ज्ञान बाबू की डायरी...
 
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ज्ञान बाबू की डायरी, वर्ष १९८७....

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श्रीशः उपदंडक
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मैं रुका ज़रा, उसको देखा, वो मेरे पीछे ही थी, सांकल हालांकि मैं तब खोलता जब वो इशारा करती, लेकिन सबब क्या था? किस वजह से बाहर चलूं मैं? कहाँ ले जा रही थी वो मुझे?
"कहाँ?" पूछा तब मैंने,
"दरवाज़ा तो खोलो?" बोली वो,
मैंने सांकल हटा दी दरवाजे की, दरवाज़ा, खचर की आवाज़ करते हुए खुल गया, एक पाट अंदर और एक पाट बाहर!
"चलो?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"अरे चलो तो ज्ञान?" बोली वो,
"चलो जी!" कहा मैंने,
और उसे रास्ता दे दिया आगे जाने का! वो गयी आगे, मेरा हाथ पकड़ा और मुझे जैसे खींचा उसने, मैं उसकी तरफ ही चला फिर! वो चली और उस मकान के ही बाएं में बने, उस तहखाने वाले दरवाज़े पर आ गयी!
"आओ?" बोली वो,
अब वहां घुप्प अँधेरा!
"वहां?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"क्यों भला?" पूछा मैंने,
"अनीता ने नहीं बुलाया?" बोली वो,
मेरे चेहरे का रंग उड़ा! ज़र्दी सी चढ़ी! अब इसे कैसे मालूम? अब बचानी थी लँगोट अपनी! नहीं तो लँगोट फ़टे ही फ़टे!
"अनीता ने?" मैंने करवट बदली फौरन ही!
"हाँ? बुलाया था न आज?" बोली वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"अब ज़्यादा न बनो ज्ञान?" बोली वो,
"ज़्यादा? मतलब?" पूछा मैंने,
"तुमसे मना किया था न?" बोली वो,
"क्या मना?" पूछा मैंने,
"उस से दूर रहने को?" बोली वो,
"अब वो खुद आये तो क्या भगा दूँ?" कहा मैंने,
"नहीं भगा सकते?" बोली वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"वो क्यों! हम्म! समझ गयी मैं!" बोली वो,
"क्या...क्या समझ गयीं आप?" पूछा मैंने,
"तुम्हें मजा आता है न?" बोली वो,
"म....जा?" मैंने मुंह बिचका के पूछा! जानता तो था ही!
"आओ? आओ ज़रा?" बोली वो गुस्से से और मुझे खींच कर ले चली अपने मकान में! हाथ नहीं छोड़ा मेरा! ग़ज़ब की ताक़त थी उसके हाथों में!
"आओ?" बोली गुस्से से,
ले आयी थी अपने कमरे में मुझे, हैरत की बात ये कि कोई नहीं था वहां, जिसके कारण मैं 'लोक-लज्जा' से बच ही पाता!
"बैठी इधर?" बोली वो, अभी भी गुस्सा थी वो!
"ज्ञान?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"क्या चाहिए तुम्हें?" पूछा उसने,
"म...तलब?" अब मेरे हुए गाल लाल!
"बताओ?" बोली वो,
और बैठ गयी मेरे पास ही! मुझे मेरी आँखों में देखा! उसकी आँखें अनीता से बेहद ही प्यारी थीं! बेहद ही प्यारी! कभी वो इस दीद देखे, कभी उस दीद! और अचानक ही, मेरे सर को पकड़ झुका लिया! और अपने होंठ मेरे होंठों के दरम्यान रख दिए! मुझे हल्के से मिंट-फ्लेवर की सी गन्ध आयी! अब मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी! अपनी ज़ुबान से टटोल ही मारा उसका पूरा मुंह!
इतना ही नहीं, मैंने उसको जोश में उठा ही लिया था! उसकी साँसें तेज हुईं तो मेरी दोगुनी! और फिर, पल भर में ही मैं 'ढीला' पड़ गया! चुपचाप बैठ गया, शायद वो समझ गयी थी! वो भी उठ कर चली गयी, हल्की से मुस्कुराहट लेने के बाद! मैं किसी तरह से ऊपर तक आया और साफ़-सफाई की! पता नहीं कैसे धोखा खा जाता था मैं बार बार! तीर कभी निशाने पर लगता ही नहीं था मेरा तो!
अपने कमरे में लौट आया! और जो हुआ था, सोचने लगा उसके बारे में ही! सामने ही मेरी एक किताब पड़ी थी, मुझे मुंह चिढ़ा रही थी!
"ज्ञान?" आयी फिर से आवाज़,
"हाँ, अरुमा?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
"आ जाओ!" कहा मैंने,
नज़रें नहीं मिलाईं, जैसे मेरी इज़्ज़त का फलूदा बना हो उसके सामने!
वो अंदर आ गयी और बैठ गयी! मैंने अपनी वो ही किताब उठा ली, दिखाने लगा कि मेरे पास, यही सबसे अहम काम है, और दूसरा तो बस टाइम-पास!
"यू आर सो हॉट!" बोली वो,
मेरा हाथ पकड़ लिया था! जोश फिर से चढ़ने लगा था! हाथों की नसों में खून फिर से तेज बहने लगा था, वो उन्हें ही ऊँगली से दबा रही थी!
"एम आई?" मैंने खाली स्थान भर फौरन ही!
"यस! ओ यस!" बोली वो,
और मेरा हाथ पकड़ा, उठाया थोड़ा सा, आगे हुई, और मैं अंदर से झटका खा पीछे को हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं क्या कहूँ या क्या कहता! वैसे मुझे अपने ऊपर फ़ख्र तो था! यहां मेरी उम्र में, किसी को एक 'पौनी' भी नसीब नहीं होती और यहां मेरे नसीब में दो दो! ये मेरा काम बोल रहा है! मैं नहीं! मैं तो गाँव का एक देहाती सा ही युवक हूँ! वो युवक, जब गाँव में, यारों दोस्तों में कोई ऐसी वैसे 'रंगीन-किताब' मिल जाती तो पता नहीं कैसे कैसे जतन करने पड़ते थे एक नज़र भरने के लिए! कह नहीं सकता, विश्वास दिलाना चाहूंगा, वो 'रंगीन-किताब' का 'मर्द' किरदार, मैं स्वतः ही बन रहा होता, अपनी आँखें बन्द किये! वो दिन याद करता हूँ और एक ये दिन! पहले तो कहता था कि पता नहीं ईश्वर ने कौन सी, टूटी-घिसी कलम से नसीब का ये 'भाग' लिखा है! लेकिन अब मैं जाना! ये वो कल तो हो ही नहीं सकती! यहां तो बिन जले ही आग, और बिन सोचे ही झाग! सब तैयार हो जाते हैं!
"ज्ञान?" बोली वो,
"हाँ?" इस बार मैं कुछ अपना वो हिस्सा आगे करते हुए बोला! फख्र से!
"तुम सच में ही कमाल हो!" बोली वो,
"अच्छा?" पूछा मैंने,
"हाँ! सच!" बोली वो,
"अभी करीब आयी ही कहाँ हो?" बोला मैं हंसते हुए,
"मुझे तो मार ही डालोगे न!" बोली वो,
"मार? तार तार!" बोला मैं,
मैं अपने शब्दों से उस पर चाबुक से तोड़े जा रहा था, मैं, मैं ही हूँ, एक दर्शनशास्त्र का, मेधावी विद्यार्थी! मुझ सा भला और कहाँ!
"वो दिन आएगा?" बोली वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"कब ज्ञान?" बोली वो, मादक से अंदाज़ में!
"जब चाहो!" बोला मैं,
अब शान की बात थी, शान दिखाई नहीं तो क्या फायदा!
"कब?" बोली वो,
"मैं गाँव से लौट आऊं!" कहा मैंने,
"पक्का फिर?" बोली वो,
"हाँ, पक्का!" कहा मैंने,
अरे वाह रे शेर! शिकार तेरे सामने और तैयार! ऐसी किस्मत भला किसकी होगी? किसी किसी पर भगवान ज़्यादा ही मेहरबान होता है, मैं तो उसका सबसे बड़ा, ज़िंदा और सामने ही खड़ा था!
"वायदा?" बोली वो,
"कोई ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"तभी तो?" बोली वो,
"कहा तो?" कहा मैंने,
"वायदा क्यों नहीं?" मुंह बनाते हुए बोली वो,
"यक़ीन क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"बहुत तेज हो!" बोली वो,
"आप भी कम नहीं!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो वायदा?" बोली वो,
"किसलिए?" अब मैंने थोड़ा खीझ कर पूछा,
"यक़ीन हो जाता है!" बोली वो,
"वैसे नहीं?" पूछा मैंने,
"है..लेकिन ज्ञान..." बोली वो,
"क्या लेकिन?" पूछा मैंने,
"भूल जाओ कहीं?" बोली वो,
"और मैं? भूल जाऊँगा?" पूछा मैंने,
"कोई बरगला दे?" बोली वो,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"यहां आना सीधे!" बोली वो,
"हाँ, सीधे ही!" कहा मैंने,
"चाहे कुछ भी हो?" बोली वो,
"कुछ भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, चाहे कोई भी रोके?" बोली वो,
"रोके? कौन रोकेगा?" पूछा मैंने,
"तुम नहीं जानते ज्ञान!" बोली वो,
"बताओ क्या?" पूछा मैंने,
"तुम कुछ नहीं जानते मेरे बारे में!" बोली वो,
"उस से क्या लाभ?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
और उठ गयी, शायद कुछ अंदर ही अंदर महसूस किया था उसने, तेजी से लौटी वो वापिस जाने के लिए!
