Notifications
Clear all

जयपुर के पास की एक घटना, वर्ष २०१५, वो सर्दी की एक रात!

38 Posts
1 Users
1 Likes
574 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

 वो सर्दी की एक गुलाबी रात थी! शाम करीब छह बजे, बारिश भी पड़ी थी! बारिश की बूंदें पानी कम और कीलें ज़्यादा लग रही थीं! जैकेट और गले के बीच की खाली जगह पर जब बूंदें पड़ती थीं तो समझो जैसे कीलें घुसेड़ दी हों! बारिश से तो जैसे तैसे बचे हम! उस जगह पर बने कमरों में से एक में हम लोग ठहरे हुए थे! बारात के बाद के कार्यक्रम, रिसेप्शन में आये थे हम, मैं और शहरयार जी! समय आठ बजे का बताया गया था, हम जैसे सुरा-प्रेमी लोगों ने जैसे आठ के कांटे पर रस्सी बाँध कर, रोक दिया था उसे! लटक गए थे एक एक करके! हमारे साथ, प्रेम साहब, सुशील जी, नरोत्तम जी और असरार साहब बैठे थे!  कमरे में नीचे कालीन और कंबल बिछा दिए गए थे, और हम, रजाइयों में घुस, अब सुरा का आनंद ले रहे थे! सामने एक बड़ी तश्तरी में, सलाद, दूसरी में सींक-कबाब, टिक्के सजे थे! साथ में कच्चा, ज़ीरे वाल पनीर रखा था, और फिर, कुछ सोडे, पानी की बोतलें! नरोत्तम जी की अपनी फर्नीचर की दुकान है जिला मथुरा में, प्रेम जी, हरियाणा के हैं, रोहतक के, असरार साहब, टोंक, राजस्थान के व्यापारी हैं! सुशील जी, मैनेजर हैं एक बैंक में! वे भी मथुरा के ही हैं! तो साहब, अलग अलग थजीबें और अलग अलग ही भाषाएं! कुछ का कुछ अर्थ और कुछ का बड़ा ही भयंकर अर्थ! ऐसा भयंकर कि हँसते हँसते, ज़िप ही ढीली करनी पड़ जाए या पेटी ही खोल ली जाए! रजाई में भी पाँव सुन्न! जैसे बर्फ पर बैठे हों हम लोग!
"ठंड नै तो ग़ज़ब ढा रखौ है आज!" बोले नरोत्तम जी बोले!
बात वही है, जब ख़ुशी का माहौल हो, या डर जाएँ अंदर तक, या प्रेम की अभिव्यक्ति हो, तो हमेशा मुंह से अपनी मातृ-भाषा ही निकला करती है! आप कितने ही अंग्रेजी-दां हो जाएँ, जब भी गुस्सा आएगा, आप के मुंह से जो भी अलफ़ाज़ फूटेंगे वो, शुद्धः आपकी अपनी, मातृ-भाषा में ही निकलेंगे! तो नरोत्तम जी, तीन पैग अंदर ले चुके थे, अब कौन सी शर्म साहब! हमाम में सब नंगे! आ गए अपनी देहाती भाषा में ही!
"दारु न राखी?" बोले प्रेम जी!
"धरी है! फीकौ सौ टेस्ट दीखै मोए तौ!"
"फीकी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कैसे जी?" पूछा मैंने,
"चढ़ई न रही दारी की!" बोले वो,
दारी की! हँसते हँसते फिर से, ज्वालामुखी सा फूट पड़ा! कुछ भी कहो! बृज-भाषा का अपना ही रसीलापन है! कोई नहीं इसके मुक़ाबले में!
ऐसी ही चुहलबाजी चलती रही! कभी कुछ और कभी कुछ! खाते जाते और मदिरा से लड़ते जाते! कभी मदिरा हावी, कभी हम हावी! कभी वो आँखें दिखाये, कभी हम सीना चौडाएं! हमें उसका हुस्न तार-तार करना था, उसे हमें तड़ीपार करना था! जंग छिड़ी थी! इसी जंग में बज गए जी साढ़े ग्यारह! खाली बोतलें हमारे तमगे थे! हमारे लाल पड़े चेहरे उस हुस्न की जीत थी!
"रै सुशील?" बोले नरोत्तम जी,
"हाँ बड़े भाई?" बोले वो,
"कैसे सांप सूंघ गौ?" बोले नरोत्तम जी,
"अजी सांप-सूप तो न सूँघो!" बोले वो,
"फेर?" बोले वो,
"अब गुरु जी बैठे हैं, सोच रहा हूँ, पूछूं, न पूछूं!" बोले वो,
"पूछ लै?" बोले वो,
"क्या बात है सुशील जी?" पूछा मैंने,
"वही भाई साहब, ओ, बड़े भाई?" बोले वो नरोत्तम जी से,
"ओ, सड़क वारी?" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तो पूछ?" बोले नरोत्तम जी!
"हाँ, पूछिए?" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"एक मिलट!" बोले नरोत्तम जी, और सरक कर आ गए पास!
"पहरे तो यायै खारी करो!"  बोले गिलास देते हुए!
मैं हंसा, शहरयार भी हंसे!
"ओ, असरार?" बोले वो,
''हाँ जी, हुकुम!" बोले असरार साहब!
"राजघराने के पैदा हो जो हम नांद में भए?" बोले नरोत्तम!
"गुस्सा न करो सरकार हमारी! हुकुम करो!" बोले असरार साहब!
हमारी हंसी छूटी! राजघराना!
''आओ, उल्लंग कू?" बोले नरोत्तम जी,
"अजी लो मेरी सरकार!" बोले असरार जी, जांघें दबाते हुए उनकी! मज़ाक चला रहा था ज़ोर का!
"ओ प्रेम?" बोले वो,
"हाँ साहब?" बोले वो,
"आ जाओ धोरे ने!" बोले वो,
"जी साहब!" बोले प्रेम जी!
वे भी आ गए पास में ही!
"हाँ जी, काई का कच्छा-पच्छा ढीरौ पर रौ होए, तो बांधे लियो!" बोले वो,
अब ये सुन, हंसी का बम फट पड़ा!
"आज तो रंग में दीखै हो जी!" बोले शहरयार साहब!
"अजी अभी कहाँ!" बोले वो,
"लाओ, लाओ जी, और लाओ, लाल पानी!" बोले शहरयार!


   
Quote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उनको एक पैग दिया गया! बड़ा सा पैग! एक ही झटके में गिलास का तालू नज़र आ गया! अपनी मूंछों पर हाथ फेरा तब उन्होंने!
"बसंती पैग!" बोले वो,
"बसंती?'' पूछा शहरयार जी ने,
''हाँ जी!" बोले वो,
"कैसे?" बोले वो,
"बसंती ही बसंती अब!" बोले वो,
"वाह जी!" बोले असरार जी,
"हाँ सुशील जी?" पूछा मैंने,
"गुरु जी, मैं आमतौर पर, सच पूछिए तो इन भूत-प्रेत आदि को नहीं मानता था!" बोले वो,
"मानता था? अब कैसे मानते हो?" बोले शहरयार!
"हाँ जी, अब मानने लगा हूँ, सारे तर्क़ हवा हो गए हैं, कोई तर्क़ नहीं ठहरता वहाँ!" कहा उन्होंने,
"क्या देखा आपने ऐसा भला?" पूछा मैंने,
"बहुत ही ख़ौफ़नाक!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ज़रा अपने बारे में बता दूँ?'' बोले वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"जी मैं रहने वाला, दिल्ली का ही हूँ, मैं बैंक मैनेजर हूँ एक सरकारी बैंक में, मेरी पत्नी है, नीलिमा नाम है उसका, दो बेटे हैं और एक लड़की, लड़की बड़ी है, अब कक्ष बारह में है, दिल्ली में ही रहती है, पढ़ती है, अपने ताऊ-ताई जी के पास, पिता जी, दो साल पहले गुज़र गए, माँ जी हैं, वो संग रहती हैं बड़े भाई के, कभी-कभी आ जाती हैं मिलने!" बोले वो,
"ला भाई!" बोले असरार जी,
"क्या ले आया रे?" बोले प्रेम जी,
"टंगड़ी लाया है!" बोले असरार जी,
''रखो रखो!" बोले वो,
"लो जी!" बोले असरार जी,
"अबे!" बोले नरोत्तम जी!
"अजी क्या हुआ मेरी सरकार!" बोले असरार साहब!
"ये मुर्गे की टंगड़ी हैं या बत्तख की!" बोले वो,
"अजी बड़े भाई, स्पेशल मंगवाई हैं!" बोले सुशील जी!
"भाई वाह!" बोले वो, एक चक मारते हुए!
"चटनी कहाँ है?'' बोले प्रेम जी,
आसपास ढूंढी, नहीं थी!
"आवाज़ दो छोरे ने!" बोले प्रेम जी,
"मैं लाता हूँ साहब!" बोले असरार जी!
"न, आप बैठो!" बोले वो,
"इस से काम न चलै?" बोले असरार जी, एक चटनी देते हुए, दोने में रखी थी!
"चल जागौ!" बोले नरोत्तम जी,
"हाँ जी, सुशील भाई?" बोले असरार जी,
"हाँ!" बोले वो,
और अपना पैग आधा किया, मैंने भी आधा कर दिया गिलास अपना!
"हाँ?" कहा मैंने,
"उस शाम एक शादी थी, मेरे साथ बैंक के ही एक कर्मचारी मिश्रा जी भी थे, हमें लौटने में देर हो गई थी, सर्दी तो नहीं थी लेकिन शाम को ठंडक अक्सर ही हो जाया करती है वहां!" बोले वो,
"अच्छा जी!" बोले प्रेम जी,
"तो हम करीब सवा ग्यारह बजे, रात को वापिस लौट रहे थे, नशा तो था ही, ऊपर से बड़े बड़े वाहन, सम्भाल कर, चालीस-पचास की स्पीड से ही लौट रहे थे, दूरी कोई ज़्यादा नहीं थी, कोई आठ या दस किलोमीटर!" बोले वो,
"अच्छा, आप वापसी में थे!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"एक जगह, लघु-शंका त्याग करने रुके हम, घना अँधेरा था, यहां बस वाहन ही वाहन, सरपट दौड़े जा रहे थे!" बोले वो,
"ऐसे तो होता ही है!" बोले असरार जी,
"तभी मिश्रा जी आये मेरे पास!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और आधा गिलास उठाया उन्होंने अपना, दो घूंट भरे हल्के से!
"काहे लिए आये मिसरा जी सुसील?" बोले नरोत्तम जी!
उन्होंने पूछा और हमारी हंसी निकली!
सुशील जी भी हंस पड़े! गिलास रखना पड़ गया उन्हें नीचे!
