अँधेरे की कैदी, नुप...
 
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अँधेरे की कैदी, नुपुर! वर्ष २०१३, पुरानी हवेली, नाभा, पंजाब की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा था! हाँ, होगा अच्छा! लेकिन तुम कौन हो?" पूछा मैंने,
"अच्छा........अच्छा था तजिंदर..." आई फिर से आवाज़,
और कोई मेरा कॉलर छोड़, जा छिटका पीछे!
"सुनो? रुको?" कहा मैंने,
और सब शांत!
चला गया वो, वो जो कोई भी था! कोई अहित नहीं किया उसने! बस बताने आया था कि कोई तजिंदर था, वो अच्छा था, अब क्यों अच्छा था, पता नहीं, किसलिए था, पता नही? क्या यहां की दुर्घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार भी था? पता नहीं!
अब शर्मा जी आये मेरे पास!
"कुछ कहा उसने?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"तजिंदर अच्छा था!" कहा मैंने,
"तजिंदर अच्छा था?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका क्या मतलब हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"बता रहा था शायद कुछ!" कहा मैंने,
"पूरा नहीं बताया?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई भटकता है शायद!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और कुछ?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"चलें फिर?'' बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और हम लौट चले, अब तक एक बज चुका था, रात तो काली थी ही, लेकिन कोहरा अब और गहराने लगा था! बादल जैसे, उतरने लगे थे ज़मीन पर! कोहरे की गंध, नथुनों में समाने लगी थी हमारे! हम आ गए गाड़ी तक, वे सभी गाड़ी के पास ही खड़े थे!
"आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"कुछ पता चला?'' बोले कपूर साहब,
"हाँ, बताऊंगा!" कहा मैंने,
"घर चलें?" पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"हाँ चलो अब!" कहा मैंने,
और हम वापिस चले फिर, रास्ते में कोई मिला ही नहीं, ऐसा लगता था कि जैसे पहले से ही आभास हो लोगों को कि इस रास्ते से तो गुजरना ही नहीं है! हम चलते चलते आ गए थे अब आवासीय क्षेत्र में, कुछ बत्तियां नज़राने लगी थीं, हालांकि अभी दूर ही थीं वो! हैलोजन रही होंगी नहीं तो मामूली सी बत्तियों को तो डांट-डपट के, कोहरे ने चुप ही करा दिया था! एक जगह आते ही, एक पुलिया के पास, गाड़ी रुक गयी! दो तीन बार सेल्फ भी मारा, लेकिन स्टार्ट ही न हो! एक बार फिर से गाड़ी में भय आ घुसा! बिंदर साहब की आँखें फ़ैल आयीं!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"पता ही नहीं?' बोले अज़ीज़ साहब!
''सर्दी लग गयी गाड़ी को!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने भी हँसते हुए!
खिड़की खोली, और तभी उस अँधेरे में से, जैसे कोई तेज क़दमों से भागा, हमारी विपरीत दिशा में! जैसे बहुत ही तेजी से भागा हो! मोटरसाइकिल गुजरी हो गति से, ऐसे!
"आना?'' कहा मैंने,
और मैं उतर गया नीचे!
मेरे पीछे शर्मा जी भी उतर गए!
इतने में ही, गाड़ी स्टार्ट हो गयी! एक्सेलरेटर दबाया गाड़ी का दो-तीन बार! अब ठीक थी गाड़ी भी! मैं सामने की ओर देखता कभी पीछे की ओर!
"कौन गुजरा था?" पूछा उन्होंने,
"जैसे कोई भागा हो!" कहा मैंने,
"पैदल?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"इस अँधेरे में?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहाँ गया?'' पूछा उन्होंने,
"उधर गया था" कहा मैंने,
"यहां तो कोहरा है!" बोले वो,
"उसी में जा घुसा है!" कहा मैंने,
"तो?'' बोले वो,
''आओ, देखते हैं!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
"आप यहीं रहना ज़रा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले अज़ीज़ साहब!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ये पुलिया है कोई!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"नहर है क्या?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं?'' बोले वो,
"आना?" कहा मैंने,
पुलिया पर खड़े हो, नीचे झाँका! नीचे तो कोहरे की चादर! उड़ता हुआ कोहरा! और कुछ नहीं!
"कुछ नहीं दिख रहा!" कहा मैंने,
"हाँ, अँधेरा है!" बोले वो,
तभी नीचे पाने में छपाक की सी आवाज़ हुई! नीचे ज़रूर पानी था! गहरा ही होगा! आवाज़ ऐसी थी, जैसे किसी ने भरा हुआ बोरा फेंका हो नीचे! लेकिन दिख तो कुछ नहीं रहा था, आवाज़ भी एक बार ही हुई थी बस! पानी की कोई आवाज़ भी नहीं हो रही थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मैं उस पुरानी पुलिया पर, हाथ टिकाये हुए खड़ा था, पुलिया की दीवारें तो गीली ही थीं, जैसे ही हतः हटाया, मेरे हाथ पर किसी ने गीला हाथ रखा अपना,और झट से हटा लिया! मेरे पूरा दस्ताना गीला हो गया था, इतना गीला, कि मुझे उतारना पड़ा उसे, टोर्च की रौशनी में देखा, तो पानी चू रहा था उसमे से!
"ये क्या?'' बोले हैरानी से शर्मा जी,
"किसी ने पकड़ा मेरा हाथ!" कहा मैंने,
मेरा कंधा पकड़, पीछे लाये वो, इसीलिए, कि कोई धक्का ही न दे दे नीचे पानी में! मैं अभी भी उस दीवार को देख रहा था, दीवार तो नाम-मात्र की ही थी, मुंडेर कहना चाहिए उसे!
"यहां तो गड़बड़ चल रही है!" बोले वो,
"हाँ, इस नहर या नाले से कुछ संबंध है!" कहा मैंने,
"किसी ने फेंक-फांक तो नहीं दिया किसी को?'' बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"दिन में देखते हैं, चलो अब!" बोले वो,
"हाँ, दिन में ही आना ठीक है!" कह मैंने,
"चलो" बोले वो,
अभी चलो कहा ही था, कि पीछे, नीचे, पानी में फिर से छपाक की आवाज़ हुई! मैं दौड़ पड़ा उधर के लिए, शर्मा जी पकड़ना चाहते थे, लेकिन हाथ नहीं आया मैं उनके! नीचे देखा फिर से, कुछ नहीं! हाँ, कोहरे की चादर में, एक छेद सा ज़रुरु हो गया था, जैसे अभी अभी कोई कूदा हो नीचे उसे फाड़ते हुए!
"आओ, दिन में ठीक है!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम लौट चले, गाड़ी तक आये, गाड़ी में बैठे, और चल पड़े!
"पूरा रास्ता ही भुतहा है!" बोले शर्मा जी,
"मेरे बाप की तौबा! अब नहीं आऊँ कभी!" बोले बिंदर!
मेरी हंसी निकल गयी! शर्मा जी भी हंस पड़े! कपूर साहब ने बिंदर के कंधे पर थाप दी!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"मेरे हाथ पर हाथ रख देता कोई तो मैं तो बेहोश हो कर, गिर ही पड़ता नहर में!" बोले बिंदर!
"हथियार नहीं है?'' पूछा मैंने,
"हथियार कहाँ चलाऊंगा?'' बोले वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"कोई नज़र आये तो चलाऊँ?' बोले वो,
"एक दो फायर कर देते, सब भाग जाते!" बोले शर्मा जी!
"और अगला फायर मेरे गले में नाल ठोक कर, कर देता वो!" बोले वो!
सभी हंस पड़े हम!
और लौट आये घर तक! आये अपने कमरे में! बिंदर साहब को चढ़ा जाड़ा तब! कंबल में जा घुसे!
"मरने दो उन्हें!" बोले वो,
"मरे तो हैं ही?" बोले कपूर साहब!
