हटा वहां से, अपने कपड़े उठाये और गुसलखाने में जा पहुंचा, वहाँ से फारिग हुआ और वापिस अपने कमरे में आ बैठा, एक बार फिर से आसपास नज़र डाली कि कुछ रह तो नहीं गया? कुछ नहीं रहा था, जो उनका था वहीँ था, जो मेरा था, उठा लिया था मैंने! ठीक छह बजे, उजाला सा हुआ, बाहर झांक कर देखा, अभी भी सब शान्त ही था अचानक ही नज़रें, फिरती हुई नज़रें रुक गयीं एक जगह!
गौर से देखा, वो शायद किशन था, फावड़ा ले कर, कुछ खोद रहा था, मैं देखता रहा उसे, उसने गड्ढा खोदा और उसने कुछ कपड़े से दबाने शुरू किये! आखिर वो कर क्या रहा था? कपड़े थे गन्दे तो, फेंके जा सकते थे कूड़ेदान में, लेकिन दबाने की क्या ज़रूरत? सोचा और जानकारी जुटाई जाए तो मैं नीचे की तरफ चला, दरवाज़ा बन्द था, दरवाज़ा जैसे ही खोला सामने किशन खड़ा था! एकदम साफ़ और सुथरा!
"नमस्ते!" बोला वो,
"नमस्ते किशन!" कहा मैंने,
"चाय बना लूँ?" पूछा उसने,
"हाँ, बना लो!" कहा मैंने,
"बैठो आप?" बोला वो,
"आया ज़रा घूम कर!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया और अंदर की तरफ चला!
"घूम आओ ज्ञान बाबू!" कहा मैंने,
और मैं बाहर चला, उधर ही जहां वो गड्ढा खोद रहा था, तेजी से गया, तो देखा! कोई गड्ढा नहीं! ज़मीन, साफ़! कोई मिट्टी नहीं, कोई पत्थर नहीं! कमाल है! नज़रों का फिर से धोखा! हद ही हो गयी!
मैं आगे चला, उस पेड़ तक, और कुछ अजीब सा देखा मैंने! उस पेड़ से दाएं में, उस मकान की पीछे कुछ अजीब सा था! मैं चल पड़ा उधर के लिए! पहुंचा तो ज़मीन काली सी हुई, चप्पलें भी काली पड़ने लगीं! चप्पलों को देख ही रहा था कि दीवार आ गयी पीछे वाली, दीवार पर नज़र गयी तो दीवार ऐसी जैसे उस को काले कोयले से या तारकोल से पोता गया हो! हाथ लगाकर देखा, तो कालिख आ गयी ऊँगली पर, एक बात और, वो कालिख बड़ी ही गरम सी थी! मामला समझ नहीं आया, यहां रसोई है क्या? खैर छोड़ो, जो हो सो हो!
वापिस चलने को जैसे ही हुआ, कि हल्की सी आवाज़ आयी, जैसे कोई रो रहा हो, गौर से सुन कर देखा, तो जैसे कोई और भी था उसके साथ, और ध्यान से सुना! तो लगा कि शायद, जैसे किसी घायल को उठाकर, ले जाया जाता है, खूनखच्चर की अवस्था में, वो कराहे और चिल्लाये, ऐसी आवाज़ थी! लेकिन आ कहाँ से रही थी भला? बहुत ढूंढा, लेकिन कुछ न पता चला!
"ज्ञान?" आवाज़ आयी,
"आ..आप?" पूछा मैंने,
"घूम रहे हो?" बोली अनीता!
"हाँ, यूँ ही!" कहा मैंने,
"ये तो अच्छी बात है!" कहा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और वो पेड़ की तरफ चली, मुझे लेकर!
"ज्ञान?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"यहां, इधर, एक पेड़ होता था..." बोली वो,
"पेड़? किसका?" पूछा मैंने,
"अमरुद का!" बोली वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहां!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"बहुत अच्छे अमरुद आते थे उस पर!" बोली वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"फिर........वो जल गया...." बोली वो,
''जल गया?" मैंने हैरानी से पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, जल गया..." बोली वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" कहा उसने,
"नहीं पता?" पूछा मैंने,
"हाँ, नहीं पता.." बोली वो,
"क्यों भला?" पूछा मैंने,
"हम नहीं थे यहां..." बोली वो,
"ओह...कहीं गए हुए होंगे.." कहा मैंने, अंदाज़ा लगाते हुए,
"नहीं, कहीं नहीं" बोली वो,
"तब, कौन कौन था यहां?" पूछा मैंने,
"सभी थे" बोली वो,
"सभी थे? फिर भी पता नहीं? ऐसा कैसे?" पूछा मैंने,
"बता दूंगी ज्ञान!" बोली वो, एक दम उदासी से बाहर आते हुए!
"कब?" पूछा मैंने,
"समय पर" बोली वो,
"और समय कब?" पूछा मैंने,
"जब आओगे वापिस!" बोली वो,
"ओह..अच्छा!" कहा मैंने,
"आओगे न?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं! वैसे भी मुझे बहुत सवाल पूछने हैं, इस घर के बारे में!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं ज्ञान!" बोली वो,
फिर कुछ पलों की शान्ति सी रही! फिर उसने खड़े खड़े ही, अपना पाँव हिलाना शुरू किया! जैसे खुद ही कहीं खो गयी हों!
"क्या वक़्त हुआ?" पूछा उसने,
"साढ़े सात से ज़्यादा!" कहा मैंने,
"आओ?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम चल दिए अंदर, अंदर पहुंचे और बैठ गए, राजेश जी भी आ बैठे थे वहीँ, कुछ चबा रहे थे, शायद सुपारी आदि सा!
"अरे ज्ञान बाबू?" बोले वो,
"जी?" कहा मैंने,
"पैसे हैं?" बोले वो,
"हाँ जी, हैं!" कहा मैंने,
"कम तो नहीं?" पूछा उन्होंने,
"अरे नहीं जी, बहुत हैं! मेरा खर्च ही कहां हुआ है अभी तक!" कहा मैंने,
"कल खरीदारी में?" बोले वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"ले जाओ बेटा!" बोले वो,
बेटा? ये पहली बार सुना था मैंने उनके मुंह से! एक पल को मेरी आँखों से पानी ही छलक आता! आज पहली बार तीन महीनों में अपने पिता जी के ये शब्द मुझे याद आ गए थे! ठीक वही तरीक़ा! वही लहजा!
"लो ज्ञान बाबू!" बोला किशन,
चाय दी दी मुझे, सबसे पहले!
"राजेश जी को दीजिये न?" कहा मैंने,
"दे ही रहा हूँ, आप तो लो!" बोला वो,
"नहीं मानता तू!" कहा मैंने किशन से,
"बड़ा हूँ ज्ञान बाबू! आपसे उम्र में! पढ़ाई में न सही! बड़े ही ध्यान रखते हैं!" बोला वो,
"ये तो सच है!" कहा मैंने,
"और फिर, यहां कौन बेटे? हम ही तो हैं?" बोले राजेश जी,
"जी, जी!" कहा मैंने,
"चाय बढ़िया बनाई है!" कहा मैंने,
"आज कड़क है!" बोला किशन,
"दमदार!" कहा मैंने,
"किशन?" बोले राजेश जी,
"जी साहब?" बोला वो,
"दोपहर के लिए, ज्ञान बाबू के लिए?" बोले वो,
"मना कर रहे हैं!" बोला किशन,
"क्यों?" बोले राजेश जी!
"यहीं से भरपेट खा लूंगा ना!" कहा मैंने,
"सो तो है! ले जाओ?" बोले वो,
"क्या बनाऊं ज्ञान बाबू?" पूछा किशन ने,
"जो भी!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोला वो,
"सब बढ़िया बनाते हो किशन! जो भी हो, सब ठीक!" बोला मैं,
"चलो ठीक फिर!" बोला वो,
और मैंने अपनी चाय ख़तम की तब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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समय अब तेजी से बीत रहा था! घड़ी के पुर्ज़ों में ग्रीज़ लग गयी थी जैसे शायद! मुझे सच में ही बेहद अच्छा लगा था! आज घर जा पहुँचता! पिता जी से मिलता, भाई से! बहुत दिन हुए! इसी ख्याल में, मैं अपने कमरे में आ गया, पता नहीं कब तक बैठा रहा वहां, चूँकि काम तो था ही नहीं कोई भी! इसीलिए, एक बार फिर से मैंने सामान की जांच की, सब ठीक था! करीब घण्टा या सवा घण्टा बीता!
"किशन बाबू?" आयी आवाज़,
ये किशन की आवाज़ थी!
"हाँ किशन?" कहा मैंने,
"आओ बाबू जी?" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"अरे खाना ज्ञान बाबू?" बोला वो,
"ओह! हाँ!" कहा मैंने,
उठा और चल पड़ा उसके साथ! नीचे जा पहुंचा, नीचे और कोई भी नहीं था, मुझे इस बात से तकलीफ हुई थोड़ी...सामने टेबल पर, दो कटोरे रखे थे, उनमे सब्जी और दाल थी, और रोटियां अलग बर्तन में, साथ में कुछ सलाद भी! काली मिर्च और नमक की डिब्बियां भी वहीँ रखी थीं!
"आओ बाबू!" बोला किशन,
मैं बैठ गया और तभी उस से बात की,
"किशन?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
रुक गया था, हाथ में सूखे कुछ सामान था अभी!