नरोत्तम जी ने कुछ गलत नहीं पूछा था, बस उनके लहजे ने ही हमारी हंसी निकलवा दी थी! प्रेम जी, मुंह दबाए हंसे जा रहे थे!
"जादा दांत फाट रे दीखै हैं रे प्रेम? मिरे ससुर के?" बोले वो,
प्रेम जी से रहा न गया! अब खुल के हंसने लगे और हमारी भी हंसी से लग़ाम जा छूटी! पूरे कमरे में ठहाके गूँज उठे!
"हिरै सुनन तो दौ यार मिरे!" बोले नरोत्तम जी!
"आप ही न सुनन दे रये साहब!" बोले शहरयार!
"हाँ रे सुशील, मिसरा जी आये, फेर?" बोले नरोत्तम जी!
"हाँ तो वो आये मेरे पास, बोले, कि ज़रा उधर आना!" बोले वो,
"च्यौं?" बोले नरोत्तम जी!
"सुनने दो बड़े भाई?" बोले प्रेम जी!
"सुनन ते मना कर रौ है कोई? जी भर के सुनो?" बोले वो,
"थम तो जाओ?" बोले प्रेम!
प्रेम को तिरछी नज़रों से देखा उन्होंने! गम्भीर से हो कर! प्रेम जी ने हाथ जोड़ लिए उनको देखते ही!
"मिसरा जन कहाँ ले जा रौ है और तुम्मनने मस्ती चढ़ै है? वाह रे देहाती!" बोले वो,
अब तो ये सुन, मुंह में रखी मदिरा, अटक गई! न नीचे ही जाती बन पड़े और न उगले ही बन पड़े! देहाती! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अब जी तरह से वो शराब, हलक़ के नीचे ली हमने, बस हम ही जानें और ये भी अपने आप में एक जौहर ही था! प्रेम जी के मुंह से तो पिचकारी छूट पड़ी थी! उन्होंने बात तो कुछ ऐसी नहीं की थी, लेकिन बोलने के बाद, हंस पड़े थे खुद ही, उनको हँसते देख ही हमारी हंसी छूट पड़ी थी!
"एक बात बताओ साहब!" बोले असरार जी! अपना कोट सम्भालते हुए, कॉलर से, टाई ढीली करनी पड़ गई थी उन्हें!
"दो च्यौं न पूछो? भली?' बोले वो,
"गुस्सा च्यौं है रहे हो?'' बोले शहरयार जी, मज़ाक़ के अंदाज़ में!
"सुन रे रे भाई?" बोले नरोत्तम जी!
"हाँ जी!" बोले शहरयार जी!
"असरार और हम, लंगोटिए हैं पुराने!" बोले वो,
"लो जी, इसमें कोई कहने की बात!" बोले असरार जी!
"खैर जी, छोरो!" बोले वो, अपने चश्मे को साफ़ करते हुए!
"लाओ, मोए दिखाओ?" बोले शहरयार!
"नाह!" बोले वो,
"च्यौं?" बोले शहरयार!
"हो गौ बस!" बोले वो,
"फेर ठीक!" कहा सुशील जी ने!
"हाँ रे सुसील?" बोले वो, चश्मा नाक पर रखते हुए! ऊनी टोपी ठीक करते हुए!
"हाँ बड़े भाई जी!" बोले सुशील!
"हाँ, कित ले जा रौ हौ, ओ....ओ...हाँ...मिसरा तोय? कहा धरी ही जी में वाके?" बोले वो, इस बार भी हँसते हुए!
हमारी हंसी फिर से निकली! सुशील जी न रोक सके! हंसी छूट ही गई!
"अब आप जाने तो तो जाए न?" बोले प्रेम जी, हँसते हुए!
"मेने कहा सायरे की पेटी पकर लई?" बोले वो,
"अरे सुनने तो दो आगे?'' बोले असरार जी!
"हाँ! तू सुन लै? बाकी तो नचकैया दीखें?" बोले वो,
"बड़े भाई, सुनने तो दो?" बोले प्रेम जी!
"ठीक है जी, अब नाय बोरुं!" बोले वो,
"गुस्सा मत होइए साहब!" बोले शहरयार!
"ना होऊंगौ!" बोले वो,
"लाओ भी? सरकार के लिए बसंती पकड़ लाओ!" बोले असरार जी!
"धन्नो नाय चलै?" बोले शहरयार साहब!
"रे छोरा, आय जा बाज!" बोले वो, हँसते हुए!
मेरी हंसी भी छूटी तब तो!
"प्रेम?" बोले असरार,
"हाँ?" कहा उन्होंने,
"गरम माल पकड़ लो यार?'' बोले वो,
"अभी लो जी!" बोले वो,
लड़के को आवाज़ दी, लड़का आया और ठंडा माल ले गया, कुछ ही देर में, नया, गर्मागर्म माल दे गया!
"हाँ जी, सुशील जी, फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, तो मिश्रा जी आये मेरे पास और एक जगह चलने को कहा, मैंने सोचा शायद कुछ हुआ हो, तो चल पड़ा साथ उनके, वो मुझे सड़क किनारे, एक पेड़ के पीछे ले आये!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"उन्होंने गौर से देखने को कहा, उस सड़क के पार!" कहा मैंने,
"अच्छा! फिर?'' कहा मैंने,
"हम कम से कम दस मिनट वहां रुके रहे, सामने देखते हुए!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं था!" बोले वो,
"ओ!" कहा मैंने,
"मैंने पूछा उनसे, की क्या है उधर, तो सामने ऊँगली कर, देखने के लिए कहने लगे!" कहा उन्होंने,
"अच्छा जी, फिर?" बोले प्रेम जी!
"कोई पांच-सात मिनट के बाद...............!" बोलते बोलते रुके वो,
एक कबाब उठाया, हल्का सा तोड़ा, चटनी लगाई और रुक गए! मैंने इंतज़ार किया उनके कुछ कहने का!
"हाँ, फिर?" बोल पड़े शहरयार जी!
"उधर, सड़क के पार, दो बच्चे थे!" बोले वो,
"बच्चे?" कहा मैंने,
"हाँ जी, बच्चे!" बोले वो,
"इतनी रात?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या उम्र रही होगी?" पूछा मैंने,
एक लड़का और एक लड़की, उम्र सात-आठ से ज़्यादा न रही होगी!" बोले वो,
"अच्छा, और उनके माँ-बाप?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं था जी!" बोले वो,
"क्या?" पूछा प्रेम जी ने,
"हाँ जी, कोई नहीं था!" बोले वो,
"और वो कर क्या रहे थे?" पूछा मैंने,
"एक ब्रीफकेस था था, भारी सा रहा होगा, उसको खींच रहे थे!" बोले वो,
"ओह!" कहा प्रेम जी ने!
"और कैसे घर के लगते थे वे दोनों?" पूछा मैंने,
"सभ्रांत परिवार के, वो स्थानीय तो क़तई नहीं थे!" बोले वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"अरे लइयो रे?" बोले नरोत्तम जी!
''कहा?" पूछा शहरयार जी ने!
"रे उतर गई रे! नैक सी सी दे दो मोय!" बोले वो,
"आप पूरी लो!" बोले असरार जी!
और भर दिया पैग उनका, एक ही झटके में, गिलास खाली! मुंह बिचकाया, टिक्के का टुकड़ा पकड़ने लगे तो छूट गया, प्याज आई हाथ, तो वो ही चबा ली!
"फेर जी?" बोले वो,
"हमने तब इंतज़ार किया!" बोले वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"करीब आधा घंटा!" बोले वो,
"वो दोनों वहीँ थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, सड़क किनारे जा बैठे थे दोनों ही!" बोले वो,
"किसी और ने देखा नहीं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" बोला मैं!
"फिर! जी..................!!" बोले वो और...................!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"फिर जी, जो हुआ, उसको देख हम तो बेहोश होते होते बचे!" बोले वो,
"हैं?" बोले प्रेम जी,
"ऐसा क्या देखा?" पूछा मैंने,
"रे कहा देख लियौ?" बोले नरोत्तम जी,
"ऐसा क्या देखा अपने सुशील जी?" पूछा असरार साहब ने!
"हाँ हाँ? बताइए?" बोले शहरयार!
नशा जैसे एक कोने में जाकर, दुबक कर, अपनी ही खोज में जा बैठा हो!
"हाँ जी, क्या देखा?" पूछा मैंने,
"वो बच्चे सड़क किनारे बैठे हुए थे, उसी ब्रीफकेस पर, आसपास देखते थे, जैसे ढूंढ रहे हों किसी को, और फिर, देखते हो देखते, वे दोनों! हवा में उछले, और सीधे उस बड़े से पेड़ पर जा चढ़े! जो पेड़ कम से कम पचास फ़ीट का तो है ही!" बोले वो,
"दोनों एक साथ ही उछले?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
''और वो ब्रीफकेस?" पूछा मैंने,
"वो नहीं था उधर, उन बच्चों के उछलने के बाद!" बोले वो,
"औ, भूत देीखै हे वो तो!" बोले नरोत्तम जी,
"हाँ जी, और क्या हो सकता है?" कहा शहरयार जी ने,
"पेड़ पर कूद गए?" बोले असरार जी,
"हाँ जी, सीधे ही, हवा में उड़ते हुए!" बोले सुशील जी!
"कोई भी नहीं था साथ उनके?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं!" बोले वो,
"ये कब की बात है?" पूछा मैंने,
"दो-ढाई महीने हुए होंगे!" बोले वो,
"कभी दोबारा गए?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"देखते तो?" कहा मैंने,
"गुरु जी, यहां महीने भर तो नींद नहीं आई, मिश्रा जी का भी यही हाल, वजन और गिरने लगा, डर लगने लगा हर पेड़ से, धीरे धीरे बात सम्भली, दुबारा जाने की तो हिम्मत ही नहीं!" बोले वो,
बात तो सही थी, भय खा जाएँ एक बार तो फिर हिम्मत जवाब देने लगती है! अब चाहे कोई भी हो! मज़बूत से मज़बूत जीवट और देह वाला भी घुल जाए अंदर ही अंदर!
"कितने बजे होंगे?" पूछा मैंने,
"कोई साढ़े ग्यारह?" बोले वो,
"आसपास कोई क़स्बा या देहात?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, क़स्बा पीछे है कोई चार किलोमीटर और देहात तो है ही नहीं!" बोले वो,
"वो सड़क जाती कहाँ है?" पूछा मैंने,
"कोटपुतली" बोले वो,
"किसी और ने बताया कुछ उनके बारे में?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" कहा मैंने,
"कभी ज़िक़्र ही न किया होगा किसी से?" बोले असरार जी,
"हाँ, कभी नहीं किया!" बोले वो,
"अरे! खुरेआम डोल रए हैं भूत परेत वा सड़क पै तो!" बोले नरोत्तम जी!
"हाँ जी!" बोले शहरयार!