"अरुमा?" कहा मैंने,
और उसके पीछे चला मैं, लेकिन वो तो जैसे उड़ गयी थी वहाँ से, एक पल में ही! मैंने आसपास झांक कर देखा, कोई नहीं!
"ज्ञान बाबू?" आयी आवाज़,
हाथ में एक स्वेटर लिए ये सविता जी थीं!
"जी?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"जी कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"कुछ तो? लगता तो यही है?" बोली वो,
"जी नहीं, कुछ भी नहीं!" जवाब दिया मैंने भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यहां तो आइये ज़रा?" बोलीं वो,
"जी? यहीं हूँ?" कहा मैंने,
"अरे अंदर आइये तो?" बोली वो,
"अंदर राजेश जी नहीं?" पूछा मैंने,
"उन्हें क्या मतलब! आइये आप!" बोलीं वो,
और मैं उनके पीछे चला, मकान का ये ही हिस्सा था जो नहीं देख पाया था मैं, दरअसल ये एक कमरा था, इसी कमरे में से बाएं हाथ पर एक कमरा और था, यहीं से रास्ता था उस अंदर के कमरे में!
"आइये ज्ञान बाबू!" बोलीं वो,
"जी, धन्यवाद!" कहा मैंने,
"आप यहां बैठिए, इत्मीनान से!" बोलीं वो,
इत्मीनान से तो नहीं, हाँ, कुछ आराम से ज़रूर बैठा मैं उधर बिछी एक कुर्सी पर!
"पानी पियोगे?" पूछा उन्होंने,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
उस परिस्थिति में तो पानी ही नहीं पता नहीं क्या क्या पी लिया जाए! खैर, पानी के लिए तो हाँ कर ही दी थी, सो वो पलट कर चल दी थीं पानी लाने के लिए! मैंने कमरे में आसपास निगाह डाली, पेंटिंग्स लटकी थीं, कुछ मूर्तियां भी छोटी छोटी सी, कुल मिलाकर, कलात्मक रूप दिया गया था कमरे को! ऊपर देखा तो पोलर कम्पनी का पंख लगा था, आजकल धूम मची है इस कम्पनी की, गाँव में भी ले जाना था मुझे, लेकिन अभी वक़्त था मेरे पास!
"ये लो ज्ञान!" आ गयीं वो, और दे दिया वो पानी मुझे, सुगन्ध से वो मुझे पानी नहीं लगा था, मैंने उनकी तरफ देखा, वो मुस्कुराईं!
"गुलाब-शर्बत है!" बोली वो,
"अच्छा! शुक्रिया!" कहा मैंने,
और मैंने दो घूँट भरे उस शर्बत के! बढ़िया शर्बत बनाया था सविता जी ने!
"आप बैठिये न?" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं, सारा दिन तो बैठे ही कट जाता है!" बोलीं वो,
"राजेश जी कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"आज वो दोपहर से ही बाहर हैं!" बोलीं वो,
"बाहर? कहाँ?" पूछा मैंने,
"वो डॉक्टर साहब के साथ!" बोलीं वो,
"अब तो रात हुई? कब तक आएंगे?" पूछा मैंने,
"अब सुबह ही आएंगे, बता के गए थे!" बोलीं वो,
और मैंने शरबत खत्म किया अपना, रखने से पहले ही, गिलास को, उन्होंने पकड़ लिया और रख दिया उस छोटी सी, इतालवी-डिजाईन की टेबल के कोने पर!
"किशन बता रहा था कि परसों गाँव जा रहे हो आप?" पूछा उन्होंने,
"जी, हाँ!" कहा मैंने,
"ऐसे ही या कुछ काम है?'' पूछा उन्होंने,
"काम तो क्या जी, बस गाँव की याद आ रही है अब, पिता जी और छोटे भाई की याद आती है बहुत!" बोला मैं,
"ये बात तो है!" बोलीं वो,
"जी!" कहा मैंने,
"यादें ही तो हैं एक इंसान के पास, और क्या?" बोलीं वो,
"जी हाँ!" कहा मैंने,
"और अनीता बता रही थी कि आप पसन्द करते हो उसे!" बोलीं वो,
अब मैं फंस गया! मुझे तो यहां के रिश्ते-नाते, मुंहज़ुबानी ही पता थे!
"जी जी है, अच्छी हैं अनीता जी!" बोला मैं,
"तब क्यों उस बिन माँ की लड़की के झांसे में आते हैं ज्ञान बाबू?" बोलीं वो,
"बिन माँ की?" मैंने हैरत जताई ये उत्तर जानने के लिए!
"अरे हाँ? वो अरुमा?" बोलीं वो,
"बिन माँ की हैं वो?" पूछा मैंने,
"हाँ, कौन माँ?" बोलीं वो,
"मुझे बताया गया था कि अनीता जी की माँ की मौत हो चुकी है?" मैंने अब सच कहा,
"किसने बताया?" पूछा उन्होंने,
"शुरुआत में ही बताया था...." मैं उत्तर देते हुए गड़बड़ा गया थोड़ा,
"उसी *** ने बताया होगा?" बोलीं वो,
"उन्होंने तो नहीं!" अब ऐसा कह कर, मैंने अरुमा का पक्ष लिया!
"अच्छा छोड़िये, जाने दीजिये!" बोलीं वो,
जान बची! मामला खत्म हुआ!
"और सुनाइये!" बोलीं वो,
"सब बढ़िया!" कहा मैंने,
"गाँव में है कोई राह तकने वाली?" पूछा उन्होंने, हंस कर!
"नहीं जी, कोई नहीं!" कहा मैंने,
"फिर इस जवानी का क्या फायदा!" बोलीं वो,
अब...लगने लगा मुझे डर! आशंका से मेरी तो चड्डी ढीली होने लगी! कहीं ऐसा हुआ, कहीं वैसा हुआ, तो???
"जी मैं तो विद्यार्थी हूँ!" कहा मैंने,
"तभी खिड़की से वो सब...वो ही सब....देखते हो?" बोलीं वो, मुस्कुराते हुए!
"खिड़की? वो सब? नहीं समझा मैं जी?" कहा मैंने, हाथों के पीछे के समुद्र को उँगलियों से ढक रहा था, ज़रूरी भी था!
"झूठ?" बोलीं वो,
"नहीं जी?" कहा मैंने,
"ओहो! झूठ!" बोलीं वो,
और मेरी जांघ, बायीं जांघ पर, कुछ लिखने लगीं! मुझे पटाखे से फूटने जैसे आवाज़ें आने लगीं कानों में मेरे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आ जाया करो!" बोलीं वो,
आ जाया? कहाँ?
"कहाँ सविता जी?'' पूछा मैंने,
"जी न कहो ज्ञान!" बोलीं वो,
"आप बड़ी हैं!" कहा मैंने,
"इतनी भी नहीं!" बोलीं वो,
और सरक कर, मेरी बायीं जांघ पर आ गयीं वो! ओहो! उनका तो पूरा 'सिस्टम' ही बहुत हैवी था! कहाँ मैं और कहाँ वो!
वो इस तरह से मुझ से सट कर बैठी, कि मेरी तो आँखें ही फट के रह गयीं! मैं तो अनीता को देखा, चीर-चीर चिल्ला रहा था, यहां तो पूरा ही चीरा था! सिलीगुड़ी की पहाड़ियों जैसा! एक बार ही जाना हुआ था, लेकिन ये दृश्य देख, मुझे अनायास ही वो याद हो उठा!
"बोलो ज्ञान?" बोलीं वो,
"क्या?" मैंने सांस छोड़ते हुए पूछा!
"आओगे?" पूछा उसने,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"नीचे!" बोलीं वो,
"नीचे?" मैंने थूक गटका फौरन ही!
"बाकी मैं जानूँ!" बोली वो,
"लेकिन, मैं....." कह ही नहीं पाया अगला शब्द, उसने मेरे उस स्थान पर, हाथ रख दिया था! मैं तो कहीं पिचका सा गुब्बारा बन उड़ ही न जाऊं, जम कर बैठ गया कुर्सी पर!
"ज्ञान बाबू!" बोलीं वो,
"ज..जी?" कहा मैंने,
आँखें बन्द, और 'कुछ' बार बार खुले!
"साफ़ बता रहे हैं हम, सुनिये!" बोलीं वो,
साफ़? क्या साफ़? अरे मैं कहाँ सरकंडा और वो कहाँ कटहल का पेड़? क्या मुक़ाबला? कहीं एक 'सिलगुड़िया' के नीचे आ जाता तो जान पर ही बन आती!
"ज...बताइये?" पूछा मैंने.
"हम जब तक, सेक्स नहीं कर लेते, हमारा बदन खुल नहीं पाता! बदन में जब तक कांटे से न चुभें तब तक कोई फायदा नहीं!" बोलीं वो आखिरी शब्द कुछ शर्माते हुए!
और मैं वो शब्द सुन, हुआ खड़ा! मुझे लगा कि मेरी कमर में रस्सा बाँध दिया गया है! और खींचा जा रहा है लगातार!
