सुबह बड़ी ही अलसाई सी थी! मौसम तो साफ़ था, धुंध भी हल्की ही थी, होने लगी थी मेरा मतलब, इसका एक फायदा ये होना था कि दोपहर में शायद मौसम अच्छा रहे! सर्दी में अगर धूप की कुछ गर्माइश मिल जाए तो समझो जन्नत मिली! नहीं तो सर्दी मिटाने के लाख जतन कर लो, मिटेगी ही नहीं! जब तक अलाव जलेगा तब तक तो जन्नत, ज़रा सा हटे नहीं कि सर्दी ने करनी शुरू की जमा-तलाशी!
तो सुबह उठ, फ़ारिग़ हुए, नहाए-धोए बारी बारी से, फिर बढ़िया सा नाश्ता कर लिया! गर्मागर्म नाश्ते से बड़ी राहत पहुंची! धूप हालांकि अभी न निकली थी, लेकिन मौसम में कुछ गर्माइश की सू सी थी, एक तो हवा नहीं थी, हवा जो चल जाती तो समझो हाल फिर से खराब हो जाता!
इसी तरह, दोपहर करीब साढ़े बारह बजे, हल्की सी धूप नुमाया हुई! अब भागते भूत की लंगोटी भली! उसी से राहत की सांस ली! तभी प्रेम जी के पास फ़ोन आ गया सुशील जी का, वे काम की अधिकता के कारण नहीं आ सकते थे, जब तक आते, चार बजे तक, धुंधलका ही छा जाता! तो बढ़िया यही था, कि शहहरयार, अपनी गाड़ी निकालें और चलें हम फिर उसी स्थान की तरफ!
तो हम सभी की राजी बन गई! नरोत्तम जी भी रजाई से बाहर निकल आये थे, सिगरेट के दम लगा, वे भी तैयार थे संग हमारे चलने को! नहीं तो अकेले ही क्या करते यहां! कहीं गार्ड से भिड़ जाते तो उसकी नौकरी या तो चली ही जाती या फिर वो खुद ही भाग जाता वहां से!
तो करीब एक बजे, मौसम बढ़िया था, और नज़र भी ठीक आ रहा था, मौक़ा अच्छा था, हम तैयार हो गए चलने को! रास्ता रात को देख ही लिया था, दिक्कत कोई होती नहीं!
तो हमारी गाड़ी आगे बढ़ गई! उसी रास्ते पर!
"कहाँ परै है?" बोले नरोत्तम जी,
"पास ही है" कहा मैंने,
"धोरै ई दीखै?" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"फेर तो कोई ना!" बोले वो,
"हाँ, आराम से बैठिए आप!" कहा मैंने,
गाड़ी फिर से आगे बढ़ी, इस बार, कुछ मिट्टी सी पड़ी थी वहां पर, नमी की वजह से कुछ कीचड़ सी हो गई थी, हमारे पीछे दो ट्रक थे, ऐसे हॉर्न मारे उन्होंने कि हमारी तो आवाज़ ही गायब हो गई थी!
"इन्हें निकल जाने दो यार!" कहा मैंने,
"सायरे अर्रा रए हैं कुत्तान की तरियां!" बोले वो,
ट्रक को जगह दी, उनके लिए भला क्या मिट्टी, सर्र से निकल गए! साफ़ा बांधे हुए उनके चालक ऐसे देखें हमें कि जैसे उनकी फॉरमूला-वन में बाधा डाल दी हो हमने!
"इन्हीं का राज चलता है जी सड़क पर!" बोले प्रेम जी!
"ये तो है!" कहा मैंने,
"ओ रे प्रेम?" बोले नरोत्तम जी,
"हाँ, बड़े साहब?" बोले वो,
"दवा डारि के ना?" बोले वो,
"दवा?" चौंक के पूछा प्रेम जी ने!
"रै धी * **! सुराप?" बोले वो,
"हाँ जी, पड़ी है!" बोले वो,
"एक सै दऔ हो रयीं ऐं?" बोले वो,
हम हंस पड़े! सभी के सभी!
"निकाल लै?" बोले वो,
"अभी?" पूछा उन्होंने,
"ना जी, अबही च्यौं! नारियल फोडुंगौ, तब पियुंगौ!" बोले वो,
"गुस्सा न करो साहब!" बोले असरार जी!
"कछु गिरास-फरास परौ है?" पूछा उन्होंने,
"न, ले लेते हैं!" कहा प्रेम जी ने,
"ले लै फेर!" बोले वो,
"बड़े साहब?" बोले असरार जी,
"बोर?" बोले वो,
"अभी तो वक़्त भी नहीं हुआ?" बोले वो,
"*** का कुछ बखत होवै?" बोले वो,
अब न थमी हंसी!
फट से पड़े हम सभी उनकी बात सुनकर!
"वैसे एक बात है!" बोले शहरयार जी!
"क्या?" पूछा मैंने,
"बड़े साहब की बातें लाख पते की हैं!" बोले वो,
"अकाट्य, मतलब?" कहा मैंने,
"हाँ, यही!" बोले वो,
"पुराने चावल हैं!" कहा प्रेम जी ने!
"ये तो है!" बोले वो,
"चावर-वावर छोरि तू, गिरास ला?" बोले वो,
"अभी!" बोले असरार!
"उधर है ना वो दुकान सी, रोक लेना ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शहरयार!
और रोक दी उस दुकान के सामने!
उतरे नीचे प्रेम और असरार जी! झुके उनकी खिड़की की तरफ!
"कुछ और?" पूछा उन्होंने,
"ले अइयो कछु दार-फार, मटरा-फटरा!" बोले वो,
"अच्छा!" बोले वो, और चले गए!
"कुछ दिखौ रातै?" पूछा उन्होंने,
"ना जी!" बोले शहरयार!
"अच्छा जी?" बोले वो,
"हाँ, ठंड बहुत थी!" कहा मैंने,
"ठंड तौ मार ई रई है?" बोले वो,
"ले तो रहे हो, ठंड की दवा?" पूछा मैंने,
"खून जम जावै है!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"सुराप गर्मी देवै!" बोले वो,
"सच बात!" कहा मैंने,
"लै लैयौँ एक आदु?" बोले वो,
"आप निबट लो पहले!" कहा मैंने,
तो जी, वे ले आये सामान सारा! पानी भी, गिलास भी और एक बड़ा सा मूंग-दाल का पैकेट भी दे दिया उन्हें!
"हाँ जी?" बोले वो,
"जी?" कहा मैंने,
"लोगे?" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"हां रे, प्रेम?" बोले वो,
"अभी ना जी!" बोले वो,
"असरार?" बोले वो,
"ना, अभी न!" बोले वो,
"तिहारी मर्ज़ी, मरो!" बोले वो,
"मरो?" बोले शहरयार!
"मरो जायरे में!" बोले वो,
"आप जियो!" बोले असरार जी!
"सो तो है ई!" बोले वो,
"आराम से पीना?" बोले प्रेम,
"च्यौं?" बोले वो,
"रात की याद है?" बोले वो,
"कहा?" बोले वो,
"कल तो लड़ाई चल रही थी!" बोले प्रेम,
"लड़ाई? कातै?" बोले वो,
"सरोज भाभी जी से!" बोले असरार जी!
"है? सो तो चरती रहवै!" बोले वो,
"रात रात भर?" पूछा उन्होंने,
"चौबीसों घंटा!" बोले वो,
उन्होंने बोली और हम हंसे सारे! मैं तो गाड़ी से बाहर ही निकल आया! मेरे पीछे शहरयार जी भी!
जब हंसी पर लग़ाम कसी तो अंदर बैठे!
"आ लई समझ!" बोले वो, हँसते हुए!
"वैसे आदमी कमाल के हो जी आप!" बोले शहरयार!
"मोटा खायौ है!" बोले वो,
"हमने कब कही पतला खाया है!" बोले प्रेम!
" ** मारि के सीसा फोर दयूं आजु भी!" बोले वो,
अब तो हंसी बवाल कटा! हम तो हंस हंस के दुल्लर हो गए! प्रेम जी को तो खांसी उठ गई! शहरयार साहब हँसते हँसते दुखी हो गए! असरार साहब, उछले ही जाएँ और मैं, गिर न जाऊं बाहर कहीं, सम्भालते रहूं अपने आप को!
"शहरयार जी?" बोले असरार!
"जी?" बोले वो,
"सीसा बचा लेना!" बोले असरार जी!
फिर से हंसी फूटी हमारी तो!
"सांत! सांत!" बोले नरोत्तम जी!
"जी!" कहा मैंने,
"हाँ साहब!" बोले प्रेम जी!
"चर मछन्दर, चर कलंदर, आ जा सासु की मौंह के अंदर!" बोले नरोत्तम और खट्ट से पैग, वो बड़ा सा, मुंह के अंदर धकेल लिया!
"अरे! ब्याहता?" बोले प्रेम!