"मौ जैसो तो पिरान ही छोड़ि देय देखन ते ई!" बोले वो,
"च्यौं जी?" बोले प्रेम जी,
"भूतन की कहा पूंछ उखरी करै?" बोले वो,
"आपसे क्यों कहेंगे वो कुछ?" बोले शहरयार, छेड़ते हुए उन्हें!
"नाह! मोय तौ रास्ता बतायंगे!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा उनकी बात सुनकर!
"पूछो उनसे, बालको? कैसे घूम रहे हो इतनी रात?" बोले प्रेम जी!
"भाल बुरा रौ हूँ बाबान नै! चौधरी!!" बोले वो,
अब तो हंसी के फव्वारे छूटे! क्या बात कही थी उन्होंने भी!
"डरप गए दीखो!" बोले शहरयार!
"नाह! नाचुंगौ अब!" बोले वो,
"च्यौं जी?" पूछा उन्होंने,
"भूतन ते दोस्ती जो है गई काय!" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
"जी" बोले सुशील जी,
"मौसम कैसा था?' पूछा मैंने,
"खुला हुआ" बोले वो,
"बारिश-बुरीश कुछ नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"तो एक बात!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"वो सिर्फ आप दोनों को ही दिखाई दिए!" कहा मैंने,
"मतलब जी?" बोले वो,
"और भी तो वाहन जा रहे थे ना?" बोला मैं!
"जी, हाँ?" बोले वो,
"तो आपको ही क्यों?" पूछा मैंने,
उन्हें जैसे डंक मारा सांप ने! ऐसे गम्भीर हो गए!
"ये तो सोचा ही नहीं?'' बोले वो,
"सोचो क्यों?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, क्यों?" बोले वो,
"उन्हें पता था आपके बारे में!" कहा मैंने,
"अरे? हे भगवान!" बोले वो,
"सच कै झूठ जी?" बोले नरोत्तम जी,
"सच में, उन्हें मालूम था!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"लेकिन कैसे?" पूछा उन्होंने,
"ये ही तो प्रेत-माया है!" कहा मैंने,
"अब हम क्या जानें!" बोले वो,
"मैं बता रहा हूँ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"तो वे अभी भी वहीँ होंगे!" कहा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"होंगे!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"एक बात और, आप चले कब थे वहाँ से?" पूछा मैंने,
"जी, तभी, उनके पेड़ पर कूदने के बाद ही!" बोले वो,
"पीछे देखा था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"हिम्मत ही न हुई होगी!" बोले असरार जी,
"सच पूछो तो हाँ!" बोले वो,
"समझ गया हूँ!" कहा मैंने,
"लो साहब!" आया वो लड़का, कुछ ले आया था, उसकी बो-टाई बड़ी अच्छी थी, चमकदार सी, लड़का था भी फुर्तीला, दूसरी मंज़िल पर न जाने कितनी बार चढ़ता था, उतरता था!
"क्या ले आया भाई?" बोले असरार जी!
"फ्राइड-फिश!" बोला वो,
"अरे वाह! ला रख यार!" बोले प्रेम जी!
उसने रख दी नीचे तश्तरी! बड़े बड़े पकौड़े बनाए थे बनाने वाले ने! सर्दी हो, सर्दी में मछली के पकौड़े हों, मूली कसी हो, लच्छे जैसी, नीम्बू हो, हरे धनिये, हरी मिर्च मसाले की चटनी हो तो साहब क्या कहने! रात में आदमी रजाई ही फेंक दे! 
हम सभी ने एक एक पकौड़ा ले लिया! चटनी के साथ खाया! गज़ब का स्वाद आया! 
"लाजवाब!" बोले शहरयार जी!
"मजा आ गया!" बोले असरार साहब!
"कौन सी मछली है ये?" पूछा प्रेम जी ने,
"सुरमई है!" कहा मैंने,
"समुद्री?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वैसे कौन सी बढ़िया होती है?" बोले वो,
"सुरमई तो समुद्र से ही मिलती है, वैसे तालाब की मछली अच्छी होती है!" कहा मैंने,
"नदी की नहीं?" बोले वो,
"वो भी, नदी की भी ठीक होती है, लेकिन तालाब की मज़बूत और चिकनी होती है!"  कहा मैंने,
"तालाब में कौन सी मिलती है?" बोले वो,
"अभी, लेकिन आजकल तालाब ज़्यादातर, मत्स्य-पालन के लिए होते हैं, इसीलिए आजकल, कृत्रिम चारा दिया जाने लगा है, प्राकृतिक मछली अधिक अच्छी होती है!" कहा मैंने,
"सो तो होगी ही!" बोले असरार जी!
"एक मछली होती है सौली या सौल, इसे नहीं खाता कोई गाँव-देहात में, देवी मानते हैं इसे! होती भी बहुत सीधी है!" कहा मैंने,
"वही न, हरी सी?" बोले प्रेम!
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"गुरु जी?" बोले सुशील जी,
"हाँ?" कहा मैंने,
"एक बात बताना भूल गया!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"वो जो बच्चे थे, वो कुछ कह रहे थे, लेकिन हम सुन नहीं सके!" बोले वो,
"आपस में?'' पूछा मैंने,
"हाँ, और जो लड़का था, वो लड़की के हाथ को पकड़ क्र, पीछे करता था बार बार!" बोले वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"इसका कोई मतलब?" पूछा असरार साहब ने,
"हाँ, बताऊंगा!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
''और मंगा लो?" बोले प्रेम जी!
"हाँ, अभी!" बोले वो,
असरार साहब उठे और चले गए बाहर!
"ये देखा था जी हमने तो!" बोले सुशील जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ज़िंदगी में पहली बार देखा!" बोले वो,
"मानते हो अब भूत-प्रेत?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"सच है, जो देखता है वही जानता है, मानता है!" बोले प्रेम जी!
"हाँ ये तो है ही! अब लाख समझा लो किसी को, नहीं मानेगा!" बोले शहरयार!
"मैं कौन सा मानता था!" बोले सुशील जी!
"आपने कुछ देखा कभी?" पूछ शहरयार जी ने प्रेम से,
"जब मैं बारह में था तब" बोले वो,
''वो क्या?" पूछा मैंने,
"गाँव में एक औरत ने आग लगा ली थी खुद को, कहते थे उसकी आत्मा, गाँव में भटकती है, और कुँए में कूद कर गायब हो जाती है!" बोले वो,
"आपने देखी थी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"कोई तीन बजे, खेत पर थे हम, चीख मारी किसी ने, और जबदेखा, तो एक औरत, आग से घिरी भागी जा रही थी, वो ही होगी!" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा शहरयार जी ने!
"बस यही जी!" बोले वो,
"तो आप मानते हो?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं जी?" बोले वो,
असरार साहब के साथ वो लड़का आ गया, खाली तश्तरी ले गया और भरी रख गया!
"बैठो" बोला मैं,
"जी!" बोले वो,
और फिर से सुरा-पान शुरू हो गया हमारा!
"बड़े भाई?" बोले सुशील जी!
"हौ?" बोले नरोत्तम जी!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"कछु न!" बोले वो,
"चढ़ गई दीखै!" कहा शहरयार जी ने!
"अजी! मिरु सासू की!" बोले वो,
और ले ली बोतल, डालने लगे पैग!
"ये लो?" बोले असरार जी, एक पकौड़ा देते हुए उन्हें!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"रै सुसील?" बोले वो,
"जी?'' बोले वो,
"फेर?" बोले वो,
"फिर क्या, हम तो दौड़ लिए!" बोले वो,
"है जा!" बोले नरोत्तम जी, डकार लेते हुए!
"और क्या करते?" पूछा उन्होंने,
"जांच न हो सकै ही?" बोले वो,
"कैसी जांच?" बोले वो,
"है जा!" बोले वो,
''आप पूछोगे बड़े भाई?" बोले वो,
"मो ते कहा दुस्मनी है तयारी?" बोले वो,
"ना जी!" बोले वो!
"मैं ठहरो * भर सौ!" बोले वो,
और हमारी हंसी फूटी तभी!
"ए भाई साहब?" बोले असरार जी, हँसते हुए ही उनसे!
"हूँ? बोल?" बोले वो,
"चल रहे हो?" बोले वो,
"कहाँ?'' पूछा उन्होंने,
"वाई सड़क पर!" बोले वो,
"तू चलेगौ?" पूछा उन्होंने,
"आप चलोगे तो!" बोले वो,
"** तो ना?" बोले वो,

"ना! क़तई ना!" बोले असरार!
"कद चलै है? बोल?" बोले वो,
"दारु तो नाय बोल रई?" बोले शहरयार!
''कहा बोरैगी? याकी ** ** **!" बोले नरोत्तम जी, एक साथ गिलास खाली करते हुए!
उन्होंने एक गाली दी थी, मथुरा वारी! हंस हंस के पेट फटने लगा था! सच में, एक भी मथुरा वारा जो मिल जाए महफ़िल में, और चढ़ जावे जो दारु, तो देख खेल बृन्दाबनिया!! वही हो रहा था यहां!
मैं भी हंसे जा रहा था साथ उन सभी के! असरार साहब तो लेट ही गए थी उनकी बात सुनकर! अब फुल मस्ती में थे नरोत्तम जी!
"जाट कहाँ मरगौ?" बोले वो,
"जी बाबू जी!" बोले प्रेम जी, हंसी दबाते हुए!
"सुनी?" बोले वो,
"क्या जी?" बोले प्रेम जी,
"होगौ तू तहसीलदार! तेरे जैसे काय झूलै करैं ** *** *!!!" बोले नरोत्तम जी!
अब हम तो क्या, खुद प्रेम जी से भी न रहा गया! मेरी तो हालत पतली होने लगी! ऐसी हंसी आई कि खाया-पिया सब बाहर आ जाता!
"बस बड़े भाई बस!" बोले सुशील जी हाथ जोड़ते हुए!
"ओ मलेजर!" बोले नरोत्तम जी! प्याज खाते हुए!
"जी बड़े भाई!" कहा उन्होंने,
"देखि, कैसौ बुकला रौ है? बालकन से तो त्यारी *** ** **?" बोले वो,
अब मैं तो उठ लिया! हँसते हँसते पेट पकड़ लिया! मैं क्या, शहरयार, प्रेम, असरार सब के सब, पेट पर हाथ रख बैठे! मैनेजर साहब का तो बही-खाता ही बांच दिया था नरोत्तम जी ने!
"बड़े भाई?" बोले सुशील जी!
"बोल, डरपोक?" बोले वो,
"चढ़ गई दीखै!" बोले वो,
"हम्म्म! चढ़ गई! हैं?" बोले वो,
"लग तो ऐसा ही रहा है?" बोले वो,
"ऐसे चढ़ै करै ओ मलेजर?" बोले वो,
"असरार?" दी आवाज़ उन्होंने,
"हाँ जी, मेरी सरकार!" बोले वो,
"सिगरेट बाल, मो देय?" बोले वो,
"जी, सरकार!" बोले वो,
प्रेम जी, साथ ही खड़े थे मेरे, हम एक तरफ आ गए थे वहां से!