"बाकी लोग कहाँ गए?" पूछा मैंने,
"यहीं हैं?" बोला वो,
"नज़र नहीं आये?" कहा मैंने,
"आ जाएंगे!" बोला वो, और चलता बना! मैं भी अपने खाने में मस्त हो गया! बेसन के गट्टों की बंगाली सब्जी, वाह! और दाल थी, अरहर की, छौंक लगा था उस पर, ज़ीरे और कच्चे आम के टुकड़ों का!
"सही बना है?" पूछा किशन ने, पानी लाते हुए!
"बहुत ही बढ़िया!" कहा मैंने,
"ये अरुमा ने बनवाया!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ, बोलीं कि पसन्द आएंगे!" कहा उसने,
तो जी, मैंने भोजन निबटा लिया! अब तो कोई लंच की भी ज़रूरत भी न पड़ने वाली थी! परांठे जो खाये थे दो संग, वे सच में भारी पड़ गए थे! अब पता चला था! मैं उठा, हाथ धोने गया और हाथ धो, वापिस आया! जब आया तो सभी वहीँ खड़े थे! अनीता, अरुमा, राजेश जी, सविता जी और किशन!
मुझे देख सभी मुकुराये!
"ज्ञान?" बोले राजेश जी,
"जी?" कहा मैंने,
"ये रख लो!" बोले वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"ये अपने गाँव में देखना!" बोले वो,
"जी ठीक!" कहा मैंने,
और जेब में वो लिफाफा रख लिया मोड़कर!
"अब चलूंगा!" कहा मैंने,
और मैं ऊपर चढ़ चला, अपना बैग उठाया और वो थैला भी, और आया नीचे तब, वे अभी भी वहीँ खड़े थे सभी!
"ज्ञान बाबू?" बोला किशन,
"हाँ किशन?" कहा मैंने,
"लाओ, सामान मुझे दो!" कहा उसने,
''अरे नहीं!" बोला मैं,
"दो न बाबू?" बोला वो,
"किशन! नहीं, समझो! तुमने कोई कसर छोड़ी? कोई नहीं! और फिर, तुम बड़े भी हो मुझ से, मैं तो बच्चा ही ठहरा!" कहा मैंने,
अचानक से ही, किशन का चेहरा गमगीन सा हुआ, अंगोछे से शायद आंसू पोंछे अपने!
"अब चलता हूँ!" कहा मैंने,
"ज्ञान?" दौड़ कर आयी अरुमा!
और मैं बाहर चला, वो भी चली!
"ज्ञान?" बोली फिर से,
"हाँ अरुमा?" बोला मैं,
"आओगे न वापिस?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, आना! मुझे इंतज़ार रहेगा!" बोली, कांपते हुए से होंठों से!
मुझे यही लगने लगा था, कि पता नहीं, मुझ से इतना लगाव कैसे हो गया है सभी को? मैं तो कोई ख़ास भी नहीं? गरीब, साधारण सा और एक सामान्य सा विद्यार्थी ही हूँ?


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं, एक पल को, रुक गया, उस अरुमा को देखा, उसकी आँखों में देखा, कैसे खोखली सी हो गयी थीं एक ही पल में! कैसे उसके होंठ, लरज उठे थे! वो पागल सी लड़की, बीमार लड़की, दिमागी रूप से विक्षिप्त सी लड़की! मुझे उस पल, ऐसी न लगी! वो तो बेहद समझदार, हल पल को जीने वाली, हर पल को, पकड़ने वाली, उस से उसका नाम-पता पूछने वाली थी!
''अरुमा?" कहा मैंने,
"ग...." बोल न सकी वो,
"ज्ञान, हाँ!" कहा मैंने,
"लौट आना ज्ञान!" बोली वो,
"आऊंगा!" कहा मैंने,
"कोई कुछ भी कहे!" बोली वो,
"क्यों रोकेगा?" पूछा मैंने,
"कोई भी कुछ कहे?" बोली वो,
"नहीं सुनूंगा!" कहा मैंने,
"लौट आना ज्ञान!" वो दौड़ी और भर लिया मुझे अपनी बाजूओं में!
"अरुमा?" कहा मैंने,
वो नहीं बोली कुछ भी...
"अरुमा?" कहा मैंने फिर भी!
"हम?" बोली वो,
"अब चलता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
और मेरा वो थैला उठा लिया!
"नहीं!" कहा मैंने,
और मैंने, अपना थैला ले, कोहनी में उसकी 'पकड़न' चढ़ा ली! और दूसरे से अपना बैग ले लिया!
"अच्छा!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए,
"ज्ञान? ज्ञान?" बोली वो, बेचैन हो उठी थी!
"हाँ?" कहा मैंने,
"लौट के आना ज्ञान! चाहे एक बार! एक बार बस!" बोली वो,
"हाँ! आऊंगा!" कहा मैंने,
"वायदा?" बोली वो,
"हाँ! वायदा!" कहा मैंने,
वायदा! वायदा! अब समझता हूँ इस शब्द का अर्थ! न रख सको मान ज़ुबान का अपनी, तो कभी वायदा नहीं करना! खैर, ये मेरा ही मानना है, आपकी राय मुख़्तलिफ़ हो, तो भी कोई शिक़ायत नहीं मुझे!
"अच्छा अरुमा!" कहा मैंने,
और निकल गया बाहर, उस दरवाज़े से, सांकल चढ़ाने के लिए वापिस जैसे ही मुड़ा, वो अरुमा वहां नहीं थीं! मैंने उचक कर एक दो बार देखा, कहीं नहीं थी! मैंने सोचा कि शायद, शायद मन में कुछ......हो उसके...
तो मैं चल पड़ा आगे के लिए! चलते हुए अचानक ही, उस छोटे से दरवाज़े पर नज़र पड़ी!
दूर, उस तहखाने वाले दरवाज़े के पास, वो अरुमा खड़ी थी!
मैं रुक गया, चला उधर, थोड़ा सा ही....
"अरुमा?" कहा मैंने,
वो न हिली!
"अरुमा?" कहा मैंने, फिर से,
उसने हाथ हिलाया अपना, और उस दरवाज़े के अंदर चली गयी! मैं, कुछ पल रुका और चल दिया आगे! चलता रहा, खोया हुआ सा! कि तभी टैक्सी की आवाज़ आयी, मैं रुका, दो सवारियां और बैठी थीं, चालक ने मुझे देखा....
"हावड़ा?" कहा मैंने,
"आओ?" बोला वो,
"स्टेशन?" पूछा मैंने,
"छोड़ देंगे!" बोला वो,
और मैं बैठ गया! फिर से, एक बार पीछे देखा!
"यहां कहाँ से?" पूछा एक लड़के ने,
"यहीं से?" कहा मैंने,
"मेरा मतलब....पास से?" बोला वो,
"हाँ? क्यों?" पूछा मैंने,
''ऐसे ही!" कहा उसने,
"कोई बात क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं तो? बस यही कि वहां तो रास्ता बन्द है न?'' बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अजीब सी ही बात कही थी उस लड़के ने! हालांकि उसने फिर कोई बात नहीं की इस बारे में अपने आप से, लेकिन मुझे कुछ अटपटा सा लगा तो मैंने फिर से सवाल किया!
"आप यहीं रहते हो?' पूछा मैंने,
"मैं?" बोला वो,
"हाँ, आप ही?" कहा मैंने,
"हाँ, यहीं रहता हूँ!" बोला वो,
"किराए पे?" मुझे अनुमान लगाना वैसे कभी रास नहीं आता, लेकिन लगाया!
"नहीं जी, मेरे मामा जी का मकान है!" बोला वो,
"क्या सी ब्लॉक में?" पूछा मैंने,
"सी ब्लॉक?'' उसने चौंक कर पूछा,
वो टैक्सी-ड्राइवर भी दो चार बार पलकें झांप, शीशे में से मुझे ही देखने लगा!
"हाँ?" कहा मैंने,
"वहाँ बसावट होने लगी?" पूछा उसने,
"बसावट?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"मतलब?'' कहा मैंने,
"मतलब? आप यूं जानो कि सरकार ने उस कॉलोनी को आगे नहीं बढ़ने दिया, समझ लो, वहाँ का पंजीकरण आदि ही नहीं होता, और अब तो पूरा ब्लॉक ही उजाड़ पड़ा रहता है, दिन में भी कोई नहीं जाता वहां, सुना है अब खाली है, और शायद, मैं समझ नहीं रहा हूँ कि आप क्या, वहीँ रहते हैं?" बोला वो,
ये क्या अजीब सी बात कही थी उसने? ये तो मुझे किसी ने नहीं बताया? और उजाड़? नहीं तो? बत्ती-बाती तो सब है?
