Notifications
Clear all

जयपुर के पास की एक घटना, वर्ष २०१५, वो सर्दी की एक रात!

38 Posts
1 Users
1 Likes
574 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वे ठिठक कर रुक गए थे! उन्होंने देखा तो था, लेकिन वो लड़का, ईंट उठाकर मार्गी, ये नहीं देख पाये थे!
"यहीं रहो!" कहा मैंने,
"ह..हाँ!" बोले वो,
"संजू?" कहा मैंने,
लड़के ने हमें देखा, दोनों को,
"संजू? हम मदद के लिए आये हैं!" कहा मैंने,
इतने में, वो लड़की, सिम्मी, पीछे चलती चली गई! कहीं ये कोई उन बच्चों की चाल ही न हो, उन प्रेतों की कहना ठीक होगा, मैंने रक्षा-मंत्र फूंका, मन ही मन और हाथ थाम लिया शहरयार का, वे मेरा आशय समझ गए थे!
"संजू?" कहा मैंने,
"फेंक दो ये ईंट?" बोले वो,
उन्होंने, रक्षण-मंत्र को भांपा और उस लड़के ने, ईंट छोड़ दी नीचे! ईंट, ढप्प से नीचे गिरी!
"सुनो संजू!" कहा मैंने,
लड़के ने मुझे देखा, एक झटके से,
"पापा कहाँ हैं?" पूछा उसने,
"उधर, सड़क के उधर" कहा मैंने इशारे से,
"झूठ!" बोला वो,
"सच!" कहा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"तो चल कर देख लो?' कहा मैंने,
"पापा वहां नहीं हैं" बोला वो,
"फिर?' पूछा मैंने,
"दो आदमी ले जा रहे थे उन्हें" बोला वो,
दो आदमी? कौन दो आदमी? मामला तो वैसा नहीं लग रहा था अब, जैसा मैंने सोचा था!
"कौन दो आदमी?" पूछा मैंने,
"मैं नहीं जानता!" बोला वो,
लेकिन! अब मैं जान गया था!
"वो कब आये थे?" पूछा मैंने,
"कुछ देर बाद" बोला वो,
"तब पापा कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"सीट पर" बोला वो,
"और तुम?" पूछा मैंने,
'सीट पर" बोला वो,
"और सिम्मी?" पूछा मैंने,
"पीछे" बोला वो,
"तो पापा मदद के लिए नहीं गए थे?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
''याद नहीं" बोला वो,
"जब पापा सामने थे सीट पर, तब तुम आगे ही थे न?" पूछा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
"वो दो आदमी, तुमने देखे थे?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"कैसे थे?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता" बोला वो,
अब समझा, इसी क्षण पर प्राण छूटे होंगे इस संजू के! संजू शायद पहला था जिसकी मौत हुई थी सबसे पहले, लेकिन सिम्मी? उसने कहा कि वो पीछे सीट पर थी, जबकि सिम्मी ने कहा था कि वे दोनों आगे बैठे थे सीट पर, तो पीछे कैसे गई?
ये राज अगर खुल जाता तो मैं उसी क्षण ये मामला सुलझा ही लेता! लेकिन अभी तो बड़ा सा ताला जड़ा था! बताता हूँ क्या!
"संजू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"सिम्मी कहाँ हे?'' पूछा मैंने,
"पीछे" बोला वो,
"किसके पीछे?" पूछा मैंने,
और तभी, शहरयार की कमर पर, उस लड़की ने छलांग मारी! जैसे ही मारी, पीछे उड़, धुआं सा होने लगी और अँधेरे में गायब हो गई! संजू हंसने लगा, अपनी बचकानी सी हंसी!
मैंने संजू को गुस्से से देखा, वो पलटा और उस दीवार पर, छलां लगाता हुआ, पीछे भाग गया!
मित्रगण! प्रेत उस से बहुत जूझा करते हैं जो कुछ जानता है! उसी की सबसे बड़ी आजमाइश हुआ करती है! प्रेत सामर्थ्य जांचा करते हैं और फिर, उस खिलाड़ी को खेल दिखाते हैं! दयावान हुआ, वृद्ध हुआ तो बख्श देगा, पुनः नहीं आना, कह, छोड़ देगा प्राण, बालक हो, किशोर हो, प्रौढ़ हो, सबसे अधिक खतरनाक हुआ करते हैं!
"लगी तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"यहीं हैं वे दोनों!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
'सम्भल कर रहना!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"आगे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हाँ, एक बात पूछूं?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"इन्हें हम पर यकीन क्यों नहीं?" बोले वो,
"कोई आया होगा!" कहा मैंने,
"कोई?" बोले वो,
"कोई गुनिया आदि!" कहा मैंने,
"ओ! अच्छा!" कहा उन्होंने,.
"इसीलिए ये सामने खुल कर नहीं आ रहे!" बोला मैं,
''और शायद ये, झूठ समझ रहे हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो अब?" बोले वो,
"ये ऐसे मानते हैं तो ठीक!" कहा मैंने,
'समझ गया!" बोले वो,
'और कोई चारा भी नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ" कहा उन्होंने,
"बच्चों?" कहा मैंने,
"चले जाओ?" बोले दोनों ही, उस बियाबान में आवाज़ वहीँ दब के रह गई थी उनकी! लेकिन जिस ओर से आई थी वहां देखा हमने फौरन ही!
"बच्चों?" कहा मैंने,
"जाओ?" चिल्लाई सिम्मी!
"तुम आते हो या नहीं?" इस बार मैंने गुस्से से कहा,
"झूठ बोलते हो?" बोली वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"हाँ, झूठ बोल रहे हो" बोली चिल्ला कर!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"बच्चे? मुझे क्या फायदा झूठ बोल कर?" पूछा मैंने,
"हमें नहीं सुनना, चले जाओ" बोले दोनों ही,
"जाऊँगा तो ज़रूर!" कहा मैंने,
"अभी" बोली सिम्मी!