"ये नरोत्तम जी करते क्या हैं?" पूछा मैंने,
"नेतागिरी!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"किस स्तर की?'' पूछी मैंने,
"ब्लॉक की!" बोले वो,
"प्रधानी आदि की?" बोले शहरयार!
"हाँ जी, वैसे, खल का बड़ा काम है इनका!" बोले वो,
"कौन सम्भालता है?" पूछा मैंने,
"खुद ही!" बोले वो,
"और फिर नेतागिरी कैसे?" पूछा मैंने,
"कभी कभी लड़के सम्भाल लेते हैं!" बोले वो,
"आदमी ज़ोर के हैं!" बोले शहरयार जी!
"गज़ब के!" बोले वो,
"आप तहसीलदार हैं?" पूछा शहरयार जी ने,
''आपकी कृपा से!" बोले वो,
"भाई वाह!" बोले वो,
"आओ कभी!" बोले वो,
और अपना नाम, पता, दफ्तर आदि का पता, सब लिखवा दिया, फ़ोन नंबर, फ़ोन में फीड कर लिया शहरयार जी ने!
"और असरार साहब?" पूछा मैंने,
''ये टोंक में रहते हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये असरार, नरोत्तम मैं, काफी पुराने जानकार हैं!" बोले वो,
"हाँ, देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"नरोत्तम और सुशील जी?" पूछा मैंने,
"इनकी रिश्तेदारी है कुछ!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब बड़े हैं, तो डंडा भी बजा सकते हैं!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"ओ रे जाट?"
"जी बड़े साहब?'' बोले वो,
"कोई बीयरबानी खड़ी दीखै!" बोले वो,
"अरे ना जी!" बोले प्रेम जी!
"जाटनी ते कह दई जो तो जानै है? बवार टूट परेगौ!!" बोले वो,
"अरे नहीं जी नहीं!" कहा उन्होंने, हाथ जोड़ते हुए!


   
Jeet singh reacted
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

किसी तरह से नरोत्तम जी के हाथ जोड़, पाँव पड़, उन्हें मनाया उन लोगों ने! बड़ी मुश्किल से माने जी वो! उठ उठ के भागें, एक एक की खिंचाई करें! पता नहीं कब कब की बातें करें! खुद ही बोलेँ और खुद ही हंसें! उन्हें बसंती तो चढ़ गई थी! वो पी भी तो सटाक-सटाक रहे थे! ज़रा सी कड़वाहट कम हुई नहीं कि और! तो उनको चुप कराया! चुप हुए तो भजन गाने लगे! खैर, भजन तो न बुरे!
"क्या कहते हो गुरु जी?" बोले शहरयार!
"कभी जाना हुआ, तो देख लेंगे?" कहा मैंने,
"वैसे आजकल कोई काम तो है नहीं!" बोले वो,
"ये तो ठीक है!" कहा मैंने,
"चलो फिर, एक दावत और भली!" बोले वो,
"देख लो आप!" कहा मैंने,
बाहर, मची अफरा-तफरी सी! बारिश आने लगी थी!
"लो जी, बारिश आ गई!" बोले प्रेम जी,
"कोई बात नहीं साहब!" बोले असरार जी!
"आज रात यहीं सही!" बोले वो,
"हाँ, क्या करें!" कहा मैंने,
"सुशील जी?" बोले शहरयार!
"जी?" बोले वो,
"अभी कितने दिन हो यहां?" पूछा उन्होंने,
"परसों जाऊँगा वापिस" बोले वो,
''अच्छा, परसो मायने, शुक्रवार?" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा उन्होंने,
"असरार जी?" बोले शहरयार!
"जी साहब!" बोले वो,
"कब तक हो दिल्ली में?" पूछा उनसे,
"मई परसों साथ जाऊँगा सुशील के, जयपुर!" बोले वो,
"और वहां से आगे?" बोले वो,
"हाँ जी! हुक़्म करो आप!" कहा उन्होंने,
"अभी रुको!" बोले वो,
"ठीक जी!" बोले वो,
"हाँ प्रेम जी?" बोले वो,
"जी?'' बोले वो,
''चल रहे हो?" पूछा उनसे,
"कहाँ जी?" पूछा उन्होंने,
"जयपुर?" कहा उन्होंने,
"कब?" पूछा उन्होंने,
"इस इतवार?" बोले वो,
"इतवार?" कहा उन्होंने,
"हाँ, इस इतवार?" बोले वो,
"चलो, देखी जायेगी!" कहा उन्होंने,
"हाँ बड़े साहब?" बोले शहरयार नरोत्तम जी से!
नरोत्तम जी, भजन की एक पंक्ति पर अटक गए थे, बार बार वो ही गाते थे! सुनी ही नहीं उन्होंने, अपनी लय में ही रहे!
"अरे सरकार?" बोले असरार साहब,
न सुनी फिर भी!
"ज़्यादा हो गई इन्हें तो!" कहा मैंने,
"ये ऐसे ही टंकी फुल कर लेते हैं!" बोले सुशील जी!
"ओ नेता जी?" बोले प्रेम जी,
"हाँ?" अब दिया ध्यान उन्होंने,
"चल रहे हो?" बोले वो,
"धार मारवे तो जाया न जारौ, कहाँ ले जावै?" बोले वो,
"सुशील जी के पास?" बोले प्रेम जी,
''कहा कही?" बोले वो,
"सुशील के पास, जयपुर?" बोले ज़ोर से अबकी बार!
"सुसील? सुसील धोरै तो होऊंही मैं?" बोले वो,
"अरे नेता जी, जयपुर?" बोले वो,
"कहा करिबे?" बोले वो,
"दावत!" बोले वो,
"सुराप पीवै?" पूछी उन्होंने,
"हाँ हाँ!" बोले प्रेम जी!
"च्यौं न! चलंगे!" बोले वो,
तब असरार जी ने गिलास बढ़ाए हमारी तरफ! कबाब भी, साथ में सोडा और प्याज की तश्तरी भी!
"मोय न दो नैक सी सी?" बोले नरोत्तम जी!
"अब नहीं देना इन्हें!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो कर देंगे बखेड़ा!" बोले सुशील जी!
"नाय सुनी?" बोले वो,
"सो जाओ अब बड़े भाई!" बोले सुशील जी!
"ना!" बोले वो,
उठे और हिलते हिलाते आ गए हमारे पास!
"पकड़ लीजो रे!" बोले वो,
"अब न पियो सरकार?" बोले असरार जी!
"च्यौं?" बोले वो,
"बहुत हो गई!" बोले वो,
"कहा है गई?" पूछा उन्होंने,
"सुराप!" बोले वो,
"है जा! मथुरा के पिबय्या हैं हम!" बोले वो,
"मालूम है जी!" बोले वो,
"दारी की कौनु सी, बोतल मांग रौ हूँ?" बोले वो,
"फिर?" पूछा प्रेम जी ने,
"नेकु सी सी!" बोले वो,
"दे दो!" बोले शहरयार!
"बैठो?" बोले वो,
''ना!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा शहरयार ने,
"अब नाय बैठौ जारौ?" बोले वो,
"तो ये ज़रूरी है?" बोले प्रेम जी,
"ओ रे जाट! जीभै सुम्भाल!" बोले वो,
"गलती हो गई साहब!" बोले हँसते हुए प्रेम जी!
दे दिया आधा गिलास उन्हें, फिर से सटाक!
"ओ रै जाट?" बोले वो,
"हाँ जी?'' बोले प्रेम जी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"लिटा तो देय मोए?" बोले वो,
"अभी लो!" बोले वो,
थोड़ी-बहुत मेहनत की, और लिटा दिया उन्हें! ऊपर से रजाई डाल दी! उनकी तो हो गई थी शिफ्ट पूरी! बचे थे हम अब! हम धीरे धीरे ही ले रहे थे तो इतना झटका नहीं मारा था सुरा देवी ने अभी तक!
"खाना लगवा ही लूँ?" बोले असरार जी,
"हाँ, देर भी हो गई!" बोले सुशील जी,
वे उठे और चले गए बाहर, फिर आये और बैठ गए! हमने इतने में एक एक गिलास और सुरा का फ़ना कर दिया था अब तक!
"तो इतवार आ रहे हो आप?'' पूछा सुशील जी ने,
"हाँ" कहा शहरयार ने,
"कब तक?" बोले वो,
"तीन-चार बजे तक?" बोले वो,
"ठीक है, आइये!" बोले वो,
"हाँ, आएंगे!" बोले शहरयार!
''और ये बड़े भाई?" बोले वो,
"इन्हें भी डालते लाएंगे!" बोले शहरयार!
"ठीक, लेकिन देखना, रास्ते में ही कहीं चालू न हो जाएँ!" बोले वो,
"अरे नहीं!" बोले वो,
"नहीं तो पकड़ना मुश्किल है फिर इन्हें!" बोले वो,
"ये तो देख लिया!" कहा मैंने,
"अभी कहाँ?" बोले वो,
"और भी?" पूछा मैंने,
"अरे!!! एक बार ज़िद पे आ गए तो बोले ही जायेंगे!" बोले वो,
''अरे रे!" बोले शहरयार!
"बातों में लगाए रखना बस!" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा उन्होंने,
"प्रेम जी?" बोले वो,
"हाँ साहब?" कहा उन्होंने,
"कैसे आओगे?" पूछा उन्होंने,
"रेल से!" बोले वो,
"साथ ही जो न आ जाओ?" बोले शहरयार!
"और क्या?'' पूछा मैंने,
"जी ठीक!" बोले वो,
"कहाँ मिलना है, कैसे मिलना है, ये तय कर लेंगे!" बोले शहरयार!
"लो जी, खाना आ गया!" बोले वो,
रख दिया गया, और हमने जो थोड़ा-बहुत खाना था, खाया, हाथ-मुंह धोए और फिर उसके बाद, अपनी अपनी रजाई में जा घुसे!
"ठंड बहुत है आज तो!" बोले प्रेम जी!
"ठंड शबाब पर है पूरे!" बोले शहरयार!
"हाँ जी!" बोले वो,
"प्रेम जी?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"घर में कौन कौन है?" पूछा मैंने,
"जी पत्नी है, माँ है, एक बड़े भाई हैं, रिटायर्ड हैं, अब गाँव में रहते हैं, पत्नी है, और एक लड़की और लड़का!" बोले वो,
"संग ही रहते हैं?" बोले वो,
"नहीं जी, मैं ही अलग रहता हूँ!" बोले वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"पढ़ रहे हैं बच्चे! अब कहाँ कहाँ दाखिल करवाते फिरो?" बोले वो,
"हाँ, ये बात भी है!" कहा मैंने,
"तो जी, मैं अलग ही हूँ, छुट्टी पर चला जाता हूँ!" बोले वो,
"नहीं, ठीक है!" कहा मैंने,
तो साहब!