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"जाना है!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"पढ़ने!" कहा मैंने,
"अब पढ़ाई का वक़्त है?" पूछा उसने,
"जी, इसी वक़्त पड़ता हूँ मैं!" बताया मैंने! हाँ, इन सवाल-जवाब में, मैंने उन्हें नहीं देखा था एक बार भी!
"अब कई वक़्त दूसरा है ज्ञान बाबू!" कहा उसने उठते हुए!
"मेरे लिए तो यही है!" कहा मैंने,
"मेरे लिए नहीं?" बोलीं वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"कुछ मांग रही हूँ न?" बोली वो,
"क...क्या?" ये बोलते हुए, मेरी पीपनी से बजी!
"सब जानते हो!" बोली वो,
और खींच कर मुझे अपने से लगा लिया! उसके भारी-भारी अंगों ने छुआ जैसे ही, कि मुझे चक्कर सा आने लगा!
"आओगे?" बोली दबाते हुए, भींचते हुए,
"कह नहीं सकता!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"पढ़ाई! बताया न?" कहा मैंने,
"उम्र पड़ी है!" बोलीं वो,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"तुम जानते हो? मुझ से ज़्यादा?" बोली वो, मेरे कांपते हुए से कन्धों को अंदर धकेलते हुए!
"न.... नहीं...आप जितना तो नहीं...." कहा मैंने,
"आओ तो सही!" बोली वो,
और मेरी जाँघों के बीच में ज़बरदस्ती अपने बाएं हाथ से जगह बना ली! उफ्फ्फ्फ़! ऐसी सजा?
"बोलो?'' बोलीं वो,
मुझ से कुछ बोला ही न गया! चाह कर भी!
"जवानी की क़दर करना सीखो ज्ञान बाबू!" बोली वो,
और ज़ोर से दबा दिया मुझे उधर, गलत जगह दबा तो मैंने एक देह का 'अधिक-कोण' सा बना लिया!
"आओगे?" पूछा उसने,
"ह......." मेरे मुंह से निकला तभी!
उसने एक बार और खींचा मुझे अपनी तरफ और हाथ निकाल लिया बाहर! अब ऊपर से मेरी पैंट, बेल्ट से पकड़ ली, और हिला दिया मुझे पूरा का पूरा!
"साढ़े ग्यारह!" बोलीं वो,
और छोड़ दिया मुझे! मैं जैसे होश में तो आया लेकिन अँधेरे में! ऐसा ही लगा था मुझे! ये स्त्री है या कोई डायन? ऐसे औरतें भी होती हैं संसार में? मैंने तो नहीं सुना था? ये तो मेरी बोटी-बोटी, छोटी-मोटी-बोटी, सब हलाक़ कर, चूस जाती! मैं तो निचुड़े कपड़े के समान काँप रहा होता! इसीलिए डर गया था बहुत! यहां से निकलूं तो जान बचे और कह दी मैंने....


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और जैसे ही हाँ कही मैंने, मैं हुआ तीर वहाँ से! आज तो इज़्ज़त बच गयी थी, लेकिन खतरा तो बन ही गया था अब! अनीता और अरुमा से तो मैं निबट ही लेता, लेकिन इस बवालन औरत से कैसे पार पड़ती मेरी! उठा उठा, लिटा लिटा, बैठा बैठा ही फटकार देती मुझे तो! जान पर और बन आती! तो मैं भाग आया अपने कमरे में! दिल ज़ोरों से धड़क रहा था! मैंने आते ही, झट से कमरा, अंदर से बन्द कर लिया! अब कोई लाख पुकारे मैं नहीं जाने वाला था! इस सब गुल-गपाड़े में, मेरी पढ़ाई भी नहीं हो पा रही थी, तीन माह होने को आये थे, लेकिन तीन अध्याय भी पूर्ण नहीं किये थे! किसी और ही पढ़ाई में फंस के रह गया था मैं तो!
उस रात आँखों में नींद नहीं थी, पहली बात कम्पन्न महसूस की थी मैंने 'वहाँ' जैसे आज कुछ बलिदान करने की घड़ी आने वाली थी! चलो एक बार को सोचा भी जाए तो मैं तो कहीं नहीं टिकता था उसके सामने? मैं ठहरा अदना सा खिलाड़ी, वो खिलाड़ी जो अभी तक तो खेला भी नहीं था कोई खेल! और फिर उसके अंग थे? दम घोंट के ही मार देती उसकी एक करवट मुझे तो!
तो मैं चुपचाप, डरा, सहमा सा अपने बिस्तर में घुसा लेटा था! बाहर क्या हो रहा है, मैं ध्यान नहीं दे रहा था! हाँ घड़ी पर नज़र ज़रूर बनाये हुए था, और अभी बस कोई सवा घण्टा बीतना बाकी था! उसके बाद जो हो सो हो! एक बार नींद आ जाए तो फिर नहीं जागूँ मैं!
उसी रात...साढ़े ग्यारह बजे....
मेरी नींद अपने आप ही खुल गयी! मुझे तो सच में ही भय सताने लगा! सोचा, अरुमा आ जाए तो उस से ही बातें करूँ, कम से कम उस औरत से तो प्राण बचें मेरे! लेकिन उस समय तो सन्नाटा पसरा था, मेरी दीवार-घड़ी की कट-कट ही मेरी जान लिए जा रही थी! सर्द सी उस रात, पेशानी पर पसीना आ गया! उस रात, मेरे मन में न जाने क्या क्या आया! आया की किस मुहूर्त में मैंने ये मकान किराए पर लिया था? क्या यही मकान मिला था? और मकान नहीं थे क्या? पढ़ाई ही तो करनी थी, हॉस्टल में ही रह लेता? मति पर पत्थर पड़ गए थे मेरे!
"ज्ञान?" आयी आवाज़!
और मैं बैठ कर दुल्लर हुआ! काँप सा गया! बाहर देखने की भी हिम्मत नहीं की मैंने तो! हाँ, उत्तर कोई नहीं दिया! उत्तर देता तो मेरी ही बात पकड़ ली जाती, और ये वो जगह थी, जहां आपकी तो हरगिज़ नहीं चलती!
"आओ ज्ञान?" आयी आवाज़!
कैसी निर्लज्ज औरत है? घर में और भी लोग हैं, फिर भी काम-सुख के लिए, मरे जा रही है? शर्म खत्म हो गयी अब ज़माने से, सच ही सुना था मैंने कि शहरों में, चरित्र मात्र धनाड्य नाम का ही रहता है, गुणों का नहीं! गुणों वाले तो सदा से ही डरते रहे हैं, मेरी तरह! अब मैं नहीं चाहता तो ज़बरदस्ती हो रही है! क्या करूँ मैं?
"ज्ञान?" आयी फिर से आवाज़,
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया इस बार भी!
"तुम जागे हो, है न?" आयी आवाज़, अब तो मैं जान ही गया था कि ये वही औरत है तो आज मेरा शिकार कर के ही मानेगी!
''तैयार हो जाओ, मैं आती हूँ!" बोली वो,
आती हूँ? कहाँ? यहां? हे भगवान! बचा ले!
अरे हाँ! एक काम करता हूँ! समझा दूंगा मैं, ज़ाहिर कर दूंगा मंशा अपनी! और कल ही, हाँ, अब और देर नहीं, कल कॉलेज से आते ही, अपना सारा सामान उठाता हूँ, किशन को देता हूँ हिसाब और नौ दो ग्यारह! बस जी! हो गयी बहुत! जान बचेगी तभी तो पढ़ाई होगी? नहीं तो यहां कोई पढ़ाई नहीं होने वाली! समझ गया हूँ मैं! यहां तो हमाम है खुला, आओ, नंगे नहाओ और चले जाओ, फिर से लौट आओ! लेकिन अब? अब कैसे समझाऊं?
बड़ी ही हिम्मत करी मैंने! दरवाज़े में से झाँक कर देखा, कोई नहीं था, बाहर आया, तो नीचे से, खुट्ट-खुट्ट की सी आवाज़ आयी! सोचा, दौड़ कर अरुमा को बुला लाऊं! वो महंगी नहीं पड़ेगी, लेकिन ये औरत मिल गयी तो आज लंगोट हुई तार तार! मैं चुपचाप नीचे की तरफ चला, सीढ़ियों की बगल से नीचे देखा! ये क्या? सविता तो, उस सोफे पर, डॉक्टर की गोद में बैठी थी? एक पल को झटका खाया मैंने! ये डॉक्टर कहाँ से आया इस वक़्त? और अगर कुछ करना ही है तो खुले में क्यों? अरे अंदर कमरे में ही क्यों नहीं? खोपड़ी में से तेल चू आया मेरी तो! यहां हो क्या रहा है?
"ज्ञान?" आयी आवाज़ मेरे पीछे से,
हल्की सी रौशनी में कोई खड़ा था उधर, थी कोई औरत ही, आवाज़ से जान न सका मैं कि कौन है वो?
मैं खड़ा हुआ, और उस साये को देखा!
"कौन?" पूछा मैंने,
"सविता!" बोली वो,
और चलते हुए आगे आयी! सविता? तो नीचे? मैंने फौरन ही झाँक कर देखा नीचे! कोई भी नहीं था वहां अब? अब तक सविता आ गयी मेरे पास!
"फिर से तांक-झांक? ह्म्म्म?" बोली बड़े ही घटिया से तरीके से!