"हम ही न मर जाएँ?" बोले वो,
"ऐसे कैसे?'' बोले शर्मा जी,
"गाड़ी जब उठायी तो मेरा हार्ट-फेल हो जाता!" बोले वो,
"डर के मारे?'' बोला मैं,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कुछ नहीं होता!" बोले शर्मा जी,
'रहने दो जी!" बोले वो,
"अब नहीं जाओ?" पूछा मैंने,
"काम में लगा लिए अंटे!" बोले वो,
"अरे?'' बोला मैं,
"मैं मर जाऊँगा जी!" बोले वो,
"इतना डर?" पूछा मैंने,
"भई डर तो लगे है!" बोले अज़ीज़ साहब!
"कोई यूँ कह दे न, कि इस घर में भूत है, तो कसम से, वो रास्ता ही छोड़ दूँ मैं तो!" बोले बिंदर!
"दिन में नहीं चलोगे?'' पूछा शर्मा जी ने,
"मैं क्या करूंगा?" बोले वो,
"क्यों?" बोले शर्मा जी,
"अभी तो कोई नज़र नहीं आया, कहीं कोई आ गया न? तो पागल ही हो जाऊँगा या फिर वहीँ जान चली जायेगी मेरी तो!" बोले वो,
"कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
"क्यों मरवा रहे हो?" बोले वो,
"चलना होगा!" बोले शर्मा जी,
"सच कह रहा हूँ, लोगों का तो मूत निकलता है, यहां तो हगास-मुतास सब बंद!" बोले वो,
"कल देखते हैं!" कहा मैंने,
''समझा करो!" बोले वो,
"नहीं!" बोले शर्मा जी,
"चलो, सो जाओ अब!" कहा मैंने,
''अब किसे नींद आ रही है?'' बोले बिंदर!
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कहीं उठा कर पीट ही न दे? कि साले तू ही आया था न पता लेने? खड़ा हो?'' बोले वो,
"इतना डर?" बोला मैं,
''आप सो जाओ, मैं यहीं लगा लूंगा बिस्तर!" बोले वो,
"कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
"खबर करने तक तो फाड़ देगा मुझे!" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"वो, भूत!" बोले वो,
"कोई नहीं आएगा!" कहा मैंने,
''आप सो जाओ!" बोले वो,
"आप?" पूछा मैंने,
"मैं यहीं बैठ लूंगा!" बोले वो,
"इतना मत डरो यार!" कहा मैंने,
"क्या करूँ?" बोले वो,
"सो जाओ?" कहा मैंने,
"कमरे में?'' बोले वो,
''और कहाँ? गुसलखाने में?" बोले शर्मा जी!
"मुझे चढ़ा रा है जाड़ा!" बोले वो,
"सो जाओ फिर!" कहा मैंने,
"मैं यहां बैठ जाऊँगा!" बोले कुर्सी पर बैठते हुए!
"सारी रात?" पूछा मैंने,
''अब दो घंटे में सुबह हुई?'' बोले वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहीं!" बोले वो,
हंस पड़े हम सभी!
मैं तो रजाई ले, लेट गया बिस्तर पर, अब कोई जागे तो जागे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो, अगले दिन ग्यारह बजे, हम सभी तैयार हो गए थे! बिंदर साहब ने आज 'बाबा जी का ताबीज़' पहन लिया था अपने गले में! ये अच्छा था, कम से कम रक्षा तो होती ही उनकी! और सबसे अहम बात, के आंतरिक रूप से मनोस्थिति भी सुदृढ़ हो जाती उनकी! सबसे ज़्यादा कोई यदि डरे हुए थे, तो यही बिंदर साहब! यदि कपूर साहब न रहे होते वहां, तो मुझे पूरा यक़ीन था कि आज तो वो आते ही नहीं! चाहे, झूठे को ही पटियाला जाना होता उन्हें! तो हमारी गाड़ी चल पड़ी, चाय-नाश्ता जम कर किया था! भूख लगने का सवाल ही नहीं था!
"बिंदर?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"हथियार लोडेड है न?" पूछा उन्होंने,
"पूरा!" बोले वो,
"फिर किस बात का डर भला?' बोले शर्मा जी,
"शर्मा जी?" बोले बिंदर, मुस्कुराते हुए!
"हाँ?" कहा शर्मा जी ने भी हँसते हुए!
"भूत से तो मैं बाद में डरूंगा, आप जान ले लोगे मेरी!" बोले वो,
मैं भी हंस पड़ा ये सुन कर!
"वो क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"डरा डरा के हाथ ढीले करा दीये आपने तो!" बोले वो,
"वो कैसे?" पूछा शर्मा जी ने,
"एक बात बताओ?" बोले वो,
"पूछो?" बोले वो,
''अब अगर सामने आ जाए, नज़र तो आएगा नहीं?'' बोले वो,
"आ जाएगा?" बोले वो,
"बस! निकल गयी जान!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"जो सामने नज़र आ गया न? तो जान चली ही गयी फिर तो!" बोले वो,
"ताबीज़ नहीं पहना?" बोले वो,
"न किया काम तो?" बोले वो,
"ऐसा थोड़े ही होगा?" बोले वो,
"उम्मीद तो यही है!" बोले वो,
"है शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्यों डरा रहे हो?" बोला मैं, हँसते हुए!
"कमाल है! तमंचा साथ में है, कौन सा है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"अर्मीनियस .३२ बोर!" बोले वो,
"लो, है भी तूफानी!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, क्या कह रहे थे?" बोला मैं,
"गुरु जी?" बोले बिंदर,
"हाँ जी?" बोला मैं,
"आप भी मजे ले रहे हो!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! इस बार कुछ तेज ही!
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"हाँ, तो मैं कह रहा था, हथियार है साथ में, भूत क्या करेगा?" बोले शर्मा जी,
"लो, आप ले लो!" बोले बिंदर, होल्स्टर खोलते हुए!
"मैं क्या करूंगा?'' बोले शर्मा जी,
"अब डर लग रहा है मुझे!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"कहीं बोले सामने आ कर, पेन**! हथियार लाया है?'' बोले बिंदर!
सभी हंस पड़े! अज़ीज़ साहब भी!
"अज़ीज़ साहब?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"पुलिया पर रोक लेना!" कहा मैंने,
"कपूर साहब बता देंगे!" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"बिंदर?'' बोले शर्मा जी!
"हाँ जी?" बोले बिंदर!
"पुलिया का बता देना?" बोले वो,
"मुझे नहीं पता चल रहा, मैं तो नीचे देख रहा हूँ!" बोले वो,
"कमाल है यार!" बोले वो,
"अब क्या करूँ?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"ताबीज़ कस के बंधा है?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तीन तीन गांठें?" पूछा उन्होंने,
"तीन बंधती हैं?" बोले वो!
"हाँ!" बोले मज़ाक में शर्मा जी!
"अरे! मैंने तो दो बाँधी?" बोले वो,
"तीन बांधो?" बोले वो,
बिंदर साहब ने, फौरन ही निकाला ताबीज़, और एक और गाँठ बाँध ली! ये देख, सभी हंस पड़े!
"मज़ाक?" बोले वो,
"नहीं यार!" बोले वो,
"लगा तो यही?" बोले वो,
"नहीं यार!" बोले वो,
"बन्दे की जान लोगे आप?" कहा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"एक तो मामला ऐसा है!" बोले वो,
''और?'' पूछा मैंने अब,
"दूसरा कुछ दिल कमज़ोर है!" बोले वो,
"मज़बूत करो?" कहा मैंने,
"कहाँ हो अब?" बोले वो,
"पुलिया पर?" बोला मैं,
"वाहे गुरु!" बोले कानों पर हाथ लगा कर!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कहीं धक्का ही न दे दे?" बोले वो,
"तो हाथ में निकालो हथियार?" बोला मैं,
"फायदा?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"फायर कहाँ करूंगा?" बोले वो,
"भूत पर?'' बोला मैं,
"कर लो मज़ाक!" बोले वो,
''सच में डर लगा रहा है?' पूछा शर्मा जी ने,
"मज़ाक कर रहा हूँ मैं?'' बोले वो,
"अकेले नहीं आ सकते?" बोले वो,
"अकेले?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"अब नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"गाड़ी उठा दी थी रात को! बाप रे बाप!" बोले वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"वो रही पुलिया!" बोली अज़ीज़ साहब!