रात वहीँ काटी! ठंड ऐसी थी, कि खून ही जम जाए बाहर तो! बेचारे काम करने वाले, देर रात तक, भट्टी में अलाव ही जलाते रहे!
अगली सुबह, हम चल दिए, सभी सोये ही थे, सुशील जी चले गए थे भाई के पास, उन्हें फ़ोन पर कह दिया था, ठंड बड़ी ज़बरदस्त थी, मौसम साफ़ नहीं था, बस फिर भी, उस धुंध में, हम निकल ही आये थे!
एक जगह रास्ते में चाय पी! चाय का स्वाद बड़ा अच्छा लगा था उस वक़्त! लोग ठंड के मारे बेसुध थे! कोई कंबल में तो कोई खेस में खुद को समेटे हुए था!
इस तरह, आ गया इतवार! सारी तैयारी कर ली थी शहरयार जी ने, सुशील जा का भी, फोन आ ही गया था!
तो कोई आठ बजे हम निकले अपने अपने घर से! शहरयार जी ने मुझे लिया, फ्लास्क में चाय भरवा लाये थे! साथ में परांठे भी! रास्ते से, नरोत्तम जी को लेना था, वो सराय काले खाँ पर आ रहे थे, धुंध बहुत थी तो देर लगी उन्हें! खैर वे आये, उनसे नमस्कार हुई! पूरी तरह से गरम कपड़ों में क़ैद थे वो तो! उनको बिठा लिया! और चल पड़े गुड़गांवा की तरफ! यहीं से, प्रेम जी को भी लेना था!
''अ...हा...हा कैसी गज़ब की ठंड पर रई है!" बोले नरोत्तम जी!
"पूछो ही मत जी!" कहा शहरयार ने!
"चांटे से पर रये हैं!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"और मौसम, जे न खूट के देय आज तो!" बोले वो,
"खुलेगा!" कहा मैंने,
"नाय! मोय न लागै!" बोले वो,
"बिगड़ क्या रहा है! आराम से बैठे हैं!" बोले शहरयार!
हम चलते रहे आगे, धुंध ने रफ़्तार पर लग़ाम लगा दी थी!
"कहाँ आय लिए?" बोले वो,
"बस थोड़ा और!" बोले शहरयार!
"कैसे बनै बात?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उनसे शहरयार ने,
"पारौ मार रौ है क़तई!" बोले वो,
"कहा है जी में?" बोले शहरयार!
"कछु धरौ है?" पूछा उन्होंने,
"कछु कहा?" पूछ उनसे,
"जारे की दवा?" बोले वो,
"चाय है!" बोले वो,
"चाय से कहा जारौ मिटै?" बोले वो,
"अभी तो सुबह ही है?" कहा मैंने,
"रातै भी तो देखनी है के नाय?" बोले वो,
हमारी हंसी छूटी!
उनका कहना था कि अगर ज़िंदा बचे तो ही रात देखेंगे ना! और उसी वक़्त.................!!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

बातें करते करते हम, गुड़गांवा पहुँच गए! प्रेम जी से बातें हो ही रही थीं फ़ोन पर, जगह बता ही दी थी उन्होंने, तो वो भी मिल गए! उनको साथ ले लिया था, तब हमने चाय भी पी ली थी! सर्दी ऐसी थी की पूरा बदन ठिर्रा रहा था! सही कह रहे थे नरोत्तम जी, कि ठंड के चांटे से पड़ रहे थे!
"और प्रेम जी?" कहा मैंने,
"सब बढ़िया जी!" बोले वो,
"घर में सब कुशल मंगल?" पूछा मैंने,
"सब ठीक ठाक!" कहा उन्होंने,
फिर उनमे, नरोत्तम जी और प्रेम जी में बातें होने लगीं, अपनी अपनी सुनाते और सुनते! इस तरह से गुड़गांवा भी पार कर लिया हमने!
सुशील जी का फ़ोन आया, हमारे पास, उन्होंने पूछा कि वे दोनों मिले या नहीं, हमने उनकी बात करवा दी, अब बस सुशील जी को इंतज़ार था तो हमारे वहाँ आने का! रास्ते में हंसी-मज़ाक़ चलता रहा, कुछ खाते-पीते हम आगे बढ़ते रहे, धुंध ने गति पर लग़ाम तो कस ही रखी थी, बीच बीच में जाम भी मिल जाता था! उसे भी पार करते थे हम!
और इस तरह से हम करीब पांच बजे वहां जा पहुंचे! गर्मी रही होती तो जल्दी ही आ जाते, लेकिन सर्दी में तो जैसे गाड़ी को भी गठिया-बाय की शिकायत हो चली थी!
रास्ते में, नरोत्तम जी, शराब के ठेकों को देखते तो देखते ही रहते! उन्हें लगता था कि ठंड की दवा यहीं है और यही है! बार बार रुकने को कहते, अपनी सेहत का हवाला देते, ठंड का दुहाई देते! लेकिन हमने न सुनी एक भी! टालते रहे हम उन्हें कि जयपुर में ही कुछ हो तो हो!
एक बढ़िया जगह हमारे ठहरने का इंतज़ाम किया गया था! ये जगह, असरार जी के जान-पहचान में से किसी की थी! असरार साहब से भी मुलाक़ात हुई और तब हमने गर्मागर्म चाय पीने के लिए उन्हें कह दिया था!
"मेरी न सुनो?" बोले नरोत्तम जी,
"बोलो?" बोले सुशील जी!
"सांझ है गयी?" बोले वो,
"रोज होवे वो तो!" बोले सुशील जी,
"काय लिए बुराये फेर?" बोले वो,
"गुस्सा न करो बड़े भाई!" बोले सुशील जी!
"ठंड के मारै लकवा मारे देय मोए तौ!" बोले वो,
"लो जी, और सुन लो!" बोले सुशील जी!
"रुक जाओ, रात अपनी है!" बोले असरार जी,
"बिट**! सुबह से दोपहर गई, दोपहर से सांझ आई, अब रात?" बोले वो,
"तो क्या हुआ?" बोले सुशील जी!
"तिहारी मर्ज़ी!" बोले वो,
चाय आ गई, साथ में कचौड़ी और समोसे भी! चाय के साथ तो वैसे भी, सर्दी में मजा आ जाए! तो लील मारे सब के सब!
और उसके बाद आराम किया हमने, मेरी तो नींद ही लग गई थी! रजाई, कंबल की गर्मी मिली तो घंटे भर आराम की नींद ले ली थी!
फिर बजे आठ!
और महफ़िल सजाने की हुई तैयारी! यहां बनाने वाला तो कोई न था, बाहर से ही सारा सामान मंगवाया गया था! सामान भी बढ़िया ही मंगवाया गया था, ताकि उसके बाद पेट में जगह न बचे, कुछ ता तो यहां एक रसोई, जिसमे कुछ गरम ज़रूर किया जा सकता था सामान!
तो जी, सामान खोला गया, रखा गया, पानी, सोडा, गिलास सब बाहर से ही लाए गए थे! चटनी अलग दोनों में रख दी गई थी!
"हाँ जी?'' बोले नरोत्तम जी,
"जी?" कहा मैंने,
''अवेर कैसी?" बोले वो,
"ना जी, कोई अवेर न!" बोले प्रेम जी!
"तो बना?" बोले वो,
"ऐसी जल्दी?" बोले प्रेम,
"तड़के ही चलौ हूँ भातई?" बोले वो,
अब रंग में आने लगे थे नरोत्तम जी!
"कुँवारी सी ही चलेगी?" बोले प्रेम जी,
"ये कुँवारी क्या?" पूछा मैंने,
"अरे गुरु जी, मायने कम कम!" बोले वो,
मैं तो मन ही मन फट सा पड़ा हँसते हुए! कैसे कैसे कूट शब्द प्रयोग किया करते हैं ये लोग भी! कुँवारी!!
"वैसे एक बात है!" बोले शहरयार!
"क्या जी?" बोले वो, पैग एक कुँवारी सी दारु डालते हुए!
"आप भी, सभी, 'हरामी' टाइप रहे हो!" बोलते ही हंसे शहरयार!
"कछु कहूं?" बोले नरोत्तम जी!
"अरे साहब ज़रूर!" बोले शहरयार!
"खा लै पी लै भय्या! एक दिन तो डूबेगी नैय्या!" बोले वो,
"अरे वाह!" बोले शहरयार!
"वाह जी वाह!" कहा मैंने,
''अमा आप तो शायर भी हो! वल्लाह!" बोले असरार!
"और कहा? फारतू कौ समझौ है मोय?" बोले वो,
''और सुना दो ऐसे दोहे, दो चार!" बोले शहरयार!
"कछु बताऊं?" बोले वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"हां रे ओ जाट के?" बोले वो,
''हाँ बड़े साहब, ज़रूर बताओ!" बोले प्रेम जी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"बताओ जी?" बोले सुशील जी!
"बता रौ हूँ!" बोले वो,
"भूर गए का?" बोले सुशील जी!
"थम तौ जा!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले शहरयार!
"फरौ में आम! सबजी में आरु! औरतन में गूंगी, नसा में दारु!" बोले वो,
"क्या क्या?" बोले शहरयार!
"फरौ में आम, मतलब, फलों में आम है राजा!" बोले प्रेम जी!
"और सब्जी में आलू है राजा!" बोले सुशील!
"औरतों में गूंगी! गूंगी? वो कैसे साहब?" बोले प्रेम जी!
"छेड़ रौ है मोय?" बोले नरोत्तम जी!
"ना तो, बताओ तो?" बोले वो,
"गूंगी शिकायत न करै!" बोले वो, हँसते हुए!
ओहो! ये सुनकर ऐसी हंसी छूटी हमारी कि अगर आसपास लोग होते तो सच में भाग ही जाते कि सभी को पड़ा दौरा एक साथ!
"बड़े हरामी रहे हो आप तो!" बोले शहरयार!
"वैसे बात तो सही ही कही बड़े साहब ने!" बोले प्रेम जी! और हंस पड़े!
मैं एक तरफ मुंह कर, हंसी पर लग़ाम कसने में ही जुटा था! शहरयार साहब, हँसते जा रहे थे, कभी तेज, कभी धीरे!
"बात सही ना है?" बोले नरोत्तम जी!
"एक से सौ तक सही है जी!" बोले असरार!
"हाँ गुरु जी?" बोले नरोत्तम!
"आपका ही पाला पड़ा हो गूंगी से तो पड़ा हो!" कहा मैंने,
"बात सही न है?" बोले वो,
"एकदम सोलह आने सच!" कहा मैंने, हँसते हुए!
"ला रे? घाल?" बोले नरोत्तम जी!