"औरु का! कुँवारी कहा करै?" बोले वो,
मैं तो उनके उस दोहे पर हंसे जा रहा था! कैसे मंत्र की जान निचोड़ डाली थी उन्होंने! 'आ जा सासु की मौंह के अंदर' क्या गज़ब का दोहा गढ़ा था उन्होंने भी!
"हाँ जी?" बोले वो,
"जी साहब?" बोले शहरयार!
"काउ को बखत है रौ है?" बोले वो,
"किसका?" बोले वो,
"जन पतौ दे रखौ होय काउ जनानी निय?" बोले वो,
"अरे भगवान!" बोले शहरयार!
"चरो फेर?" बोले वो,
"चल रहे हैं!" बोले वो,
"ठाड़े हो?" बोले वो,
"ना, चल दिए, ये लो!" बोले वो,
तो बढ़ गई गाड़ी हमारी आगे! कुछ कुछ दूरी पर, नरोत्तम जी, गाड़ी धीमे कर लेते थे, करवा देते थे नरोत्तम जी, पैग न छलक जाए, इसीलिए!
अब वे जिस तरह से, मजे ले, पी रहे थे, मेरा भी जी ललचा ही गया! मैंने, बोतल देखी उठाकर, माल तो काफी था उसमे, दो-चार पैग इधर-उधर कर दो तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था!
"लाओ जी, मेरा भी बना दो एक!" कहा मैंने,
"च्यौं न! जे भई न बात कछु!" बोले वो,
और बना दिया मेरा भी एक बड़ा सा पैग उन्होंने, बसंती पैग!
"और कितना है?" पूछा प्रेम जी ने,
"पुलिया निकली है!" बोले वो,
"तो आ ही लिए फिर तो?" बोले प्रेम,
"हाँ जी!" कहा शहरयार जी ने!
"हाँ जी?" बोले नरोत्तम जी!
"जी?" कहा मैंने,
"नैक और?" बोले वो,
"हाँ हाँ!" कहा मैंने,
और उन्होंने, घाल दी गिलास में! मैंने आधा गिलास, खत्म कर दिया!
"वो ही है न?" बोले शहरयार!
"आगे चलो?" कहा मैंने,
थोड़ा आगे चले हम,
"हाँ यही है, रोक दो, एक तरफ!" कहा मैंने,
"हाँ यहीं ठीक है!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोले शहरयार जी!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो जी!" कहा उन्होंने,
हम आ गए बाहर, प्रेम जी भी, असरार साहब भी!
"आप नहीं आओगे?" पूछा प्रेम जी ने, नरोत्तम जी से,
"कहा करुंगौ?" बोले वो,
"आ जाओ?" बोले वो,
"ना!" बोले वो,
"चलो ठीक!" कहा मैंने,
और हम एक तरफ आ रुके, चारों ही! आसपास देखा, कुछ नहीं था, एक आम सी सड़क, गुजरते हुए वाहन, उनींदा सा लोग उनमे!
"यहाँ तो कुछ नहीं?" बोले प्रेम,
"हाँ!" बोले प्रेम जी,
"कोई बात नहीं!" कहा शहरयार जी ने,
"देख लो, कुछ टूटा-फूटा खोमचा ही हो?" पूछा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले प्रेम,
"और हम चलते हैं सड़क के पार!" कहा मैंने,
''चलिए!" बोले शहरयार!
और हम आ गए सड़क के पार!
"कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ये बोतलें पड़ी हैं पानी की बस!" कहा मैंने,
"लोगों ने ही फेंकी होंगी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ज़रा नीचे चलें?" बोले वो,
"चलो?" कहा मैंने,
और हम, एक जगह से ज़रा नीचे चले, वहां भी कुछ नहीं था, बीयाबान ही पड़ा था सबकुछ! दूर दूर तक कोई नहीं!
"कोई फायदा नहीं!" बोले शहरयार!
"हाँ, आओ चलो!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
हमने सड़क पार की, और चले सामने, वे दोनों वहीं गाड़ी के पास खड़े हुए थे!
"कुछ नहीं है जी!" बोले वो,
"हाँ, हमने भी देखा, कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
''आगे चलें थोड़ा?" बोले वो,
"गाड़ी में?" बोले प्रेम,
"हाँ?" कहा उन्होंने,
"चलो!" बोले वो,
हम आ गए गाड़ी में, मूंग-दाल चबा रहे थे नरोत्तम जी, हमें देखा तो खिसके पीछे!
"कछु दिखाई दियौ?" बोले वो,
"ना जी!" कहा मैंने,
"भूत-परेत रात को ही निकला करें!" बोले वो,
''तो रात को आ जाएंगे!" कहा मैंने,
"मोय भी देखनो है!" बोले वो,
"कहा करोगे?" बोले प्रेम,
"बस, देखनो ई है!" बोले वो,
"देखे न कभी?" बोले प्रेम,
"देखे हे! बालपन में!" बोले वो,
"ले चलेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और गाड़ी मोड़ी फिर हमने, और लौट पड़े!
आ गए वापिस! काम कोई था नहीं, खाना खा ही लिया था बी तक, चौकीदार ले आया था, तो तब, आराम किया फिर हमने!
शाम को, सुशील जी भी आ गए, साथ में, मिश्रा जी भी आ गए थे, उनसे परिचय हुआ, बढ़िया आदमी जंचे वे!
"उड़ दिन क्या देखा था?" पूछा शहरयार ने!
"बच गए हम तो!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"भूत थे!" बोले वो,
'कैसे भूत?" पूछा मैंने,
"बच्चों के!" बोले वो,
"लड़का-लड़की?" बोले शहरयार!
"हाँ जी!" बोले वो,
"छोटी उम्र के?" पूछा मैंने,
"हाँ, कोई सात साल के रहे होंगे?" बोले वो,
"फिर उड़ गए वो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो, आँखें चौड़ी करते हुए!
"कैसे?" पूछा प्रेम जी ने,
"जम्प मार ली ऊपर की तरफ!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"पेड़ पर!" बोले वो,
"फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"सबसे ऊँचे पहुँच गए!" बोले वो,
"और आप भाग निकले?" पूछा शहरयार ने!
"मार देते वो!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"भूत के आगे क्या बिसात!" बोले वो,
"उसी लिए आये हैं हम!" कहा मैंने,
"बताया जी सुशील ने!" बोले वो,
"चलो, देखते हैं!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
मौसम तो बढ़िया था उस दिन, दोपहर तलक, लेकिन शाम चार के बाद, हवा तेज हो गई थी! अब जब हवा, सर्दी में तेज हो, तो फिर तो समझो क़यामत ही टूटी! कमरे की हर झिरी में से वो पार हो रही थी! हम तो रौशनदान ढक चुके थे, लेकिन एक खिड़की में शीशा ही नहीं था, जाली से ऐसे हवा अंदर आती थी नाम पूछते हुए कि जिस से टकरा जाए वो बस, गश खाने को तैयार हो जाए!
नरोत्तम जी बार बार जगह बदल लेते थे अपनी! उन्हें शायद कुछ ज़्यादा ही तंग कर रही थी सर्दी!
"बिट**, पीछै ई पर गई दीखै!" बोले वो,
मेरी हंसी निकल पड़ी!
"ठंड ज़्यादा है आज तो!" कहा मैंने,
"सीना फारे देय!" बोले वो,
''ओ रे सुसिल?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोले वो,
"कहा पकर लायौ आज?" बोले वो,
"आज आर्मी वाली रम है!" बोले वो,
"जे भई न बातू कोई!" बोले वो,
"पसंद है?" पूछा मैंने,
"अजी कहा कहने!" बोले वो,
"तो लो आज मजे इसके!" कहा मैंने,
"सगरे के सगरे!" बोले वो,
"खाने को क्या मिला संग?" पूछा असरार जी ने,
"मच्छी फ्राई है!" बोले वो,
"रे वाह!" बोले प्रेम जी!
"सर्दी में तो मच्छी से बढ़िया और कुछ नहीं!" बोले शहरयार जी!
"हाँ! जल-तुरइयाँ!" कहा मैंने,
और सज गई महफ़िल हमारी! प्याज, चटनी, खीरा और साथ में, मुर्गा भी! मटन के कबाब! शाही-कबाब! और क्या चाहिए साहब सर्दी में!
रम बेहद ही शानदार थी! आर्मी की थी तो होनी ही थी! आम रम से कुछ नहीं, बहुत ही अलग हुआ करती है ये! ये दमदार होती है! सर्दी का नाम तक नहीं रहता! ऐसा गर्म कर दिया करती है! छोटे छोटे बच्चों को अक्सर सर्दी लग जाती है, पांसु चल पड़ते हैं उनके, रम किसी रुई के फोए में भिगोकर, उनकी पांसु का मालिश की जाए तो आराम मिलता है! बलगम वाली खांसी हो, तो रम गुनगुने पानी के साथ ले, सो जाएँ! सुबह बलगम साफ़!