"हाँ, रोक दो उधर!" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और गाड़ी, आ रुकी उस पुलिया पर!
"हाँ जी, बिंदर जी? आओ?" बोले शर्मा जी,
"ना जी! आप देखो!" बोले वो,
"आओ यार!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले शर्मा जी,
और हम, जा उतरे, पहुंचे पुलिया पर, पुलिया के पास गए, पुलिया की मुंडेर से नीचे झाँका, तो होश, फाख्ता! ये क्या??
कुछ नीचे देखते है गुजरे!
"यहां तो, कुछ नहीं?" बोले वो,
"हाँ? कोई पानी नहीं?" कहा मैंने,
"लेकिन रात को तो....." बोले वो,
"हाँ, लगता था कि भरी है नहर?" बोला मैं,
"यहां तो पाँव ही न डूबें?" बोले वो,
"अब मैं समझा!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
"यही कि, कुछ बताना चाहता था कोई!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो,
"आवाज़ सुनी थी?" कहा मैंने,
"साफ़ साफ़" बोले वो,
"देख लो!" कहा मैंने,
"यही तो?" बोले वो,
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"मतलब, समझे आप?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या भला?'' पूछा मैंने,
"जंग!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"वो, रात वाली जगह!" कहा मैंने,
"हां, चलो!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हम लौटे, बैठे गाड़ी में,
"चलो अज़ीज़ भाई!" बोले शर्मा जी,
"कहाँ?" बोले वो,
"रात जहां थे!" बोले वो!
"वाहे गुरु!" बोले ज़ोर से बिंदर जी!
"वाहे गुरु!" सभी बोले!
और हम, चल पड़े उस तरफ!
आज रास्ता साफ़ था! लेकिन यातायात कम ही था, कोई कोई, कभार ही गुजरता था उस रास्ते से!
"क्या हुआ?" पूछा कपूर साहब ने,
"नहर में पानी नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, रहता ही नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बरसातों में तो हो, वैसे नहीं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, और अब फसल ही कहाँ?" बोले वो,
"ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"वही बात है!" बोले वो,
और तभी, उलटे हाथ पर कुछ दिखा!
"रुको?" कहा मैंने,
गाड़ी रुकी!
"कपूर साहब?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"वो क्या है?" पूछा मैंने,
"हवेली है!" बोले वो,
"पुरानी?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"रात हम, यहीं थे?" पूछा मैंने,
"पास ही?" बोले वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"उस मोड़ के करीब ही?" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बोलिए?" बोले वो,
"अज़ीज़ साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"लो गाड़ी!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"इस तरफ!" कहा मैंने, इशारे से,
"हवेली?" बोले वो,
"हाँ!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोले वो,
"सुन, अज़ीज़?" बोले कपूर साहब,
"जी?" बोले वो,
"आगे से रास्ता है!" बोले वो,
"अंदर का?" पूछा,
"हाँ!" बोले वो,
"वहीँ चलो!" कहा मैंने,
"वाहे गुरु!" बोले बिंदर साहब!
"कपूर साहब?" बोला मैं,
"हां जी?" बोले वो,
"वो मोड़?" बोला मैं,
"पीछे है" बोले वो.,
"कितना?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
गाड़ी चल पड़ी आगे! धीरे धीरे!
"यहाँ से!" बोले कपूर साहब!
"अंदर?" बोले अज़ीज़ साहब,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"चलो!" कहा मैंने,
"वैसे एक बात कहूँ?" बोले कपूर साहब,
"क्या?" कहा मैंने,
"ये तो पक्का भुतहा है!" बोले वो,
"सच?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बताया उन्होंने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
गाड़ी, आगे बढ़ती रही!
"रुकना कहाँ है?" पूछा मैंने,
"बता दूंगा!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम,. आगे बढ़ते रहे! एक जगह...........!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम रुक गए थे उधर! अब दिन का समय था और नज़र आ रहा था कुछ साफ़ भी! हाँ, धूप नहीं निकली थी, लेकिन चमक ज़रुरु थी, बारिश भी नहीं थी तो आकाश भी साफ़ ही था! कोहरे का कहा जाए, तो दूर दूर देखने पर, ज़रूर नज़र आता था, जैसे, इंतज़ार हो उसे, फौरन ही सर्दी की झंडी लहराए और वो आ धमके!
"ये सामने क्या है?'' पूछा मैंने,
"ये पुरानी हवेली है!" बोले वो,
"आते जाते हैं लोग यहां?" पूछा मैंने,
"हाँ, अक्सर तो" बोले कपूर साहब,
"आओ, देख लेते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"हम यहीं रुकें क्या?' बोले अज़ीज़ साहब,
"हम कौन?'' पूछा मैंने,
"हम, मैं और बिंदर?'' बोले वो,
"क्या करोगे वहां?'' पूछा मैंने,
"ऐसे ही?'' बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
वे दोनों वहीं रुक गए, और हम आगे चल पड़े! हवेली को देखा, शानदार हवेली थी वो! बड़ी हवेली! और बहतरीन सी बनी हुई! देख कर लगता था की या तो किसी राज-परिवार से संबंध होगा या फिर किसी अच्छे रसूखदार की मिलकियत रही होगी!
"शानदार है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"एकदम दूर-दराज़ में बसी है!" बोला मैं,
"पहले रही होगी बसावट यहां!" बोले वो,
"हाँ, रही होगी!" कहा मैंने,
"बड़ी भी काफी लग रही है!" कहा मैंने,
"काफी बड़ी है जी!" बोले वो,
"अंदर देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
जब हम वहां पहुंचे, तो कोई नहीं था वहां! खाली ही पड़ी थी! खुला सा स्थान था यहना, लेकिन शानदार सा! हवेली का ज़र्रा-ज़र्रा अपनी तारीख सुनाने को बेसब्र हो जैसे, ऐसा लगा रहा था! हम एक खुले अहाते में आये! और तभी, मेरे कंधे से रगड़ खाता हुआ कोई गया! मैं भांप गया था कि कोई था वहां मौजूद! मैंने फौरन ही पीछे मुड़ कर देखा! वैसे तो कोई नहीं था, शायद कोई नहीं चाहता था कि कोई देखे उसे!
"क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"कोई गुजरा यहां से!" कहा मैंने,
"कुछ सुना?'' पूछा उन्हीने,
"नहीं, रगड़ खायी उसने!" कहा मैंने,
''अच्छा?'' बोले वो,
"हाँ, उस तरफ गया है शायद!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"आप एक काम करो, वहां चलो!" कहा मैंने,
"अच्छा" बोले वो,
"मैं आता हूँ!" बोला मैं,
"ठीक" बोले वो,
और कपूर साहब को ले चले अपने साथ!
जब वे चले गए, तब मैंने कलुष-मंत्र चलाने का निर्णय लिया, और तब नेत्र बंद कर, कलुष-मंत्र चलाया! नेत्र खोले,.तो दृश्य स्पष्ट हुआ! मेरे आसपास कोई नहीं था, वहां, कोई नहीं था, सब खाली पड़ा था, मैंने छत, मुंडेर, अंदर, बाहर हर तरफ देखा, कोई नहीं था वहां! तब मैं शर्मा जी के पास चल पड़ा! जैसे ही पहुंचा, मैंने ऊपर की तरफ, छत की मुंडेर पर बैठे हुए किसी को देखा! मैं चला उस तरफ, और तब देखा उसे! वो कोई छोटा सा बालक रहा था, कोई तीन-चार बरस का! उसने मुझे देखा तो खड़ा हुआ, और पीछे हटता चला गया, मैंने आसपास देखा, शायद कोई सीढ़ी हो, चढ़ने के लिए, लेकिन कोई सीढ़ी नहीं थी वहां!
"सुनो?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले शर्मा जी,
"यहां आओ?" पूछा मैंने,
"आये!" बोले वो,
और आ गये मेरे पास,
"हाँ जी?" बोले वो,
"कपूर साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"ऊपर का रास्ता कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"पीछे हो शायद?" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
हम एक चक्कर सा काट उसके पीछे आये, लकेँ कोई सीढ़ी नहीं था वहां, हाँ एक रास्ता तो था वहां के लिए!