असरार साहब और सुशील जी, अभी तक हंसे जा रहे थे, चुपके चुपके!
"कैसे चाकी चालै अलहैदा?" बोले उन दोनों से,
"ना जी!" बोले असरार!
"ओ मलेजर?" बोले वो,
"जी बड़े भाई?" बोले वो,
"गूंगी ढूंढ रौ है?" बोले वो,
"है?" बोले सुशील जी, हँसते हुए!
"आजमाए लीजौ!" बोले वो,
"अच्छा, और सुनाओ, ऐसे ही दोहे!" बोले शहरयार साहब!
"सुनेगौ?" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले वो,
"खालिस?" बोले वो,
"तिहारी मर्ज़ी!" बोले वो,
''तो सुन!" बोले वो,
"सुनाओ!" बोले शहरयार जी, आगे खिसकते हुए!
"बहरी लीपै चौका, कहा?" बोले वो,
"बहरी लीपै चौका!" बोले प्रेम जी,
"टोंटी ठावै पूली! कहा?"
"टोंटी, ठावै पूली!" बोले शहरयार!
"कानी करै सिंगार रेज कौ! कहा?" बोले वो,
"कानी करै सिंगार रेज कौ!" बोले वो,
"अंधी घिस देवै मूली!" बोले वो,
हंसी का ज्वालामुखी फूट पड़ा! मुझे तो अपना गिलास नीचे ही रख देना पड़ा! शहरयार तो पेट पकड़ चौल्लर हो चले! सुशील साहब लेट गए मुंह छिपा कर! असरार साहब के पाँव हिल चले! प्रेम जी, दौड़े बाहर को!
बड़ी ही देर में सब संयत हुए! सभी के चेहरे लाल और पेट में दर्द!
"अरे! अरे नरोत्तम जी!" बोले शहरयार जी!
"कहो जी!" बोले वो,
"आप तो सर्वोच्च डिग्री धारक हो!" बोले वो,
"और सुनाऊं?" बोले वो,
"हाँ! हाँ!" बोले शहरयार जी!
''अरे शहरयार जी?" बोले असरार!
"जी सर?" बोले वो,
"आज मरवाओगे क्या!" बोले वो,
"कैसे जी!" बोले हँसते हुए!
"ये तो नेता हैं!" बोले असरार!
""हाँ जी!" बोले प्रेम जी!
"ओ रे टोंक वारे?" बोले नरोत्तम जी!
"क्षमा! क्षमा है ग्राम देवता क्षमा!" बोले असरार जी हाथ जोड़ते हुए! भांप गए थे कि कहीं नरोत्तम जी, उन्हें ही न लपेट दें!
"हाँ जी, सुनाऊं?" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले शहरयार!
"हाँ रे जाटू  के?" बोले वो,
"जी बड़े साहब! सुना ही दो!" बोले वो भी,
"ये तो लो?" बोले टंगड़ी देते हुए सुशील जी उन्हें!
नरोत्तम जी ने ली, दो बार देखी, उलट-पलट कर!
"क्या हुआ जी?" बोले शहरयार साहब!
"पोरियो दीखै हौ या मुर्गा में!" बोले वो,
एक बार और हंसी छूटी! पोलियो-ग्रस्त मुर्गा! उसकी टंगड़ी! ऐसे ग्राहक आ जाए दिल्ली में तो ढाबा ही बंद करना पड़ जाए उन्हें तो! क्योंकि यहां तो सभी मुर्गे ठीक ऐसे ही आते हैं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"हाँ जी, सुनिए सुनिए!" बोले प्रेम जी!
"देखि लै! जाट मुनादी कर रौ है!" बोले वो!
"हाँ जी, मुनादी!" बोले वो,
"किस बात की?" मैंने भी टांग अड़ाई अपनी!
"दोहा आने वाला है!" बोले वो,
"अरे हाँ, बड़े साहब, हो जाए एक और दोहा!" बोले शहरयार साहब! 
''सुना रौ हूँ!" बोले वो,
हम सभी चुप हो गए! और वो टंगड़ी से उलझते ही रहे! कभी यहां से, कभी वहां से!
"क्या हो गया?" पूछ सुशील जी ने,
"पोरियो तौ है ही, सायरे को सूखा-रोग भी दीखै!" बोले वो!
इस बात पर, मैं तो बहुत हंसा! मेरे बाद शहरयार भी हंसे!
"सूखा-रोग? कैसे बड़े साहब?" बोले प्रेम जी,
"हाड़ है के माँसु है, पतौ ही न चर रौ?" बोले वो,
"आप ये लो!" बोले वो,
"अब कुँवारी ना!" बोले वो,
"तो?" बोले सुशील जी,
"अब ब्याहता दीजौ!" बोले वो,
"वो क्या होय जी?" बोले शहरयार!
"किताब लिखता दीखै तू तो सहरु!" बोले वो!
शहरयार बहुत हंसे! नाम जो मिला था नया! सहरु!
"शुक्र है!" बोले शहरयार!
"कहा चीज़ कौ?" बोले नरोत्तम जी,
"सहरु रखा नाम, शेरू न रखा!" बोले शहरयार!
"ओ रे? ला? ब्याहता सी मोय?" बोले वो,
"धीरे बोलो! क्या बोल रहे हो?" बोले असरार साहब!
"च्यौं? डर मारौ है काई कौ?" बोले वो,
"डर न! कोई सुन ले तो?" बोले वो,
"अपनी ज़मीन, अपनी कोठरी, हम तौ नंगे तापैं!" बोले वो,
"चढ़ रही दीखै!" बोले सुशील जी!
"है जा! अभई ते?" बोले वो,
"लो जी, ब्याहता!" बोले प्रेम जी, उन्हें एक पैग देते हुए, जिसमे कुछ घूंट ज़्यादा थे कुँवारी से!
"ला रे!" बोले वो, और ले लिया पैग, रख लिया नीचे!
"बारिस पर रई है?" पूछा उन्होंने,
"न तो?" बोले प्रेम जी,
"आवाज़ ना आ रई?" बोले वो,
"हवा है, खिड़की से पेड़ की डालें टकरा रही हैं!" बोले प्रेम जी!
"दोहा?" बोले शहरयार!
"हाँ, भूलि गौ! सुना रौ हूँ!" बोले वो,
"पौधन में पौध ईख की, भीखन में भीख सीख की! कहा? कहा कही?" बोले वो,
"सही कही!" कहा मैंने,
"कही कहा?" बोले वो,
"मतलब पौधों में पौधा ईख का!" बोले प्रेम जी!
"हाँ, रस भी देवै, गुड़ भी देवै, चारा भी, ईंधन भी, छान भी!" बोले नरोत्तम जी!
"भाई वाह! सही कहा!" बोला मैं,
"और ईखन समै, छोरा भी खुस!" बोले वो,
फिर से हंसी का गुबार छूटा! बारीकी से देखा था उन्होंने तो ईख का एक एक गुण! नरोत्तम जी ने कमाल ही कर दिया था!
"और, भीखन में भीख सीख की, मतबल? सीख से बड़ी कोउ भीख ना! क्यों जी?" बोले वो,
"ये तो सही बात है!" बोले असरार साहब!
"बिलकुल जी!" कहा मैंने,
"एकदम सही!" बोले शहरयार जी!
"आगे और?" बोले प्रेम जी!
"सुना रौ हूँ! थम तो जा?" बोले वो,
"हाँ हाँ!" कहा मैंने,
"पौधन में पौध ईख की, भीखन में भीख सीख की! 
दारु में दारु पहरी धार की, औरतन में औरत लुहार की!" बोले वो,
हम हंसे तो सही! लेकिन मतलब नहीं आया समझ!
"कैसे जी?" बोले सुशील जी,
"ज़रा खुल के समझाओ, बालकन को?" बोले शहरयार!
"हाँ बड़े साहब, समझाओ?" बोले वो,
"है जाओ! दारु जो होवै है, वो पहरी धार की सबते बढ़िया होवै है! मानो, या न मानो?" बोले वो,
"ये तो है ही!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले सुशील जी!
"पहली धार तो होती ही बढ़िया है!" बोले शहरयार!
"पड़ गई अक़्ल में?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी!" बोले असरार जी!
"वो लुहार की औरत, ये समझाओ?" बोले वो,
"हिरे रे जाट!" बोले वो,
"बताओ साहब?" बोले असरार जी,
"हाँ जी, हम भी तो जानें?" कहा मैंने,
"लुहारन एक तौ जेवर न मांगै! देह कसी रहवै सो, कपरा भी बरसों चलै! और हथोरौ सो बजावै सो अलग!" बोले वो,
''अरे वाह!" कहा मैंने, और हंस पड़ा!
सुशील जी भी हंस पड़े!
प्रेम जी ने तो मुंह ही नीचे कर लिया!
शहरयार साहब, नरोत्तम जी को हँसते हुए देखते रह गए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

हंसी-हंसोड़ होता रहा! कभी कुछ और कभी कुछ! खाते-पीते रहे हम! सामान गरम था कुछ, कुछ गरम करवा लिया था, ग्रेवी वाल सामान जल्दी ही ठंडा हो जाता था! वही बार बार गरम करवाना पड़ता था! मटन बेहतरीन बना था, चटपटा और लज़ीज़! साथ में, दूध में गूंदी हुई रोटियां, मक्खन लगाई हुईं! साथ में प्याज-खीरा और हरी चटनी! बहुत बढ़िया था सबकुछ, इंतज़ाम तो!
"सुशील जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"यहां से वो जगह कितनी दूर है?" पूछा मैंने,
"होगी कोई दस-बारह किलोमीटर!" बोले वो,
"मतलब आधा घंटा!" कहा मैंने,
"हाँ, या इस से कम!" बोले वो,
"वैसे आज धुंध बहुत है!" कहा मैंने,
"ये तो है!" कहा उन्होंने,
"देखने में क्या हरजा?" कहा मैंने,
"कोई बात ही नहीं!" बोले वो,
"तो खाना खा लिया जाए, कुछ आराम, फिर ग्यारह बजे निकल पड़ते हैं!" कहा मैंने,
"जैसे कहो!" बोले वो,
"खाना खाया जाए?" बोले शहरयार!
"हाँ" कहा मैंने,
"ठीक" बोले प्रेम जी!
अभी साढ़े नौ बजे थे, हमने खाना खाया आराम से, फिर तसल्ली से लेट गए! नशा भी कोई इतना नहीं किया था, आगे काम पड़ सकता है, इसीलिए! नरोत्तम जी, भी लेट गए थे, उन्होंने कहा था, अगर सो जाएँ तो न उठायें उन्हें, जागते रहें तो कहीं भी ले जाएँ फिर!
करीब पौने ग्यारह बजे, असरार जी ने जगाया हमें! मैं जाग गया, शहरयार भी जाग गए थे, प्रेम जी भी, सुशील जी ज़रा फ़ारिग़ होने गए थे, नरोत्तम जी, घोड़े बेच सोये थे! आराम से!