खैर साहब, इसी तरह से हमें ग्यारह बज लिए! और हम निकल पड़े! आज हवा का शोर था और धुंध हवा में बह चली थी, नज़र थोड़ा साफ़ ही नज़र आ रहा था!
ठीक साढ़े ञरह बजे, हम वहां पहुँच गए थे, नरोत्तम जी, असरार जी, नहीं आये थे, मिश्रा जी भी नहीं आये थे, मैं, प्रेम जी, सुशील जी और शहरयार साहब, यही आये थे आज! प्रेम जी जीवट वाले आदमी हैं! डरते नहीं हैं! जिज्ञासु भी हैं! हाँ, सुशील जी का आज पता चल जाना था!
तो हमने गाड़ी एक तरफ लगा दी! और गाडी में ही बैठे रहे हम!
''आज घंटे-डेढ़ घंटे हो जाएँ तो कोई बात नहीं न?" पूछ मैंने सुशील जी से,
"नहीं जी! कोई बात नहीं!" बोले वो,
"कल तो इतवार है?" बोले शहरयार!
"हाँ, कल छुट्टी!" बोले वो,
"ओह! तब तो दो घंटे भी ठीक!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
मित्रगण! हम करीब, सवा घंटा वहीँ बैठे रहे, उनींदा सा, प्रेम जी और सुशील जी, आँखें बंद किये लेटे हुए थे, किसी वाहन का प्रकाश आता या शोर, तो उठ जाते थे, रुमाल लेटे, चेहरा पोंछते और फिर आँखें बंद कर लेते! नशे में ऐसा ही होता है, थोड़ा आराम मिला नहीं कि देह खुलने लगती है!
ठीक करीब एक से पहले............
"गुरु जी?" बोले शहरयार धीरे से, मेरे घुटने पर हाथ रखते हुए,
मैं उस वाट आँखें बंद कर, हाथ बाँध अपने, सीट से सर लगाए, बैठा था!
"हाँ?" मैंने भांपते हुए पूछा!
"वो, उधर, सामने?" बोले वो,
मैंने गौर से देखा उधर, लगता था जैसे कोई व्यक्ति, किसी झाड़ी के साथ बैठा हो, सर ही दिखे या कंधे, कभी-कभी!
"कोई दीर्घ-शंका समाधान हेतु तो नहीं?" कहा मैंने,
"लगता है" बोले वो,
"नज़र रखो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
काफी देर हो गई, लेकिन वो वहीँ का वहीँ बना रहा! अब मेरा शक यकीन में बदलने लगा!
"सुनो?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"मुझे नज़र में रखना!" कहा मैंने,
"आप जा रहे हो?" बोले वो,
"हाँ, यहीं रुकना!" कहा मैंने,
"मैं न चलूँ?" बोले वो,
"रुकते तो ठीक है!" कहा मैंने,
"चलूँगा!" बोले वो,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
प्रेम जी की नींद खुल गई, उन्हें, शांर वहीं बैठे रहने को कह दिया, समझा दिया कि हमें देखते रहें, बाहर न आएं!
"आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हम चल पड़े, सड़क पार की, तो सामने कोई नहीं! हम रुक गए वहीं! आसपास देखा, कहीं कोई नहीं!
"कोई वहम था क्या?" बोले वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
हम आगे चले, यहां, कुछ पेड़ थे, कुछ झाड़ियां और कुछ पत्थर से ही!
"यहीं देखा था न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
सर्र!
सर्र की सी आवाज़ हुई! जैसे कोई बड़ा सा सांप रेंग कर, दौड़ा हो वहां! हम दोनों ही, फौरन, झट से मुड़ गए उधर ही! अँधेरा तो था, लेकिन आसपास से जाते वाहनों की रौशनियां वहां पड़ती जाती थीं! इसीलिए, पल भर न सही, लेकिन दृश्य ओझल न होता था!
"ये क्या था?" पूछा मैंने,
"कोई जानवर तो नहीं?" बोले वो,
"जानवर ऐसी रेंग की सी आवाज़ नहीं करेगा?" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो!" बोले वो,
"शायद कोई जैसे, मान लिया जाए, जानवर ही हो, तो वो बैठा होगा, और खड़ा हुआ होगा!" कहा मैंने,
"लेकिन यहां तो कोई नहीं दीखता?" बोले वो,
"यही तो हैरत है!" कहा मैंने,
सर्र! सर्र! फिर से आवाज़ हुई!
इस बार मैंने ठीक वहीँ देखा जहाँ से वो आवाज़ आई थी!
"नीचे है कोई!" बोला मैं,
"क्या करें?" बोले वो,
"चलें?" कहा मैंने,
"नीचे देखने?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"एक मिनट!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कोई हथियार ले आऊं!" बोले वो, और दौड़ लिए वापिस, गाड़ी तक! मैं वहीं खड़ा रहा! उधर ही देखता रहा!
अभी तो कोई आवाज़ नहीं हुई थी! हो न हो, कोई जानवर ही रहा होगा, मेरा कयास भी यही था!
तभी दौड़े आये वो, हाथों में एक सब्बल लिए हुए! सब्बल था बड़ा ही मज़बूत!
"ये ठीक है न?" बोले वो,
"एकदम!" कहा मैंने,
''आओ!" कहा मैंने,
"अरे!!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"टोर्च भूल आया!" बोले वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"एक मिनट, ये................." बोलते बोलते रुके वो, आवाज़ हुई थी फिर से! लकड़ियां चटकने लगी थीं! जैसे सच में कोई बड़ा सा सांप रहा हो! अजगर हो, वही है यहां बड़ा सा सांप!
सर्र! सर्र! सर्र!
"क्या करें?" हुए कुछ बेकाबू से!
"ले आओ टोर्च!" कहा मैंने,
"ये पकड़ो आप!" बोले वो,
मैंने सब्बल पकड़ लिया और वे, फिर से पीछे दौड़ पड़े! मैं उन्हें ही देख रहा था, गाड़ी की बत्तियां जली थीं, और तभी टोर्च की रौशनी जली! और चलती आई वो मेरी तरफ!
आ गए थे मेरे पास! अब मारी वहां रौशनी! कोई नहीं!
"कौन है?" कहा मैंने,
"पता ही नहीं?" बोले वो,
''आओ, नीचे!" कहा मैंने,
"चलो, वहां देखो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वहां एक रास्ता सा था, नीचे जाने का!
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और चले आगे! मैं पीछे उनके!
"रुको?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोले वो,
"रुको, एक मिनट!" कहा मैंने,
और आगे चला मैं, ली उनसे टोर्च, थोड़ा आगे गया, ज़मीन पर रौशनी मारी! कुछ निशान से थे, जैसे किसी को घसीटा गया हो, अब वो बोरे को घसीटे हुए भी हो सकते थे, या किसी मृत जानवर को घसीटने के भी! या फिर, कोई घायल जानवर रहा हो! खून तो नहीं था वहां! इसका मतलब, अभो, हाल-फिलहाल में कुछ नहीं हुआ था वहां!
ओ....ओ.......हा.............ई......
ऐसी एक मरी मरी सी आवाज़ आई!
अब हम दोनों ही चौंके!
"ये जानवर नहीं!" बोले शहरयार जी!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई घायल तो नहीं?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"फिर तो देखना होगा, पता नहीं कौन है बेचारा?" बोले वो,
"हाँ, लेकिन.....?" कहा मैंने,
"लेकिन क्या?" बोले वो,
"हम यहां कितनी देर से हैं?" पूछा मैंने,
"करीब आधे घंटे से यहां तो होंगे?" बोले वो,
"न कोई आया, न कोई गया?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"कहीं पहले से तो नहीं फेंक गया उसको? जो अब आया हो होश?" बोले वो,
"हाँ, ये हो सकता है!" कहा मैंने,
''देखें!" बोले वो,
"हाँ, आओ, इन निशानों के साथ साथ" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए, मैं पीछे ही हूँ" बोले वो,
''आओ, देखकर!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"पत्थर पड़े हैं!" कहा मैंने,
"हाँ" कहा उन्होंने,
हम चलते रहे आगे!
"रुकना?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"उधर देखना?" कहा मैंने,
"क्या है?" बोले वो,
मैंने रौशनी डाली वहां, एक तरफ,
"क्या है वो?" बोले वो,
"आओ?" कहा मैंने,
और हम वहां पहुंचे,
"ये क्या है?" बोले वो,
"बोरा है शायद?" कहा मैंने,
"एक मिनट" बोले वो,
और सब्बल घुसेड़ने की कोशिश की उसमे, सब्बल अंदर घुस गया, अब मारी रौशनी!
"कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
हवा चली तेज! सर्द सी हवा! खड़े खड़े कनप गए हम तो वहीं!
"बोरा है कोई!" बोले वो,
"हाँ, रेत सी भरी है!" कहा मैंने,
सर्र!
फिर से आवाज़ हुई!
"पीछे है कहीं?" बोले वो,
हम पलटे उधर, अब सड़क थोड़ा ऊपर, और दूर थी!
"आना?" बोला मैं!