"यहां से" कहा मैंने,
''चलिए" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम उस रास्ते में घुसे, अंदर आये, तो अहाता सा बना, आसपास देखा, कोई रास्ता नहीं वहां के लिए, मेरी नज़र फिर से ऊपर गयी, कोई नहीं था वहां!
"यहां तो कोई रास्ता नहीं?" पूछा मैंने,
"उधर?'' बोले वो,
"हाँ, देखते हैं!" कहा मैंने,
हम दौड़ पड़े उधर के लिए, वहां पहुंचे, तो बिना सहारे वाली सीढ़ियां दिखीं, ये पास आकर ही दिखाई देती थीं, दूर से नहीं!
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम चढ़ चले ऊपर की तरफ!
"यहां तो और भी कोठरियां सी हैं?" बोले वो,
"हाँ, आओ!" कहा मैंने,
"श्ह्ह्ह!" शर्मा जी ने कहा,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"रुको" बोले वो,
और चले ज़रा पीछे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं उनके पीछे पीछे गया! और वे, तभी रुके, होंठो पर ऊँगली रखे! मैं भी पहुंच गया उन तक! अब मुझे भी सुनाई देने लगा था कुछ! ये खुसर-फुसर थी, किन्हीं दो लोगों के बीच! जैसे खुसर-फुसर कर रहे हों! जैसे ही वहाँ आये थे हम, ये खुसर-फुसर, बंद हो गयी थी! मैं तो कलुष में था, लेकिन दिख मुझे भी कुछ नहीं रहा था! वो जो कोई भी था, या तो हमारे पीछे था, या किसी अँधेरे में, किसी दीवार के पीछे!
"कुछ सुना?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" कहा मैंने, फुसफुसा कर!
"अब कुछ नहीं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रुको!" कहा मैंने,
और मैं आगे गया! आगे एक कोठरी थी, अधेरी कोठरी! दरवाज़ा नहीं था उस पर! कोई पट्टी सी लगी थी, लेकिन अब वो बदरंग थी! क्या थी, ये भी पता नहीं चल रहा था, इस हवेली की स्थापत्य-कला भी अजीब सी थी, स्तम्भ गॉथिक शैली के, दीवारें और मेहराब, मुग़ल शैली के और चोटी, छत, सिख शैली के थी! मिली-जुली सी शैली थी!
मैंने उस कोठरी में झाका, अंदर तो घुप्प सा अधेरा था! खिड़की थी नहीं जो प्रकाश आता उसमे से! अंदर जाना ठीक नहीं था, कहीं कोई कड़ी आदि ही न गिर जाए! मैं चौखट पर खड़ा हुआ! और देखा अंदर! गौर से,
अंदर, कोने के पास, कुछ दिखा मुझे! मैंने और गौर से देखा, लेकिन देख न सका! अंदर जाना नहीं चाहता था मैं!
"कौन है?'' पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं मिला!
"मैं देख रहा हूँ कि तुम हो वहां!" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
"आओ?'' कहा मैंने,
नहीं, कोई नहीं!
"आओ? डरो मत!" कहा मैंने,
नहीं, कोई नहीं आया!
''आओ?" कहा मैंने,
कुछ देर इंतज़ार!
''आओ? डरो मत?" कहा मैंने,
कुछ नहीं! मैं एक क़दम आगे बढ़ा, और तभी!
तभी एक छोटा सा पत्थर आया लुढ़कता हुआ, जूते से टकराया मेरे!
"आओ!" कहा मैंने,
कोई नहीं आया!
"मैं जानता हूँ, तुम अंदर ही हो!" कहा मैंने,
कोई खांसा, हल्का सा!
''आ जाओ?" कहा मैंने,
नहीं आया कोई!
"मैं आऊँ?' बोला मैं,
भन्न की सी आवाज़ हुई और एक और पत्थर सरका मेरी तरफ!
"अच्छा, नहीं आता!" कहा मैंने,
और रुक गया मैं!
"पीछे जाऊं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" आई एक आवाज़!
एक छोटी सी बच्ची की! बेहद ही प्यारी सी आवाज़! नटखट बच्ची की!
"अच्छा! अच्छा! नहीं आता!" कहा मैंने,
मैं थोड़ा पीछे हुआ!
"क्या नाम है?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" आई आवाज़!
"नहीं?" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"ये नाम है?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" आई आवाज़!
"नहीं बताओगी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" आई आवाज़,
"नाम तो बता दो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"मैं लौट जाऊँगा!" कहा मैंने,
अब चुप!
कोई नहीं, नहीं, इस बार!
"बताओ?" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
"नाम बता दो बस?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"न, नाम बताती हो बेटा, न सामने आती हो?" कहा मैंने,
"ना ना!" बोली वो,
"ना ना?" बोला मैं,
"नहीं!" फिर से नहीं!
"अच्छा, मैं चला जाऊँगा! जाऊं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
मैं वहीँ खड़ा रहा! गया नहीं!
"जब तक नाम नहीं बताओगी, नही जाऊँगा, यहीं बैठ जाऊँगा!" कहा मैंने, और मैं चौखट पर ही बैठ गया, लेकिन, मुस्तैद!
वो प्यारी सी बच्ची, हंसी! एक प्यारी सी, छोटी सी हंसी! छोटे से होंठों से दबी दबी सी हंसी!
"बताओ न?" कहा मैंने,
अब बच्चों के साथ बच्चा नहीं बनोगोे, तो चाहे घोड़े खोलो, चाहे हाथी! वे नहीं बताएंगे! चाहे जीते हों या फिर ऐसे प्रेत!
"बताओ?" बोला मैं,
"क्यों?" अब पूछा मुझ से!
अब साफ़ था, उसे अच्छा लगा था बातें करते हुए मुझ से!
"बताओ, जानना चाहता हूँ!" बोला मैं,
"क्यों?" बोली वो,
"तुम प्यारी सी बेटी हो न, इसीलिए!" कहा मैंने,
"नहीं हूँ!" बोली वो,
"हो!" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं हूँ!" बोली वो,
"अच्छा, नहीं बताओगी?" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"ठीक, तुम जीतीं, मैं हारा! जाता हूँ!" कहा मैंने, और खड़ा हुआ!
"रुको?" बोली वो,
"मैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"रुक गया!" कहा मैंने,
"मेरा नाम?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने, हँसते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जानना है बेटा!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा उसने,
"अच्छा लगेगा मुझे!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
मुझे उसके इस सवाल पर, इस लहजे पर, हंसी आ गयी! वो भी हंसने लगी!
"अब बताओ न?'' बोला मैं,
"वो क्यों?" पूछा उसने,
"ओहो!" कहा मैंने,
"ओफ्फ्फ ओ!" बोली हँसते हुए!
"कितनी प्यारी बच्ची हो तुम!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"हो तुम!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कहा न?' बोली वो,
"क्या कहा?'' बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
''अच्छा! मैं कैसे मानूं?" पूछा मैंने,
"मान लो!" बोली वो,
"ऐसे ही?' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नाम बताओगी?'' पूछा मैंने!
"हाँ!" बोली वो,
मैं हंस पड़ा!
"अब तो बताना होगा!" कहा मैंने,
"हम्म्म!" बोली वो,
"तो बताओ?" पूछा मैंने,
"स्वीटी!" बोली वो,
"ओ! स्वीटी! सच में स्वीट हो बेटा!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ऐसा क्यों?" पूछा मैंने,
"खून लगा है!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"पूरे शरीर पर!" बोली वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"मैं साफ़ कर दूंगा!" कहा मैंने,
"नहीं रुकता!" बोली वो,
बड़ा ही दुःख हुआ मुझे.......कैसे रुकता भला? उसे जितना पता था, किया होगा, कर रही होगी!