"इन्हें जगाएं?" बोले प्रेम जी,
"क्या ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"सोते ही ठीक ये!" बोले प्रेम जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहीं चढ़ गई उचंग तो हुई मुसीबत!" बोले शहरयार!
"इन्हें रहने ही दो!" कहा मैंने,
सुशील जी आ गए थे, मैंने भी मुंह साफ़ कर लिया था, और इस तरह ग्यारह बजे! और हम, चौकीदार को समझा-बुझा, चल दिए थे बाहर!
बाहर आये तो नज़ारा देखा! धुंध छाई हुई थी! बादल जैसे ज़मीन पर आ गए थे, हम शहर से थोड़ा अलग ही थे! ये एक एकांत सा ही क्षेत्र था, अधिकारी लोग अपने अपने परिवारों के साथ रहा करते हैं इधर!
गाड़ी स्टार्ट की, गाड़ी की लाइट्स जलीं तो कुछ नज़र आया! हम अंदर बैठे, अंदर बैठे तो लगा, पानी पर बैठ गए हैं! सीटें ऐसी ठंडी पड़ी थीं! गाड़ी आगे बढ़ी! और थोड़े से मोड़ काटते हुए, मुख्य-द्वार तक आ गए, यहां गार्ड था, गार्ड से सुशील जी ने कुछ बात की, फाटक हटा, और हम बाहर आये! बाहर खम्भे पर जो बड़ी सी हैलोजन लगी थी, लगता था, अकेली ही रह गई है वो उधर! धुंए से ने घेर रखा था उसे! हमारी लाइट्स तेज जल रही थीं उस से तो!
कुछेक श्वान भौंक रहे थे, बाकी न आदमी और न आदमी की जात! गाड़ी आराम से आगे बढ़ती चली गई, कुछ एक किलोमीटर के बाद, एक बस्ती दिखी, यहां बत्तियां जल रही थीं, उस से ठीक सामने, कोई औद्यौगिक-इकाई थी, कोई बड़ी सी फैक्ट्री थी वो, लाल-पीली, तेज सफेद सी रौशनियां थीं वहां! बस, यही दीख रहा था!
"ये तो बड़ा ही एकांत सा क्षेत्र है?" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले सुशील जी,
"आपको कितने साल हुए इधर?" पूछा मैंने,
"डेढ़ साल" बोले वो,
"अब तो वाक़िफ़ हो गए होंगे रास्तों से?" पूछा मैंने,
"एक एक!" बोले वो,
''और बैंक कहाँ है?" पूछा मैंने,
''यहां से कोई तीन किलोमीटर है!" बोले वो,
"अभी तो और रहना होगा?" पूछा प्रेम जी ने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"कोई ऍप्रोच लगाओ?" बोले वो,
"यहां नहीं मानते जी!" बोले वो,
"ओह!" कहा उन्होंने,
"हमारी तो चल जाती है!" बोले वो,
"यहां नहीं!" बोले वो,
और तब गाड़ी एक दूसरे रास्ते पर मुड़ी, सामने एक बोर्ड लगा था, किसी बिल्डर का था वो बोर्ड, ये नयी बसावट का क्षेत्र रहा होगा!
''अब तो जयपुर भी फ़ैल गया!" कहा मैंने,
"चारों तरफ!" बोले वो,
"पुराना शहर नहीं रहा अब!" कहा मैंने,
''वो पिंक सिटी?" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"अब वहां जगह ही नहीं!" बोले वो,
"हाँ ये तो है!" कहा मैंने,
"वो ही बचा है अब पुराना!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आज भी रौनक है वहां!" बोले वो,
"बड़े बड़े आढ़ती हैं जी वहां!" बोले प्रेम जी!
"जी" बोले वो,
"सेठ लोग हैं वहां!" बोले शहरयार जी!
"अजी क्या कहने!" कहा मैंने,
"अब जगह है नहीं वहां, तो आसपास तो फैलेगा ही!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, हर शहर का यही हाल है अब!" कहा मैंने,
"आगरे को देख लो आप?" बोले वो,
"दूर क्यों जाओ, मथुरा देखो?" बोले प्रेम जी!
"सही कहा, लोग आ गए हैं अब बाहर! गाँवों से! उद्योग हैं, बाज़ार हैं!" कहा शहरयार जी ने!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"हाँ, अब गाँव भी खाली ही हैं!" बोले प्रेम जी,
''सही कहा, खेती वाले ही रह गए!" बोले सुशील जी,
"सब वक़्त वक़्त की बात है!" कहा मैंने,
"ये तो है ही!" बोले वो,
''अच्छा, सुशील जी?" कहा मैंने,
"जी?'' बोले वो,
"अब और कितना?" पूछा मैंने,
"बस, पंद्रह मिनट" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"आज तो सर्दी कड़ाके की है!" कहा मैंने,
"पूछो ही मत!'' बोले शहरयार!
"खून जम जाए ऐसी सर्दी है!" बोले प्रेम जी!
"सर्दी का ही मौसम है!" बोले सुशील जी!
"अब नहीं पड़ेगी तो कब पड़ेगी!" कहा मैंने,
"सही कहा जी!" बोले प्रेम जी!
और फिर हुई गाड़ी धीमी! एक जगह, पेड़ के नीचे, जा रुके हम!
"ये ही जगह है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"अच्छी तरह से याद है?" पूछा मैंने,
"एक मिनट" बोले वो,
आसपास देखा उन्होंने, 
"ये नहीं है" बोले वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"वहां ये सब, नहीं था" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"ऐसे खोमचे" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आगे होगी" बोले वो,
"तो आगे चलो!" कहा मैंने.
"हाँ जी बैठो!" बोले वो,
और हम बैठ गए अंदर!
बाहर निकले थे जैसे, बर्फ में जा गिरे थे! बाहर तो जानलेवा ठंड थी! गाड़ी की विंडस्क्रीन पर, ओंस जमने लगी थी! बार बार वाइपर चलाना पड़ता था!
(शेष कल पूर्ण करता हूँ, अभी नेट में दिक्कत है)
अब आगे.....
अंदर से भी अखबार रगड़ना पड़ता था, अखबार तो वैसे ही सीलन खाया हुआ था, किरचे से उड़ जाते थे उसके! बड़े वाहन आते तो ऐसा शोर मचाते कि जैसे रेल का इंजन गुजर रहा हो वहाँ से!
"वहाँ एक पुल सा है छोटा सा, पहले ही!" बोले सुशील जी,
"पुलिया है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, छोटी सी" बोले वो,
"तो धीरे चलो, नज़र ही आ जाए?" कहा मैंने,
"हाँ, नज़र रखे हूँ" बोले वो,
बड़ा ही सुनसान सा क्षेत्र था वो, आसपास महज़ सूखे से पेड़, कहीं कहीं वो भी, छितराए हुए ही! दूर दूर तक, धुंध का बसेरा, कोई बत्ती ही नहीं! गाड़ी की फॉग-लाइट में ही आगे बढ़ते जा रहे थे हम!
"बाप रे!" बोले शहरयार!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"अभी खिड़की खोली थी थोड़ी सी, तलवार सी हवा लगी!" बोले वो,
"पूरे जौवन पर है सर्दी आज!" कहा मैंने,
"सही कहा!" बोले वो,
"इस से तो अच्छा था थोड़ी से रख ही लाते!" बोले शहरयार!
"है, रखी है!" बोले सुशील जी!
और गाड़ी की एक तरफ! पार्किंग-लाइट्स जला दीं!
"पीछे देखो, लाल रंग की एक पन्नी सी होगी?" बोले वो,
"अभी देखता हूँ!" बोले वो,
और टटोला पीछे, मिल गई!
"मिल गई!" बोले वो,
"निकालो?" बोले वो,
उन्होंने पन्नी खोली, तो एक बोतल निकली, उसमे से दो ही पैग कम थे! एंटिक्विटी की बोतल थी!
"गिलास हैं?" पूछ शहरयार जी ने,
"पीछे सीट के पास जो बैग है, उसमे देखो आप! नमकीन भी हो शायद!" बोले वो,
"पूरा ही इंतज़ाम किया हुआ है आपने तो!" बोले प्रेम जी!
"दिल्ली से चले थे तो डाल ली थीं!" बोले वो,
"बढ़िया किया!" बोले प्रेम जी!
''हाँ, हैं गिलास भी, नमकीन भी मिल गई, दाल है न?" बोले शहरयार!
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"पानी ये रहा!" बोले वो,
शहरयार ने एक बड़ा सा पैग बनाया, और बढ़ा दिया मेरी तरफ, मैंने लिया और खट्ट से गिलास खाली किया, फिर वो दाल खा ली! मदिरा अंदर गई, गर्मी देते हुए! आराम और सुकून पड़ा! फिर तो सभी ने एक एक बड़ा सा पैग चढ़ा ही लिया!
"शहरयार जी?" बोले सुशील,
"हाँ जी?" बोले वो,
"आओ, चक्का सम्भालो!" बोले सुशील जी,
"अच्छा, आओ!" बोले वो,
सुशील जी उतरे और पीछे आ गए, शहरयार जी ने अब स्टेयरिंग सम्भाल लिया! ज़ाइलो गाड़ी थी, जगह अच्छी रहती है उसमे, सीट भी ठीक हैं, ऐसी महफ़िल के लिए तो बढ़िया ही है!
हम आगे चलते रहे, कोई बीस की स्पीड से, सिगरेट चल रही थी हमारी! कभी-कभार सिगरेट बड़ा ही मजा देती है! सो ही अब था!
"रुको!" बोले सुशील जी!
ब्रेक मारे फौरन शहरयार जी ने!
"यही है वो पुलिया!" बोले वो,
"इसका मतलब वो जगह आगे ही है?'' बोले शहरयार!
"हाँ, बस थोड़ा ही आगे!" कहा उन्होंने,
"ठीक, चलो अब!" कहा मैंने,
और अब गाड़ी धीरे हुई, हम चलते जा रहे थे आगे, उसी जगह जहां से सुशील जी ने कुछ देखा था!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

गाड़ी आहिस्ता से एक तरफ आ लगी! बाएं ही! यहां तो बीयाबान ही था! सुनसान हर जगह! हाथ को हाथ न सुझाई दे पहली नज़र में तो, लेकिन गहनता से देखो तो समझ आये कि सामने फलां चीज़ है और सामने फलां!
"ये ही जगह है?" पूछा मैंने,
"जी यही!" बोले वो,
"फिर देख लो?" बोले शहरयार!