"सांप तो नहीं है!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अब तक तो भाग जाता?" बोले वो,
"ज़रूरी नहीं?" कहा मैंने,
"आह........!" फिर से आवाज़ गूंजी!
"इधर!" कहा मैंने, बाईं तरफ रौशनी मारते हुए!
"चलो! जल्दी!" बोले वो,
और हम भाग चले उधर!
आए उधर, तो एक लोहे का बोर्ड सा पड़ा था वहां! जंग खा गया था, एक ही पाँव बचा था, बाकी में तो छेद हो गए थे!
''श्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने,
"यहीं है आसपास" मैंने कहा,
"कोई है?" बोले वो,
"है वहां कोई?" कहा मैंने भी!
"कोई है?" फिर से चिल्लाए वो!
और तभी उन्हें कुछ दिखा!
"उधर!" बोले वो, और लपक लिए!
"क्या है?" कहा मैंने,
"हाथ दिखा था मुझे!" बोले वो,
"हाथ?" पूछा मैंने,
वे रुक गए, टोर्च ली मेरे हाथ से, और डाली रौशनी!
"इधर ही, इधर, इसके पीछे से!" बोले वो,
"हाथ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"अब कहाँ है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, यहीं था!" बोले वो,
"कैसा था?" पूछा मैंने,.
"किसी जवां मर्द का!" बोले वो,
''अब ये कैसे पता?" पूछा मैंने,
"बच्चे का नहीं था!" बोले वो,
"कोई धोखा तो नहीं हुआ?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"कोई झाड़ी, पत्ता तो नहीं देखा?" पूछा मैंने,
"नहीं गुरु जी?" बोले वो,
"हाथ, था कहाँ?" पूछा मैंने,
"इधर!" बोले वो,
"क्या कर रहा हो सकता है कोई?" पूछा मैंने,
"जैसे लेटा हो!" बोले वो,
"किसे लेटे हुए आदमी का हाथ?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"मैं समझा नहीं?" कहा मैंने,
"उसने हाथ उठाया था!" बोले वो,
"उठाया था?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तब तो यहीं है कोई!" कहा मैंने,
"आओ ज़रा आगे?" बोले वो,
"हाँ, चलो?" कहा मैंने,
"रुको?" वे चीखते हुए बोले!
"क्या हुआ" मैं भी घबरा गया था!
"ये देखिये!" बोले वो,
मैं आगे आया, टोर्च की रौशनी में देखा!
"ये तो कोई गढ्ढा है!" कहा मैंने,
"हाँ! गहरा लगता है!" बोले वो,
"किसी ने मिट्टी निकाली होगी यहां से!" बोला मैं,
"हो सकता है!" बोले वो,
सर्र! सर्र!
फिर से आवाज़ आई! इस बार पास से ही!
"हे? कौन है?" बोले चीख कर वो!
"कोई है?" चिल्लाया मैं भी!
"यहां?" आई आवाज़!
अब हम दोनों ही चौंके! ये हमारा भ्रम नहीं था! वहां अवश्य ही कोई था! लेकिन था कौन?
"कहाँ?" बोले शहरयार,
"यहां?" आई आवाज़,
"हम भी यहीं हैं?" बोले वो,
"मेरे पास आओ?" बोला कोई,
"आ रहे हैं!" बोले वो,
और हमने आसपास, रौशनी डाली! लेकिन वहां तो झाड़ियों के अल्वा कुछ नहीं था? तो फिर ये आदमी, भला है कहाँ?"
"खड़े हो जाओ?" बोले वो,
"नहीं हो सकता" बोला वो,
"कोई इशारा करो?" बोले वो,
"नहीं..." बोला वो,
और रोने लगा, तेज तेज! बहुत ही ज़्यादा दर्द में था वो! जो कोई भी था!
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
हम आगे चले,
"यहां?" बोला वो,
"हमें देख सकते हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"सुन तो रहे हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"हो कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहीं" बोला वो,
''यहीं?" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"लेकिन यहां तो कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"आह.....मैं मर जाऊँगा......." बोला वो,
"बताओ तो?" कहा मैंने,
"यहीं हूँ..." बोला वो, और फिर से रोने लगा!
"एक काम करो" कहा मैंने,
"क्या?" बोले शहरयार,
"तुम उधर जाओ ज़रा?" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोले वो,
"कुछ दिखे तो बताओ!"" कहा मैंने,
"जी अभी" बोले वो,
और कोई दस कदम दूर चले गए, आसपास रौशनी बिखेरी, लेकिन ताज़्ज़ुब, कोई भी नहीं वहां तो!
"कोई है?" पूछा मैंने,
"यहां हूँ" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहां" बोला वो,
"हम नहीं देख सकते!" कहा मैंने,
"ओ....आओ...मदद करो मेरी!" गिड़गिड़ाया वो!
"शहरयार?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"यहां आओ?" कहा मैंने,
"जी" कहा उन्होंने,
और आ गए मेरे पास!
"कोई नहीं है, आसपास तो!" बोले वो,
"पीछेः आओ?" आई आवाज़,
हम फौरन ही पीछे पलटे!
आवाज़, वहीँ से आई थी!
"मेरी मदद करो!" बोला वो,
''आ रहे हैं!" कहा मैंने,
"मदद के लिए ही आ रहे हैं!" बोले वो,
"मुझे बचा लो!" बोला वो,
"हो कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहां" बोला वो,
"यहां तो कहीं नहीं?" पूछा मैंने,
"पीछे आओ?" बोला वो,
हम पीछे चले, रुके!
''और कितना?" पूछा मैंने,
"आओ...बचा लो.." बोला वो, फिर से रोने लगा!
"बताओ तो?" कहा उन्होंने,
"इधर" बोला वो,
"बैठे हो?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" बोला वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"लेटा हूँ" बोला वो,
"लेकिन दिख तो नहीं रहे?" बोले वो,
''आओ" बोला फिर से,
"आ रहे हैं, लेकिन हो कहाँ?" पूछा मैंने,
"पीछे...पीछे" बोला वो,
हम और पीछे चले, अब तो सड़क ही दिखनी बंद!
"रुको!" कहा मैंने,
"हाँ?" कहा मैंने,
अब कोई आवाज़ नहीं!
"हे?" बोले शहरयार!
"कोई आवाज़ नहीं!
"कहीं......" बोलते बोलते रुके वो,
"हो सकता है" कहा मैंने,
"कोई है? कहाँ हो?" बोले वो,
"पीछे पीछे" फिर से आई आवाज़,
"पीछे?" बोले वो,
"हाँ" बोला वो,
"देख रहे हो हमें?" बोले वो,
"नहीं" कहा उसने,
"हो कहाँ?" पूछा मैंने,
"पीछे आओ" बोला वो,
"और कितना पीछे?" पूछा मैंने,
"आओ....बचा लो?" बोला वो चीख कर!
सच में ही कोई भारी मुसीबत में था, लगता था किसी को घायल कर या मृत समझ कोई फेंक गया है इधर, हम तो यही सोच कर चल रहे थे अभी तक, अब आगे क्या हो, ये तो देखने से ही पता चल सकता था!
"हाँ, और..." बोला वो,
हम और पीछे चले,
"हाँ, इधर, इधर" बोला वो,
हम बाएं चले! रुके! आसपास देखा, कोई भी नहीं! ठंड के मारे जान जाए! ऐसा लगे, बर्फ पर चल रहे हों, जूतों में पाँव ऐसे हों कि कुछ काट ले तो पता ही न चले, जैसे खून ही जम गया हो उनमे!
"कहाँ हो?" बोले शहरयार!
"यहीं हूँ!" अब बोला वो,
"यहीं कहाँ?" पूछा मैंने,
"इधर ही" कहा उसने,
"हमें देख रहे हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"तो?" पूछा मैंने,
"मैं मर जाऊँगा........" बोला वो,
"हो किधर? बताओ, दिख नहीं रहे कहीं भी?" कहा उन्होंने,
"आगे आओ?" बोला वो,
हम आगे गए! आसपास देखा, कुछ नहीं, बस मिट्टी के टीले से ही थे, कुछ झाड़ियाँ जिन पर, कुछ पन्नियां अटकी पड़ी थीं!
"हाँ, इधर" आई आवाज़,
"कहाँ?" बोला मैं,
"नीचे" बोला वो,
"नीचे?" बोले शहरयार!
"हाँ, नीचे" कहा उसने,
"नीचे कहाँ?" पूछा मैंने,
"ज़मीन में" बोला वो,
"ज़..................!" मैं कहते कहते रुका!