"अच्छा, स्वीटी?" कहा मैंने,
"हाँ?' बोली वो,
"तुम बाहर नहीं जातीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो नहीं जाने देतीं!" बोली वो,
"वो? कौन?'' पूछा मैंने,
"दीदी!" बोली वो,
"कौन दीदी स्वीटी?" पूछा मैंने,
"बड़ी दीदी!" बोली वो,
"क्या नाम है उनका?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"मेरा बेटा! जब इतन बता दिया, तो ये भी बता दो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मना किया?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"किसने?'' पूछा मैंने,
"दीदी ने" बोली वो,
"और कौन है यहां?" पूछा मैंने,
"एक दीदी, एक मैं, एक बब्बल" बोली वो,
"ये बब्बल कौन है?'' पूछा मैंने,
"मेरा भाई है" बोली वो,
"बड़ा?'' पूछा मैंने,
"छोटा" बोली वो,
"कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"नीचे" बोली वो,
"वहां तो नहीं है?'' बोला मैं,
"नीचे ही है" बोली वो,
"क्या कर रहा है नीचे?" पूछा मैंने,
"खेल रहा है" बोली वो,
"क्या?' पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोली वो,
"तुम नहीं खेलतीं?" पूछा मैंने,
"नहीं खेला जाता" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"खड़ा नहीं हुआ जाता" बोली वो,
ओह.....दिल में दरक......कितनी विवश......मज़बूर, लाचार......अँधेरे में हमेशा के लिए, छिपना...कैसी विवशता...
"क्यों?" पूछा मैंने,
"खड़ा नहीं हुआ जाता" बोली वो,
"समझ गया" कहा मैंने,
"चोट लगी" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"पता नही" बोली वो,
"दीदी कहाँ है?' पूछा मैंने,
"पता नही" बोली वो,
"कब आएँगी?" पूछा मैंने,
"जब मर्ज़ी" बोली वो,
"तुमसे मिलने?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"मुझे मिलवाओगी?" पूछा मैंने,
"नही मिलेंगी" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"किसी से नही मिलतीं" बोली वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"पता नही" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"स्वीटी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या कोई और भी आता है मिलने?'' पूछा मैंने,
"मैं नहीं बता सकती" बोली वो,
"तुम, बेटा, यही रहती हो? इसी कमरे में?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ओह बेटे" कहा मैंने,
"आप कौन हो?" पूछा उसने,
''आप जैसा ही हूँ बेटा!" कहा मैंने,
"हाँ, तभी लगा!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"अच्छे हो आप!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"स्वीटी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"बेटा, सामने नहीं आओगी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों बेटा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मैं देखना चाहता हूँ तुम्हे" कहा मैंने,
''वो क्यों?" पूछा उसने,
"मेरी बेटी जैसी हो न तुम!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"इसीलिए!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मैं आ जाऊं तो?" बोला मैं,
"नहीं" बोली वो,
"डर लगता है?' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दीदी ने कहा" बोली वो,
"दीदी मना करेंगी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तुम कह देना, ये ऐसे नहीं हैं!" कहा मैंने,
"वो नहीं मानेंगी" बोली वो,
"तुम कहोगी, फिर भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"अच्छा...." कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कुछ पल, चुप हो गया मैं, अब देखना चाहता था कुछ!
"बोलो?" बोली वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"नहीं" बोला मैं,
"बोलो?" बोली वो,
"नहीं, अब नहीं" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"तुम नहीं मान रही बेटे मेरा कहना!" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"मैं देखना चाहता हूँ तुम्हें!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"मन है मेरा" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"बस ऐसे ही!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"ठीक है, जा रहा हूँ, अब नहीं आऊंगा कभी, प्यारी बिटिया हो मेरी तुम, याद आओगी बहुत, जा रहा हूँ, अब नहीं आऊंगा" कहा मैंने, और खड़ा हुआ, जैसे कि मुझे उम्मीद थी, आशा थी, मेरी कमर पर, पत्थर लगा! छोटा सा!
"हाँ?" घूमा मैं,
"रुको!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने रुकते हुए,
''आ जाओ" बोली वो,
"सच में?' पूछा मैंने,
"हाँ, आ जाओ" बोली वो,
मैं चला अंदर! रुका, आसपास देखा!
"इधर" बोली वो,
"किधर?'' पूछा मैंने,
''सामने आओ?" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
और चला आगे, धीरे से!
"रुको" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"नीचे बैठो" बोली वो,
"यहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
मैं बैठ गया नीचे!
"सामने देखो!" बोली वो,
"कहाँ सामने?" मैंने हाथ आगे करते हुए पूछा,
और मेरे हाथ, उसके बालों से टकराये!
"स्वीटी?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तुम हो न?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तुम्हें देख नही पा रहा हूँ?" कहा मैंने,
"अब?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"अब?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ओफ्फ्फ ओ! अब?"
तब हल्का सा प्रकाश फूटा! जैसे, घड़ी का रेडियम!
"अब?" बोली वो,
"हाँ! हां!" कहा मैंने,
मैं देखता ही रह गया उसे! बेहद ही प्यारी बच्ची! बेहद ही प्यारी! ये मोटी मोटी काली आँखें! मोटी मोटी भौंह! मोटे मोटे गाल! मुस्कुराती हुई!
मैंने उसका चेहरा हाथो में भरा!
"मेरी बेटी!" कहा मैंने,
और प्यार से, चुम्मी दी हवा में!
हंस पड़ी वो! खिलखिला कर!
"बड़ी सुंदर है बेटी मेरी तो!" कहा मैंने,
"झूठ!" बोली वो,
"सच्ची बेटा!" कहा मैंने,
"देख लिया?'' बोली वो,
"हाँ बेटा!" कहा मैंने,
"इधर आओ?" पूछा मैंने,
"नहीं आ सकती" बोली वो,
"क्यों बेटे?'' पूछा मैंने,
सर नीचे कर लिया उसने! और मेरी नज़र, उसके पांवों पर पड़ी..उफ़....पाँव तो थे ही नहीं उसके? सिर्फ, घुटने ही......


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कितना ही, क्या कहूँ? मुश्किल? नामुमकिन या कठिन, कितना कठिन होता है न, किसी की व्यथा को देख कर, सामान्य बने रहना? है न? बस, यही था उस वक़्त! मैंने उसके घुटने देखे थे, घुटनों से नीचे के पाँव नहीं थे, न जाने क्या हुआ था उस प्यारी सी बच्ची के साथ, पता नहीं क्या? यदि कोई ज़िम्मेदार था, इस घिनौने दुष्कृत्य के लिए, और यदि, सामने रहा होता मेरे वो, उस वक़्त, तो सच कहता हूँ, अनंत तक ऐसा कष्ट देता उसको, अब चाहे, कुछ भी करना होता मुझे! ऐसी प्यारी, फूल सी बच्ची, ऐसी प्यारी रुई सी कोमल, और ये हाल? खून न खौले तो क्या हो? मैं फिर भी, सामान्य ही बना रहा, ताकि, उसकी तकलीफ में, इजाफा ही न कर दूँ मैं...
"स्वीटी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या उम्र है बेटे आपकी?" पूछा मैंने,
"दस साल" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
दस साल की वो प्यारी सी, भोली-भाली तो न कहूँगा, नटखट थी बहुत! ऐसा भयानक समय काट रही थी! दिल ज़ार-ज़ार सा रोया मेरा! भगवान, सबकुछ दे, लेकिन भावना पढ़ने वाला बस दिल ही न दे! बस! न दे!
"एक बात पूछूं?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"कब से हो यहां?" पूछा मैंने,
"कब से?" पूछा उसने,
ओह! मेरा सवाल ही दरअसल गलत था! उसे क्या पता?