"हाँ, अभी!" कहा मैंने,
"तो जाओ?" बोली वो,
"हाँ, तुम्हारे पापा को भी ले जाऊँगा साथ!" कहा मैंने,
और मैंने कोहनी मारी शहरयार को! इशारा किया चलने को वहां से, हम मुड़े ही थी कि, झट से वे दोनों ठीक सामने आ गए! कोई छह फ़ीट दूर! अब देखा उनको हमने गौर से! भुत बुरी हालत थी उनकी तो! संजू का तो एक कन्धा ही गायब था, बायां कन्धा, पिचक गया था, बाजू झूल रही थी नीचे, सर, बाएं कंधे पर टेढ़ा हो गया था, दायीं आँख थी या नहीं, निकल गई थी, ये भी पता नहीं चल रहा था, हाँ, पाँव ठीक थे, सफेद से रंग का शॉर्ट्स था, खूनआलूदा क़तई! घुटने की हड्डी साफ़ दीख रही थी, सफेद रंग की चर्बी बाहर निकल आई थी, शरीर में भारी था वो और वसा चढ़ी रही होगी उस पर! सिम्मी, सिम्मी का खून के मारे बुरा हाल था, उसकी गर्दन की हड्डियां शायद टूट गई थीं, चाहती में टूटी हुई हड्डियों का कूबड़ उभर आया था! पेट सूज गया था, जैसे अभी फटने ही वाला हो, शायद खून का रिसाव था ये पेट के अंदर! एक पल को तो मेरी आँखें ही फ़टी रह गई थीं, कि उनकी मौत तो तत्क्षण ही हो गई होगी, ऐसे भीषण आघात से भला कौन बचेगा? अब लगता था कि जैसे गाड़ी किसी बड़े से पेड़ के नीचे रुकी हो, खड़ी हो, अचानक से कोई बड़ी सी, भारी सी शाख टूटी हो और सीधे ही गाड़ी की छत पर आ गिरी हो, तभी ऐसा मुमकिन था, नहीं तो इस प्रकार से ये हालत होना, समझ से परे था!
"सच बताओ?" बोला संजू!
"सच बताया!" कहा मैंने,
"पापा हैं वहां?" बोला वो,
"हाँ हैं" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा सिम्मी ने,
"उधर, सड़क के उधर!" कहा मैंने,
"हमें तो नहीं मिले?" बोली वो,
"तुम गए ही नहीं वहां?" कहा मैंने,
"रोज जाते हैं" बोली वो,
"किसलिए?' पूछा मैंने,
"पापा को ढूंढने" बोली वो,
"कोई नहीं मिलता?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मम्मी भी नहीं आईं" बोला वो,
"मम्मी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"वो क्यों आतीं?" पूछा मैंने,
"पापा को ढूंढने" बोली लड़की!
"कभी नहीं आईं?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"घर में परेशान होंगी" बोली सिम्मी,
"हाँ, होंगी तो" बोला मैं,
भोलापन! क्या करता, झूठ ही बोलना पड़ा!
"मम्मी बीमार हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला संजू,
"क्या हुआ उन्हें?" पूछा मैंने,
"फ्रैक्चर हुआ पाँव में" बोली वो,
"ओह..तो तुम कहाँ जा रहे थे?" पूछा मैंने,
"अपने घर" बोली वो,
"और मम्मी?" पूछा मैंने,
"नाना जी के घर" बोली वो,
"तो तुम नाना जी के घर से अने घर जा रही थीं!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"रोज जाते थे" बोला संजू,
"मम्मी से मिलने?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"मम्मी पापा के घर क्यों नहीं रहती थीं?" पूछा मैंने,
"कोई था नहीं, मैं स्कूल, ये स्कूल, पेपर चल रहे हैं न?" बोली वो,
"अच्छा, तभी नाना जी के घर!" कहा मैंने,
"हाँ, वहां ऋतु मामी और दीपा बुआ हैं न!" बोली वो,
"समझ गया मेरे बच्चों!" बोले भारी दिल से शहरयार!
"पता नहीं क्यों आया तूफ़ान?" बोली वो,
"हाँ, क्यों आया!" कहा मैंने,
"मम्मी ने मना किया था" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"घर जाने से" कहा उसने,
"पापा के घर?" बोला मैं,
"हाँ" कहा उसने,
"पापा नहीं माने?" बोला मैं,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बोले कि कल आएगी कोई पार्टी!" बोली वो,
"अच्छा, क्या करते थे पापा?" पूछा मैंने,
"फार्मेसी में हैं!" कहा उसने,
"अरे हाँ, हैं!" कहा मैंने,
जल्दी से भूल सुधार ली, कहीं फिर से बात बाद जाती तो पता नहीं और कितनी मेहनत करनी पड़ जाती!
"तब बारिश थी?" पूछा मैंने,
"थोड़ी थोड़ी" बोला संजू,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"पापा के पास ले जाओ?" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"शोकी इंतज़ार कर रहा होगा!" बोला वो,
"कौन शोकी बेटा?" पूछा मैंने,
"मेरा दोस्त" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हम क्रिकेट खेलते हैं न!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
'और ये सिम्मी, सिम्मी! बता दूँ?" बोला वो,
"नो! नो!" बोली ज़रा गुस्से से सिम्मी!
इस प्यार भरी उनकी चुहलबाजी से कलजा पसीज आया मेरा! शहरयार, नीचे मुंह कर, आंसू न रोक पाये अपने! उस ठंड में, देह में, उनकी बातें जैसे अंगार बन, कोने कोने में गर्मी सी भर गईं!
"हाँ, ले चलता हूँ अभी!" कहा मैंने,
"हाँ, ले चलो!" बोली सिम्मी!
"हाँ, वो......?" पूछते पूछते रुक गया मैं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"जल्दी चलो?" बोली सिम्मी,
"हाँ, चलता हूँ" कहा मैंने,
"जल्दी?" बोला संजू भी,
"हाँ बेटा, चलता हूँ!" कहा मैंने,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी गुरु जी?" बोले वो,
"आप पहुंचो इनके पापा के पास!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
मुझे टोर्च दी और मुड़ने लगे,
"रुको?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ये ले जाओ" कहा मैंने,
"आप?" बोले वो,
"ये हैं!" कहा मैंने, इशारा करते हुए, बच्चों की तरफ!
उन्होंने, 'समझ गया' को गर्दन हिला कर कहा और मैं समझ गया!
"सीधे ही जान?" कहा मैंने,
"हाँ, जहां से आये थे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,
और वे लम्बे डिग भर, निकल चले वहां से!
''आपकी गाड़ी भी वहीं है?'' पूछा बच्ची ने, 
"खराब हो गई?" बोला संजू!
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?' पूछा उसने,
"तुम्हारे पापा मिले!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"बीच सड़क पर!" कहा मैंने,
"हमको ढूंढ रहे थे?" बोली बच्ची!