"नहीं नहीं!" बोला मैं,
"तो फिर?" पूछा उसने,
"वो किशन, पानी पीना था!" कहा मैंने,
"पानी कमरे में नहीं?" पूछा उसने,
"कल का है!" कहा मैंने,
"आओ, पिलाती हूँ!" बोली वो,
और हाथ पकड़ मेरा, ले चली नीचे की तरफ, मुझे ठेलते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सीढ़ियों से नीचे आये हम दोनों, मैं, जैसे बकरा होऊं बलि का, जिसकी गर्दन में रस्सा बन्धा हो, जो मारे भय के मिमिया भी न सके, ऐसा हुआ पड़ा था! नीचे वो खाली सोफा था, और वो गुलदस्ता, मैंने गौर किया वो गुलदस्ता, उसके फूल अब मुरझा चुके थे, सड़े से पानी की गन्ध आने लगी थी!
"बैठो ज्ञान बाबू!" बोली वो,
तो मैं झट से बैठ गया उस सोफे पर! सविता जी, आगे निकल गयीं, उस रसोई की तरफ! अब मैंने उस गुलदस्ते को देखा, कुछ तो अजीब सा था वहां? क्या था अजीब? क्या? क्या?
अरे हाँ! अखबार! वो अखबार जो इसके बीच में फंसा रहता था, वो नहीं है! वो कहाँ हैं? आसपास देखा मैंने तो वो मुझे, मेरे पांवों के पास पड़ा दिखा! मैंने उसको उठाया, झुक कर, और सीधा किया! ये दैनिक अखबार था, बांगला-भाषा का, दिनांक थी उस पर इक्कीस जुलाई सन उन्नीस सौ तिरासी! मैंने दो बार ही नहीं, कम से कम छह या सात बार उस दिनांक को देखा! चार साल पुराना अखबार? यहां रखा है? वैसे कोई इसमें ऐसी बात नहीं थी कोई कि विस्मय हो, अक्सर होता है, पुराने अखबार रखे होते हैं घरों में, लेकिन यहां, गुलदस्ते में? ये अजीब सा था, कम से कम मेरे लिए तो!
"लो, ज्ञान?" बोली सविता जी,
मैंने देखा, पानी का गिलास था!
"हाँ, शुक्रिया!" कहा मैंने,
और गिलास ले लिया मैंने उनके हाथों से, पानी पीने लगा, तभी मेरे हाथ से, वो अखबार छीन सा लिया उन्होंने! और अपनी बगल में उड़ेस लिया! मैंने पानी का गिलास खाली किया और रखने लगा,
"और ज्ञान बाबू?" पूछा उसने,
"हाँ, थोड़ा" कहा मैंने,
वो अखबार साथ ले, चली गयीं! मैंने गुलदस्ता फिर से देखा, इसमें कुछ गुलाब के फूल थे और कुछ, जिन्हें मैं पहचानता नहीं था,
"ये लो!" पानी देते हुए बोलीं वो,
मैंने गिलास लिया और पानी पीने लगा, मैंने देखा, अब अखबार नहीं था उनके पास, शायद रख दिया गया था और कहीं! पीछे से घण्टे की आवाज़ आयी, घड़ी के घण्टे की, साढ़े बढ़ बज चुके थे!
"अब चलूंगा!" कहा मैंने,
और खड़ा हो गया!
"अरे बैठो?" बोलीं वो, और मुझे बैठने को कहा,
"सुबह काम है मुझे!" कहा मैंने,
"किस को नहीं होता?" पूछा उन्होंने,
"मुझे कॉलेज जाना है!" बोली वो,
"पढ़ाई?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"या फिर...?" पूछ बड़ी ही 'साफगोई' से!
"अरे नहीं जी!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोलीं वो,
"मैं तो ठहरा गाँव का देहाती!" कहा मैंने,
"उस से क्या?" बोलीं वो,
"जी बहुत कुछ!" कहा मैंने,
"क्या बहुत कुछ, बताओ?" बोलीं वो,
"सीखना है अभी!" मैंने उत्तर देते हुए, पूर्ण-विराम लगाने की कोशिश की!
"यहीं रह जाओ, सब सीख जाओगे!" बोली वो, ठिठोली करते हुए!
"अब आज्ञा दीजिये!" कहा मैंने,
"चलो!" बोली लम्बी सी सांस छोड़ते हुए!
और मैं भाग लिया! न पीछे देखा और न कुछ कहा ही! आ गया हांफता हुआ अपने कमरे में! मैं अंदर घुसने को हुआ ही, कि, मुझे कोई दिखा उस गैलरी में, सीधे हाथ पर! कोई बैठा था उस आराम-कुर्सी पर!
"ज्ञान?" आयी आवाज़,
ये तो मर्दाना आवाज़ थी!
"कौन?" पूछा मैंने, वहीँ खड़े खड़े!
"मैं!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"इधर आओ!" बोला वो,
और मैं चला उधर, उसकी तरफ!
"डॉक्टर साहब?" मैंने पहचानते हुए कहा,
"हाँ!" बोला वो,
"आप यहां?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"बताइये?" पूछा मैंने,
"यहीं आ बैठा, जब नीचे थे तुम!" बोला वो,
"आप कब आये?" पूछा मैंने,
"जब अखबार पढ़ रहे थे तुम!" बोला वो,
"अच्छा, मैंने ध्यान नहीं दिया!" कहा मैंने,
"हाँ, तभी आया!" बोला वो,
"आओ? कमरे में आओ आप?" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं ज्ञान!" बोला वो,
"तब यहीं क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहीं!" बोला वो,
"अँधेरे में?" पूछा मैंने,
"अँधेरा, बुरा भी नहीं!" कहा उसने,
"हाँ, दर्शनशास्त्र में एक अध्याय है इस बाबत!" बताया मैंने,
"हाँ, ज़रूर होगा!" बोला वो,
"खैर, आपने किस विषय में कहा, मैं समझ नहीं सका! परन्तु आप बड़े भी हैं और ज्ञानवान भी, अवश्य ही कोई अर्थ रहा होगा, पुनः विचार करूँगा!" कहा मैंने,
मेरी इस बात पर, डॉक्टर साहब हल्का सा मुस्कुरा पड़े!
"ज्ञान?" फिर बोला वो,
"जी, सर?" कहा मैंने,
"तुम बहुत अच्छे इंसान हो!" बोला वो,
"जी शुक्रिया!" कहा मैंने,
"एक बात कहूंगा" बोला वो,
"जी, अवश्य ही!" कहा मैंने,
"विश्वास से बड़ी कोई चीज़ नहीं!" बोला वो,
"जी, जानता हूँ!" कहा मैंने,
"अच्छी बात है!" बोला वो,
''आप आइये न, अंदर आइये?" बोला मैं,
"आप आराम करो, मैं भी जाता हूँ, सुबह जल्दी ही जाना है!" बोला वो,
"आप, राजेश जी को लाये होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, अभी एक घण्टे पहले ही!" बोला वो,
"राजेश जी भी कह रहे थे!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"यही कि ज्ञान, लड़का अच्छा है!" बोला वो मुस्कुराते हुए,
"वे भी कम ही मिला करते हैं घर में, नहीं तो बुज़ुर्गों संग बैठना तो अलग ही बात है!" कहा मैंने,
"तबीयत ठीक नहीं रहती उनकी!" बोला डॉक्टर!
"और अरुमा को भी क्या वही मर्ज है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"अरुमा को?" पूछा मैंने,
"कुछ दिमागी समस्या है!" बोला वो,
और उठ खड़ा हुआ, मेरे कन्धे पर हाथ रखा और देखा मुझे, आज कुछ दाढ़ी सफेद सी नज़र आयी थी मुझे उसकी!
"ज्ञान?" बोला वो,
और जेब टटोली अपनी, एक छोटी सी डायरी निकाली, उसके पन्नों को पलटा और फिर, एक जगह रुक गया, वहां से एक कार्ड निकाला और, डायरी जेब में रख ली वापिस!
"ये मेरा कार्ड है, कभी समय मिले तो आना!" कहा उसने,
और चलता बना वहाँ से! मैं उसको जाते हुए देखता रह गया था, और फिर मैंने कार्ड पर नज़र भरी, कुछ लिखा था, मैंने जेब में डाला और अपने कमरे में आ गया वापिस, अब सोने की तैयारी की...कुछ समय बाद, नींद आ गयी!
रात, ठीक ही गुजरी, फिर कोई परेशानी नहीं हुई, बाहर, किसी वाहन के स्टार्ट होने की आवाज़ आयी, मैं चला उस तरफ, लेकिन नज़र कुछ नहीं आया!
उस दिन...सुबह नौ बजे करीब....
नाश्ता मैंने कर लिया था, चाय भी पी ली थी, गाँव मुझे कल सुबह निकलना था, जो कुछ ले जाना था उसकी फेहरिस्त तैयार कर ली थी, आज वापसी में मुझे, वो सामान ले कर आना था!