"आप कहाँ हो, ए या बी में?" पूछा मैंने,
"बी के पास ही!" बोला वो,
"और वहां के रास्ते भी तो खराब हैं?" बोला चालक,
"कौन से?" पूछा मैंने,
"सी ब्लॉक के?" बोला वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"आप कहाँ से जाते हो?" पूछा उसने,
"उस टूटे से अस्पताल के पास से ही!" कहा मैंने,
"वो जो अंदर को बना है? खण्डहर?" पूछा उसने,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"उसके दो रास्ते हैं, एक सामने चला जाता है, जो करीब साठ फ़ीट चौड़ा होगा और एक उसके बाएं से, जो बीस फ़ीट का है?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो साथ फ़ीट वाले का नाला टूटा है!" बोला वो,
"नाला?" मैंने पूछा, हैरानी से,
"हाँ? सामने वाला?" बोला वो,
"लेकिन वो तो ठीक है?" कहा मैंने,
"ठीक है?" वो लड़का बोला,
"हो सकता है बन गया हो?'' बोला ड्राइवर,
"हो सकता है!" कहा लड़के ने,
"तो आप बीस फ़ीट वाले से जाते होंगे?" बोला चालक,
"हाँ, कभी कभी!" कहा मैंने,
"ठीक, वो आगे जाकर सीधे हाथ पर जाती है गली!" बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"जाती है!" बोला लड़का,
"और वहाँ से सामने एक रेल-लाइन भी दीखती है, अब बन्द है!" बोला चालक,
"बन्द है?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"कब से?" पूछा मैंने,
"उसे तो करीब छह या सात साल हो गए!" बोला वो,
छह या सात साल? पागल हो गया है क्या ये? या रात को रसिया हो जाता है जो दिन भर में भी रस नहीं छूटता इसका?
"अब दूसरी बड़ी लाइन, डबल वाली है, तो आती है!" बोला वो,
"कोई इस्तेमाल नहीं उसका?" पूछा मैंने,
"अब नहीं" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"अभी दिखाता हूँ!" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"रुको बस!" बोला वो,
और एक जगह जाकर, गाड़ी एक तरफ की धीरे,
"वो देखो?" बोला वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"वो बन्द पड़ी लाइन!" बोला वो,
मैंने उचक कर देखा, सच में, वहां तो पौधों और पेड़ों ने घेर रखी थी वो लाइन! नहीं लगता था कोई गाड़ी आती जाती भी होगी उस पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या ये वही लाइन है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, वो देखो, वो वहां से आती हुई ये रेलवे-लाइन, जो, उस ब्लॉक के पीछे से आती है!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"सालों पहले, ये लाइन बस कोयले को ढोने के लिए ही आया करती थी, कुछ मालगाड़ी ही चला करती थीं!" बोला वो,
"अच्छा?" मैंने विस्मय से थूक गटक लिया!
"यहां जब नयी लाइन पड़ी, तब से ये लाइन बन्द कर दी सरकार ने, तब इस पर भाप का इंजन चलता था, अब तो आप देखो, डीज़ल आ गया है!" बोला वो,
"ये नहीं पता था मुझे?'' कहा मैंने,
"ज़माना तरक्की कर रहा है साहब!" बोला वो, चालक,
और हम, अब पुल चढ़ आये थे, अब हावड़ा-स्टेशन पास ही था बस, कुछ ही देर में हम सभी वहीँ पहुँच जाते, एक बूढ़े से व्यक्ति बैठे थे, कुछ बुदबुदाते हुए, मुझे मुनीम जैसे लगते थे वो, एक शब्द तक नहीं बोला था, पूरे सफर में!
और फिर आ गया हमारा स्टेशन, हम उतरे, एक दूसरे को देखा, पैसा दिया और मैं सामान उठा अंदर चला आया! ये स्टेशन बड़ा ही शानदार है! मुझे अच्छा लगता है! इसकी बनावट, यहां के लोग और कुछ दुकानें, एक छोटा सा देश जैसा ही लगता है ये! मैं पूछताछ खिड़की की तरफ गया, वहां जाकर, अपनी गाड़ी के बारे में पूछा, वो करीब चालीस मिनट बाद चलनी थी, प्लेटफॉर्म पर तो लगी थी! तो मैंने टिकेट लिया और फिर, अपने डब्बे की तरफ चल पड़ा, अंदर झांक कर देखता जाता, कुछ डिब्बे भरे हुए से और कुछ खाली थी, अब एक ऐसे ही खाली डिब्बे में मैं जा घुसा, आसपास देखा, सब ठीक, सामान रख दिया फंसा कर! 
अब आराम से खिड़की वाली सीट पर आ बैठा! बाहर चाय वाले, सामान बेकने वाले बार बार आते, खड़े हो जाते और चले जाते! मैं आराम से बैठा रहा, और तभी एक खम्बे के पास मुझे कोई दिखाई दिया! मैंने गौर से देखा, वो खम्बे के पीछे की तरफ खड़ा था, किसी को ढूंढ रहा हो जैसे!
ध्यान से देखा तो मुझे वो डॉक्टर लगा, मैं इंतज़ार करने लगा कि इधर देखे तो इशारा करूँ, न उसने देखा ही, और न मैंने कोई इशारा किया, वो उस खम्भे के साथ से चलता हुआ, बाहर की तरफ चला गया, उसके कोट अपना अपने कन्धे पर रखा हुआ था, उसको सम्भालता और तभी!
तभी वो रुका, पीछे देखा, फिर से किसी को देखा और फिर आगे चला गया, अबकी बार सीधे ही बाहर चला गया! उसके बाद..............मैंने डॉक्टर को कभी नहीं देखा.....
मैंने इसी बीच चाय ली ली, और चुस्कियां लेते हुए, पीने लगा, मुझे चाय पीते हुए, किशन नज़र आने लगा! क्या बेहतरीन चाय बनाता था वो! और वे सब! साथ ही साथ! चाय और नाश्ता! मेरे मुंह पर एक अलग ही भाव आ गया और होंठों पर मुस्कान तैर आयी!
कुछ लोग चढ़े अब गाड़ी में, कुछ ही देर थी चलने में भी, दो औरतें भी थीं और दो लड़कियां भी उनकी, वे भी बैठ गए सभी!
"कितनी देर है?" पूछा एक आदमी ने,
मैंने घड़ी देखी,
"करीब दस मिनट" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"*** ** कब तक पहुंच जाती है?" पूछा उसने,
"कोई चार घण्टे?" बोला मैं,
"ये तो भागने पर है!" बोला दूसरा आदमी,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"अब सिग्नल मिले तो जल्दी, न मिले तो पता नहीं!" बोला वो,
"यही बात है!" कहा मैंने,
"अब तो मिल जाते हैं?" बोला वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
और फिर चुप से हो गए हम!
"आप कहाँ तक?" पूछा एक ने,
मैंने जगह का नाम बता दिया उसे,
''अच्छा!" बोला वो,
तभी उसकी लड़की ने कुछ पूछा उस से, तो उस आदमी ने मना कर दी, सर हिला कर!
और मैं बाहर देखने लगा!
दस मिनट से पहले ही गाड़ी ने सीटी दी, और हम आगे चल पड़े! थोड़े से झटके लगते और चल पड़े हम!
मैं बाहर ही देखता जा रहा था...अचानक ही, वो डॉक्टर फिर से दिखा मुझे! पता नहीं हो क्या गया था मुझे कि हर डॉक्टर मुझे वही डॉक्टर लगने लगा था! वो डॉक्टर, एक केबिन के पास ही खड़ा था, और ट्रेन के डब्बों को जैसे गिन रहा हो! जैसे ही मुझ से नज़र मिली कि उसने हाथ हिलाया! मैं चौंक पड़ा! क्या ये वही डॉक्टर है? हाँ? तो यहां कैसे? इन पटरियों पर? कैसे भला? मुझे देख, हाथ हिलाया? क्या मुझे ही, या मेरा वहम ही था??


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं उस तरफ देखता ही रह गया! वो बीयाबान सा क्षेत्र, और रेलवे लाइन के साथ लगे हुए, जंन्क्शन-बॉक्स, वायर-बॉक्स, वो बन्द पड़ा सा केबिन, जो कि 'त्याग' दिया गया था, वहां वो डॉक्टर खड़ा था? या होगा? शायद मेरा वहम ही रहा होगा! हाँ, तो, मेरी बुद्धि को यहां, शहर में वहम हो जाना अब मुझे कुछ नयी नहीं लगती थी!
और फिर, ठीक वैसा ही रास्ता, वैसी ही वनस्पति और वही, एक के बाद एक आती आवाज़, लाइन से और उन पर गुजरते हुए, पहियों की आवाज़ें! करीब दो घण्टे बीत गए, और मेरी आँखों में उस घर के दृश्य दिखाई देने लगे! अब तक तो, मुझे खाना ख्याल दिया होता था! सभी पूछा करते थे! कोई रोक नहीं और कोई टोक नहीं! एक बार लो या दो बार, कोई मनाही नहीं! वो खाने की सुगन्ध और चाय की चुस्कियां! सब याद आने लगी थीं!
मैंने बैठे बैठे ऊपर की तरफ देखा, ऊपर, लोहे की जाली से टिका और लकड़ी के फट्टों से बना बर्थ था, खाली था, मैं उठा और उस आदमी से, मेरा सामान देखते रहने का आग्रह किया, आग्रह स्वीकार हुआ, मैंने अपना तौलिया निकाला और उस सिरहाना बना लिया, एक चादर ले ली, उसे बिछा लिया और एक खेस निकाल लिया, ओढ़ने के लिए! सिरहाने पर सर रखा और लेट गया! खेस ओढ़ लिया! और ऊपर छत की तरफ देखा!
तभी मुझे, अमरुद की महक आयी! शायद नीचे कोई खा रहा था! हाँ! अमरुद!