"हाँ, ढूंढ रहे थे!" कहा मैंने,
"पापा!" आवाज़ दे दी सिम्मी ने!
"पापा? हम यहां हैं, पापा?" बोला संजू! खुश हो कर!
''अब हम घर जाएंगे!" बोली सिम्मी!
"हाँ, हम छोड़ देंगे!" कहा मैंने,
"आप अच्छे हो!" बोला संजू!
मेरा तो सीना ही चौड़ा हो गया!
"हाँ अंकल, आप अच्छे हो!" बोली सिम्मी!
"यहां कौन लाया था तुम्हें?" पूछा मैंने,
"भाग आये थे" बोले दोनों,
"क्यों?" पूछा मैंने,
''आवाज़ दे रहा था कोई!" बोला संजू!
"तुम्हारे नाम से?' पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"बच्चों, कह कर!" बोली वो,
"ओह! तभी हमसे डर रहे थे तुम!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली सिम्मी!
"आओ, चलें?" बोला मैं,
"हाँ!" कहा मैंने,
और मैं मुड़ चला! पीछे देखा, तो नहीं थे वो! जानता था, चौगजा चलते हैं ये प्रेत! वे आगे खड़े थे, पेड़ के पास! सड़क के किनारे, मैं भी जा पहुंचा वहां, अब वो रास्ता पार किया, वे छिटके और आगे चलते चले गए!
मेरा इंतज़ार किया, और रुके मिले मुझे!
"वहां?" पूछा उसने,
"नहीं" कहा मैंने,
"लेकिन गाड़ी तो वहां थी?" बोली वो,
"वो, ले गए!" कहा मैंने,
"कौन ले गए?" बोली वो,
"ठीक करने वाले!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"आओ!" बोला संजू!
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम, दौड़ कर चलने लगे, वे तो सिर्फ उछलते से थे, भागता मैं ही था बस! कुछ दुरी पर, शहरयार, टोर्च जलाते हुए दिखे! बच्चे भी वहीं पास आ खड़े हुए थे! मैं पहुंचा उधर, तो शहरयार, थोड़े घबराए हुए से थे!
"क्या हुआ?' पूछा मैंने,
"कोई नहीं बोल रहा!" बोले वो,
"अभी लो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"पापा?" बोली सिम्मी!
कोई आवाज़ नहीं!
"पापा?" बोला संजू!
अब भी कोई आवाज़ नहीं!
अब सिम्मी रोने लगी! पापा-पापा चिल्लाती रही! संजू, बेचारा कभी उसे देखे, कभी हमें!
''सिम्मी?" कहा मैंने,
उसने मुझे देखा!
"आपने झूठ बोला न?" बोली वो,
"नहीं सिम्मी!" कहा मैंने,
"कहाँ हैं पापा?" पूछा उसने,
"यहीं हैं!" कहा मैंने,
मित्रगण!
अब उनके पापा, मनोज, बोले क्यों नहीं? क्या कारण था? और जब बच्चे उस मनोज के करीब थे, तब भी नहीं बोला वो? किसलिए? वजह है, रक्षण-मंत्र! प्रेतावस्था! प्रेत की कुल तैंतीस अवस्थाएं हैं! जो प्रेत मनोज था, वो अहु-प्रेतावस्था है! अर्थात, नैसर्गिकता तो है, परन्तु संज्ञान जागृत नहीं! रक्षण-मंत्र इसी संज्ञान वाले, न वाले प्रेतों को, क्षीण करता है, उनकी नैसर्गिकता से! वे नहीं आते सम्मुख! जिस अवस्था में, वे बालक थे वो अवस्था है, वय-प्रेतावस्था! अर्थात, संज्ञान तो है, परन्तु, समस्त दैहिक क्रियाओं का नहीं! वय-प्रेतावस्था में, वे रूप नहीं बदल सकते! दैहिक-सुख किसी भी प्रकार का हो, उस से वो प्रेत वंचित ही है!
"सिम्मी? संजू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले दोनों,
और मैं चला उनके पास,
वे झट से पीछे खिसक गए! मैं भी रुक गया!
"विश्वास करो! यहीं हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले दोनों,
"तुम, वहां खड़े हो जाओ!" कहा मैंने,
और वे बालक, अपने पिता को देखने, मिलने के लिए बेताब से, फौरन ही, पीछे जा खड़े हुए, जहां से न देख सकते थे उन्हें हम!
"अब?" बोले वो,
''रुको!" कहा मैंने,
और मैं आगे गया!
"सुनो?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"यहीं ठहरना!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मैं आगे गया तब! अब मुझे उस मनोज के प्रेत को, उस भू-गर्भ से बाहर खींचना था जहाँ वो अपनी ही रची क़ैद में क़ैद था! एक बार वो प्रेत अवस्था में बाहर आता तो हैरत में पड़ता तो अवश्य ही, लेकिन पूछता अवश्य ही अपने बच्चों के बार में! मैं अब तैयार था, यहां मुझे प्रतिपन्न-विद्या की आवश्यकता थी! प्रतिपन्न-विद्या माँ नीतिमा की विद्या है! माँ नीतिमा, एक प्रलयंकारी शाकिनि  हैं स्वरुप में, परन्तु माँ अश्वाकिधनु की महासहोदरी हैं! माँ अश्वाकिधनु श्री महाकाली की द्रुत-वाहिनि हैं, यदि घर का कोई भी सदस्य रुठ कर, क्रोध कर के, धन आदि को लेकर, घर से चला गया हो तो पलाश के वृक्ष पर, एक काले धागे को बांधिए, नौ गांठें लगाइए, एक सिरे पर, उस व्यक्ति का नाम, पिता का नाम और निवास-स्थान(वैसे आवश्यक नहीं होता) लिख दीजिये, और एक मंत्र का तैंतीस बार जाप कीजिये, जाने वाला, सात दिनों के भीतर लौट आएगा, अन्यथा कोई खोज-खबर प्राप्त हो जायेगी, तदोपरांत मीन-मांस भोग स्वरुप उस पलाश पर बाँध दीजिये अथवा, बहते पानी में प्रवाहित कर दीजिये! (मंत्र आदरणीय कुमार साहब से प्राप्त कर लें)
तो प्रतिपन्न-विद्या के कारण, प्रेत-शूल, प्रेत-स्तम्भन, प्रेत-स्थापन, प्रेत-शतगंड किया जाता है!