तो मैं करीब दस मिनट बाद बाहर आया, आज सिर्फ किशन ही था, घर के लोग शायद अभी तक सो रहे थे, जगाया नहीं उन्हें, कोई लाभ ही नहीं था! मैं बाहर आया और चलने लगा उस तरफ, जहां एक बस्ती थी, वहां से ऑटो का प्रबन्ध हो जाता था, मैं आसपास के घरों को देखता हुआ जा रहा था कि अचानक ही रुक गया एक जगह, मुझे कुछ दिखाई दिया था, ये मुझे लगा था कि जैसे उस घर के अंदर के दराज़ पर कोई खड़ा हो! मैं हल्का सा पलटा और फिर से देखा, लगा वो अनीता है! अनीता? यहां? नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? वो तो घर में है! सो मैं आगे चल आया! यहां से मुझे एक साझा-टैक्सी मिल गयी और मैं चल पड़ा अपने मुक़ाम पर! वहाँ पहुंचा और फिर बस ले ली मैंने, और अपने कॉलेज के लिए उतर गया वहां, सीधा अंदर ही चला आया मैं! यहां बाहर के गेट से अंदर आने के लिए चलना बहुत पड़ता है, सो चला मैं, कन्धे पर बैग रखा था, सीधा ही, अपने शिक्षण-स्थल के लिए, चला आ रहा था, कि यकायक!
यकायक मैं रुक गया! बाएं नज़र गयी मेरी! मैं बेहद ही हैरान हो उठा! वो डॉक्टर, किसी महिला के साथ वहीँ से गुजर रहा था और...


   
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श्रीशः उपदंडक
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बड़े ही कमाल की बात थी ये तो? वो डॉक्टर यहां क्यों आता था बार बार? न उसका कोई काम ही था कोई यहां, जो था, वो उसने बता ही दिया था, न वो पढ़ाता ही था यहना कुछ? ये कोई मेडिकल-कॉलेज भी तो नहीं? अरे हाँ! एक मिनट! याद आया मुझे, वो कार्ड, विजिटिंग-कार्ड जो रात को मिला था मुझे, उसने दिया था, वो कहाँ है? मैंने अपनी जेब देखी, कमीज़ की, उसमे नहीं, फिर पैंट की, उसमे भी नहीं, फिर पर्स देखा, इसमें भी नहीं? तो कहाँ रख दिया? कहीं कमरे में ही तो नहीं? हो सकता है! मैंने अपनी कलाई-घड़ी पर नज़र डाली, अभी बीस मिनट थे, तो मैं उस डॉक्टर के पीछे चल पड़ा, लेकिन अब तक तो वो जा चुका होगा वहां से? फिर भी, देखने में क्या हर्ज़? तो मैं उधर के लिए चल पड़ा, यहां कोई बिल्डिंग नहीं थीं, ये एक नर्सरी थी, यहां पेड़ पौधे ही थे, कुछ अजीब अजीब से रंगों के! ऐसे, जो मैंने बस यहीं देखे थे! मैं रुक गया, आसपास देखा, कोई भी नहीं, हाँ एक आदमी नज़र ज़रूर आया, उसके हाथ में खुरपी और एक थैला था, शायद खाद होगा उसमे, और वो नराई या गुड़हाई कर रहा होगा पौधों की!
मैं उसके पास तक गया, उसने मुझे देखा और शांत सा खड़ा हो गया! बीड़ी पीने से उसके होंठ लाल हुए, हुए थे, अभी भी बीड़ी की तेज़ गन्ध आ रही थी!
"सुनो भैया?" कहा मैंने,
"जी?" बोला बेहद ही तहज़ीब से,
"किसी डॉक्टर को देखा आपने यहां अभी?" पूछा मैंने,
"डॉक्टर?" उसने पूछा, अचरज से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"यहां भला डॉक्टर का क्या काम?" बोला वो,
"मैंने देखा, किसी महिला के साथ था!" कहा मैंने,
"वो यहां?" पूछा उसने,
"कौन? आप जानते हैं?" पूछा मैंने, 
"सुनो बाबू! किन चक्करों में पड़ते हैं, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो, छोड़ो इन चक्करों को!" बोला वो,
वो अवश्य ही कुछ जानता था, तभी चौंक पड़ा था!
"बताइये तो?" पूछा मैंने,
"क्या?'' बोला वो, कुछ पौधे अलग रखते हुए!
"उस डॉक्टर को जानते हैं आप?" पूछा मैंने,
"उसको तो नहीं, लेकिन यहां कभी आया करते थे डॉक्टर, अब नहीं आते, मैंने तो नहीं देखा कोई, लेकिन कई कर्मचारियों ने बताया कि यहां कोई डॉक्टर नज़र आता है कभी कभी!" बोला वो,
उसका जवाब सुन कर मैं हंस पड़ा!
"आप भूत समझ रहे हो क्या?'' पूछा मैंने,
उसने बीड़ी निकाली कान के ऊपर से, बड़ी सी, लकड़ी से बनी माचिस, धोती से निकाली, और सुलगा ली बीड़ी, एक लम्बा कश भरा, गाढ़ा सा सफेद धुंआ छोड़ा, तेज तम्बाकू और तेंदू के पत्ते की मिश्रित सी गन्ध उड़ी! मैं ज़रा एक तरफ हुआ!
"जाओ बाबू!" बोला वो,
"अरे बताओ न?" पूछा मैंने,
"नहीं कोई नहीं!" बोला वो,
और लौट पड़ा, पौधे उठाये और चलता बना वहाँ से! कोई मदद नहीं मिली मुझे! बल्कि मुझे भूत-भात के चक्कर में पड़ा, मतिभ्रम से पीड़ित और मान लिया! मैं हंस पड़ा, कलाई-घड़ी देखी, बस पांच ही मिनट थे! तेजी से पलटा और दौड़ पड़ा क्लास के लिए! अचानक से पीछे देखा, वो आदमी मुझे ही देख रहा था खड़ा खड़ा, मैंने देखा तो झुक गया, बैठ गया उकड़ू, काम करने के लिए!
मैं क्लास में चला आया, आज, काफी स्टूडेंट्स आये हुए थे, सभी जैसे आज फ्री ही थे! तो क्लास हुई शुरू!
इस तरह, दो बजे तक, पीरियड्स चलते ही रहे, मेरी तो कमर ही अकड़ने लगी! अब एक घण्टे का समय था, कुछ खाना-पीना हो तो ले सकते थे! तो मैं बाहर आ गया, बाहर आया तो एक बड़े से पाम-ट्री के नीचे खड़ा हो गया, कुछ कागज़ और नोट्स थे, वो बैग में रख रहा था कि मुझे कोई चलते नज़र आया सामने से! मैं खड़ा हुआ तो देखा, ये डॉक्टर साहब ही थे, लेकिन अपनी यूनिफार्म में नहीं थे, सफेद सी बढ़िया कमीज़, काली पैंट, काली ही टाई और बिना फीते के लाल रंग के जूतों में था!
"ज्ञान बाबू?" बोला वो,
"आज कहीं जा रहे हैं या कहीं से आ रहे हैं?" पूछा मैंने, मुस्कुराते हुए,
"न आ रहा हूँ, न जा ही रहा हूँ!" बोला वो,
"आज तो सेठ लग रहे हैं आप!" कहा मैंने!
वो हंस पड़ा तेज तेज!
"आज यहां कैसे? कोई पेशेंट?" पूछा मैंने,
"अरे नहीं!" बोला वो,
"फिर, सर?" पूछा मैंने,
"आओ, पहले जूस पीते हैं!" बोला वो,
"जी, सर! चलिए!" कहा मैंने,
और हम उस जूस-कार्नर के लिए, चल पड़े!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस बार फिर से एक करारा सा, नोट निकाला सौ का, मुझे दिया और मैं, जूस लेने चला, जूस वाले ने बताया कि आज ऑरेंज भी मिलेगा और गुवावा भी! सो मैंने ऑरेंज जूस ले लिया! और दो गिलास ले कर वहाँ से, खुले पैसे भी लेकर, आ गया डॉक्टर के पास! एक गिलास उसे दे दिया, मेरे पास स्ट्रॉ था, लेकिन मैं ये इस्तेमाल नहीं करता सो फेंक दिया वहीँ!
"आज ऑरेंज?" पूछा डॉक्टर ने,
"हाँ, आज मिल गया!" बोला मैं,
"अच्छा हुआ!" बोला वो,
"हाँ, ये ही ठीक लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ, एप्पल में कुछ खट्टापन ज़्यादा होता है!" बोला डॉक्टर,
"हाँ, सही कहा!" बोला मैं,
"तो ज्ञान बाबू?" बोला वो,
"जी, जी सर?" कहा मैंने,
"कल निकलोगे?" पूछा उसने,
"जी!" कहा मैंने,
"और पहुंचोगे कब तक?" पूछा उसने,
"शाम तक ही मानो जी!" बोला मैं,
"इतनी दूर?'' पूछा उसने, अवाक से हो कर,
"दूर नहीं, दरअसल, घण्टों तक सवारी नहीं मिलती, फिर गाँव तक, पैदल का रास्ता!" बोला मैं,
"सभी को यहां, शहर ले आओ?" बोला वो,
"कहाँ सर!" बोला मैं,
"क्यों?" पूछा उसने,
"पैसे ही कहाँ हैं, सर, यहां का खर्चा भी बहुत है!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोला वो,
"लाऊंगा, बस कहीं एक बार पाँव जमा लूँ!" कहा मैंने,
"जमा लोगे!" बोला वो हंसते हुए!