"ज्ञान?'' मेरे ख्यालों में आवाज़ आयी,
"हाँ, अरुमा?" कहा मैंने,
"वो अमरुद लाये या छोड़ आये?" पूछा उसने,
"लाया हूँ न?" कहा मैंने,
"कहाँ हैं?" पूछा उसने,
"किशन से पूछो?" बोला मैं,
"तब रसोई में होंगे!" बोली वो,
"देख लो!" कहा मैंने,
"आओ तो?'' बोली वो,
"ले आओ?" कहा मैंने,
"अरे चलो तो?" बोली वो,
"ओहो! चलो!" कहा मैंने,
मेरी खीझ और उसकी हंसी! अब कितनी प्यारी सी लग रही है वो हंसी! और मेरी खीझ! अब वो भी हंसने लायक है! होंठों पर, मुस्कान आ गयी तभी!
गाड़ी अचानक से झटके खाते हुए रुक गयी, कोई स्टेशन था शायद! मैं फिर से, उन पंखों पर देखता रहा, इतनी बड़ी मोटर! इतनी छोटी सी पंखुड़ियां? खैर जी! मैंने तब करवट बदल ली!
"कोई स्टेशन है?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला एक आदमी,
"ठीक!" कहा मैंने,
और तभी ट्रेन में कुछ आवाज़ें आयीं, 'झालमुड़ी!" आदि जैसी! ये तो ट्रेन में आने वाली साधारण सी ही आवाज़ें हैं! कोई गाता हुआ, कोई भीख मांगता हुआ, कोई कुछ और कोई कुछ!
कमर फिर से टिका ली, और गाड़ी ने झटका खाया, चल पड़ी आगे के लिए और मैं ख्यालों में पीछे लौटने लगा!
"अरे बाबू जी!" बोला किशन, वो फल देते हुए उसे,
"ले लो यार!" कहा मैंने,
"जी बाबू!" बोला वो,
"काटो और खा लो!" बोला मैं,
"आप?" बोला वो,
'तेरे लिए हैं!" कहा मैंने,
"इतना बड़ा मालदा आम है ये!" बोला वो,
"तो क्या हुआ? फजली जैसा ही है!" कहा मैंने,
''खा लूंगा!" बोला वो,
"खिला दूंगा! ये बोलना था न?" कहा मैंने,
"अरे ज्ञान बाबू!" बोला वो,
"जाओ, काटो और खाओ!" कहा मैंने,
"बाद में बाबू!" बोला वो,
"नहीं कहूं? बोलो? कोई हक़ नहीं न?" कहा मैंने,
"अ...अर अरे...ज्ञान बाबू? हक़? कहो तो पाँव पकड़ लूँ बाबू!" बोला वो,
"बस बस! जाओ!" कहा मैंने,
"नहीं मानोगे आप!" बोला वो, और चल पड़ा वापिस रसोईघर के लिए! और मैं, ऊपर चल दिया, ऊपर आया तो, मेरा बिस्तर सजा हुआ था, सभी चीज़ें, सम्भाल कर रख दी गयी थीं! और मैं बैठ गया, जूते खोले, और लेट गया!
लेट गया....आज की तरह ही....बस, उस दिन गद्दा था, आज नहीं...बस!
चर्र! गाड़ी ने फिर से झटका खाया और धीरे हो गयी! और धीरे होते होते, रुक गयी फिर! कुछ देर.....और....
"कोई स्टेशन है फिर से?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो आदमी,
"फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"शायद सिग्नल?" बोला वो,
"हम्म" कहा मैंने,
और ले ली करवट, जैसे ही सामने देखा कि......................!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने जैसे ही, उस, दूसरी तरफ देखा, उस बर्थ पर, तब मुझे एक भीनी भीनी सी महक आयी अचानक! ये महक मुझे उस अरुमा की देह से आया करती थी, जब भी वो पास हुआ करती थी मेरे! मैं जैसे, उस महक का आदि हो चुका था! वो यहां, इधर अचानक से महक आयी, तब मेरा ध्यान उस तरफ गया था! कोई नहीं था! बस, महज़ मेरा एक ख़याल ही! और मैं, एक छोटी सी, लेकिन टीसभरी से, मुस्कान लिए, हटाता बना उस बर्थ से!
गाड़ी ने झटका खाया और इस बार गति पकड़ ली, नीचे से जंक्शन की पहचान, रेल की पटरियां कटिंग-कटिंग की सी तेज आवाज़ें कर रही थीं! अब मुझे ये ख़याल हो उठा था कि मैं, अब दूर जा रहा हूँ उन सभी से! एक एक कदम करते हुए! करवट बदल ली मैंने! घर में सब मुझे, मेरे गाँव में, कहा करते थे कि मेरा दिल बेहद मज़बूत है! हर स्थिति को सम्भाल लेता हूँ! पर सच तो मैं ही जानूँ! आज मैं सच में अपने आपको अकेला सा ही महसूस करने लगा था!
"टिकेट?" आयी आवाज़,
ये टिकेट चैकर था, नीचे बैठे लोग, टिकेट दिखा रहे थे, मुझे उसने पेन से छुआ था, मैंने अपना टिकेट जेब से निकाला और पकड़ लिया, और कुछ ही देर में, उसने टिकेट देखा, एक लकीर सी खींची और मुझे दे दिया, आगे बढ़ गया वो! मैंने टिकेट अपना अपनी जेब में रख लिया वापिस और फिर से लेट गया! इस बार मैं फिर से वहीँ, उस घर में जा पहुंचा, ख्यालों में ही!
कभी अपना कमरा और कभी नीचे के कमरे! कभी उस सोफे के पास, कभी उस आराम-कुर्सी पर! कभी उधर, बाहर की तरफ! कभी अनीता की बातें और कभी उस अरुमा की! कभी किशन की बातें और कभी राजेश जी की चुप्पी! वो भयानक सी रात, सविता जी के साथ!
कैसा लम्बा सा साथ बन चुका था मेरा उनसे! उनका बेटा? वो शायद, अपने माता-पिता से रूठ गया था, न जाने कहाँ रहता था वो, कभी पता न चल सका मुझे, पूछना भी चाहा तो भी न जान सका!
इसी खींचम-खांच में, मेरी आँख लग गयी, मैं सो गया, जिस वक़्त सोया, उस वक़्त दिन सही से चढ़ नहीं पाया था, लेकिन सच पूछो तो, कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा था, रह रह कर, मुझे याद ही आ रही थी वहां की!
मिनट बीते और फिर घण्टे बने! और फिर ढाई भी बज गए! मेरा स्टेशन आ गया था, मैं आधे घण्टे पहले ही तैयार हो गया था, गाड़ी रुकी तो उतर आया, लेकिन सामान उतार कर, आगे, बाहर नहीं चला, बताऊं? हंसना नहीं! यही गाड़ी मुझे उस शहर से ले कर आयी थी वहां से! मेरे साथ, एक यही तो थी जो संग आयी थी वहां से! वो जब चली, तब लगा, कोई टुकड़ा सा ले गयी मेरा वो, मैं देखता रहा उसको, जब तक, पकड़ से दूर न हो गयी!
मेरा स्टेशन! जस का तस! कोई बदलाव नहीं! वही पैदल-पुल, वही रंग, वही रास्ता और वही पेड़, चबूतरे! मैं चल पड़ा पैदल-पुल की तरफ, उस से पहले एक प्याऊ थी, पानी पिया उस से और फिर, एक बार पीछे देखा, लाइन को, और पहली सीढ़ी चढ़ ली उस पुल की, और फिर...आखिरी भी उतर आया!
"अरे?" कहा मैंने,
और एक सवारी ले ली, यहां से बस, ये सवारियां, बस-अड्डे तक ही जाती हैं! सो, बस अड्डे की तरफ चला, पीछे देखा, मेरा छोटा सा स्टेशन! मेरा संसार, उसके परे था! मेरा कॉलेज! सब परे ही था!
बस अड्डे पहुंचा और, एक खाली मिनी-बस मिल गयी, अब उसकी मर्ज़ी से ही चलनी थी बस, सो बैठ गया, आधे घण्टे बाद, बस चली, टिकेट ली, और चल पड़े हम! और इस तरह, स्टेशन भी गायब हो गया आँखों से! बड़ा भारी था उस रोज सब! मुझे घर पहुंचने की अभी कोई जल्दी नहीं थी, पहुँच ही जाता! भाव, क्या से क्या करवा देते हैं, अब समझ आ रहा था! एक जगह बस रुकी, चाय मिल रही थी, चाय ले ली और पीने लगा! वो स्वाद कहाँ? वो कड़कपन कहाँ? वो नज़ाक़त कहाँ? एक नज़र चाय को देखा, पानी सी, बार बार उबाल कर, ज़िंदा रखी गयी चाय! आखिर....पी ही ली! और फिर बैठ गया मैं, साथ कौन बैठा, या बैठी, कुछ पता नहीं, आँखें बन्द कर लीं और बस, चलती रही...