"यही है!" बोले वो,
"पक्का?" बोले प्रेम जी,
"जी पक्का!" बोले वो,
''आओ फिर!" कहा मैंने,
"जी" बोले सुशील जी,
मैंने जैसे ही दरवाज़ा खोला, सामने ही, बड़े बड़े से पेड़ लगे थे, भुतहा से पेड़! हवा ऐसे आई जैसे इंतज़ार में ही बैठी थी झप्पी मारने को! गर्दन से छुई तो मजा सा ही आ गया! ऐसे ठंडक! बाप रे बाप!
"है मेरे भगवान!" बोले प्रेम जी!
"ओ अली!" बोले असरार जी!
"अहा! ये है जानलेवा ठंड!" बोले शहरयार जी!
"बड़ा ही बुरा हाल है यार!" कहा मैंने,
"ब****! ये तो मार ही डालेगी!" बोले प्रेम जी!
"सुशील जी?" कहा मैंने,
"सुशील जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"कहाँ देखे थे वे दोनों?" पूछा मैंने,
तभी सामने से एक बड़ा सा ट्रक गुजरा! लाल-पीली सी बत्तियां लगाए हुए! हमें देख, उसने ज़ोर का हॉर्न बजाया!
"उधर मैं और मिश्रा जी थे!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और उधर, देखिये?" बोले वो,
मैंने देखा उधर,
"उधर थे वे दोनों बालक!" बोले वो,
"वो वहीं खड़े थे?" पूछा शहरयार ने!
"नहीं जी, उधर से आये थे वो!" बोले वो,
"आये थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, उधर से!" बोले वो,
"उधर क्या है?" पूछा मैंने,
"नहीं पता जी!" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"हम भी?" बोले असरार जी!
"मर्ज़ी है!" कहा मैंने,
"चलो फिर" बोले वो,
"आओ, पार करो सड़क!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शहरयार!
हमने आसपास देखा, सड़क पर वाहन देखे, फिलहाल तो कोई नहीं था, हाँ कुछ दूर ही, कोई वाहन चला आ रहा था, बड़ा ही धीरे धीरे चल रहा था, या तो कोई बड़ा ही वाहन था, या फिर शायद खराब था! उसकी बड़ी बड़ी चार फॉग-लाइट ज़रूर दिखाई दे रही थीं, लेकिन वो काफी दूर ही था, जैसे खड़ा ही हुआ हो उधर!
"आओ?" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले असरार जी!
"ये ओंस देखो ऐसी लग रही है जैसे बारिश पड़ रही हो!" बोले शहरयार!
"इसे ही शबनम कहते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"रात के आंसू!" कहा मैंने,
"वो कैसे?" बोले वो,
"पिया-मलन की बिरहा!" कहा मैंने,
"माशाल्लाह!" बोले असरार जी!
और हमने सड़क पार कर ली!
"जी यहीं, ठीक यहीं!" बोले सुशील जी,
"यहीं थे?" पूछा मैंने,
"जी, यहीं बैठे थे ब्रीफकेस पर!" बोले वो,
मैंने ऊपर देखा, पेड़ था एक, शायद पीपल का था या फिर पिलखन का, या फिर जमुआ रहा होगा, उस धुंध में सही से सिखाई नहीं दिया था, हवा भी नहीं चल रही थी, नहीं तो मैं पहचान जाना उनके पत्तों के खड़कने से!
"यहां?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
''और वे, यहीं से हवा में उड़ चले थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, ठीक वहां गए होंगे!" बोले वो,
एक बड़ी सी डाल थी वहां, वो ठूंठ हुई पड़ी थी! शायद आंधी या तूफ़ान में, शहतीर से नाता टूट गया था उसका, या फिर, धीरे धीरे लकवा खा अब मरने की कगार पर थी!
मैंने आसपास गौर से देखा, वो तो सारा जंगल सा ही था, आसपास कोई मकान, खोमचा नहीं था वहां!
"उधर कुछ है क्या?" पूछा मैंने,
"हो भी तो धुंध में क्या दिखे?" बोले सुशील जी,
'आपने देखा हो?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, याद नहीं!" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
मैं थोड़ा सा आगे गया, यहां सड़क की किनारी खत्म होती थी, यहीं कुछ जंगली सी झाड़ियां उगी हुईं थीं! और कुछ नहीं था वहां!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"अब पता भी नहीं चल सकता!" कहा शहरयार ने!
"हाँ, चलो देखते हैं!" कहा मैंने,
और डाली आसपास, दूर तक निगाह, जहाँ तक जा सकती थी, लेकिन निगाह जाती तो धुंध में ही गोता लगा लेती!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तभी सर्द सा झोंका चला! रूह तो हमारी फ़ना होते होते बची! मेरी गरम टोपी के बीच से ही हवा ने जगह बना ली थी! मफ़लर भी ठंड खा गया था, किसी बालक की तरह से पाँव पटकने लगा था! कुछ और देर ठहरते उधर तो यक़ीनन नाक छलने लग जाती!
"आओ, गाड़ी में ही बैठते हैं!" कहा मैंने, ठंड में पस्त होते हुए!
"हाँ जी!" बोले प्रेम जी, हाथ रगड़ते हुए एक दूसरे से!
"बिलकुल!" बोले शहरयार!
"आओ जी, बहुत ठंड है!" बोले सुशील जी!
हमने लप्पझप्प में सड़क पार की, गाड़ी का दरवाज़ा खोलने की हिम्म्त ही न हो! दस्ताने ही मना कर दें छूने से! फिर भी, खोलना पड़ा! खोला और अंदर जा बैठे, दुबक से गए थे हम सब!
"जान ही लेकर छोड़ेगी ये तो!" बोले प्रेम जी,
"भयानक ठंड है साहब!" बोले शहरयार!
"अंग अंग अकड़ गया है!" बोले असरार जी!
"हाँ, बस अब जाना नहीं कहीं!" बोले प्रेम जी!
"अजी कौन जाए बाहर!" बोले असरार जी!
सुशील साहब ने घड़ी देखी तो पौने बारह बज चुके थे! मई समझ गया था उनका आशय!
"पंद्रह मिनट और!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोले वो,
"उस रात तो इस वक़्त तक आप जा चुके होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"चलो रुकते हैं थोड़ा, फिर चलते हैं!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
गाड़ी में थोड़ी राहत थी, हालांकि अगर चेहरा कभी छू जाए खिड़की से तो बस चीख कुछ ही लम्हे की दूरी पर ही थी! जान ही निकल जाती!
''आज नहीं आये!" बोले असरार जी,
"होता है ऐसा!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"आने को अभी आ जाएँ, न आने को सुबह हो जाए!" बोले शहरयार!
"सो तो है, हवा है!" बोले वो,
"हाँ सब सही!" कहा मैंने,
"आगे आप जानो!" बोले सुशील जी!
तो इस तरह हमें वहां बारह से ज़्यादा बज गए, कोई नहीं आया, न वे बालक ही, और न कोई और ही!
"आओ" कहा मैंने,
"चलें?" बोले असरार जी,
"हाँ!" बोला मैं,
"अब?" पूछ सुशील जी ने,
"कल!" कहा मैंने,
"रात को?" बोले वो,
"पहले दिन में!" कहा मैंने,
"कोई एक बजे चलेगा?" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"ठीक फिर!" बोले वो,
गाड़ी स्टार्ट की, और तब मोड़ ली, और चल पड़े वापिस! कोई नहीं दिखा था! आज शायद, आये ही नहीं थे वहां पर वे!
हम एक बजे से कुछ पहले जा पहुंचे अपनी जगह, गार्ड को जगाया तो अलसाया हुआ जागा वो! आया अपने केबिन से बाहर! टोर्च बगल में दबाई और नाके को उठा दिया! नाका उठा और हम, आगे चल दिए!
आये कमरे में, नरोत्तम जी के खर्राटों से पूरा कमरा हिल रहा था! उन्होंने जहां घोड़े बेच लिए थे, वहीँ बच्चे खुचे हाथी, ऊंट, खच्चर, कुत्ते, बिल्ली सब बेच मारे थे! पड़ोसी के भी जानवर बेच दिए हों तो उनका पता नहीं!
"अरे बाप रे!" बोले प्रेम जी!
"क्या हुआ?" बोले शहरयार!
"या तो कुम्भकरण रहा होगा या फिर ये!" बोले वो,
मेरी हंसी निकल पड़ी! वैसे उनके खर्राटे थे भी इतने अजीव कि रेल के डिब्बे में मारने लगें तो यात्री कूद कूद भाग जाएँ!
"इसे कहते हैं चैन से सोना!" बोले असरार साहब!
"और दूसरे को न सोने देना!" बोले प्रेम जी!
"ओ भाई साहब?" ज़ोर से बोले शहरयार!
"मत जगाओ यार!" कहा मैंने,
"नहीं जगाऊँगा तो हम सब जागेंगे!" बोले शहरयार!
"ओ साहब?" बोले शहरयार!
"इन्हें हिलाओ?" बोले प्रेम,
अब हिलाया उन्हें! हिलते हिलते ही, बड़ी बड़ी, कुंतल भर की गालियों की रसीद काट दी उन्होंने! नाम लिया, सरोज! किसी सरोज को गालियां दे रहे थे वो नींद में! और न जाने क्या क्या बके जा रहे थे!
"कौन है सरोज?" शहरयार ने!
"शायद भाभी जी का नाम है!" बोले वो,
"हाँ, सरोज ही है!" बोले असरार जी!
मेरी हंसी छूटी! दारु के नशे ने तो पारिवारिक झगड़ा ही बाहर निकाल दिया था बाहर! और ये भी पता चल गया था हमें तो कि अभी भी रंगीन हैं हमारे नरोत्तम जी! अवश्य ही वाजीकारक औषधियों के सेवन करते होंगे!
"कमाल है!" बोले प्रेम जी!
"कैसे?" पूछा मैंने,
"अभी तक......झंडा ऊँचा है!" बोले प्रेम जी!
"लौंडा जवां है अभी तो!" बोले असरार साहब!
"ओ लौंडे?" बोले शहरयार साहब!
तब एक झटके में पलटे वो, खर्राटे बंद हो गए, एक बार फिर से, 'सो च्यौं न जाए?' बोले हल्के से!
"सुबह पता चल गई इन्हें तो तोड़ देंगे लट्ठ कमर पर!" बोले प्रेम जी!
"ज़िक़्र ही न करना!" कहा मैंने,
"यही ठीक है!" बोले शहरयार!
"आओ गुरु जी!" बोले शहरयार!
बिस्तर ठीक कर दिया था उन्होंने!
"हाँ!" कहा मैंने,
और जा घुसा मैं तो रजाई में!
"अच्छा जी, शब्बा खैर!" बोले असरार साहब!
"शब्बा ख़ैर!" बोले हम भी!
और बंद कर लीं आँखें, अब तो कल ही नींद खुलनी थी, बस मौसम साफ़ रहे, और दिन में जाकर वहां, कुछ पता कर सकें!


   
ReplyQuote
Page 1 / 3
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top