तो मैंने, उस स्थान की मिट्टी उठायी, और माँ का ध्यान किया, कण्ठमाल को कानों पर रखा और उस विद्या का संचार करने हेतु, जप करने लगा! कुछ ही देर में, कंठ में, कड़वेपन का स्वाद घुल सा गया, ये चिन्ह था कि विद्या का संचार हो चला है! मैंने तब वो मिट्टी, उस स्थान पर फेंक मारी! प्रेत-स्तम्भन हुआ और मनोज का प्रेत, तत्क्षण ही प्रकट हो गया!
वो आयु में पैंतालीस-पचास का सा लगता था, देह उसकी देखी नहीं थी, पता नहीं चला कि किस कारण से मृत्यु हुई होगी उसकी! चूँकि वो स्तम्भन में था, अतः, पूर्ण नैसर्गिकता के साथ, सम्मुख खड़ा था! भाव-हीन सा, पत्थर सा बना! निर्जीव सा! हाँ, हमें अवश्य ही देख रहा था!
"मनोज?" कहा मैंने,
मेरी आवाज़ पहचाने उसने!
''आप?" बोला वो,
"हाँ मैं!" कहा मैंने,
"क्या मैं बाहर हूँ?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मेरा शरीर?" पूछा उसने,
"ये, ये जानने का समय नहीं!" कहा मैंने,
वो, हैरत में पड़ने लगा! आसपास देखने लगा, जोड़ने लगा उसका सूक्ष्म, उसको, उसकी गुजरी हुई, अब मृत, स्थूलता से!
"मेरे बच्चे?" बोला वो,
"मिल गए!" कहा मैंने,
वो तो बेसब्र हो उठा! ज़िद सी पकड़ ली, रोये, और फिर चुप हो जाए, फिर से रोये और फिर चुप हो जाए, एक एक सवाल को बार बार पूछे! तांत्रिक, ऐसे ही प्रेतों की खोज में रहते हैं, कि उसको, उसके बच्चों से मिलवा दिया जाएगा, बस वो फलां फलां काम कर दे उनका! वो प्रेत, इसी उम्मीद में, न जाने कैसे कैसे काम करता है! किसी पर सवारी करता है, किसी पर आघात करता है, किसी की हत्या तक कर देता है! फिर से वही पूछता है और ये तांत्रिक, उसको, खट्ट-विद्या से, क़ैद कर लेते हैं! जब भी आज़ाद किया जाए उसे, बस किसी काम के लिए ही, कौन बच्चा, कौन दूसरा! कोई नहीं!
"कहाँ हैं बच्चे मेरे?" पूछा उसने,
"यहीं हैं!" कहा मैंने,
"मिलवाते क्यों नहीं?" बोला वो,
"मिलवाऊंगा!" कहा मैंने,
"कब?" बोला वो,
"अभी बस!" कहा मैंने,
"मैं तड़प रहा हूँ!" बोला वो,
"जानता हूँ" कहा मैंने,
"दया करो!" बोला वो,
"अवश्य ही मिलोगे!" कहा मैंने,
"क्या चाहिए?'' बोला वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"क्या दूँ?" बोला वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"तो मिलवा दो, हाथ जोड़ता हूँ आपके?" बोला वो,
"मनोज?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"बस कुछ सवाल!" कहा मैंने,
"पूछो? जल्दी?" बोला वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोला वो,
"तूफ़ान था उस दिन?" पूछा मैंने,
"हाँ, याद आया!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हम कनोटा से लौट रहे थे!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने, वहां, नहीं वहां, वहाँ गाड़ी खड़ी की थी!" बोला वो,
"वहाँ?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहां!" कहा उसने,
"बारिश थी?" पूछा मैंने,
"बहुत ज़्यादा!" बोला वो,
"सभी रुक गए थे?" पूछा मैंने,
"हाँ, हम तीनों!" बोला वो,
"और भी कोई?" पूछा मैंने,
"नहीं, याद नहीं" बोला वो,
"फिर क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"एक आवाज़ हुई, बड़ी तेज!" बोला वो,
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"मैंने सोचा, बिजली कड़की है!" बोला वो,
"फिर?" कहा मैंने,
"लेकिन वो बिजली नहीं थी!" कहा उसने,
"क्या था?" पूछा मैंने,
"पेड़!" बोला वो,
"पेड़ गिरा था?" पूछा मैंने,
"हाँ! याद आया!" बोला वो!
"फिर?" पूछा मैंने,
"मुझे याद नहीं" बोला वो,
"बच्चे?" कहा मैंने,
"आगे बैठे थे" बोला वो,
''दोनों?" पूछा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
"ग्यारह बजे थे?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"सवा नौ बजे होंगे" बोला वो,
फिर वो चुप हो गया!
"उसके बाद, अपने आपको कहाँ पाया?" पूछा मैंने,
''एक गड्ढे में, गढ्ढा था वो, ये, ये!" बोला वो, बैठ कर, हाथ मारते हुए!
"यहां कौन लाया तुम्हें?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, कौन लाया मुझे?" बोला वो सबक उठा...


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"समझ गया हूँ मनोज!" कहा मैंने,
"मुझे मिलवा दो, मिलवा दो, मैं तड़प रहा हूँ" बोला वो!
"बस, कुछ देर और!" कहा मैंने,
शहरयार, मेरी तरफ ऐसे देख रहे थे कि मैं जैसे ज़बरदस्ती कर रहा हूँ उस मनोज के साथ! जैसे मुझे, कुछ आनंद आ रहा हो, उसी तड़प देख कर! मन मसोसे खड़े थे वो! मेरी जगह वो होते, तो बह जाते और मिलने देते! और फिर, हो जाती मुश्किल! वो समझ ही नहीं रहे थे कि मैं क्या कर रहा हूँ और क्यों कर रहा हूँ!
"मनोज?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"मिलना चाहते हो ना?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला जोश में भरके!
"तब मेरी बात माननी होगी!" बोला मैं,
"वो क्या?" पूछा उसने मायूस हो कर!
"मेरा कहना मानना होगा!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा फिर से टूटते हुए उसने!
"बच्चों से मिलकर, तुम मेरे पास ही लौटोगे!" कहा मैंने,
"हाँ, लौटूंगा!" कहा उसने,
"सच कहते हो?" पूछा मैंने,
"मैं झूठ नहीं बोलता!" बोला वो,
"मनोज.....तुम्हें जानकर........खैर............मिलना चाहते हो न?" पूछा मैंने,
"हाँ! हाँ!" बोला वो खुश होकर!