"जी सर!" कहा मैंने,
"शहर में लोग, ज़्यादातर गाँवों से ही आये हैं, अब यहीं के हो कर रह गए हैं!" बोला वो,
"जी, जी सर!" कहा मैंने,
"तो ट्रेन से निकलोगे?" पूछा उसने,
"जी, कल सुबह!" कहा मैंने,
"मैं आ जाऊं?" पूछा उसने,
"जी?" मुझे समझ नहीं आया उसका सवाल,
"सुबह, स्टेशन छोड़ दूंगा?" बोला वो,
"अरे नहीं सर! क्यों परेशान होते हैं आप!" बोला मैं,
"परेशानी कैसी?" पूछा उसने,
"नहीं सर, ज़रूरत होगी तो देखा जाएगा!" कहा मैंने,
और पहले उसने, फिर मैंने जूस का गिलास डस्टबिन में फेंका, हम उठे, और मैं थोड़ा उसकी दायीं तरफ हुआ!
"अरे ज्ञान?" बोला वो,
"जी?" बोला मैं,
"पैसे हैं?" पूछा उसने,
"हैं सर!" कहा मैंने,
"कोई ज़रूरत हो खरीदारी की तो ले लो?" बोला वो,
"नहीं नहीं सर! हैं मेरे पास!" कहा मैंने,
"देख लो, बाद में दे देना ऐसी बात है तो?" बोला वो,
"शुक्रिया सर, हैं मेरे पास!" कहा मैंने,
उसने मेरे कन्धे पर हाथ रखा, अपने दोनों होंठ, दबाये आपस में! और गौर से मुझे देखा, मैं मुस्कुराया!
"ठीक है ज्ञान!" बोला वो,
"जी!" कहा मैंने,
"चलो, मिलते हैं, जब आओगे तुम वापिस!" बोला वो,
"जी, क्यों नहीं!" बोला मैं,
और वो चलता चला गया बाहर की तरफ! मैं देखता रहा उसे जाते हुए, ये डॉक्टर, अच्छा और शरीफ सा आदमी लगा मुझे! मैं पलटा और मुड़ा, अपनी क्लास की तरफ जाने के लिए! चढ़ने लगा सीढियां, यहीं बेंच बिछे थे, मैं एक बेंच पर जा बैठा! तभी मेरी नज़र, मेरी जेब से बाहर झांकते नोट्स के कोनों पर पड़ी! ये तो वही पैसे थे, जूस वाले! ओहो! मैं तो देना ही भूल गया था आज! अब क्या करूँ? चलो, शाम को घर पर ही दे दूंगा! और जेब में, खोंस के रख लिए वो पैसे!
अब सोचने लगा कि क्लास के बाद सीधे बाज़ार जाऊँगा और कुछ खरीदारी करूँगा, पिता जी के लिए एक शेविंग-बॉक्स लेना था, उनके वाला तो अब, दम तोड़ चुका था, सबसे पहला काम यही था, भाई के लिए, कुछ कपड़े, कुछ स्टेशनरी आदि लेनी थी! गणित के कुछ यन्त्र से लेने थे, आदि आदि...
और तभी हो गया क्लास का वक़्त....!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो जब क्लास खत्म हुई, तब तक साढ़े चार बज चुके थे! अब मैं वहाँ से गोल हुआ! और जा निकला बाहर! यहां से सवारी आराम से मिल जाया करती है, तो सवारी ली और फिर सीधा बाज़ार जा पहुंचा, ये बड़ा-बाज़ार है! यहां की रंगत बड़ी अच्छी होती है! छोटी से छोटी और बड़े से बड़ी चीज़ यहां मिल जाया करती है! अब जब, मैं वहाँ घूम रहा था, तब मुझे भुनी, सरसों की माछ की गन्ध बड़ी ही ललचायी सी लग रही थी! एक जगह देखी तो माछ तैयार थी, सामने ही कुछ और भी दुकानें थीं, तो सबसे पहले मैंने माछ-भात लिए! दो बड़ी प्लेट, भात खा गया! बड़ा ही आनन्द आया मुझे! खाने के बाद, मैंने बाज़ार से और भी कई चीज़ें ले लीं, पिता जी के लिए, भाई के लिए और अपनी बुआ जी के लिए भी! पैसे मैं फ़ालतू के खर्च करता नहीं था, कोई वाहियात शौक़ पाला नहीं था! हाँ, आज तीन महीनों का हिसाब करता और कल सुबह, गाँव के लिए निकल पड़ता मैं!
तो उस दिन, मैं शाम को सात बजे घर पहुंचा, सांकल खोली और दरवाज़े तक आया, दरवाज़े पर दस्तक दी, आसपास देखा, कमाल था! आज कोई भी नहीं आया था दरवाज़ा खोलने, नहीं तो किशन सबसे पहले आ जाया करता था, मैंने सामान का थैला नीचे रखा और फिर खटखटाया दरवाज़ा! अभी भी कोई आवाज़ नहीं अंदर से!
"किशन?" मैंने आवाज़ दी,
कोई नहीं आया फिर भी!
अंदर झाँक कर देखा, बत्ती तो जली थी, लेकिन कोई था नहीं वहां!
"किशन? ओ किशन?" कहा मैंने,
कोई नहीं आया, कमाल है? कहाँ गए सभी? एक साथ?
मैंने सामान का थैला वहीँ टिका दिया, उस चौखट से, और आसपास देखने चल पड़ा, आया वहां, तो कोई नहीं था, मकान के अंदर देखा, ऊपर की तरफ, कोई बत्ती नहीं जली थी! ऊपर तो कोई नहीं था, ये तो पक्का था, फिर अंदर की बत्ती?
मैं वापिस लौट चला, दरवाज़े तक आया तो दरवाज़ा खुला मिला मुझे! मैंने आव देखा न ताव, सीधे अंदर ही चला आया, उस सोफे पर, मुझे मेरा थैला रखा मिल गया! और सामने, रसोई से पानी लाते हुए किशन! मुझे देख, थोड़ा झेंपा वो!
"कहाँ था किशन?" पूछा मैंने,
"पानी!" बोला वो,
मैंने पानी लिया और देखा उसे,
"आज तबीयत ठीक नहीं है, इसीलिए सुन न सका, अभी लगा कि आपने आवाज़ दी तो बाहर आया, वो थैला देखा, तो समझ गया आप आ गए!" बोला वो,
"बहुत देर से आवाज़ दे रहा था मैं!" कहा मैंने,
"जी बाबू, गलती हो गयी!" बोला वो,
"कोई बात नहीं...कोई घर में नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"कहाँ गए सभी?" पूछा मैनें,
"चार बजे से ही गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, डॉक्टर के साथ!" बोला वो,
"डॉ.....के साथ?" मैंने पूछा, अचरज से तो नहीं खैर,
"हाँ, आये थे दो बजे करीब" बोला वो,
"अच्छा, कहाँ गए हैं?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता" बोला वो,
"चल ठीक, चाय बना ले?" कहा मैंने,
"अभी लो" बोला वो,
और मैं अपना थैला ले कर ऊपर चल पड़ा, ऊपर पहुंचा और सामान रख दिया, अपने फैले हुए कपड़ों में नज़र पड़ी, वे उठाये, सँजोये, तह लगाए और रख दिए एक तरफ ही! और फिर बिस्तर पर लेट गया!
अब तो बस घर पहुँच जाऊं कैसे भी! बहुत दिन हो गए! वो तालाब! वो यार दोस्त! वो घर! सब याद आने लगे मुझे! याद करता जाऊं और मुस्कुराता जाऊं! 
दस मिनट बाद किशन चाय ले आया!
"बैठ?" कहा मैंने,
"कल जा रहे हैं?" पूछा उसने,
"हाँ किशन!" कहा मैंने,
"अच्छा बाबू जी!" बोला वो मुस्कुराते हुए!
"हाँ, तीन महीने हो गए किशन!" कहा मैंने,
"समझ सकता हूँ ज्ञान बाबू!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो गिलास लेकर, जाने को हुआ, कि मैं, उठा तभी...
"अरे? किशन?" बोला मैं,
वो रुक गया, पीछे नहीं पलटा लेकिन,
"जी ज्ञान बाबू?" बोला वो,
"तू नहीं जाता अपने गाँव?" पूछा मैंने,
"कौन सा गाँव बाबू?" बोला वो,
"तेरा? अपना गाँव?" बोला मैं,
"नहीं बाबू, अब कोई गाँव नहीं मेरा!" बोला वो,
''अब? क्या मतलब? और घूम तो ज़रा?" बोला मैं,
"कोई गाँव नहीं बाबू, और माफ़ कीजिये" बोला वो,
और चलता बना गिलास लेकर, अजीब सी बात थी, ऐसा वो कभी नहीं करता था, ज़िंदादिल इंसान था वो! हमेशा मुस्कुराते रहना, उसे अच्छी तरह से आता था! शायद कोई कड़वी घटना जुडी हो उसके साथ, या गाँव से, कुछ भी हो सकता था, इसीलिए मैंने कोई हूपला नहीं मचाया इसका! हाँ फिर लेटा नहीं, मैं बारामदे में चला गया, और उस आराम-कुर्सी पर जा बैठा, कुर्सी हिली, बड़ा अच्छा लगा उस पर बैठ कर! बाहर नज़र गयी, तो ठीक सामने से, मुझे अँधेरे में कोई दिखा, ध्यान से देखा तो कोई नहीं था, एक पेड़ की शाख ही थी, हाँ,कानों में दूर से आती वो गाड़ी, और उसकी वो आवाज़, सुनाई सी देने लगी! दूर अँधेरे में बत्ती फैलती हुई आयी! फिर एक ज़ोरदार सी सीटी! और उस केबिन के पास आ कर रुक गयी वो गाड़ी! कोई दस मिनट रुकी और फिर चली गयी आगे! आज कोई शोर नहीं मचाया उसने! शायद हवा का रुख आज यहां की तरफ न होगा!