जहां बस रूकती, आँखें खुल जातीं, और याद आने लगता वो रास्ता जो अब मुझे मेरे गाँव ले जाने वाला था! सब याद आ गया मुझे! बाज़ार, वो छोटा सा, वो बर्तन लटके हुए, वो मच्छरदानी लटकी हुईं! वो टोकरे, रस्सियां सब! झाड़ू आदि सब! मुझे एक बार बहुत ही अच्छा लगा! ये, मेरे पास के गाँव का बाज़ार था, बस, इस से आगे ही, एक रास्ता, बाएं की तरफ, उस बड़े से पेड़ के साथ से गुजरता हुआ...वहीँ से जाना था मुझे, अपने गाँव की तरफ! तीन महीने पहले, उसी रास्ते से, एक ग्रामीण, देहाती युवक निकल आया था बाहर, एक बड़े शहर जाने के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बस रुकी, ब्रेक की आवाज़ आयी, मेरे दिल से टकराती हुई जैसे! नीचे झुका सर, मैंने बाहर झांक कर देखा, वही रास्ता! वही ज़मीन! वही डगर! वही क्षितिज! 
"आ जाओ!" बोला वो कंडक्टर,
"ह...हाँ!" कहा मैंने,
और मैंने अपना सामान लिया, रखा कन्धे, मेरे साथ एक और आदमी उतरने वाला था, मेरे पीछे था वो, लोहे का एक सन्दूक लिए! मैं उतरा तो वो भी नीचे उतर आया, मैं वहीँ खड़ा होआ गया, उस बस ने, काला धुंआ छोड़ा और चलती चली गयी आगे! और वो आदमी भी आगे चलता चला गया! मैंने अपना सामान उठाया और, अपनी राह पकड़ ली! अब बस घर! पीछे ही पीछे लाना यादों को, ठीक नहीं!
दोस्तों!
मैं घर पहुंचा अपने, मेरी बूढ़ी बुआ जी मिलीं! देख, रोने ही लगी! मेरे आस-पड़ोस के लोगों को खबर लग गयी! बस, फिर क्या था! पास से ही, पिता जी को खबर लगी, छोटा भाई कहीं गया हुआ था, वापसी में था! पिता जी आये, माँ की तरह से रोने लगे! खूब रोये, फफक फफक कर! आंसू मेरे भी छलक ही आये!
"कमज़ोर हो गया? कैसे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
फिर सोचा, हर माँ बाप को, जब वक़्त हो जाता है अपनी औलाद से मिले कुछ तो कमज़ोर सा, हारा सा ही लगता है उन्हें उनका बेटा या बेटी! तो ये कोई नयी बात नहीं! छोटा भाई आया! अब तो बड़ा सा लगने लगा था मुझे! मेरे बराबर का सा ही! 
"तेरी पढ़ाई?" पूछा मैंने उस से,
"बहुत बढ़िया!" बोला वो,
"सब?" पूछा मैंने,
"हाँ, सब!" बोला वो,
तो...वो समय, मिलने जुलने में ही लग गया! मैंने आराम भी किया, और छोटे के संग घूमने भी गया, कुछ यारों से मिला, खाया भी और इधर उधर की बातें भी!
रात का समय....
और खाने का समय हुआ! माछ और भात! मारे ख़ुशबू के आंगन महके! हाँ, मुझे उस दिन, वो किशन के माछ-भात बहुत याद आये! बहुत ही याद! छोटे भाई से कह, टमाटर कटवा लिए साथ में ही! काली मिर्च थी नहीं, कल ले आते! छक कर खाया मैंने!
"और?" पूछा पिता जी ने,
"जी सब बढ़िया!" बोला मैं,
"वहीँ ठहरे?" बोले वो,
"हाँ, नवेद जी ने जो सुझाया!" बोला मैं,
"नवेद से मिले?" पूछा उन्होंने,
"एक बार ही!" कहा मैंने,
"उसके बाद?" बोले वो,
"समय नहीं मिल पाया" बताया मैंने, झूठ ही बोला था, नज़र, नीचे ही रहीं!
"जाना चाहिए था!" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"अब कब वापिस?" पूछा उन्होंने,
"अगले हफ्ते" कहा मैंने,
"बस?" बोले वो,
"भाई?" बोला छोटा!
"हाँ, बाद में आऊंगा न!" कहा मैंने,
"चल!" बोले वो,
और चले गए बाहर ओसारे की तरफ!
"और कैसा लगा शहर?" पूछा उसने,
"शानदार!" कहा मैंने,
"वैसा ही है?" बोला वो,
"हाँ, उस रोज जो वो बोले थे, वैसा ही!" कहा मैंने,
"मजे आ गए!" बोला वो,
"हाँ, आ तो गए!" कहा मैंने,
"मैं आऊंगा कभी!" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"अब पता लिखवा कर जाना!" बोला वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर हुई रात, आँखें हुईं भारी! अब सोया जाए, बाहर तो ऐसा घुप्प अँधेरा था कि जैसे उजाला सुबह तक पता पूछते पूछते ही, जंगल से यहां तक आये! करवटें जब ज़्यादा ही बदली जाएँ तो समझो या तो नींद नहीं आ रही या फिर, सोने की जल्दी है! तो जी, अब जल्दी ही थी सोने की!
तो मैं उठा तब, और कपड़े बदलने शुरू किये, जब पैंट मोड़कर रखनी चाही, तब कुछ लगा कि जेब में कुछ भारी सा महसूस हुआ, मैंने हाथ डाला और जब बाहर निकाला तो ये वही, एक खाकी रंग का सा लिफाफा था! फौरन दिमाग में आ गया कि ये लिफाफा तो मुझे राजेश जी ने दिया था! कहा था, घर पर जाकर खोलूं! तो मैंने वो लिफाफा एक जगह रखा, और तब कपड़े पहन लिए बाकी, अब लिफाफा मैंने उठाया, लेटा और खोला, ये चिपका हुआ तो नहीं था, हाँ, कुछ बन्धा हुआ था उस पर, कोई कच्चा सा सूत सा! ये पक्का भारतीय सड़क-विभाग का ही लगता था! खैर, मैंने खोला उसे, परत हटाई, तो अंदर सबसे पहले मुड़े हुए कुछ नोट दिखे! नोट? भला क्यों?
एक पल को मैंने सोचा कुछ और फिर उन नोटों को बाहर निकाला, गिने तो वे सौ सौ के इक्कीस नोट थे! जैसे कि कोई शगुन हो! नोट अलग रख लिए औए फिर से लिफाफा देखा, इसमें एक कागज़ मिला मुझे, ये कागज़ भी मुड़ा हुआ था, मोड़ा भी अजीब ही गया था, या फिर, इस लिफ़ाफ़े में सही से आ जाए, इसीलिए रखा गया था, मैंने वो कागज़ निकाला और उसको खोला, उसमे, एक पत्र सा लिखा था, काले रंग से, कागज़, एकदम पीला पड़ा हुआ सा, पुराना सा और बिना लकीरों वाला था, जैसे अक्सर सरकारी कागजों का होता है! मैंने उसको अब पढ़ने की कोशिश की, वो पत्र कुछ इस प्रकार से था :-
"प्रिय ज्ञान!
               हम नहीं जानते कि आपको यहां कैसा महसूस हुआ! लेकिन हम जानते हैं! कि आपके आने से किस प्रकार हम सभी ने, ज़िन्दगी को फिर से जीया है! ज़िन्दगी, बेहद कीमती हुआ करती है ज्ञान! नहीं जाने कि आप क्या समझते हो! फरेब नहीं होता ज़िन्दगी में कभी!
ज्ञान, हमने हमेशा यही प्रयास किया कि आपको कभी भी, किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो यहां! आप जब सोया हुआ करते थे, तब हम सभी, कभी सभी और कभी कोई, कभी कोई, आप पर नज़र रखते कि आप सही से सोये हैं या नहीं! आज आपने सही से खाया है कि नहीं!
ज्ञान! हम सभी, दिल से आपका शुक्रिया अदा करते हैं! ये इक्कीस सौ रूपये हैं! आपके लिए! ये मेरी तरफ से हैं! पिता जी को देना या भाई को देना! या अपने आप जैसे चाहो, खर्च कर लेना! वो आपकी मर्ज़ी!
शेष आपके आपने की उम्मीद पर........................
राजेश एवं सपरिवार....
मैंने एक बार नहीं, बल्कि दो-तीन बार वो पत्र पढ़ा! हे मेरे ईश्वर! इस संसार में, ऐसे भी इंसान हैं? ऐसे भी लोग हैं आज? वो मेरे क्या लगते हैं? न कोई रिश्ता? न कोई नाता? न कोई सम्बन्ध? न गांव-देहात के?
क्या कहूं! अपना भाग्य? या, मेरे सितारे? या फिर कोई आशीर्वाद? क्या कहूं? क्या कह सकता हूँ? नहीं पता! नहीं पता!
चार दिन बाद.......
मुझे अब, याद आने लगी है उन सभी की, मुझे जैसे प्यास सी लगने लगी है, और जो पानी में यहां पी रहा हूँ, उसका स्वाद नहीं रहा अब बाकी.....न वो मिठास...मुझे अब चाय भी अच्छी नहीं लग रही...
मुझे याद आ रही है....किशन की, उसकी आवाज़ की....
मुझे याद आ रहे हैं वो...राजेश जी..अब बहुत...
अनीता जी और सविता जी.....हंसी आने लगती है मुझे.....परन्तु, सच कहता हूँ....मुझे आपकी भी याद आती है बहुत!
अरुमा?
तुम कैसी हो? ठीक होंगी! मुझे यक़ीन है! तुम ठीक ही होंगी! अरुमा, मुझे बहुत याद आती हो आप..एक एक शब्द आपका...एक एक भाव और एक एक हंसी की खनक!
अरुमा?