अब समझ गया मैं! वो कहाँ था! नीचे, ज़मीन के नीचे! इसका मतलब, वो प्रेत था! उसका शरीर, अंदर दबा था, अंदर, मिट्टी में!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"मनोज" बोला वो,
"हमें जानते हो?" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"और कौन है साथ तुम्हारे?' पूछा मैंने,
"मेरे बच्चे" बोला वो,
"बच्चे?" कहा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
"और कोई?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"बीवी?" पूछा मैंने,
"नहीं है यहां" कहा उसने,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"घर पर होगी" कहा उसने,
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"सुष्मिता" बोला वो,
"यहां कब से हो?" पूछा मैंने,
"नौ सालों से" बोला वो,
नौ सालों से? यहां? दफन? मैंने और शहरयार ने, एक दूसरे को देखा! कमाल है, नौ सालों से दफन था वो! अभी तक, अपने आपको, जीवित समझे था! समझा सकता था, समय के क्या मायने उसके लिए! शायद, बेहोशी की अवस्था में दबाया गया होगा उसको, या फिर, फेंक दिया गया होगा यहां, मिट्टी जम गई होगी, या फिर......................वैसा क्या? जैसा मैं सोच रहा था?
"बच्चे कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"लेने गए हैं" बोला वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"मदद" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"मेरी टांगें, कुचल गई हैं" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"वो, सड़क, उधर गाड़ी है मेरी" बोला वो,
"कौन सी?" पूछा मैंने,
तो ये मारुति थी, सफेद रंग की! लेकिन अब नहीं थी वहां!
तो उसे कैसे भान?
बताता हूँ!
जब भी बेहोशी में मौत हो, तो यक़ीनन, वो प्रेत-योनि में ही जाएगा! मस्तिष्क का चेतन, चेतनाहीन हो जाता है, परन्तु, अवचेतन, सदैव जागृत रहता है! अधिकाँश प्रेत, अवचेतन की स्मृतियों में ही घूमते हैं! सबको देखेगा, लेकिन पहचानेगा नहीं, चुप रहेगा! बोलेगा सिर्फ उसी से, जो उसे जानता होगा!
तो क्या ये हमें जानता था?
नहीं! नहीं जनता था, ये उसका प्रेत-संज्ञान था, जो नैसर्गिक होता है प्रत्येक प्रेत के पास! वो, उस योग्यता को जान लेते हैं! इसी प्रकार से, वो हमें जान गया था, अब, उसने, एक से सौ तक, सभी वो कार्य, पूर्ण करवाने थे हमसे, जो वो चाहता था!
"बच्चे कहाँ गए हैं?" पूछा मैंने,
"सड़क के पास" बोला वो,
"क्या उम्र है?" पूछा मैंने,
"बच्चों की?" पूछा उसने,
"हाँ?" कहा मैंने,
"बेटा है, सात का, बेटी है छह की" बोला वो,
"तुम्हारी क्या उम्र है?" पूछा मैंने,
"छियालीस" बोला वो,
"कहाँ रहते हो?" पूछा मैंने,
"जयपुर" बोला वो,
"बच्चों के नाम?" पूछा मैंने,
"लड़का, संजू, लड़की सिम्मी" बोला वो,
"कहाँ जा रहे थे?" पूछा मैंने,
"जयपुर" बोला वो,
"कहाँ से आ रहे थे?" पूछा मैंने,
"कनोटा" बोला वो,
"वहां क्या है?" पूछा मैंने,
"मेरी ससुराल" बोला वो,
"और घर जयपुर में?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"घर में अभी कौन है?''
"छोटा भाई, दीपक, उसकी पत्नी और मेरे पिता" बोला वो,
"पता बताओ?" कहा मैंने,
"खबर के लिए?" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"पहले कनोटा" बोला वो,
"वहां का भी बताओ?" कहा मैंने,
अब उसने दोनों ही पटे बता दिए, शहरयार ने, हाथ पर लिख लिए!
"मुझे बाहर तो निकालो?" बोला वो,
"निकालते हैं" कहा मैंने,
"मर जाऊँगा, दया करो" बोला गिड़गिड़ाते हुए,
"चिंता न करो!" कहा मैंने,
"मेरे बच्चे?" बोला वो,
"यहां तो नहीं हैं?" कहा मैंने,
"सड़क पर होंगे?'' बोला धक्का सा खाते हुए,
"एक बात बताओ मनोज?" बोले शहरयार.
"हाँ?" बोला वो,
"हुआ क्या था?" पूछा उन्होंने,
"पेड़ गिरा था" बोला वो,
"आंधी थी?" पूछा उन्होंने,
"तूफ़ान" बोला वो,
"तो कोई एक्सीडेंट?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"पेड़ के नीचे खड़े थे" बोला वो,
"पेड़ गिरते देखा था?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोला वो,
"यहां कैसे आये?" पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोला वो रो पड़ा,
"मुझे बचा लो, हाथ जोड़ता हूँ, बचा लो, मेरे अलावा कोई नहीं बच्चों का, बीवी बीमार है, मैं ही हूँ देखने वाल, मुझे बचा लो, दया करो!" बोला वो,
इस बार तो दिल दहल गया मेरा......इस बार....गुहार लगाई थी उसने....नौ सालों से...इसी तरह से बेचारा गुहार लगाए जा रहा होगा....!
"मुझे निकालो?" बोला वो,
"निकालते हैं" कहा मैंने,
"बचा लो" बोला वो,
"हाँ, बच जाओगे" कहा मैंने,
"मेरे बच्चे, आये?'' पूछा उसने,
"नहीं" कहा मैंने,
"उन्हें ढूंढ लो?" बोला वो,
"हाँ, ढूंढ लेते हैं" कहा मैंने,
"ढूंढ लो" बोला वो, और फिर से, फफक फफक कर रो पड़ा वो...
"मनोज?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला, धीरे से,
"रात थी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"क्या बजा था?'' पूछा मैंने,
"नौ" बोला वो,
"इतनी देर से?" पूछा मैंने,
"गाड़ी ठीक कराई थी" बोला वो,
"देर हुई होगी?" बोले शहरयार,
"हाँ" बोला वो,
"कुछ याद नहीं उसके बाद?" पूछा मैंने,
"नहीं, कुछ नहीं" बोला वो,
उसे याद ही नहीं था आगे, क्या हुआ था उसके बच्चों का, क्या किया था उस पेड़ ने उनके साथ, कौन आया था मदद को, कोई आया भी था या नहीं? और उन बच्चों का क्या हुआ था बाद में? क्या साथ में ही वे भी बेचारे, मौत को गले लगा बैठे थे?
"मुझे निकालो यहां से?" बोला वो,
"अभी निकालते हैं" कहा मैंने,
"निकाल दो.." बोला वो और फूट फूट, रोने लगा, उसका रोना, हमारे तो पाँव ही उखाड़ देता था, एक तो सर्दी, और फिर उसकी गुहार! मुंह से निकलती भाप हमारे बढ़ती ही जा रही थी, ये शायद, चिंता के कारण ही था!
"मेरे बच्चे आये?" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"सिम्मी?" चिल्लाया वो,
हमने आसपास देखा उधर,
"संजू?" बोला वो,
फिर हमने देखा, कि कहीं उसकी आवाज़ सुनकर, वे बच्चे आ ही जाएँ उधर, कुछ देर बाद भी, वे नहीं लौटे!
"मुझे निकाल दो, मैं ढूंढ लूंगा" बोला वो,
"हम ढूंढ लेंगे" कहा मैंने,
"जल्दी करो" बोला वो,
"हाँ, कर रहे हैं!" कहा मैंने,
'सिम्मी? मेरी बच्ची?" चिल्लाया वो,
एक बाप की करुण सी गुहार!
"तुम कैसे लेटे हुए हो?" पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोला वो,
"कुछ दीखता है?'' पूछा मैंने,
"नहीं, अँधेरा है" बोला वो,
"कुछ मह्सुश कर रहे हो?" पूछा मैंने,
"नहीं, अँधेरा है यहां" बोला वो,
:कुछ छू सकते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"शायद मेरा जूता खुल गया है" बोला वो,
"कहना है जूता?" पूछा मैंने,
"मेरे सर के पास" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"निकालो, मुझे निकालो?" बोला वो,
"अभी, बुलाया है किसी को!" कहा मैंने,
"किसको? सुष्मिता को?" पूछा उसने,
"नहीं" कहा मैंने,
"उसे नहीं बुलाना, मर जायेगी मुझे इस हाल में देख कर" बोला वो, रोते हुए,
देखो मित्रगण! एक प्रेत, जो, उस समय-क्षण में ही फंसा हुआ है! उसे न बताया जाए, तो कभी नहीं निकल सकेगा, अगर निकला कभी, तो उत्पात मचाएगा, उत्पात कि उसके बच्चे कहाँ हैं? कोई हथियार, डंडा देखे, तो उत्पात मचाएगा, ऐसा ही होता है!
"संजू?" फिर से चिल्लाया वो!
"मनोज?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"बच्चे कहाँ मिलेंगे?" पूछा मैंने,
"सड़क किनारे" बोला वो,
"मिल जाएंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"हम ढूंढें उन्हें?" बोला मैं,
"हाँ, कुछ पहना देना, बैग में है उधर ही, बारिश हो रही है तेज" बोला वो,
"हाँ, पहना देंगे" कहा मैंने,
"जल्दी जाओ" बोला वो,
"जाते हैं" कहा मैंने,
"यहां ले आना" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"मेरे बच्चे??" बोला वो,
तड़प रहा था उनके लिए वो! उफ्फ्फ! बेहद ही दिल दहला देने वाला मंजर था ये तो! कमज़ोर दिल नहीं देख सकते!