"ज्ञान?" आयी आवाज़ पीछे से,
मैंने मुड़कर पीछे देखा,
"अरुमा?" बोला मैं,
और उठ खड़ा हुआ, वो चलते हुए आगे तक आ गयी! आज बेहद ही सुंदर लग रही थी वो, बाल पीछे काढ़े हुए, नीले रंग की लॉन्ग-स्कर्ट, ऊपर हल्का, मैरून और प्याजी से रंग का टॉप! कानों से नीचे की तरफ लटकते झुमके! नाक में पहना एक सोने का छल्ला! लाल गाढ़ी सी लिपस्टिक!
"आओ, बैठो अरुमा!" कहा मैंने,
"तुम बैठो!" बोली वो,
"अरे बैठो न!" कहा मैंने,
"तुम बैठो न ज्ञान!" कहा उसने,
"आप खड़े रहो, मैं बैठा रहूँ, नहीं ये मुनासिब नहीं, आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"मैं आती हूँ अभी!" बोली वो,
और लौट गयी! तेज तेज!
अरुमा! तुम नहीं जानतीं कि तुम कितनी अच्छी लड़की हो! कौन नहीं चाहेगा तुम्हारे जैसी लड़की को अपने जीवन में! तुम बेहद सुंदर हो! सुशील भी और प्यारी भी! शायद, अंदर ही अंदर, मैं तुम्हारी तरफ आकर्षित होने लगा हूँ! सिर्फ सेक्स के लिए ही नहीं, शायद, मुझे तुमसे प्रेम हो गया है! जानता हूँ, मुझ से छह या सात साल बड़ी हो तुम! लेकिन क्या करूँ! कोई थाह नहीं नापी जाती मुझ से!
मैं खड़ा ही था कि वो आ गयी, नाईट-ड्रेस पहन कर, आज एक कॉटन-ट्रॉउज़र और एक टी-शर्ट! उसमे भी बहुत सुंदर लग रही थी अरुमा!
"खाना तो नहीं खाया अभी?" पूछा उसने,
"नहीं, आपने?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली मुस्कुराते हुए!
"वैसे क्यों?" पूछा मैंने,
"साथ नहीं खाओगे आज?" बोली वो,
"आज?" पूछा मैंने,
"कल जा रहे हो न....गाँव?" बोली वो,
"हाँ, कल सुबह!" कहा मैंने,
"मुझे छोड़कर?" बोली वो,
"छोड़कर कहाँ?" पूछा मैंने,
"कैसे रहूंगी मैं? मिस करूँगी बहुत! तुम तो करोगे नहीं? है न? गाँव के 'गंवार' जो हो!" बोली चिकोटी काटते हुए मेरे गाल पर!
"करूँगा मिस!" कहा मैंने,
"सच?" पूछा उसने,
"हाँ, सच!" कहा मैंने,
"ज्ञान?" बोली वो,
"ह्म्म्म?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मुझे भूलोगे तो नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मेरी क़सम?" पूछा उसने,
"इसमें क़सम क्या?" पूछा मैंने,
"ऐतबार!" बोली वो,
"मुझे भी!" कहा मैंने,
"ज्ञान?" बोली, कुछ क्षणों बाद ही,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वापिस आओगे?" बोली वो,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"मेरे सर पर हाथ रखो?" बोली वो,
मैंने सर पर हाथ रखा उसके,
"अब बोलो?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"आओगे न?" पूछा उसने, इस बार जैसे, अंदर ही अंदर उसे डर हो कोई...
"क्या बात है अरुमा?" पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"इतना डर क्यों?" पूछा मैंने,
"पता नहीं ज्ञान!" बोली वो,
"बताओ तो?" पूछा मैंने,
अब उस से रहा नहीं गया, झपक कर मुझ से लिपट गयी वो! कस के पकड़ लिया मुझे!
"मुझे तुम पर विश्वास है!" बोली वो,
मैं चुप ही खड़ा रहा! आज मादकता ने नहीं झिंझोड़ा था मुझे, आज, अजीब से भाव पैदा हुए थे मन में मेरे, अरुमा के लिए, जी किया की उसे भी जकड़ लूँ, लेकिन बिना अधिकार, कुछ करना, मेरे लिए शोभा नहीं देता था!
"आज गुरुवार है न?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और वो हटी मुझ से,
"कल शुक्रवार?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कल जाओगे?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"सुबह?" पूछा उसने,
"हाँ" कहा मैंने,
"पहुंचोगे कब?" पूछा उसने,
"शाम तक!" कहा मैंने,
"दोपहर का खाना? पैक कर दूंगी!" बोली वो,
"अरे नहीं! खा लूंगा मैं!" कहा मैंने,
"नहीं ज्ञान!" बोली वो,
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोली वो,
"और ज्ञान?" बोली वो,
"क्या?'' बताओ?" पूछा मैंने,
"अगले शुक्रवार तक आओगे?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भूल मत जाना!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"बदल मत जाना!" बोली वो,
"अरे नहीं जी!" कहा मैंने,
तभी कोई ऊपर चढ़ते हुए आया, मैंने बाहर झांक कर देखा, ये किशन था, खाना ला रहा था!
"खाना!" बोला वो,
"रख दो किशन!" बोली अरुमा,
"जी" बोला वो,
और खाना रख दिया, मैं हाथ मुंह धोने चला गया, वापिस आया तो खाना पूरा ही लग चुका था!
"वाह! माछ!" कहा मैंने,
"हाँ, पसन्द हैं न?" बोली वो,
"बहुत!" कहा मैंने,
"हो जाओ शुरू फिर!" बोली वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
और हुआ खाने में तल्लीन मैं! मजेदार खाना बना था, दो तरह की माछ, एक रसे वाली  और एक सूखी!
"सुबह नौ बजे?" बोली वो,
"हाँ, थोड़ा पहले ही!" कहा मैंने,
"ठीक है!" कहा उसने,
"कोई बात?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"ओ..अरुमा? पिता जी जागे होंगे या सो गए होंगे?" पूछा मैंने,
"सो गए होंगे, क्यों?" पूछा उसने,
"किराया देना है!" कहा मैंने,
"कौन सा?" पूछा उसने,
"घर का!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"क्यों नहीं? मैं किरायेदार नहीं क्या!" कहा मैंने हंसते हुए!


   
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"नहीं!" बोली वो,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"तुम अब, घर के जैसे ही हो!" बोली वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
और भात का आनन्द उठाने लगा फिर मैं!
तभी बाहर कुछ रौशनी सी हुई, ये अजीब सी रौशनी थी, मैंने खाना रोका और देखने के लिए जैसे ही उठा कि उसने मुझे रोक लिया!
"बैठो!" बोली वो,
"कोई आया है शायद!" कहा मैंने,
"डॉक्टर होगा!" बोली वो,
"डॉक्टर?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"इस वक़्त?" पूछा मैंने,
"उसका क्या?" बोली वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"जब मर्ज़ी आ जाए!" बोली वो,
"ओह...अच्छा! समझा मैं!" कहा मैंने,
"तुम खाना खाओ बस!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और खाना खाने लगे हम!
"क्या क्या ले आये बाजार से?" पूछा उसने,
"वही सब!" कहा मैंने,
"घर के लिए?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ज्ञान?" बोली वो,
"पूछो?" कहा मैनें,
"कोई 'अपनी' नहीं तुम्हारी?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कहीं नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"पढ़ाई ही पढ़ाई अरुमा!" कहा मैंने,
"क्या बनोगे?" बोली वो,
"कहीं, कोई प्रोफेसर!" बताया मैंने,
"बनोगे पक्का!" बोली वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
"यहां आया करोगे?" बोली वो,
"और जो कहीं दूर हुआ तो?"
"तो नहीं आओगे?" बोली वो,
"वो तब, जब मैं कलकत्ता आया करूँगा!" कहा मैंने,
"अच्छा! बस?" बोली वो,
"और क्या?" पूछा मैंने,
"मतलब मेरा कुछ नहीं?" बोली वो,
"सबकुछ तो है?'' कहा मैंने,
"ठीक है, मत मानो!" बोली वो,
और गुस्से से उठ क्र, चली गयी बाहर, मैंने आवाज़ दी तो भी नहीं सुना उसने! खैर, खाना तो हो ही गया था, अब हाथ-मुंह धोने चला गया मैं, आया वापिस, तो सोचा, चलो नीचे चलूं, कम से कम, किशन को ही किराया दे दूँ, कहीं, भूल ही न जाऊं! तो मैं नीचे चला और आ गया!
"किशन?" आवाज़ दी मैंने,
"हाँ ज्ञान बाबू?" बोला वो,
उतर कर आ रहा था, उन कमरों की सीढ़ियों से,
"राजेश जी कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"वो?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"बाहर हैं!" कहा उसने,
"बाहर कहाँ?" पूछा मैंने,
"बाहर, कार में!" बोला वो,
"कार में?" मैंने अचरज से पूछा,
"हाँ, डॉक्टर साहब की!" बोला वो,
"अच्छा, आया मैं अभी!" कहा मैंने,
और चल पड़ा बाहर, बाहर ही एक स्लेटी से एम्बेसडर कार खड़ी हुई थी, उसके सामने के शीश पर, एक पेंट से लाल रंग का धन का निशान बना था, कार डॉक्टर साहब की ही थी! मैं चला उस तरफ!