"स्वीटी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"दीदी का नाम क्या है?'' पूछा मैंने,
"क्यों?'' बोली वो,
"अब बताओ मुझे!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"बस, बताओ?" कहा मैंने,
"किसलिए?' बोली वो,
"मुझ से, नही देखा जाता ये!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"पता नही, बस नहीं, नाम बताओ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा, मम्मी-पापा कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"आएंगे अभी!" बोली वो,
"आएंगे?" बोला मैं,
"हाँ, आएंगे!" बोली वो,
"कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"दीदी है न?'' बोली वो,
"दीदी?" पूछा मैंने,
"हाँ, वो लाएंगी!" बोली वो,
"अच्छा, और वो हैं कहाँ?" पूछा मैंने,
"घर पर" बोली वो,
"घर?" पूछा मैंने,
"हाँ मेरे दादू का घर!" बोली वो,
"ओह! अच्छा, दादा जी का घर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कहाँ है घर?" पूछा मैंने,
"दीदी जाती हैं न?" बोली वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"लाने?" बोली वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"मम्मी-पापा को!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, फिर मैं, टीटू से मिलूंगी!" बोली वो,
"कौन टीटू बेटा?" पूछा मैंने,
"मेरा भाई!" बोली वो,
"सगा?" पूछा मैंने,
"सगा?" पूछा उसने,
"कुछ नही बेटे!" कहा मैंने,
"हाँ टीटू से!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मेरे चाचू हैं न?" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, मेरे चाचू!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो भी नहीं आये!" बोली वो,
"उनको पता चला?'' पूछा मैंने,
"क्या??" पूछा उसने,
"नहीं बेटे, कुछ नहीं!" कहा मैंने,
मैं समझ रहा था! एक एक बात! गहराई से!
"स्वीटी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"पापा क्या करते हैं?" पूछा मैंने,
"वो, बिजली इंजीनियर हैं!" बोली वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"मेरे पापा हैं!" बोली वो,
"हाँ, आपके पापा!" कहा मैंने,
"आप न बोलो मुझे?'' बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"आप चाचू जैसे हो!" बोली वो!
"अच्छा बेटा! अच्छा!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोली वो,
"और बेटा स्वीटी?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"चाचू क्या करते हैं?" पूछा मैंने,
"चाचू?" बोली वो,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"चाचू का गेराज है!" बोली वो,
"गेराज?" पूछा मैंने,
"हां, सर्विसिंग करते हैं!" बोली वो,
''अच्छा! गाड़ियों की!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और बेटा, नाम क्या है चाचू का?" पूछा मैंने,
"चाचू का?'' बोली वो,
"हाँ?" बोला मैं,
"अवनीश!" बोली वो,
अवनीश! लिखा लिया मैंने दिमाग में!
"और बेटे, पता?" पूछा मैंने,
"पता?" बोली वो,
"एड्रेस?" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"हां बेटे, बताओ?" बोला मैं,
अब उसने मुझे एक पता बताया, ये पता था, यमुना नगर का,  हरियाणा का! इसका मतलब, ये बेचारी, और इसका भाई बब्बल यमुना नगर के थे! लेकिन हुआ क्या था? अब ये थी चिंता की आग, जो अब, बढ़े जा रही थी! और वो..अवनीश! क्या है अभी??


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो इसका अर्थ था कि ये स्वीटी और उसका भाई, रहने वाले थे यमुना नगर के आसपास के, या फिर यहीं के ही, ये अवनीश नाम तो था मेरे पास, और एक पता भी, लेकिन अभी तक कुछ समझ नहीं आया था कि इनकी ये हालत ऐसे कैसे हो गयी थी? ये किसी दुर्घटना की वजह से था या फिर क़त्ल-ओ-ग़ारत का मामला था, जिसकी वजह से इनके इन भटकते हुए प्रेतों ने यहां आ, पनाह ले ली थी, अब वजह कुछ भी हो, दो की पुष्टि हो चुकी थी, लेकिन ये दीदी, ये कौन थी, यही जानना था था! यही समझ आ जाता तो तो शायद ये पूरी गुत्थी ही सुलझ जाती!
"स्वीटी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"तुम्हारी दीदी से कब मिला जा सकता है?" पूछा मैंने,
"पता नही" बोली वो,
"रोज आती हैं?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"अच्छा, यहीं रहती हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहीं रुक जाओ" बोली वो,
"वो आएँगी?' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ठीक, मैं बाहर देख लेता हूँ!" कहा मैंने,
"अच्छा" बोली वो,
"तुम यहीं रहोगी न?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ठीक, मैं आता हूँ फिर" कहा मैंने,
और तब, मैं उठ खड़ा हुआ, दिल पर बड़ा ही वजन पड़ा था, इस बेचारी की हालत, बड़ी ही खराब रही होगी उस समय, और इसका भाई ये बब्बल, ये भी मिल जाता तो शायद कुछ और सुराग मिल जाता!
तो मैं बाहर आ गया, और आकर, सभी को, यही सब बता दिया, अधिक तो नहीं, बस इतना कि जैसा मैं कहूँ बस ठीक, वैसा ही वो करें! अब पता नही, ये दीदी आती तो न जाने क्या व्यवहार होता उसका, लाजमी था, जैसा मुझे भान था, वो गुस्सा ही होती, वो कभी नहीं चाहती कि बाहर का कोई भी इंसान सम्पर्क करे उनसे!
"आप यहीं ठहरना" कहा मैंने,
"यहीं?" बोले कपूर साहब,
"हाँ" कहा मैंने,
"साथ ही चलें?" बोले शर्मा जी,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले कपूर साहब,
"कोई सामने न आये तो?'' बोला मैं,
"अच्छा!" बोले वो,
"एक काम करो" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"आप नीचे चले जाओ!" कहा मैंने,
"कहाँ" पूछा उन्होंने,
"गाड़ी में!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोले वो,
"अब और सवाल नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले दोनों,
और चल पड़े नीचे, मैं देखता रहा उनको जाते हुए, जब वे चले गए, तो मैं भी चला अब उस तरफ, जहां स्वीटी के हिसाब से, उसका भाई बब्बल खेल रहा था! मैं नीचे आया, और एक हरी-भरी सी जगह गया, यहां कुछ नहीं था, निर्जन सा स्थान, पेड़ लगे थे, हवा थी नहीं, सर्दी के जमाल चढ़ा था सभी पेड़ पौधों पर! घास के ऊपर, कोंपलों पर, अभी तक ओंस चढ़ी हुई थी! कुछ परिंदे, ज़रुरु बोल बोल कर, अपनी आमद दर्ज़ करा रहे थे, और, और कुछ भी नहीं था! मैं एक तरफ चला, ये अहाता सा था, तभी कुछ आवाज़ आई मुझे, जैसे, कोई क़दम पटक रहा हो, ज़मीन पर! मैं चल दिया उस तरफ!
आया उधर, तो रुका, कोई नहीं था वहां, लेकिन आवाज़ अभी भी आ रही थी, पीछे एक दीवार थी, दीवार पर,. कुछ खुरच-खुरच कर लिखा हुआ था, शायद वहाँ आने वाले किसी प्रेमी जोड़े ने ऐसा किया हो, दिल का निशान बना था! अब बदरंग था!
"कौन है?'' बोला मैं,
आवाज़ फिर से आई!
"बताओ?" बोला मैं,
आवाज़, गूंजी!
"सामने आओ?" बोला मैं,
अब आवाज़ बंद हुई!
और मैं हुआ चौकस! नज़र तो कोई नहीं आ रहा था, और ऐसा वहां तो कम से कम ऐसा कोई नहीं था जो कलुष की जद से बाहर रह सके!
"कौन है?'' बोला मैं,
सर्राती हुई सी सर्द हवा मेरे से टकरा कर आगे बढ़ चली!
"सामने आओ?" बोला मैं,
नहीं आया कोई भी!
"आओ?" बोला मैं,
नहीं, कोई नहीं!
"बब्बल?" बोला मैं,
अब आवाज़ बंद!
मैं आगे बढ़ा, आवाज़ पीछे से आई! मैं पीछे पलटा!
"कौन है?'' पूछा मैंने,
नहीं, कोई नही!
"जो भी है, सामने आओ?" बोला मैं,
आवाज़ फिर से हुई, इस बार, दीवार पर, जैसे किसी ने मुक्के जड़े हो!
"सामने क्यों नहीं आते?'' बोला मैं,
कोई नही!