मेरे सामने कुछ किसान, खेती में लगे हैं, धान रोपा जा रहा है! अभी कच्चा है...कमज़ोर सा! एक बात कहूं? अगर आप यहां होतीं तो कितना अच्छा होता! दोनों ही मिलकर, उस पानी में, धान रोपते! तुम मना करतीं! मैं ज़बरदस्ती ले जाता! तब तो तुम, गुस्सा भी नहीं करतीं! हंसतीं बहुत!
अरुमा?
ये क्या? मैंने आपको तुम कह दिया? माफ़ करना अरुमा...माफ़ करना....गलती हुई...सामने नहीं होगी....वायदा...कहा ऐसा मैंने, अपनी गर्दन पर उंगली रख कर...


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये क्या कर रहा है ज्ञान?" आयी मुझे एक आवाज़, पता नहीं, मुझे आवाज़ आने पर, जब तक उसकी शिनाख़्त न कर लूँ, जवाब नहीं बन पता था गले से, ये आवाज़, मेरे एक दोस्त की थी, बारह तक हम साथ ही पढ़े थे, बाद में उसने क्या सोचा, ये वो ही जाने, शायद कोई कोर्स करना था उसे, और मैं, अपने दर्शनशास्त्र के लिए आगे बढ़ गया था!
"क्या कर रहा है ये? ऐसे? ऐसे?" पूछा उसने,
मैंने अपनी डायरी मोड़ ली, बीच में अपना पेन फंसा लिया, और रख दी एक तरफ, सूखी सी घास पर!
"अरे कुछ नहीं यार!" कहा मैंने,
"मुझे लगा कोई रिहर्सल है शायद!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"बिजी तो नहीं? बैठ जाऊं?" पूछा उसने,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
हालांकि, मुझे मन से अच्छा नहीं लग रहा था, मुझे लग रहा था, अरुमा और मेरे बीच, कोई तीसरा आ धमका था! जैसे, अरुमा ने उसे देख, आँखें नीचे कर ली हों, मुझे एक पल देखते हुए!
"शहर में ही हो?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"किस तरफ?" पूछा उसने,
"पूर्व-दक्षिण में" कहा मैंने,
"कोई जगह तो होगी?" बोला वो,
"आना है क्या?'' पूछा मैंने,
"आ जाऊं कभी तो?" बोला वो,
"मैंने उसे जगह बता दी, लेकिन ठीक पता नहीं!" कहा मैंने,
सो तो आपको बताने की ज़रूरत ही नहीं कि ठीक पता क्यों नहीं! मैं क्यों कोई तीसरा बर्दाश्त करूँ!
"तू सही रहा वैसे!" बोला वो,
"तू भी तो?" कहा मैंने,
"अभी दो महीने बाद कोर्स खुलेगा!" बोला वो,
"तो क्या हुआ? तैयारी तो होगी?" कहा मैंने,
"हाँ! सो तो है!" कहा उसने,
तभी उसको, उसके चाचा जी ने आवाज़ दे कर बुलाया! वो उठा, और मुझे देखा, न जाने मेरे मन में लड्डू से फूट गए!
"जाने से पहले मिलकर जाना ज्ञान?'' बोला वो,
"हाँ, पक्का!" कहा मैंने,
और वो, चलता बना, मेरे पीछे होकर, चल गया अपने चाचा जी के पास! और मैं, अपना घुटना मोड़, उस पर, अपने दोनों हाथों को बाँध, सामने देखने लगा! वो पंछी, अपने मुंह में एक कृमि को पकड़ कर, बस उड़ने ही वाला था, कि दूसरा आ धमका! आपस में ही लड़ने लगे वो! पहले वाले का दांव लगा और उस कृमि को ले उड़ा! मैं देखता रह गया उसे!
मैं पीछे हुआ और अपनी डायरी खोल ली! तभी मुझे, कुछ हंसने की सी आवाज़ आयी! मैंने आसपास देखा, कोई नहीं था, लेकिन वो वहम, मुझे बेहद ही खुश कर गया था!
मैंने नया पेज खोला, 'कॉन्टिन्यूइड' लिखा, छोटा सा, दायीं तरफ! और दो 'डॉट' लगा दिए...आप देख सकते हैं!
"अरुमा? मुझे तुम्हारी क्यों याद आ रही है? कोई है इसका जवाब देने वाला? अरुमा? हे? तुमसे मुझे क्यों लगाव सा हो गया है? कमाल है न? तीन महीने, मैं बचता रहा हूँ!
और अब देखो? न जाने क्या हुआ?"
अचानक पीछे से कुछ आवाज़ हुई, पीछे देखा तो मवेशी आ रहे थे, कुल आठ या दस होंगे, शोर मचा रहे थे! डायरी फिर से बन्द कर दी और उनको जाते हुए देखता रहा! एक एक करके, घास-फूस खाते हुए, आगे चले गए!
मैं भी उठा और चला घर की तरफ, कुछ औरतें आ रही थीं, उन्हें जगह दी और चला आगे, पीछे से कुछ और औरतें आईं और बाएं चली गयीं, यहां एक पुराना सा मन्दिर है, कहते हैं, बहुत पुराना है! देखा तो है मैंने, पर क्या है कि 'ईश्वर' से अपना कुछ बिगाड़-खाता ही रहा है शुरू से! कभी सुनता ही नहीं तो अब कुछ कहना भी छोड़ दिया है उस से मैंने! लाख बुलाये, ना जाऊं! तो मैं न गया वहां, हाँ, उसका शीर्ष ज़रूर दिखा मुझे, मैंने सर घुमाया और घर की तरफ, चल दिया अपने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दिन, १९ नवम्बर, १९८७, मेरा गाँव, और मेरा घर...
...........................................................................
उस दिन, दिन में चार बजे, मुझ में एक 'आग' लग गयी थी.....आप समझ रहे हैं? कौन सी आग? नहीं...वो आग नहीं...मैं इसे सुलगन कहूंगा, सुलगन, जिसे हवा चाहिए थी.....मैं अब तड़प रहा था वहां पहुंचने के लिए! मैं वाहन पहुंचूं और उन सभी से मिलूं! घुल जाऊं उनमें! मिल जाऊं! आर्डर सा दे, चाय बनवाऊं किशन से!
"ओ किशन? चाय बना ले यार? गाँव में मजा नहीं आया चाय का! आदत डाल दी तूने मुझे कड़क चाय की! चल! बना ले जल्दी!" कहता मैं, चीखते के, उसी सोफे पर बैठते हुए!
वे सब आ जाते! सब के सब! सब से मिलता मैं! जानता हूँ, जितना मैं तड़पा हूँ! वे भी तो तड़पे ही होंगे! आखिर उनकी बातें सुनता कौन था? इतनी लम्बी लम्बी! कौन? मैं! बस मैं!
और अरुमा....उस से कैसे मिल पता मैं अब! मेरी तो चोरी ही मेरे मुंह से टपक जाती! न चाहते हुए भी, बोल ही देना पड़ता मुझे! अरुमा? नहीं रह पाया मैं तुम्हारे बिना! बड़ी लम्बी सांस भरे निकला था मैं घर से कि किसी की याद, भला मुझे इतना थोड़े ही सता सकती है! लेकिन मैं गलत निकला अरुमा! इधर आओ! देखो! मेरा मज़ाक़ नहीं उड़ाना! मैं उसी क्षण, रेत के ढेले सा, ढह जाऊंगा.....नहीं जुड़ पाऊंगा ठीक वैसा....ठीक? अरुमा?? ठीक ना??
सुनो अरुमा......मुझे...तुमसे....सच ही में...प्रीत हो गयी है...!! हाँ, प्रीत! न हो तो क्यों आती याद मुझे? क्यों लौट आता मैं? अरुमा? सच में! मेरा यक़ीन करो! प्रीत! एक सच्ची प्रीत! मेरा ईश्वर ही जानता है, कब कब याद नहीं किया मैंने तुमको! कब कब नहीं!
"अरुमा?" पूछा मैंने,
"ह्म्म्म?" उसने कोई जवाब नहीं दिया, सर झुकाये ही रही!
"ऊपर तो देखो?" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"अब इतना तो कह दिया?" कहा मैंने,
"पहले क्यों नहीं कहा?'' पूछा उसने,
"कैसे कहता?" पूछा मैंने,
"क्यों? अब क्यों?" पूछा उसने,
"अब तुम मुझे अपनी लगती हो!" कहा मैंने,
"और पहले?" पूछा उसने,
"ब....बात...वो नही.." कहा मैंने,
"तो?'' पूछा उसने,
ये क्या पूछा उसने! और मैं हंस पड़ा तेज तेज! इतनी तेज! इतनी तेज कि जान ही न सका मैं!
"क्या हुआ ज्ञान?" आयी पिता जी की आवाज़,
"क्या?" मेरे मन में हथौड़ा सा बजा!
"क्या बात है?" बोली पिता जी,
और आ गए थे अंदर, मुझे देखा, सब तो सही था, मैं खड़ा था, उस छोटे से शीशे के आगे खड़ा, जिसमे मैंने अभी बातें की थीं, अरुमा से!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ पढ़ रहे थे?" पूछा उन्होंने,
"ह..हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा....खाना लगने वाला है!" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
और वे चले गए! बाहर!