'तो जाओ!" कहा मैंने,
मैंने विद्या को मोड़ दिया! कुछ समय के लिए, तटित किया, और उसे, वहीं खड़े रहने को कहा! वो तो दौड़ने ही वाला था, फिर रुक गया अचानक से!
"आवाज़ दो!" कहा मैंने,
"सिम्मी? संजू?" बोला वो, चिल्लाकर!
"पापा! पापा! पापा!" आई आवाज़ें!
और मनोज! दौड़ भागा वहाँ से! वे बच्चे तो मारे ख़ुशी के उछल ही पड़े, जैसे बन पड़ा उसने! और फिर, तीनों की ही रुलाई फूटी! आवाज़ें गूँज गईं उनकी! ये आवाज़ें, सभी सुन सकते थे, इसे प्रेत-विलाप कहते हैं! प्रेत का हंसना भले ही न सुनाई दे, परन्तु, विलाप के स्वर अवश्य ही सुनाई देंगे!
आगरा से पहले, एक जगह हे फरहा, यहना कभी जंगल में, रेलवे-लाइन से, पूरब में, करीब चार सौ मीटर दूर, एक जगह पड़ती हे, ये खंडहर सी हे, अब कुछ शेष नहीं वहां, रात को, आप यहां, प्रेत-विलाप सुन सकते हैं! ये कुल तीन स्वर हैं, दो स्त्रियों के और एक किसी किशोर का, कहा जाता हे, लड़का, यहां कुँए में गिर कर मारा गया था, संग ही उसकी माँ भी कूद पड़ी थी और फिर, उसकी बड़ी बहन भी, ये विलाप करीब नब्बे वर्ष पुराना हे, दिन में भी, कभी कभी, ये विलाप सुना जा सकता हे!
एक और स्थान हे, ये स्थान दिल्ली-हरिद्वार मार्ग पर हे, मंगलोर कस्बे से कोई दो सौ मीटर दूर, यहां, किसी बस का एक्सीडेंट हुआ था, कुल सत्ताइस यात्रियों की मौत हुई थी, वे सभी के सभी, कभी भी, ऐसा करूं विलाप करते हैं कि जी दहल जाए, खासतौर पर, बरसात के समय, रात्रि करीब नौ के आसपास! ये अवस्था, खण्डाग्र हे, जो कारण जान सके, वे छूट गए, जो सोते रहे, आज भी सोये हैं! विलाप उनका, जो वहीँ प्राण दे बैठे!
खैर, वहाँ उनका रूदन ज़ारी था, पिता, उन दोनों हो उठा, गले से लगा, चूमे जा रहा था! उनको छू छू के देख रहा था! मार्मिक दृश्य था, लेकिन पत्थर बनना बेहद ज़रूरी हे नहीं तो कुछ नहीं हो पाएगा!
"उफ्फ्फ" बोले शहरयार,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कैसा दृश्य हे!" बोले वो,
"अभी देखते रहो आप!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"अभी मनोज को पता ही क्या हे!" कहा मैंने,
"ओ मेरे भगवान!" बोले वो,
''तो समय, देखें आप!" कहा मैंने,
"बेहद ही मुश्किल हे!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ, ज़रा!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"मनोज के पास!" कहा मैंने,
"किसलिए?' बोले वो,
मैं भांप रहा था उनका मन, वे तो बह निकले थे अपने भावों में!
"कितनी देर और फिर?" पूछा मैंने,
"जब तक, वे लौटे?" बोले वो,
"लाभ?" पूछा मैंने,
"नौ वर्ष हुए!" बोले वो,
"तो?" कहा मैंने,
"मिलने दो!" बोले वो,
मित्रगण! शहरयार साहब, क्यों देख रहे थे उन प्रेतों को? क्या कारण था? कारण यही, कि वे प्रेत नहीं चाहते थे कि हम उन्हें न देख पाएं! सो, शहरयार देख पा रहे थे, आगे की एक घटना में, मैं बताऊंगा कि कैसे शहरयार साहब, मरते मरते बचे थे एक स्थान पर! हिम्मत हे बहुत, सामने आये तो किसी को भी उठा, पटक ही दें! मज़बूत देह हे उनकी! हाँ, हरफनमौला आदमी हैं! यारों के यार और जिस से हो गई खुन्नस तो समझो उस से निबट कर ही दम लेंगे! मेरे साथ जब से हैं, करीब दो साल से, तब से, व्यवहार में बदल आया हे उनके, नहीं तो ताबड़तोड़ सा जवाब!
"कैसा अच्छा होता अगर ये आज भी, ज़िंदा होते...." बोले वो,
"हाँ, होता!" कहा मैंने,
"पर...अफ़सोस!" बोले वो,
"कोई अफ़सोस नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"जो हे, सो हे!" कहा मैंने,
''आप कह सकते हो!" बोले वो,
"आप भी!" कहा मैंने,
"वक़्त लग जाएगा" बोले वो,
"मानता हूँ" कहा मैंने,
"आओ?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और हम आगे बढ़े, फिर..............