"मैं जानता हूँ, तुम हो वहां!" कहा मैंने,
लेकिन अब भी कोई नहीं!
"मैं कोई नुकसान नहीं करूंगा!" कहा मैंने,
नहीं, कोई नही!
"विश्वास करो, सच कहता हूँ!" कहा मैंने,
आवाज़ फिर से हुई, इस बार दीवार के नीचे!
"आओ?" कहा मैंने,
और मैं आगे बढ़ा!
कोई जैसे देख रहा था मुझे, लेकिन सामने ही न आये!
"छिपो नहीं!" कहा मैंने,
लेकिन कोई नहीं!
परिंदे बोल पड़े, और एक झटके से उड़े!
"आओ! आ जाओ!" कहा मैंने,
अब भी कोई नहीं!
"मैं यहीं खड़ा हूँ, आ जाओ सामने! जो भी हो!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मैं काफी देर तक, यूँ ही खड़े खड़े, पुकारता रहा कि कोई तो आये, लेकिन आया कोई नहीं! ये प्रेत इतनी शीघ्रता से यक़ीन नहीं किया करते! आपको देखते रहेंगे, आपका जायज़ा लेते रहेंगे लेकिन कभी सम्मुख हों, ऐसा वे अपनी इच्छा से ही करते हैं! तो यहां जो भी कोई था, वो नहीं आया सामने मेरे! सामने आता, तो कलुष की जद में आ जकड़ता और मैं, देख लेता उसको! लेकिन सामने तो आये कोई! तो यहां तो कोई नही आया! मैं पीछे हटा, और सामने देखता हुआ, आगे बढ़ा, नज़र आसपास दौड़ा ही रहा था, कि अचानक ही मेरी नज़रों के बीच से कोई गुजरा, मैंने झट से चेहरा उधर घुमाया, और गौर से देखा, सामने, झाड़ियों के बीच में कुछ पेड़ लगे थे, और उन पेड़ों के बीच, जैसे कोई खड़ा हुआ था! दिखा आधा ही रहा था, कमर से ऊपर तक, मैंने सर घुमा-फिरा कर, उसको नज़रों में भरने लगा!
मैं वहीँ खड़ा था, वहीँ का वहीँ, नज़र डाले खड़ा था उस पर, ये कौन था? कोई पुरुष या कोई स्त्री? गौर से देखा, तो ये पुरुष था, यही लगा था, दरअसल, चेहरा अजीब से रंग का था उसका, काला और लाल सा, बाल काले थे और लम्बे थे, इसी कारण से पता नहीं चल रहा था कि औरत है या पुरुष! अब मैं आगे बढ़ा, वो भी मुझे ही देख रहा था, वो भी मुस्तैद ही खड़ा था, और मैं भी चाक-चौबंद था!
मैं करीब तीस फ़ीट पहले रुका, और देखा उसको, ये एक युवक था, उसका चेहरा दरअसल, एक कपड़े से ढका था, रुमाल बांधे था वो, इसे ही मैं काला-पीला सा कह रहा था! इस युवक की आयु करीब पच्चीस बरस के आसपास रही होगी, कद-काठी में छरहरा और चपल सा था! कमीज़ पहने था, मैरून रंग के, छींटदार, इस कमीज़ पर, छोटे छोटे से वर्ग बने थे, काले रंग के, एक कलाई में, कड़ा पहने था, सिख तो नहीं था, न दाढ़ी ही थी, और न पग ही, हाँ, हलकी-हल्की मूंछें थीं, रंग में गोरा था, और अपने एक हाथ में, एक रस्सी पकड़े था, ये रस्सी नायलॉन की थी, नीले रंग की, अब रस्सी का प्रयोजन था, ये तो यही बताये! वो किसी मूर्ति की तरह से सतत खड़ा था, जैसे पत्थर बन, मुझे ही घूरे जा रहा हो! कद उसका करीब पांच फ़ीट सात या आठ इंच रहा होगा, मुझे देखता और ऐसे देखता जैसे मैंने उसके किसी व्यक्तिगत क्षेत्र में, अनाधिकारपूर्वक रूप से प्रवेश ले लिया हो!
मैं आगे बढ़ा, थोड़ा सा और, उसने फौरन ही, अपना हाथ आगे कर, मुझे रुक जाने का इशारा किया! मैंने बात मानी उसकी और, रुक गया, ठीक वहीँ! उसने हाथ नीचे किया और फिर देखने लगा मुझे, अपलक, लगातार, मैं भी लगातार देखे जा रहा था उसको, मैं फिर से बढ़ा आगे, तो उसने फिर से इशारा किया रुक जाने को, मैं फिर से रुक गया, अब तक करीब, मैं चार फ़ीट आ चुका था आगे,
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
वो चुपचाप!
"बताओ?" मैंने पूछा,
नहीं बोला कुछ!
"कौन हो तुम?'' पूछा मैंने,
"ये" बोला वो,
रस्सी दिखाते हुए मुझे, हाथ आगे बढ़ाया था उसने, रस्सी वाला,
"ये?" पूछा मैंने,
"ये, हाँ" बोला वो,
"रस्सी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"वो" बोला इशारा करते हुए एक तरफ,
"कहाँ?'' पूछा मैंने, देखते हुए उसको,
"ओ!" बोला वो,
उधर देखा, कुछ नहीं था उधर तो, एक पेड़ भी नहीं!
"क्या है उधर?" पूछा मैंने,
"वो, वो!" बोला वो,
"बताओ, कोई है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, वो" बोला वो,
"आओ, साथ आओ मेरे!" कहा मैंने, और मैं चला ज़रा सा आगे, रुका, और देखा उसे, वो जस का तस खड़ा था, मुझे ही देख रहा था, हाँ, रस्सी वाला हाथ, नीचे कर लिया था अपना!
"आओ?" कहा मैंने,
नहीं बोला कुछ!
"आओ? दिखाओ मुझे?'' पूछा मैंने,
"वहां" बोला वो,
''वहां?" मैंने इशारा किया,
"हूँ, ओ!" बोला वो,
"आओ, आओ, दिखाओ मुझे?'' कहा मैंने,
फिर भी नहीं आया वो!
"अच्छा, रुको!" कहा मैंने,
और मैं लौटा पीछे, अब मैं आना चाहता था उसके करीब, सो चला आया, अब वो घबराया, और पीछे हटने लगा! मैं रुक गया!
"सुनो, डरो नहीं!" कहा मैंने,
वो चुप खड़ा रहा!
"नाम क्या है तुम्हारा?'' पूछा मैंने,
चुप, डरा डरा सा, सहमा सहमा सा!
"सुनो?" बोला मैं,
उसने सर घुमाया एक तरफ! और फिर मुझे देखा,
"बताओ?" पूछा मैंने,
"बंटी" बोला वो,
"बंटी?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"यहां क्या कर रहे हो बंटी?" पूछा मैंने,
"वो, वो" बोला वो,
"वो? क्या है वो?" पूछा मैंने,
"उधर" बोला वो,
"क्या है उधर?'' पूछा मैंने,
"जाओ" बोला वो,
"मैं जाऊं उधर?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"ये" बोला वो,
रस्सी वाला हाथ आगे बढ़ाते हुए!
"तुम चाहते हो मैं ये रस्सी ले जाऊं उधर?" पूछा मैंने,
"हूँ" बोला वो,
"क्या है उधर?'' पूछा मैंने,
"देखो, जाओ" बोला वो,
"तुम भी आओ?" बोला मैं,
और मैं चला उधर के लिए! रुका, पीछे देखा, अब नहीं था वो वहां! मैंने सामने देखा, वहाँ खड़ा था, रस्सी लिए!