और मैं...फिर से हंस पड़ा, हाँ इस बार आवाज़ नहीं आयी! ये मेरी इंतहाई ख़ुशी की पहचान थी!
एक घण्टे बाद....
खाना लग गया था, खाना रखा था और पिता जी का आदेश हुआ और हम, खाना खाने लगे!
"ज्ञान?" बोले वो,
"जी?" पूछा मैंने,
"कल जा रहे हो?" पूछा उन्होंने,
मन में लड्डू, फिर से फूट गए मेरे तो!
"जी" कहा मैंने,
"ह्म्म्म! नवेद से मिल लेना!" बोले वो,
"हाँ, कल या परसों में ही!" कहा मैंने, एक गस्सा खाते हुए, भात और दाल का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात, उसी दिन की, कुछ भारी सी....
..............................................
भारी सी...हां...बेहद ही भारी सी...वो किसलिए ज्ञान? बाबू? बाबू? ज्ञान? मैं?(यहां मैं फिर से हंस पड़ा! कहीं पिता जी न सुन लन, इसीलिए हाथ रख लिए मुंह पर!) मैं और बाबू! वाह रे! वाह रे क्या नसीब है तेरा भी ज्ञान! सौ कमियां तुझमे, सौ खांचे तुझमे! और तू! तू बाबू! वाह रे ज्ञान बाबू! और तभी...मेरी बायीं आँख से कुछ बहने लगा, मेरे गाल पर, जब तक उसको देखता, दायीं आँख में भी ऐसा ही लगा! ये क्या है? आंसू? बिना भावों का आंसू? ऐसा कैसे? ये आंसू कैसे? मैं इतना कच्चा? भुरभुरा सा? कच्ची सी, अधपकी मिट्टी? क्या ये मैं हूँ? ओ? ज्ञान? ये के? तू ही है? वो? वही? जो, दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी है? क्या यही है तेरा वो दर्शनशास्त्र? यही होता है क्या? ओ? मैं तेरा अंतः हूँ! कोई और नहीं! जवाब दे? जवाब दे नहीं तो छील कर रख दूंगा तेरा ये झूठा लिबास! बोल? ये ही है??
और फिर चुप्पी! आँखें बन्द! यादों का बोझ, क़तरा क़तरा कर, जमता हुआ एक दूसरे पर, दबाता रहा मुझे...मैं अभी भी टिका हुआ था! ओ? मेरे अंतः? जाग? कहाँ है? हां! यही हूँ मैं! मेरा दर्शनशास्त्र? आरम्भ हुआ है अब! देख, तुझे भी दिखा दूंगा कि ये ज्ञान? क्या बनेगा! दिखा दूंगा! तू जागते रहना बस! उठाना न पड़े!
मैं उठ खड़ा हुआ, बाहर ओसारे में झांका, पिता जी नहीं थे वहां, भाई, सो गया था शायद, सिरहाने किताबें रखें! उसको देखता तो खुद ही याद आता! मैं आगे चला, बाहर की तरफ आया! आसमान देखा, कुछ साफ़, कुछ नहीं! सर्द सा माहौल, अंगोछा काम करे जा रहा था! हां, आसमान, कुछ साफ़ और कुछ नहीं! क्यों नहीं? शायद मेरा जैसा ही था वो! कुछ डरपोक सा! शर्मीला सा और कुछ नहीं, बेहद ही झेंपने वाला! एक जगह बैठ गया, अँधेरे में देखा! ये अँधेरा, कहाँ तक? कहाँ तक व्याप्त होगा? हां! वहीँ तक तो! होंठों पर मुस्कुराहट आ गयी! खड़ा हो गया, आगे गया, अँधेरे में! चारों तरफ देखा!
और फिर, पल भर में ही लौट आया! पिता जी के खांसने की आवाज़ आयी थी मुझे! मुझे देखते तो सुनाते ज़रूर! इसीलिए, दौड़ कर, अपने कमरे में दौड़ आया! आते ही लेट गया! उस रात, पता नहीं, कितनी बार मैं जागा और कितनी बार सोया! कितनी बार अनजान से ख़याल और अनजाने से जवाब!
२० नवम्बर, सुबह..१९८७...गाँव....
...............................................
बता नहीं सकता कि मैं कितना खुश था उस दिन जब गाँव के बाहर तक, मेरा छोटा भाई मुझे छोड़ने आया था! मैंने वो इक्कीस सौ रूपये उसके हाथ में रख दिए थे, बोलकर, कि अपनी पार्ट-टाइम नौकरी से बचाये हैं! वो बहुत खुश हुआ! बहुत ही खुश! पिता जी को देने की हिम्मत नहीं थी, न बता ही सकता था! इसीलिए छोटा रास्ता ही चुना था मैंने! इन और ऐसे मामलों में मैं बहुत ही होशियार रहा हूँ!
खैर, एक बस आयी, कुछ खाली सी, भाई को गले लगाया, पिता जिम को फिर से चरण-स्पर्श ले जाने को कह, शीघ्र ही आऊंगा, ये भी बताया, चालक, इंतज़ार करता रहा और फिर एक हॉर्न! मैं चौंका, चढ़ चला बस में! भाई ने बस के साथ साथ चलते हुए, हाथ हिलाया और बस...आगे निकले चली गयी! एक सीट पर बैठ गया, अब मेरे पास मेरा बैग ही था!
लेकिन?
मैं! खाली नहीं था! सबकुछ था मेरे पास! बून्द बून्द से बर्फ बना ली थी और बर्फ से पहाड़! वो पहाड़ था मेरे साथ! बस सरपट भागती चली गयी, फिर भी बस की रफ्तार बहुत ही कम लगती थी मुझे!
साढ़े आठ बजे से कुछ ही पहले मैं पहुंच स्टेशन! न इधर देखा न उधर! बस सीधा ही पैदल-पुल जा चढ़ा! गाड़ी आने वाली दिशा में देखा, कोई नहीं था! न कोई डाउन-सिग्नल ही! हां, बस दो तीन लोग, उस ट्रैक पर काम कर रहे थे! मैं दौड़ा सा आया नीचे, काउंटर पर क़तार भी नहीं थी! जा पहुंचा! जैसे ही खिड़की पर आया, एक बीडीं का भभका मेरे नथुनों से टकराया!
"हावड़ा!'' कहा मैंने,
"चालीस मिनट बाद है!" बोला वो, तुड़े-मुड़े से कोट वाला, कोई पचास का रहा होगा, कानों के पास बाल थे और वो भी चमेली का तेल सा चिपुड़े हुए, बाक सर, चमक रहा था!
"हां, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
मैंने पैसे बढाये, उसने लिए, और पंचिंग-मशीन में एक टिकेट दबा कर, मेरी तरफ बढ़ दिया! मैंने झट से जेब में रखा और खुले पैसे, हाथ से उठा लिए, और देखने लगा कोई बैठने की जगह!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक जगह दिखी, चल दिया वहीँ! ये एक खम्भे का चबूतरा ही था, बैठने के लिए बढ़िया जगह थी, सो बैठ गया वहीँ, और सामान सामने ही रख दिया, सामान, वही मेरा वो बैग! सामने की पटरियां दिख रही थीं, उनमे से एक पटरी, मुझे ले जाती, जहां मेरी ये 'सुलगन' ख़तम हो जाती! हवा नहीं थी, आसपास लगे पेड़-पौधे, सब शांत ही खड़े थे, मेरे बाए में पीछे की तरफ शायद पार्सल-गोदाम था, हाथ ठेलियां खड़ी थीं, उन पर सामान लादा जा रहा था, उस गोदाम के किनान में, कुछ बेलें लगी थीं, कुछ तोरई तो मैं देख पा रहा था, उनसे पीले से फूलों में, कुछ बर्रे आदि आ उलझे थे! कुल जमा ये, कि दिन की शुरुआत हो चुकी थी!
"चाय?" एक लड़का आया, और पूछा,
"है, दे दे!" कहा मैंने,
उसने झट से कुल्हड़ निकाला और चाय डाल, मेरी तरफ बढ़ा दी, मैंने खुले पैसे दिए और चाय ले ली! पहली चुस्की ली, ये चाय तो बढ़िया थी! ताज़ा बनाई गयी थी! चाय का मजा लेने लगा मैं! सामने वाले ट्रैक के पास, दो साधू बैठे थे, साधू कम और स्वाधू ज़्यादा लगते थे, अपने कमण्डल में रखी बीड़ियाँ निकाल, धुंआ-पानी का मजा ले रहे थे! बात बात पर हंस देते और फिर, कोई गम्भीर विषय आ गया हो, ऐसे गम्भीर भी हो जाते थे! मेरे पास ही, एक झबरा सा कुत्ता आ कर बैठा, थका-मांदा सा लगता था, शायद रात भर जहां लेटा रहा था, या कच्ची नींद में था, भगा दिया गया था, ये जगह ठीक थी उसके लिए, सर टिका आराम से सो गया था!