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

हम बढ़े आगे की तरफ, जहाँ वे सब थे, वे तीनों ही, काफी समय बाद मिलन हुआ था, समय! समय मात्र हम मनुष्यों के लिए ही तो है! इन प्रेतों के लिए समय के कोई मायने नहीं! उन बच्चों के लिए, ये वही रात थी! उस मनोज को भान तो था, परन्तु, अपने बच्चों के प्रेम के कारण, उसको भूल बैठा हो, समझ में आता था! समय का ये खण्ड, बड़ा ही अनूठा है! जिसे हम पल कहते हैं, पल, में विपल हैं, फिर प्रतिपल और इस प्रकार, समय का छिद्रण किया जाता हे! समय-छिद्रण पश्चात, एक संधि लब्ध हुआ करती हे, इसी संधि पर, प्रेत अस्तित्व में आ जाते हैं! वैसे मैं प्रेत नहीं कहूंगा इसे, ये भूत हे, भूत ही, वर्तमान से जोड़ता है भूत को, इस अस्तित्व को, भूतकाल का समय-भान तो रहता हैं परन्तु वर्तमान कभी समाप्त नहीं होता उसका! वो, इसी खण्ड को, वर्तमान समझ, आगे बढ़ता जाता है! मनुष्य की देह, पल-प्रतिपल बदलती है, बूढ़ी होती जाती है, दो वर्षों में ही, चेहरा बदलने लगता है! इसीलिए ये भूत, जिसको दो वर्ष पहले देखा होगा, पहचान नहीं पाते, हना, यदि परस्पर संबंध में रहे हों, तो ऐसा सम्भव होता है! इसी कारण से, कोई भी भूत, लगातार तलाश में घूमता रहता है, तलाश में, अपनी उस इच्छा की पूर्ति हेतु, जी जस की तस रह गई! उसी चेहरे-मोहरे से मिलते-जुलते पर, अपना अधिकार समझ बैठता है! उसको याद दिलाता है, चीज़ें उलट-पुलट करता है, स्वप्न में आता है आदि आदि! जब भूत, अपनी शेषायु भोग कर लेता है और तब भी इच्छा-पूर्ति का कारण शेष रहे, या इच्छा-पूर्ति ही न हो, तो वो, उस इच्छा को मूर्त देने के लिए, प्रेत रूप धर लेता है! अब स्मरण रहे, प्रेत एक योनि है, और उसमे नैसर्गिक रूप से शक्तियां, इन्हें हम शक्तियां ही कहते हैं, उनके लिए ये मात्र साधारण सी नैसर्गिकता ही है, स्वतः ही आ जाती हैं! पल में कहाँ और पल में कहाँ! माया रचना, मूर्त रूप देना, स्थूल पर कब्ज़ा करना अदि आदि ये प्रेत के ही गुण हैं!
यहां, मनोज की इच्छा क्या शेष रही? अपने बच्चों से मिलने की, ये नहीं की उसकी पत्नी उसका इंतज़ार कर रही है, या, उसके बच्चों का भी किस बेसब्री से इंतज़ार कर रही है! न उसने, अपनी पत्नी से मिलने की ही इच्छा जताई! क्यों? क्योंकि वो उसका मानवीय स्वाभाव होता, अब चूँकि वो मानव नहीं, एक भूत है, जिसकी इच्छा मात्र यही है की वो, पुनः अपने बच्चों से मिले! यदि मैं नहीं मिलने देता, तो निःसन्देह ये इच्छा उसकी, सदैव ही बलवती रहती, और वो, प्रेत ही बन जाता! तब तो उसका भटकाव पता नहीं कहाँ तक, कब तक चलता! न वो अलग होता बच्चों से, और न, बच्चे ही उस से! वे उसी क्षण में आनन्दित होते, रोज ही दुर्घटना होती, रोज ही मरते, रोज ही यही क्षण जीते! और ये, उचित नहीं, हाँ, मैं भी उनको क़ैद कर सकता था, मनचाहा काम करवा सकता था, लेकिन ये भी तो पाप ही है! एक मज़बूत को ज़ंजीर में बाँधने से, एक आशय, पंगु को ज़ंजीर में बांधना, शोचनीय एवं, निःकृष्टतम कर्म है! मुझे कभी कभी हैरत हुआ करती है, कहता किसी से नहीं, कि कर्म को हम, मात्र श्री भगवदगीता से ही जोड़कर क्यों देखते हैं? कर्म के कई प्रकार है, और फिर प्रकारों के भेद! और फिर, यदि आत्मा को, कोई मार नहीं सकता, ये गीली नहीं हो सकती, दुःख-सुख से परे है, मात्र चोला ही बदलती है, तो यमलोक के खौलते तेल के कड़ाहे क्यों? ज़ंजीरें क्यों? उलटा लटका दिया जाता है, प्रताड़ना दी जाती है, क्यों? अर्थ सिर्फ समझ का है! समझ, अर्थात, आत्मा के मूल उद्देश्य का! और कुछ नहीं! ये कड़ाहे, ये खौलता तेल, ये प्रताड़ना आदि मात्र शाब्दिक-उदाहरण हैं! कोई किसी के पुण्य, पाप वाहन नहीं कर सकता! अब पुण्य और फिर से पाप, पुण्य के भी प्रकार हैं और फिर भेद भी! जैसे, आपने, एक गिलहरी को, बचाने के लिए, एक कौवे को मार दिया! ये कैसा कर्म है? पाप या पुण्य? न मारते तो आपके सामने गिलहरी के प्राण चले जाते! मारना पड़ा कौवे को, तो पाप हो गया! तो ये कौन सही ठहराए? एक उदाहरण देता हूँ, स्वयं ही जांचिए आप! आज़ादी का समय था, ग़दर मचा था, चोरी-चकारी, लूट-पाट, हत्याएं आदि, ज़ोरों पर थीं! ऐसे ही, एक आदमी ने, दो बोरे चुराए, एक पंसारी के यहां से, बोरों में चीनी भरी थी, चीनी का मोल, बहुत था उन दिनों के हिसाब से! सरकारी फ़रमान था, कि कोई अगर पकड़ा गया, चोरी के सामान के साथ और बरामदगी हुई तो फौरन ही गोली मार दी जायेगी! अब वो आदमी बेचैन! घबराया हुआ! क्या करें! फेंक सकता नहीं! तो एक जगह अपना खच्चर रोका, जहां रोका, वो एक गाँव की सरहद थी, क्या करें, आसपास देखा, तो एक कुआं दिखा, कुँए में झनक कर देखा, तो लगा, कुआँ सूखा है! कल या जब भी मामला ठंडा पड़ेगा, निकाल लगा बोरी, देख तो कोई है नहीं रहा! पहला बोरा फेंक दिया दम लगाकर, बोरा, अंदर जा गिर! दूसरा बोरा लाया, वो भी फेंका, और जब फेंका, तो हाथ खुले नहीं, पाँव चले नहीं और वो, खुद भी बोरे समेत, कुँए में जा गिरा! अगले दिन, कुछ लोगों ने आवाज़ सुनी, मारे ठंड के अकड़ गया था वो! गाँव वालों ने, तीमारदारी की, दो दिन जीया लेकिन बच न सका! तो लगा दिया लकड़ियों में! अब गाँव वालों ने पानी पिया कुँए का, पानी मीठा! उसी दिन उस आदमी की चिता जहाँ जली थी, दीये जलाए गए! ये सिलसिला काफी दिनों तक बरक़रार रहा!
तो साहब!
जरते जरते आंच है और बुझते बुझते साँच!
मतलब आप समझ ही सकते हैं इसका! समझ लीजिए! बस इतना ही, कि साँच न हो ख़तम कभी!
खैर जी!