"आदमी कब आएंगे?" पूछा उसने,
"अभी" कहा मैंने,
"देर मत करना?" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"मैं यहीं मर जाऊँगा" बोला वो,
"नहीं मरोगे" कहा मैंने,
"मेरी सांस टूट रही है" बोला वो,
"हिम्मत रखो" कहा मैंने,
"एहसान होगा आपका" बोला वो,
"कोई बात नहीं" कहा मैंने,
"सिम्मी नाम है" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"और संजू बेटे का" बोला वो,
"हाँ, बोलना पापा वहाँ हैं" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"बोलना, चिंता नहीं करें" बोला वो,
"हाँ, बोल देंगे" बोला वो,
"जाओ" बोला वो,
"हाँ, जाते हैं" कहा मैंने,
"सुनो?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आ जाना?" बोला वो,
"हाँ, बच्चे लेकर" कहा मैंने,
'एहसान होगा आपका" बोला वो,
"एहसान कोई नहीं!" बोले शहरयार!
"आप आये, उपकार हुआ" बोला वो,
"नहीं, ये तो फ़र्ज़ है हमारा!" बोले शहरयार!
"मेरी बेटी की भी तबीयत खराब है, माँ के पास ही थी, उसको पहना देना कुछ" बोला वो,
"हाँ मनोज!" बोले शहरयार!
"अब, ढूंढ लाओ, देखने हैं मुझे मेरे बच्चे" बोला वो,
"हाँ, जल्दी से जल्दी" कहा मैंने,
"ले आओ, मेरे बच्चे" बोला वो, रोते हुए,
"सड़क किनारे ही न?" पूछा मैंने,
"हाँ, सड़क किनारे" बोला वो,
"आते हैं हम" कहा मैंने,
"मैं इंतज़ार कर रहा हूँ" बोला वो,
"बस आये हम" कहा मैंने,
और मैंने शहरयार का हाथ पकड़ा, चलने को कहा वहां से, जगह याद कर ली थी, उधर, कुछ झाड़ियां थीं, इस तरफ कुछ ऊँचा सा टीला था, यहीं आना था वापिस हमें!
तो हम चले अब, उन बच्चों को देखने के लिए,
"बेचारा" बोले वो,
"हाँ, बेचारा" कहा मैंने,
"लेकिन एक बात नहीं समझ आई?" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"पेड़ वहां गिरा और ये सब यहां?" बोले वो,
"हाँ, ये अजीब है!" कहा मैंने,
"कहीं कोई लूट तो नहीं?" बोले वो,
"सम्भव है" कहा मैंने,
"लोग, बेहद गंदे होते हैं गुरु जी" बोले वो,
"जानता हूँ" कहा मैंने,
"बेचारों का सामान भी उठा लिया होगा" बोले वो,
"सो ठीक, लेकिन मनोज को यहां कौन लाया?" पूछा मैंने,
"ये ही खटक रहा है" बोले वो,
"खुद तो आया नहीं होगा?' कहा मैंने,
"बच्चे खींच नहीं सकते!" बोले वो,
"ज़रूर ही कोई तीसरा है" कहा मैंने,
"होगा, शायद उन्होंने ही उसको यहां फेंका होगा?" बोले वो,
"एक बात हो सकती है, की यहां पानी भरा हो, और उसमे फेंक दिया गया हो उसको?" पूछा मैंने,
"ये भी हो सकता है" कहा उन्होंने,
"मिट्टी ही तो है?' कहा मैंने,
"तो इस बाबत कोई रिपोर्ट तो दर्ज़ हुई होगी?" पूछा मैंने,
"हुई हो?" कहा मैंने,
"कैसे पता चले?" पूछा मैंने,
"किस बारे में?" पूछा उन्होंने,
"लाश किसकी मिली?" कहा मैंने,
"हाँ, ये कहता है, ये अंदर ही है?" बोले वो,
"वही तो?" कहा मैंने,
"बच्चे कुछ मदद कर सकें?" अंदाजा लगाया उन्होंने,
"हाँ, शायद" कहा मैंने,
"तो वे मिल जाएँ तब भी कुछ पता चले!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"लो, आ गई सड़क!" बोले वो,
हम सड़क तक आ गए थे, हमारी गाड़ी जहाँ खड़ी थी, उस से कोई तीन सौ मीटर पीछे रही होगी ये जगह, अंदाजा यही लगाया था, ज़्यादा या कम भी हो सकती थी, सर्दी थी, मुंह से निकली भाप ही तंग किये दे रही थी, टोर्च की रौशनी भी कहाँ मारते, बड़े वाहन गुजरते, शोर मचाते और गुजर जाते!
"उन्हें कहाँ ढूंढें?" पूछा उन्होंने,
"यहीं होने चाहिए!" कहा मैंने,
"सड़क किनारे बोला था वो" कहा उन्होंने,
"हाँ" कहा मैंने,
"अरे हाँ, ब्रीफकेस भी तो है उन पर?" कहा उन्होंने,
"हाँ, इसी से वे ज़्यादा दूर नहीं होंगे!" कहा मैंने,
"आवाज़ दूँ?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सुन लें शायद?" बोले वो,
"हाँ, ठीक" कहा मैंने,
"संजू?" दी आवाज़,
कोई उत्तर नहीं!
"सिम्मी?" बोले फिर से,
कोई आवाज़ नहीं!
"संजू?" पुकारे फिर से,
"सिम्मी?" पुकारा मैं भी!
करीब पांच मिनट हो गए,
"यहां तो नहीं लगते" बोले वो,
"आगे चलें?" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
हम आगे चले, अचानक ही, सामने, ठीक सड़क के आगे, पार करते हुए, एक छोटा सा रास्ता दिखा, ये रास्ता ही था, आसपास पेड़ थे और उन्हीं में से ये रास्ता भी था,
"ये देखना?' बोले वो,
"रास्ता है कोई?" कहा मैंने,
"देखते हैं" बोले वो,
"चलो" कहा मैंने,
टोर्च की रौशनी में हम आगे बढ़े, वो सच में एक रास्ता ही था, बजरी सी पड़ी थी वहां, जैसे पानी के भराव की वजह से, वाहन न रुके उधर, बजरी डाली गई थी!
"आइये" बोले वो,
हम उस रास्ते पर चल दिए, एक पुराना सा बोर्ड दिखा, पेड़ों में घिरा सा हुआ, उस पर, अंग्रेजी का एस, आर और वी ही दीख रहे थे, और कुछ नहीं, बाकी तो पपड़ी सो बन, उतर चुके थे!
"यहां कुछ है शायद" बोले वो,
"आओ, देखें?" कहा मैंने,
हम आगे चले, आसपास कुछ सामान सा बिखरा था, लोहा-लंगड़ सा था, जंग खाया हुआ, शायद कोई निर्माण कार्य शुरू होना हो, और न हो पाया हो, ऐसा ही लग रहा था, और कोई अन्य निर्माण तो था नहीं, न कोई दीवार न ही कोई अन्य निर्माण, जैसे सारे मज़दूर वहां से, रातों ही रात काम छोड़, भाग चले हों!
"ये तो कोई साइट सी लगती है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"काम नहीं हुआ शुरू इधर!" बोले वो,
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"उस जगह से, यहां तक, करीब दो सौ मीटर तो होंगे?'' बोले वो,
"हाँ, कम से कम!" कहा मैंने,
"लेकिन ज़रूरी नहीं कि इस जगह का ताल्लुक़ उस मनोज से हो?" कहा मैंने,
"हाँ, लेकिन बच्चे तो छिप सकते हैं?" बोले वो,
"हाँ, ये हो सकता है" कहा मैंने,
"सिम्मी?" बोले वो,
"संजू?" कहा मैंने,
कोई उत्तर ही नहीं!
"कोई नहीं है यहां" बोले वो,
"शायद हाँ" कहा मैंने,
"बेटा?" बोले वो,
कोई जवाब नहीं!
"सिम्मी? बेटी?" बोले वो,
अभी भी कोई आवाज़ नहीं!
डरो नहीं!" बोले वो,
"हाँ, आओ?" कहा मैंने,
कोई नहीं आया!
कुछ देर इंतज़ार किया! लेकिन कोई नहीं!
"ऐसे तो कुछ हाथ नहीं लगना!" बोले वो,
"रुको अभी" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"आगे आओ ज़रा" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
हम आगे चलने लगे, बड़ा लम्बा चौड़ा सा स्थान था वो तो!