तभी दूसरी लाइन का सिग्नल-डाउन हुआ, और उधर स्टेशन-मास्टर के कमरे के बाहर एक लोहे की रेल-पटरी जो टँगी थी, उसकी घण्टी सी बजा, इत्तला कर दी गयी! यात्री इकठ्ठा होने लगे एक एक करके! और दूर से एक गाड़ी आती दिखाई दी! बड़ी ही ख़ुशी हुई! ये उस शहर से आ रही थी, जहां मुझे जाना था, और कुछ ही देर में वो गाड़ी उस प्लेटफॉर्म पर आ लगी! मैं उसको देखता रहा! मौसम साफ़ होगा वहां! बारिश नहीं होगी! यही देखा मैंने उसके डिब्बों की छत को देखते हुए! कुल पन्द्रह मिनट वो रुकी, और सिग्नल हुआ, उस तरफ से शायद हरि झंडी दिखाई गयी और गाड़ी चल दी आगे! और ओझल होने में देर न लगी उसे! फिर से सन्नाटा छा गया! वो दोनों साधू, निकल लिए थे उस गाड़ी में ही! अब बस! मेरी गाड़ी का ही इंतज़ार था, दस मिनट ही रह गए थे! मैं तैयार था! ऐसे जैसे फौरन ही लपक लूंगा गाड़ी को! उसमे घुसने के लिए! अब तक कुछ और लोग भी आने लगे थे वहां, हाथ-ठेलियां चल पड़ी थीं, सामान लादने के लिए उसमे!
और फिर वही, घण्टी सी बजी! कुछ ही देर में, गाड़ी आने को थी! मैं आगे तक गया, पटरी की तरफ जाते हुए, उस दिशा में देखा, दूर से आ रही थी मेरी ही गाड़ी! मैं प्रसन्न हो उठा! बैग, कंधे पर डाल लिया और अब इंतज़ार!
थोड़ी ही देर, और गाड़ी आ गयी, चर्र करते हुए उसके ब्रेक लगे, मैं एक दरवाज़े के पास आ खड़ा हुआ था, कुछ लोग उतरे और फिर मैं, सबसे पहले ही, उस वृद्धा के बाद चढ़ गया था! आगे चला तो सीट खाली दिखाई दीं! फौरन ही, खिड़की वाली सीट हथिया ली! सामान, सीट के नीचे सरका दिया! कुछ और भी लड़के आ बैठे वहां! और कुछ मध्यम आयु के पुरुष भी, स्त्री भी!
करीब बीस मिनट बाद, गाड़ी ने झटका खाया और हम आगे बढ़े! मेरा दिल धड़क गया तेज! मैं जा रहा हूँ! शहर वापिस! तीन तक पहुंच जाऊंगा! हावड़ा उतरूंगा और उधर खाना खाऊंगा! और फिर, टैक्सी पकड़ चल पडूंगा!
"थोड़ा आगे हो जाएंगे?" बोला एक लड़का,
"जगह ही नहीं!" कहा मैंने,
"बस एडजस्ट!" बोला वो,
"हां, कोशिश करता हूँ!" कहा मैंने,
और हो गया मैं एडजस्ट, वो आराम से बैठ गया फिर!
"कहाँ तक..जा रहे हैं?" पूछा उसी लड़के ने,
"कोलकाता, आप?" पूछा मैंने,
"मैं भी!" बोला वो,
"वहीँ रहते हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"कहाँ? किस तरफ?" पूछा मैंने,
"मैं सरकारी अस्पताल में वार्ड-बॉय हूँ, दो सालों से, वहीँ एक छोटी सी जगह है, काट रहा हूँ टाइम!" बोला वो, लड़का,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और आप?" बोला वो,
"मैं अभी स्टूडेंट हूँ, पार्ट-टाइम में एक वकील साहब के यहां नौकरी करता हूँ, रहता वहीँ एक अच्छे से इलाके में हूँ! दक्षिण में!" कहा मैंने,
"अच्छा! ये तो बढ़िया है!" बोला वो,
"हां, है तो!" कहा मैंने,
और ट्रेन ने, तभी एक सीटी दी, वो घूम रही थी, उसके डिब्बे दीख रहे थे मुड़ते हुए! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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डिब्बे घूमे, इंजन से उड़ता धुआं दिखाई दिया और एक पुल भी, साथ से गुजरा, इंजन की दहलाती हुई सीटी की आवाज़, उस खाली स्थान में, गाड़ी के पीछे तक दौड़ती आ गयी! उसको देख पता चलता था कि मैं आगे बढ़े जा रहा हूँ! बाहर का मौसम साफ़ था, हां धूप निकली तो थी, लेकिन धूप में वो जलाल नहीं था शुमार! वो जैसे नीम-बेहोशी में पड़ी थी! पास आता एक केबिन दिखाई दिया, रेलवे के रंग में ही रंगा हुआ, वो भी निकल गया! नीचे लाइन की आवाज़ और उस गाड़ी के पहियों की आवाज़, दोनों ही मिल कर जैसे मेरे ही रस में रसलीन हुई, हुई थीं! पल पल मैं करीब, और करीब हुए जा रहा था!
"अभी से ये हालत है वहां कि जगह भी नहीं बचीं!" बोला वो लड़का,
"हां, अब बहुत भीड़ होने लगी है!" कहा मैंने,
"दो साल पहले तक, इतना शोर नहीं हुआ करता था!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, तब ऐसी आपाधापी नहीं थी, अब तो लोग ज़्यादा और साधन कम!" बोला वो,
"और आगे न जाने क्या हो!" कहा मैंने,
"सही कहा आपने!" बोला वो,
"अब बात भी सही है, गांव-देहात में कोई कॉलेज भी तो नहीं?" कहा मैंने,
"हां, अभी तो नहीं है, हो जाएंगे!" बोला वो,
"हां, तब शायद ये भीड़ भी कम हो?" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
गाड़ी ने गति पकड़ ली और हिचकोले सी खाने लगी! मुझे बड़ा ही सुकून मिलने लगा था कि मैं, जल्दी से जल्दी वहां पहुंच जाऊंगा!
"मेरे बड़े भाई तो भुवनेश्वर चले गए!" बोला वो लड़का,
"अच्छा? क्या करते हैं?" पूछा मैंने,
"इंजीनियर हो गए हैं!" बोला वो,
"बहुत ही बढ़िया! आपने कोशिश नहीं की?" पूछा मैंने,
"क्या करता भाई साहब! नसीब भी कोई चीज़ है!" बोला वो,
मुझे अचानक से अपने ऊपर फ़ख्र सा हुआ! हां बात तो सही ही की इस लड़के ने!
"हां! ये बात तो है!'' कहा मैंने,
"अब तो शादी के बाद, उनका पूरा परिवार वहीँ रहता है!" बोला वो,
"ठीक भी है!" कहा मैंने,
और तब गाड़ी धीरे हुई, कोई स्टेशन नज़दीक़ ही था तब! रुकते-रूकाते गाड़ी, रुक गयी एक स्टेशन पर! गाड़ी रुकी तो सामान बेकने वाल एभी घुस आये, झाल-मुड़ी, मछला-मुड़ी(यही बताया था मुझे, डायरी पढ़ने में मदद करने वाले साथी ने) चने, दाल आदि आदि! कुछ न लिया था, रात को जो बनाया था घर में, तड़के गर्म कर वही खा कर चल दिया था मैं!
और फिर गाड़ी ने सीटी दी! चल दी आगे! मैंने ऊपर देखा, एक बर्थ खाली था, सो चढ़ गया उस पर, चादर-खेस कुछ नहीं लिया, बस अपना तौलिया ही, सिरहाना बना लिया! वहां, अरुमा के बारे में, सोचे जाऊं! कैसी खुश होगी वो! ओफ़्फ़्फ़्फ़! तभी ध्यान आया मुझे कुछ! मैं घर से, उसके लिए तो कुछ लाया ही नहीं? अब कुछ मांग लिया किसी ने भी तो? मैं तो जल्दबाजी में, कुछ भी न लाया! ख़याल! उठें सवाल! जवाब दूँ मैं उनका! कई चिपक जाएं तो कई, अपनी राह चले जाएं! इसी ख्यालबाजी में, नींद लग गयी मेरी! 
कुछ पल, मेरा दिमाग, आसपास ही घूमता रहा कुछ देखा, सपना ही होगा, और फिर, कुछ ही देर में, मैं, उस मकान के सामने खड़ा था! कितना प्यारा सपना था वो मेरा!
"किशन?" आवाज़ दी मैंने,
किशन दौड़ा चला आया उधर! हाथ रखे सर पर, मुंह से अंगोछा पकड़े! धोती सम्भाले और लाठी वहीँ रखते हुए, दौड़ता हुआ आ गया!
"अरे ज्ञान बाबू!" बोला वो,
और दरवाजे की सांकल खोल दी उसने झट से ही! मेरे कन्धे से लटकता हुआ बैग उतार लिया!
''आओ! आओ ज्ञान बाबू!" बोला वो,
और फौरन ही, अंदरूनी दरवाज़े की तरफ बढ़ा! मैं भी चला संग उसके, आसपास देखा, सबकुछ वैसा का वैसा ही!
"हां जी?" बोला घर में घुसते ही वो,
मेरा बैग रख दिया उस सोफे पर!
"बैठो ज्ञान बाबू! मैं पानी लाया अभी!" बोला वो, और तेजी से चला रसोईघर की तरफ!
"हां जी? टिकेट?" आयी आवाज़ मुझे!
"टिकेट?" फिर से आवाज़ आयी! और मेरी नींद खुली! पलटा मैं, नेह टिकेट-चैकर खड़ा था, एक छोटी सी डायरी सी लिए! मैं सीधा हुआ, जेब में उंगलियां डालीं, और टिकेट निकाल लिया, बढ़ा दिया उसकी तरफ..


   
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