तो हम आगे बढ़े और जा पहुंचे उन तीनों के पास, वो बाप, उन दोनों बच्चों को कंधों से चिपकाए, बैठा था उकड़ू! वे रोते तो खुद भी रो पड़ता!
"मनोज?" कहा मैंने,
न सुनी उसने! ऐसा गुम!
"मनोज?" कहा मैंने ज़ोर से!
"ह..हाँ?" बोला वो,
उसने मुझे देखा, फिर शहरयार को, बच्चे उसके बाएं कंधे की तरफ खड़े हो गए थे, अब कोई भाव नहीं था चेहरों पर उनके!
"आओ?" कहा मैंने,
उसने मुंह फेरा अपना!
''आओ?" कहा मैंने,
वो खड़ा हुआ, तो बच्चों ने कस कर, पकड़ लिया उसे!
"रुको बच्चों!" कहा मैंने,
"आओ मनोज!" बोले शहरयार!
"हाँ" कहा उसने,
और मायूस सा, मुड़ा हमारी तरफ, बच्चे छोड़ें नहीं उसे!
"रुको बच्चों, अभी आ जाएंगे पापा!" कहा मैंने,
मनोज ने, बच्चों के सर पर हाथ फेरा, और आने लगा हमारी तरफ ही!
"आओ" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उसने तब बच्चों को कुछ समझाया, जिसे वो समझ सकते थे और समझ भी गए! वे वहीँ जा खड़े हुए, पीछे की तरफ! आ गया था मनोज मेरे पास ही! मायूस, टूटा सा, जैसे शायद, जानता हो वो इस विषय में!
"मनोज?" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"अब समय हुआ!" कहा मैंने,
"मैं समझा नहीं?" बोला वो,
"अब समय हुआ!" मैंने फिर से कहा,
"समझाइये मुझे, कैसा समय?" पूछा उसने,
"जाने का!" कहा मैंने,
"जाने का? कहाँ?" पूछा उसने,
"यहां से जाने का!" कहा मैंने,
"इस जगह से?" बोला वो,
"नहीं, इस धरा से!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"हाँ!" बोला मैं,
"कैसा समय? जाना? नहीं समझ आ रहा मुझे?" बोला वो,
"तुम यहां, इस ज़मीन में दफन थे!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"हमने निकाला तुम्हें!" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"कितने दिन दफन रहे?" पूछा मैंने,
"नौ साल" बोला वो,
"क्या कोई मानुस जीवित रह सकता है?" पूछा मैंने,
"मैं नहीं रहा क्या?" पूछा उसने,
"रहे!" कहा मैंने,
"तो फिर?" बोला वो,
"लेकिन जीवित न रह कर!" बोला मैं,
"क्या?" पूछा उसने! वज्राघात सा हुआ उस पर तो! कांच का वो घर, जिसमे कई मंजिलें थीं, एक ही पल में बिखर गया!
"तुम अब, जीवित नहीं हो मनोज!" कहा मैंने,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"ये ज़मीन, वो सड़क, ये समय, मेरे बच्चे? मेरी बीवी?" बोला वो,
"ये ज़मीन, यहीं है! ये सड़क, भी यहीं है! तुम्हारी बीवी, नहीं पता मुझे उसके बारे में, ये बच्चे, नहीं हैं! नहीं हैं मतलब, जीवित नहीं हैं, तुम सब, मौत के शिकार हुए उस रात!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हो आप?" बोला वो,
''सही कह रहा हूँ!" कहा मैंने,
"कैसे विश्वास करूं?" बोला वो,
"जो भी बन पड़ता हो!" कहा मैंने,
"मैं भाग जाऊं तो?" बोला वो,
"बच्चों को लेकर?" पूछा मैंने,
और इसी बीच, फिर से, मैंने विद्या पुनः संचारित कर ही दी थी! मुझे भान है की ऐसा हो होता है!
"हाँ, बच्चों के साथ?" बोला वो,
"ठीक है, भाग जाओगे तो भाग जाओ!" कहा मैंने,
और वो हिला जैसे ही, कि मर्मांतक चीख गूंजी उसकी मुंह से! ये, स्तम्भन हुआ करता है! जहाँ है, वहीँ खड़ा रहेगा वो! शैतान प्रेतों को, ऐसे ही स्तम्भित किया जाता है!
"और प्रयास करो?" कहा मैंने,
और तब उसने बहुत प्रयास किये! बहुत! अब तो वो आवरण में था! जैसा मैं चाहता, वही देखता वो! जैसा करवाना चाहता, वही करने को विवश था वो!
"देख लो, वहां चले जाओ, तुम्हारे बच्चे हैं वहां या नहीं, देख लो?" कहा मैंने,
और वो जा भागा! क़ैद से छूटे हुए सिंह की तरह से! वहां पहुंचा, आसपास देखा, कभी बाएं भागे, कभी दाएं भागे! कभी मुट्ठियां बंद करें कभी गुस्से में हमें देखे!
"सिम्मी? संजू?" आवाज़ें दें वो बार बार!
और बालक, वहीँ थे! न देखें वो उसे, न सुनें ही, न वो ही, देखे, न सुने! ये है खट्ट-विद्या! सबसे सरल है खट्ट-विद्या को सिद्ध करना! मात्र एक रात्रि श्मशान में बितानी होगी! भोग चढ़ाना होगा महामसानी को! जीवट हो, तो सम्भव है अन्यथा, प्रेत ही फांकें छील देंगे देह की! एक छोटा घड़ा, कुछ चावल, मांगे हुए, एक रोटी सेंकने का चिमटा, तीन प्रकार का मांस, आधा लीटर पानी और एक बोतल शराब! और खट्ट-विद्या हाथ में! विधि नहीं बताऊंगा!
खट्ट-विद्या सीख ही, अपने आपको ये ओझे, गुनिये, भगत, कारू, खारु अपने आपको, तांत्रिक समझ लेते हैं! कोई भी व्यक्ति, इनके पांवों के नीचे की मिट्टी प्राप्त कर, अपने मूत्र से भिगो, किसी श्मशान में फेंक आये! खट्ट-विद्या तभी ख़तम! इसीलिए ये सामने नहीं पड़ते!
हाँ, तो!
वो दौड़ा चला आया हमारे पास!
"बच्चे, बच्चे! मेरे बच्चे कहाँ गए?'' बोला घबराते हुए!
"यहीं हैं!" कहा मैंने,
"नहीं देख पा रहा हूँ?" बोला वो, रोते हुए तब!