"अरे ज्ञान?" आयी आवाज़, दाएं से,
"ओह! राजेश जी!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"आप ही से मिलने!" कहा मैंने,
"अच्छा, काम?" बोले वो,
"वो किराया...." कहा मैंने,
"वापिस नहीं आओगे क्या?" बोले वो,
"आऊंगा जी!" कहा मैंने,
"तब रख लो!" कहा मैंने,
"नहीं राजेश जी, आप सभी का वैसे ही बहुत एहसान है मुझ पर!" कहा मैंने,
"ए माय बॉय!" आयी आवाज़,
पीछे से डॉक्टर साहब आ गए थे वहाँ!
"अरे सर? नमस्कार!" कहा मैंने,
"हाँ ज्ञान?" बोला वो,
"ओ आपके पैसे रह गए थे, ये रहे!" बोला मैं, जेब से निकालते हुए!
"कौन से पैसे?" पूछा उन्होंने,
"वो, जूस वाले!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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''जूस वाले? ओ! अच्छा!" कहा उसने,
और वो रुपये ले लिए मुझ से, बिन गिने ही जेब में रख लिए, थोड़ी असावधानी से!
"और आपकी तबीयत कैसी है अब राजेश जी?" पूछा मैंने,
"अब ठीक ही हूँ!" बोले वो,
"ज्ञान?" बोला डॉक्टर,
"हाँ सर?" पूछा मैंने,
"खाना हो गया?" पूछा उसने,
"हाँ, अभी बस!" कहा मैंने,
"जल्दी ही कर लेते हो क्या?" पूछा उसने,
"अक्सर!" कहा मैंने,
"अच्छी बात है!" बोला वो,
"और ज्ञान? कल सुबह निकल रहे हो?" बोले राजेश जी,
"जी हाँ!" कहा मैंने,
"कैसे सुबह?" बोले वो,
"कैसे मतलब?" पूछा मैंने,
"मतलब? ट्रेन से?" बोले वो,
"जी, जी हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा, फिर वहां से?" पूछा उन्होंने,
"जी फिर बस!" कहा मैंने,
"बस गाँव तक?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी, फिर पैदल थोड़ा!" कहा मैंने,
"कितना?" पूछा उन्होंने,
"कोई दो किलोमीटर!" बोला मैं,
"हाँ भाई! जवान आदमी हो!" बोला डॉक्टर!
"कहाँ सर!" कहा मैंने,
"पहली बार जा रहे होंगे?" पूछा राजेश जी ने,
"जी हाँ!" कहा मैंने,
"आराम से पहुंचो!" बोले राजेश जी!
"जी!" कहा मैंने,
और तभी किशन आ गया, दो कप चाय लाया था, एक एक कप उन्हें पकड़ाया और...
"लो ज्ञान!" बोला डॉक्टर,
''आप लीजिये?" कहा मैंने,
"ले लो बाबू  जी!" बोला किशन,
"डॉक्टर साहब को दो!" कहा मैंने,
"और ले आता हूँ!" बोला किशन, और लौट गया अंदर के लिए!
"वैसे राजेश जी?" कहा मैंने,
"हाँ ज्ञान?" बोले वो,
"देख रहा हूँ, यहां कोई उजाला नहीं होता?" पूछा मैंने, बाहर देखते हुए!
"नयी नयी बसावट है!" बोले वो,
"कोई काम भी नहीं चल रहा?" पूछा मैंने,
"पीछे तो चल रहा है?" बोला डॉक्टर,
"पीछे कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर?" बोला वो,
"मैं गया था एक दिन, कोई नहीं था वहां!" कहा मैंने,
"गए थे?" बोला डॉक्टर,
"हाँ, किशन के साथ आया फिर!" कहा मैंने,
"उस दीवार से!" बोला वो,
इशारा करते हुए,
"हाँ, वहीँ से!" कहा मैंने,
"उस प्लाट में कुत्ते आ जाते हैं!" बोले राजेश जी,
"बताया था मुझे!" कहा मैंने,
"ऐसे मत जाया करो!" बोला डॉक्टर,
"ठीक सर!" कहा मैंने,
तभी किशन चाय ले आया, डॉक्टर साहब को दे दी! उन्होंने ली और चुस्की भरी!
"कहो तो सुबह आ जाऊं?" बोला डॉक्टर,
"नहीं नहीं!" कहा मैंने,
"जैसी इच्छा!" बोला वो,
"अब चलता हूँ, सामान बांधना है!" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक!" बोले वो दोनों!
नमस्ते की और ऊपर चला आया, सामान बाँधने लगा मैं फिर! अपने बैग में, बाँध कर रखने लगा!
"मैं मदद करूँ?" आई आवाज़,
पीछे पलट कर देखा तो अनीता थी!
"हो गया बस!" कहा मैंने,
"कल सुबह?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"तैयारी हो गयी?" पूछा उसने,
"हाँ, सब!" कहा मैंने,
"ये क्या है?" पूछा उसने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"इस थैले में?" बोली वो,
"वो, घर का सामान!" कहा मैंने,
"किशन ले आता?" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"खाना?" पूछा उसने,
"हो गया!" कहा मैंने,
"सुबह कोई काम?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"चाय पी?" बोली वो,
बात में बात जोड़ रही थी वो!
"हाँ, अभी!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली तभी पीछे पलटी ज़रा सी...........


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो झुकी हल्का सा पीछे, शायद देखने को कि वहां कोई शोर जो हुआ था, किसलिए? मेरी भी नज़र गयी उधर तो ये सविता जी ही थीं! वे दोनों आपस में बतियाईं और फिर सीधे ही मुझ से ही मुख़ातिब हो गयीं!
"अच्छा? तैयार! क्यों ज्ञान बाबू!" बोलीं सविता जी,
"जी, तैयारी ही!" कहा मैंने,
"हाँ, जा रहे हो तो बड़े खुश होंगे!" बोलीं वो,
"हाँ, खुश तो होऊंगा ही!" कहा मैंने,
"हाँ, घर तो घर ही है!" बोली अनीता,
"जी अनीता जी!" कहा मैंने,
"ज्ञान बाबू? अगर हमसे कोई गलती हुई हो कोई तो क्षमा करना!" बोली सविता जी,
"अरे नहीं जी!" कहा मैंने,
और अपना तौलिया, अंडरवियर, कुछ तेल, दातुन आदि, अलग रख दीं, ये कल सुबह काम आ जाते!
"ज्ञान??" बोली अनीता!
"हाँ अनीता जी?" कहा मैंने,
"भूल मत जाना!" बोली वो,
"नहीं अनीता जी!" कहा मैंने,
"खाना आदि सब हो गया?" बोलीं सविता जी,
"हाँ जी, सब!" कहा मैंने,
"चलो! अब सोइये!" बोलीं वो,
"जी, बस!" कहा मैंने,
सविता जी, वापिस हो गयीं, अनीता बैठी ही रही!
"वापसी कब?" पूछा उसने,
"अगले इतवार तक!" कहा मैंने,
"इतना समय?" बोलीं वो,
"अब जी, एक दिन तो पूरा जाने में और एक दिन, आने में!" कहा मैंने,
"दूर है?'' पूछा उसने,
"हाँ, थोड़ा!" कहा मैंने,
"चलो, करो आराम!" बोली वो,
और मुझे, कन्धों पर छुआ, चिकोटी सी काटी!
"आ जाना!" बोली वो,
"हाँ, आऊंगा तो पक्का ही!" कहा मैंने,
और वो भी चली गयी, अब मैंने बिस्तर पर पाँव पसारे, घर के ख़्वाब आने लगे! ऐसा होगा, वैसा होगा!
"ज्ञान?" ये अरुमा थी,
"हाँ?" कहा मैंने,
"सो गए?" पूछा उसने,
"अभी नहीं, आ जाओ?" कहा मैंने,
"रात हो जायेगी फिर!" बोली वो,
"अब हो ही गयी है!" कहा मैंने,
"सुबह तकलीफ होगी?" बोली वो,
"कोई नहीं, आओ!" कहा मैंने,
"पानी मंगाऊं?" बोली वो,
"है पानी!" कहा मैंने,
"आती हूँ!" बोली वो,
और अंदर आ कर बैठ गयी!
"जल्दी है?' बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"घर की?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"नींद नहीं आयी?" बोली वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"कल इतने बजे तक तो अपने घर पहुंच जाओगे!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने खुश होते हुए!
"तब कहाँ अरुमा?" बोली वो,
"ऐसा नहीं अरुमा!" कहा मैंने,
"वक़्त बीतने के बाद कोई याद नहीं करता!" बोली वो,
"मैं ऐसा नहीं!" कहा मैंने,
"ये तो मालूम पड़ेगा!" बोली वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
बाहर फिर से रौशनी हुई, शायद डॉक्टर जा रहा हो, ऐसा मैंने समझा! अब क्या था, कोई दूसरा कारण, जानना नहीं चाहा!
"चलो, बारह होने वाले हैं, सो जाओ अब, अब मैं भी चलती हूँ!" बोली वो,
"ठीक अरुमा!" कहा मैंने,
और वो, मुझे एक चुम्मी देते हुए, चली गयी वापिस!


   
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