"यहां तो खम्भे से हैं?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"शायद, यहीं कम हुआ होगा?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"यहां तो छिप सकते हैं वो!" बोले वो,
"हाँ, आसान है!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" कहा उन्होंने,
"कोई आता जाता भी न होगा यहां?" बोले वो,
"ना, कौन आएगा?" कहा मैंने,
"ठीक कहा!" बोले वो,
"आना?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो तो तभी!
तभी उनके कानों पर, एक छोटा सा पत्थर आ कर लगा! पत्थर इतनी तेजी से आया था कि काना पर एक छोटा सा चीरा सा पड़ गया था! उन्होंने झट से उस पथर पर रौशनी डाली! उठाया वो पत्थर! मैं भी चौंक पड़ा था अचानक से ही!
"ये देखना?" बोले वो,
"बजरी सी है?" कहा मैंने,
"ये अपने आप आएगी?" बोले कान सहलाते हुए वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"किसी ने फेंकी है?'' बोले वो,
"पक्का!" कहा मैंने,
"कौन है?" बोले वो,
"कोई है क्या?" बोला मैं,
"बच्चों?" बोले वो,
"सिम्मी?" कहा मैंने,
'संजू?" बोले वो चिल्ला कर!
''आओ सामने?" कहा मैंने,
"डरो नहीं बच्चों?" बोले वो,
''आओ?" कहा मैंने,
एक और बजरी आई, इस बार मेरे कंधे में लगी! बिलबिला उठा मैं तो! जैकेट पर लगी थी, लेकिन बहुत तेज, हड्डी पर, कंधे की!
"बच्चों?" कहा मैंने,
"बच्चों?" बोले वो,
"घबराओ नहीं?" कहा मैंने,
"हम मदद को आये हैं" बोले वो,
"हाँ, आ जाओ?" कहा मैंने,
और तभी, कोई भाग कर गया वहाँ से! छोटे छोटे से क़दमों से!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
और हम दौड़ लिए, टोर्च उधर करते ही!
रुके, एक जगह! यहां खाली जगह थी!
"ये देखो, बजरी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"यहीं थे वे दोनों!" कहा मैंने,
"बच्चों?" बोले वो,
"सिम्मी? संजू?" कहा मैंने चिल्ला कर!
''आ जाओ, हम आ गए हैं?" बोले वो,
''आओ?" कहा मैंने,
हवा बेहद ही ठंडी चल रही थी! पानी की बूंदें जैसे टपक रही हों फुहारों में, ऐसा लग रहा था, मारे सर्दी के खड़े रहना मुश्किल था वहां! बजरी ठंडी होगी, ये तो जूतों के तलवे भी बता रहे थे! जूतों के तलवे भी ऐसे ठंडे हो रहे थे कि तला तो उनका, प्लास्टिक जैसा हो गया था, चमड़ा भी जैसे ठोस हो चुका था, हालांकि ज़ुराब ज़रूर गरम पहन रखे थे लेकिन सर्दी की हा-हा उसे भी बींध अंदर आ गई थी! पांवों की उंगलियां तो सुन्न ही पड़ने लगी थीं! वो तो पेट में, 'अमल-सत' पड़ा था नहीं तो सच में पेट भी ठंड खा ही जाता!
"बच्चों?" बोले शहरयार!
लेकिन कोई उत्तर ही नहीं आया!
"सिम्मी?" कहा मैंने,
"सुनो बच्चों?" बोले वे,
अब तो चिल्लाने की आवाज़ भी नहीं निकल रही थी गले से!
"संजू बेटा?" चिल्लाए वो,
और खांसी सी छूट गई!
अचानक ही, ठीक सामने कुछ आकर गिरा, हमारे ठीक सामने, मैंने उसके गिरते ही, रौशनी डाली उस पर, ये कोई कपड़ा सा था, मैं आगे चला, वे भी चले, मैंने रौशनी भरी और वे झुके, उठाया उसे, ये कोई रुमाल सा था, रुमाल में कुछ बंधा था, उसमे दो गांठें बंधी थीं! रुमाल, सफेद रंग का, उस पर एम्ब्रोइडरी का काम हो रखा था, अँधेरे में, और उस टोर्च की दूधिया रौशनी में ये नहीं पता चला रहा था कि धागा लाल है या फिर हरा या मैरून! मेरे दस्तानों में कुछ गीलापन सा महसूस हुआ, शायद, ओंस कुछ ज़्यादा ही पड़ रही थी!
"ये तो रुमाल है?" बोले वो,
"इसमें कुछ बंधा है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो, उसका जायज़ा लेते हुए,
"क्या हो सकता है?" पूछा मैंने,
"खोल के देखूं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, खोलो ज़रा?" बोला मैं,
उन्होंने खोलने की कोशिश की, दस्तानों के कारण, खोल नहीं सके, तब उतार लिया एक दस्ताना और फिर खोला उसे, उसमे कुछ पीली सी चीज़ थी, बेहद ही कड़ी सी हो गई थी, पीलेपन में कुछ लाल सा भी जमा था!
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं?" बोले वो,
"मुझे दिखाओ?" कहा मैंने,
"ये लो" बोले वो,
मुझे दिया, मैंने उलट-पलट के देखा, कुछ भी पता नहीं चला, न तो ये, कि रुमाल में क्यों बाँधी गई, न ये, कि हमें क्यों दी गई फेंक कर!
"पता नहीं क्या चीज़ है?" कहा मैंने,
"दिखाना ज़रा?" बोले वो,
मैंने उन्हें दी वो,
उन्होंने ली, और सूंघ के देखा, एक बार, दो बार..
"ये शायद, प्रसाद जैसी कोई चीज़ है, शायद बूंदी या फिर हलवा सा, जो अब सूख गया है!" बोले वो,
अब मैंने भी सूंघा, कोई तेज या आराम से सूंघे जाने वाली चीज़ नहीं थी वो, शहरयार ने कोई तुक्का लगाया हो, ये अलग बात है, मुझे तो कोई गंध नहीं आई थी उसमे!
"तो हमें क्यों दी गई?" पूछा मैंने,
और तभी आगे से फिर कोई भागता हुआ गुजरा! इस बार हमने एक सफेद से कपड़े पहने, छोटा सा लड़का देखा था, पीठ की तरफ से, उसने शॉर्ट्स पहना हुआ था, ज़ुराब, सफेद से रंग की और काले जूते थे, लगता था कि किसी स्कूल की यूनिफार्म में हो वो! हमने जैसे ही देखा था उसे, हम भाग लिए थे उसके पीछे! वो हमें मुड़ता हुआ तो दिखा, और जब हम वहां आये, तो गायब था! जा छिपा था कहीं!
"संजू?" मैंने साँसें थामते हुए कहा,
"संजू?" बोले वो भी!
"सिम्मी?" कहा मैंने,
"सिम्मी?" उन्होंने भी पुकारा!
"हम आ गए हैं!" कहा मैंने,
"सुनो?" बोले वे भी!
"यहां आओ?" कहा मैंने,
"यहां आओ?" बोले वे भी!
"घबराओ मत? कोई कुछ नहीं कहेगा!" कहा मैंने, सरलता भरे स्वर में!
"आओ बच्चों?" बोले वो,
नहीं, कोई जवाब नहीं!
"डर क्यों रहे हो?" पूछा मैंने,
नहीं, कोई आवाज़ नहीं!
"डरो नहीं, देखो तो?" कहा मैंने,
"सुनो बच्चों?" कहा उन्होंने,
"हम आ गए हैं, हमें भेजा है तुम्हारे पापा ने!" कहा मैंने, अब कहा, जानबूझकर! अब कोई चारा नहीं बचा था हमारे पास!
"आ जाओ, तुम्हारे पापा ने ही भेजा है हमें!" कहा शहरयार ने!
तभी कुछ फुसफुसाहट सी हुई! हर तरफ! दाएं! बाएं! सामने! पीछे! जैसे कोई उड़ते हुए लगातार फुसफुसा रहा हो!
"सम्भलना ज़रा...!" कहा मैंने भी फुसफुसाते हुए!
"हाँ" बोले वो भी धीरे से ही!
और फिर वो फुसफुसाहट बंद! एकदम से शान्ति! अब तो वे आने ही थे, ऐसा ही लग रहा था! बच्चे डर रहे थे, इसमें कोई संदेह यहीं था, उनको तो पता ही नहीं था, लेकिन नौ वर्षों का समय बीत चुका था! उनके लिए तो ये उसी पल की बात थी, उनके लिए, आंधी चल रही थी, तेज तूफ़ान था, बारिश भी शायद हो ही रही हो, गाड़ी सड़क किनारे खड़ी कर दी गई थी, बचने के लिए, पेड़ ज़ोरों से हिल रहे थे, बच्चे, बेचारे घबराए हुए थे और उनको अपने आप में समेटे हुए, उस वक़्त, सिर्फ उनका पिता ही था, वो न जाने किन किन शब्दों से, उनकी हिम्मत बंधा रहा था, ढांढस बंधा रहा था! और फिर कुछ हादसा हुआ, बच्चे समझ ही नहीं सके! इसके आगे, वे नहीं समझ पाये, बस फिर इतना, कि उनके पापा घायल थे! चल नहीं पा रहे थे, साथ में कुछ सामान था, वो सामान शायद ज़रूरी रहा हो, उस बड़े से ब्रीफकेस को, अपने हाथों से खिसका रहे थे, शायद, अपने पिता की मदद के लिए!