"अब आया मेरा मतलब समझ?" कहा मैंने,
"हाँ, आया, आया समझ! मेरे बच्चे, मेरे बच्चे!" बोला वो,
"मनोज! अभी तो वो यहीं हैं! सोचो, कोई और आये, बच्चे लग, तुम अलग, पता नहीं कब तक! सोचो!" कहा मैंने.
"नहीं नहीं! ऐसा नहीं होने दूंगा!" कहा उसने!
"कुछ नहीं कर पाओगे!" कहा मैंने,
मैंने इतना कहा और वो बुक्का फाड़ रोया! बैठ गया नीचे! पता नहीं क्या क्या कहता रहा, अपने बचपन की यादें, अपने पिता की याद, माँ की, अपनी बीवी की, अपने बच्चों की! पता नहीं क्या क्या!
"मनोज?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"अब वैसा ही आक्रो, जैसा मैं कहता हूँ, यकीन रखो, तुम साथ ही रहोगे तीनों!" कहा मैंने,
"मेरे बच्चे भी?" बोला वो,
"हाँ, बच्चे भी!" कहा मैंने,
"मुझे मंज़ूर है!" बोला वो, और खड़ा हो गया!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"ठीक है मनोज!" कहा मैंने,
और तब अपना कण्ठमाल अपने कानों पर रख लिया मैंने! ये एक क्रिया ही है, कुछ उद्देश्य-पूर्ति हेतु! 
"सुनो!" कहा मैंने,
"पापा? पापा?'' गूंजी उन बच्चों की आवाज़ें!
"सिम्मी? सिम्मी? संजू?" न रोक सका वो अपने आपको! फौरन ही जवाब दिया था उसने, कूद हो पड़ता अगर सामने मैं न होता तो!
"सिम्मी? संजू?" बोला वो,
"पापा? पापा? कहाँ हो?" आई उन दोनों बच्चों की आवाज़ें! घबराई हुई सी!
"जाओ, मिल लो!" कहा मैंने,
और उसने कोई जवाब नहीं दिया! बिजली की फुर्ती से उड़ चला हो जैसे! शहरयार, सर उचका-उचका के, ढूंढ रहे थे उनको!
"हमारा काम अब ख़तम हुआ!" कहा मैंने,
"ख़तम?" बोले वो, अचरज से!
"हाँ!" कहा मैंने,
"लेकिन ये?" बोले वो,
"देख लो, कोई नहीं है वहां!" कहा मैंने,
वे दौड़े गए, आसपास देखा, सच में ही कोई नहीं था! दौड़ कर मेरे पास चले आये वो!
"कहाँ गए?" पूछ उन्होंने,
"कहीं नहीं!" कहा मैंने,
"वहां तो नहीं हैं?' बोले वो,
"वो, अब बंधन में हैं!" कहा मैंने,
"बंधन?" बोले वो,
"हाँ, मेरे पास!" कहा मैंने,
"ओह! समझा!" बोले वो,
"हाँ! करना होता है ऐसा!" कहा मैंने,
"हाँ, समझ गया!" कहा उन्होंने,
तो मित्रगण!
वो स्थान, अब, सूना हो गया था! न कोई क़ैद था वहां, न कोई दफन ही! न कोई भटक ही रहा था!
''आओ, चलो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम चल पड़े वापिस! घड़ी देखी, दो बज चुके थे, कोहरे ने आज साथ निभाया था हमारा, वो, जैसे आज, खुश था, खुश, तभी तो आज न घिरा था! उसके पालने में भटकते वे प्रेत अब मुक्ति की राह पर थे!
"उनका ब्रीफकेस?" बोले वो,
"पता कर लेंगे!" कहा मैंने,
"अच्छा, चलिए!" बोले वो,
इसके बाद............
हम वापिस हो गए थे, सभी को बताया, सभी हैरत में पड़े! लेकिन सुकून भी हुआ, कोई भी हो सकता है उस मनोज की जगह, कोई भी!
मित्रगण!
कोई तेरह दिन के बाद, मनोज और उसके बच्चों को आज़ाद किया मैंने, एक इच्छा थी मनोज की, वो पूर्ण करनी थी, सो की जायेगी, ऐसा बताया गया उसे! और उस रात, बारह बज कर, पैंतीस मिनट पर, मनोज, अपने बच्चों के साथ, विदा हो गया इस धरा से! वो ब्रीफकेस, सुशील जी को बताया गया था उसके बारे में, वो मिला, लेकिन चीथड़े की हालत में, कुछ बाकी न था, था तो बस स्टील की कुछ पत्तियां, कपड़े नहीं थे, सामान नहीं था, इसे ही ढोए जा रहे थे वे छोटे से बच्चे!
उसकी पत्नी, सुष्मिता के घर का पता भी मिला था, कनोटा का, अफ़सोस, तीन वर्ष पहले उसकी मौत हो गई थी, मनोज के घर कोई नहीं गया, कुछ शेष नहीं था अब! हाँ, उस मनोज की लाश, जिसका अब कोई नामोनिशान बाकी नहीं रहा होगा, नौ साल बहुत ही लम्बा वक़्त हुआ करता है, उसका वो, वो कंकाल अभी भी होगा उधर, क्या पता! मैंने नहीं ढूंढा!
मैं, उस सड़क से, बाद में तीन बार गुजरा, तीनों बार, उस जगह को रुक कर देखा! कभी यहीं वो रात आई थी, एक तूफ़ान, एक हादसा और फिर..................
इतना ही सोच....आगे बढ़ता चला जाता हूँ मैं!
अभी तो बहुत हैं मनोज! बहुत सी सिम्मी और बहुत से संजू! मैं, तैयार हूँ! फ़र्ज़ से पीछे नहीं हटना चाहिए कभी! क़ाबिल हो कर भी मदद न कर सको तो फिर लानत ही ठहरे! 
मित्रगण!
ईश्वर का काम कब है, क्या है, किसलिए है? ये तो वो ही जाने! यहाँ तो हाथ को हाथ है! मैं गिरूं तो बढ़ा देना हाथ, आप गिरो तो मैं बढ़ा दूंगा!
मुझे यकीन है, ये भी, जो तुम्हारा हाथ बढ़ा है, उसकी मर्ज़ी से ही बढ़ा है! उसकी मंशा वो जाने!
साधुवाद!


   
ReplyQuote
Page 3 / 3
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top