तो उन बच्चों के मन पर क्या गुजर रही होगी, कि कोई आया तो है मदद के लिए, लेकिन उस पर, विश्वास कैसे किया जाए? अब बालक बुद्धि! जानतें हैं, दुनिया का सबसे मुश्किल काम क्या होता है? किसी रोते हुए बच्चे को हंसाना! किसी बच्चे का विश्वास जीतना, नहीं तो उसकी भाव-शक्ति दस कदम आगे ही चला करती है, हम 'प्रखर' मस्तिष्क वाले वयस्कों से!
अब चुप्पी मैंने ही तोड़ी, तोड़नी ही पड़ी!
"संजू?" कहा मैंने,
कुछ पल, इंतज़ार!
"सिम्मी?" कहा मैंने,
फिर से, कुछ पल, इंतज़ार!
"आ जाओ बच्चों?" कहा मैंने,
"घबराओ नहीं!" बोले शहरयार!
और तब सामने, कुछ दूर, करीब बीस फ़ीट पर, कोई दिखा, उस टोर्च की रौशनी पर, किसी के पाँव दिखे, पाँव, किसी बालक के, घुटनों के ऊपर का हिस्सा, गुलमोहर के पेड़ की शाखों से छिपा था, वो, शांत सा खड़ा था, शायद अब, इस बार, हमने, जीत लिया था उसका विश्वास! कुछ ना-नुकुरु थी, रही थी, वो भी मिट ही जाती, अगर, बातचीत शुरू होती!
"संजू?" कहा मैंने,
"कौन?" आई आवाज़ उसकी!
छोटे से बालक की आवाज़ थी, आवाज़ में अभी भी बालपन सा था, एक अजीब सी बेचैनी सी, एक, ऐसा बालक, जिसे सिखाया गया हो, कि अंजना लोगों से दूर रहो, बात न करो!
"संजू?" कहा मैंने फिर,
"कौन?" फिर से बोला वो!
"सिम्मी कहाँ है?" पूछा मैंने,
अब कोई जवाब नहीं दिया उसने!
कुछ पल का इंतज़ार!
"कौन?" फिर से पुकारा वो!
"संजू? आगे आओ?" बोला मैं,
"आप कौन?" बोला वो,
"हम यहीं से हैं, तुम्हारे पापा ने भेजा है हमें!" कहा मैंने,
"पापा?" बोला वो,
"हाँ, पापा!" कहा मैंने,
"कहाँ हैं पापा?" पूछा उसने,
"तुम्हें नहीं पता?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"नहीं?" मैं चौंका तब!
"तुम अकेले हो?" पूछा मैंने,
दौड़ा मेरा दिमाग फौरन! मेरे दिमाग की घड़ी की गरारियां हुईं फेल अब! दौड़े ही जाएँ! आगे की तरफ! मेरी सोच में, नींव खुदे, बुनियाद भरे, और सवालों के मकान खड़े होते चले जाएँ!
"सिम्मी है" बोला वो,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
''वहाँ" बोला वो,
अब उसने कहाँ इशारा किया, उन्हीं आया समझ! वो पेड़ की शाखों में छिपा था!
"सिम्मी को बुलाओ?" कहा मैंने,
"वो नहीं आएगी" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं आएगी" बोला वो फिर से,
"क्यों बेटे?" बोले शहरयार!
"चोट लगी है" बोला वो,
"कैसे चोट?" पूछा मैंने,
"पेट में" बोला वो,
"ओह, तो जल्दी हमें ले जाओ उसके पास?" कहा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"सिम्मी ने मना किया है" बोला वो,
"उसको बोलो, पापा ने बुलाया है" कहा मैंने,
"पापा कहाँ हैं?" उसने पूछा,
"वहां" कहा मैंने,
"वहाँ नहीं हैं" बोला वो,
"वहीँ हैं" कहा मैंने,
"हमने ढूंढा, नहीं हैं" बोला वो,
"तुमने गलत जगह देखा होगा?' कहा मैंने,
"नहीं" वो बोला,
"हाँ, अच्छा, यहां आओ?" बोला मैं,
"नहीं" कहा उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मैं जा रहा हूँ" बोला वो,
"नहीं!! रुको! रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"संजू? संजू?" चीखा मैं,
लेकिन वो, पीछे हटता हुआ, पहले धीरे और फिर घूम, दौड़ा चला गया! बजरी पर 'छर्र-छर्र' की आवाज़ें आती रहीं!
मैं दौड़ता हुआ चला गया, टहनियों से उलझता हुआ! मैं भागा तो शहरयार भी भागते चले आये मेरे पास, मैं रुका, तो वे भी रुके!
"कहाँ?" बोले वो,
"उधर!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और हम दौड़ पड़े उधर!
अचानक से रुके! सामने एक दीवार सी थी, दीवार में छेद हुए, हुए थे, टूट गई थी वो दीवार! आसपास रौशनी मारी तो, देखने से पता चला कि वो कोई सामान आदि रखने का गोदाम जैसा था, सामना तो कुछ नहीं था वहां, हाँ, कुछ झाड़ियां, कुछ टूटे से बड़े पाइप और सीमेंट जमा था जगह जगह!
"संजू?" कहा मैंने,
"कहाँ हो बेटे?" बोले वो,
'संजू?" कहा मैंने फिर,
'सुनो?" बोले वो,
"संजू? आओ तो?" कहा मैंने,
"संजू? सुनो तो सही बेटा?" बोले वो भी!
तभी झाड़ियों में कुछ हरकत सी हुई! और कोई जानवर, पीली आँखों वाला, काईं की सी आवाज़ करता हुआ दौड़ भागा वहां से! एक पल को तो हम घबरा ही गए थे, वो शायद जंगली बिलाव था! हमारी मौजूदगी से घबरा गया होगा!
"सिम्मी?" बोला मैं,
"संजू?" बोले वो भी!
"देर न करो? तुम्हारे पापा मुसीबत में हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कौन हैं आप?" आई किसी बच्ची की आवाज़!
हमने आसपास देखा तभी! रौशनी मारी हर जगह!
लेकिन! कोई नहीं!
"सिम्मी?" कहा मैंने,
"हाँ?" आई आवाज़,
"कहाँ हो बेटी?" पूछा मैंने,
"यहीं हूँ" बोली वो,
"सामने आओ?" कहा मैंने,
"नहीं आ सकती" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"संजू कहाँ हे?' पूछा मैंने,
''वहां" बोली वो,
और तब हमने देखा उसे, बाएं खड़ी थी वो बच्ची, बाल बिखरे हुए थे, चेहरा, खून से सना था, पूरे कपड़ों पर खून ही खून था, एक पाँव भी खून में रंगा था!
"ओह बेटी!" बोले वो,
"इधर आओ?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"हम आएं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"संजू को बुलाओ?" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"तुम्हारे पापा ने बुलाया हे!" कहा मैंने,
"पापा आ गए?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहाँ गए थे सिम्मी?" पूछा मैंने,
"बुलाने" बोली वो,
"किसको?" पूछा उन्होंने,
"संजू को बचाने" बोली वो,
"संजू को?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या हुआ संजू को?" पूछा मैंने,
"वो पेड़ के नीचे दब गया था" बोली वो,
"तो पेड़ उठाने के लिए गए थे?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और तुम?" पूछा उन्होंने,
"मैं तो बंधी थी" बोली वो,
"सीट-बेल्ट में?" पूछा मैंने,
"हम दोनों" कहा उसने,
"अच्छा" कहा मैंने,
"आओ?" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"पापा के पास!" कहा मैंने,
"पापा नहीं आये अभी" बोली वो,
''आ गए हैं!" कहा मैंने,
"यहां?" बोली वो,
"उधर हैं" कहा मैंने,
"नहीं हैं" बोली वो,
"हैं?" कहा मैंने,
उसने पीछे मुड़कर देखा तभी!
'संजू?" बोली वो चिल्लाकर!
और दौड़ पड़ी उधर के लिए!
''आओ!" कहा शहरयार ने!
"हहां" कहा मैंने,
और हम भी भाग लिए उधर के लिए!
अब जहां आये, वहां तो कुछ नहीं था, आसपास देखा, खूब रौशनी डाली!
''वो!" बोले वो,
वे दोनों बच्चे, दीवार पर चढ़े थे! हमें ही देख रहे थे!
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
और हम भाग लिए उधर!
''रुको!!!!!" कहा मैंने, और पकड़ लिया शहरयार को!
उस लड़के, संजू के हतह में एक पत्थर था, शायद ईंट सी, उठाये खड़ा था अपने दोनों हाथों में! यदि फेंक देता हम पर, तो सच में ही, चोट लगती ज़बरदस्त!