मैं आगे बढ़ा उसकी तरफ, वो पलटा और चलने लगा आगे, मैं उसके पीछे, कुछ दिखाना चाह रहा था, शायद किसी की मदद हो सके उस रस्सी की सहायता से, शायद!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो आगे आगे, दौड़ता सा चला गया और मैं उसके पीछे! वो एक जगह जा खड़ा हुआ और रस्सी खोलने लगा, मैं पहुंचा वहा तक! और जैसे ही देखा, मेरे तो होश ही फ़ाख्ता हो गए! वहाँ एक गड्ढा था, करीब दस फ़ीट गहरा, और उस गड्ढे में तीन कंकाल पड़े थे, तीनों की ही हड्डियां अलग अलग बिखरी पड़ी थीं! दिमाग तेजी से घूमा मेरा! कड़ियाँ जुड़ने लगीं एक एक करके! हुआ यूँ होगा कि इस गड्ढे में ये तीन लोग या तो गिर गए होंगे या फिर, गिरा दिए गए होंगे, या फिर, इस तरह से जैसे ये हड्डियां बिखरी हुई थीं, उसके अनुसार इनको हलाक़ किया गया होगा, जब तक ये बंटी यहां तक आया होगा, ये सभी लोग यहीं इसी गड्ढे में फेंक दिए गए होंगे, ये तीनों ही वयस्क से लगते थे, शायद ये बंटी उनकी मदद करने के लिए, रस्सी लेने गया होगा और तभी, तभी इसको भी हलाक़ कर दिया गया होगा....हाँ, यही हुआ होगा!
"बंटी?" बोला मैं,
अब देखा उसने मुझे,
"ये क्या हुआ था?'' पूछा मैंने,
"हैं?" पूछा उसने,
तभी एक आवाज़ हुई, जैसे कहीं गोली चली हो! दूर कहीं उसने भी देखा उधर, और मैंने भी, वो भाग छूटा वहां से! मैं चिल्ला चिल्ला कर बुलाता रहा उसे, लेकिन नहीं रुका वो, कूदता-फांदता, भाग गया वो! मैं खड़ा हुआ, देखता ही रह गया उसे! अब नीचे निगाह डाली, अब कोई गड्ढा नहीं था वहां, न कोई गड्ढा, न कोई कंकाल! जैसे वो बताने आया था मुझे कुछ, बता दिया, और भाग गया वहां से!
लेकिन वो गोली? आवाज़ उसकी? ये क्या था? कहीं कि हत्या-काण्ड हुआ था यहां? अगर हाँ, तो कैसे पता चले? अब भला, कौन बताये अब? कुछ ऐसी सवालात हुआ करते हैं, जिनका उत्तर कभी नहीं मिल पाता, जो इतिहास में ही दफन रह जाया करते हैं! यहां क्या हुआ था और क्या नहीं, पता नहीं चल सका कभी! वो बंटी, कभी नहीं मिल सका मुझे! दुबारा कभी नहीं, कौन था वो अभागा, कौन थे ये अभागे जो अब दफन थे, कभी नहीं जान सका मैं!
मैं हटा पीछे वहां से, और आया एक तरफ, एक पत्थर पड़ा था बड़ा सा, उस पर ही बैठ गया, आसपास निगाह डाली, सन्नाटा सा पसरा था हर जगह! ऐसा भयानक सन्नाटा किसी की भी चलती सांस में खौफ की फूंक मार, सनसना ही दे! काँप उठे वो अंदर तक, ठंडी साँसें गरम हो उठें और गरम, सर्द, एक साथ ही! ऐसा था वो मरघटी सन्नाटा! मेरी नज़रें, आसपास की जगह पर दौड़ रही थी, आसपास, पेड़ों पर, झुरमुटों पर, झाड़ियों पर, छतों पर, दीवारों पर और सहसा ही!
सहसा ही मैं उठ खड़ा हुआ, मेरी निगाहों ने किसी को पकड़ा था, दूर करीब पैतालीस
  फ़ीट दूर, एक कोठरी की टूटी सी दीवार के नीचे बनी खिड़की में से, सलाखें पकड़, कोई घूर रहा था मुझे!
मैं आगे बढ़ा, ताकि और साफ़ देख सकूँ उसे! मैं बढ़ता रहा, नज़रें बांधे हुए, और आ गया उस दीवार, उस खिड़की के नीचे! कुछ पलों तक जैसे मैंने जायज़ा लिया उसका, वो एक लड़की थी, उम्र में करीब बीस या बाइस की रही होगी, तंदुरुस्त देह थी उसकी, उसने, उस समय कैप्री सी पहनी थी, चिलकनि सी, चमकती हुई, अक्सर जैसे लड़कियां रात के समय पहना करती हैं, रंग बड़ा ही साफ़ था उसका, सफेद कहूँ तो गलत नहीं होगा, बाल भी सुनहरी से थे, माथे के ऊपर से कटे हुए से, या फिर, पीछे की और बांधे हुए, बाकी केश, भारी थे, पीछे बंधे हुए, गले में चैन पहने थी, जैसे बताया कि तंदुरुस्त देह थी उसकी, उसकी मज़बूत कलाइयों में, चांदी के से छार पांच कड़े थे, कुछ धागे से लटके हुए थे उनमे से, कद-काठी भी मज़बूत थी, भरी, मांसल देह थी उसकी, शरीर पुष्ट और मज़बूत था, किसी अच्छे समृद्ध परिवार से संबंध रहा होगा उसका, स्पष्ट दीखता था! आँखें भी बड़ी ही सुंदर सी थीं, बड़ी बड़ी सी, आँखों में जैसे उसने मस्कारा लगाया हुआ हो, ऐसी आँखें थीं! लेकिन चेहरे के भाव कड़े, कड़वे और गुस्से से भरे थे! शायद इसीलिए आँखें चौड़ी हुई थीं उसकी!
इस से पहले कि मैं कुछ कहता, उसने आव देखा न ताव, ऊपर से ही, उस खिड़की से कूद पड़ी मुझ पर, उसकी टांगें मेरे कंधों से टकराईं, मैंने संतुलन खोया अपना, और नीचे गिर पड़ा, सर, पीछे पड़े किसी पत्थर से टकराया, मेरा हाथ कान के ऊपर, खोपड़ी के ऊपर गया, खून छलछला गया फौरन ही! मुझे चोट लग चुकी थी उधर! मेरा हाथ खूंन से सन चुका था, उठा मैं, और देखा आसपास, कोई नहीं था! मैंने जेब से रुमाल निकाला, सर पोंछा, खून साफ़ किया और रुमाल बाँध लिया! मेरी कमीज़ और जैकेट के कॉलर पर खून रिस कर, सोख लिया गया था!
मैंने जैसे ही अपना हतः हटाया वहां से, मुझे मेरे उलटे हाथ से पकड़ा किसी ने, ज़ोर से आगे धक्का दिया, मैं फिर से आगे जा गिरा! मेरी नज़रें जा टिकीं! ये वहीं लड़की थी, गुस्से में दांत भींचे, जबड़ा कसे, मुझे ही देख रही थी! मैंने उठने की कोशिश नहीं की, उठता तो पल में ही फिर से उठा-पटक कर देती वो! अब वो जैसे ही
 बढ़ी मेरी तरफ!
"ठहरो?" मैं  चिल्लाया!
वो जैसे सहमी! ठहर गयी!
और मैं उठ खड़ा हुआ!
"ठहरो लड़की!" कहा मैंने,
वो रुक गयी थी, उस क्षण तो!
"मैं कोई दुश्मन नहीं!" कहा मैंने,
उसने न सुना, और बढ़ चली मेरी तरफ! अब ज़रूरी था मेरे लिए बचाव करना, मैंने फौरन ही हलंगा पढ़ दिया! जैसे ही उसने छुआ मुझे, खाया झटका उसने, हवा में उछली, चीख निकली, आग सी बल गयी देह में उसकी और खा पछाड़ सी, नीचे आ गिरी! वो झट से खड़ी हो गयी! अपने दोनों हाथों को घूरने लगी! शायद, ऐसा उसने पहले कभी नहीं महसूस किया था!
"सुनो! सुनो!" कहा मैंने,
उसने गुस्से से देखा मुझे!
गुस्से में कुछ अनाप-शनाप ब्क उसने, मुझे समझ नहीं आया! वो फिर से झुकी, जैसे इस बार छलांग मारना चाहती हो मुझ पर!
"नहीं! नहीं! रुको!" कहा मैंने,
वो चक्कर काटने लगी मेरे चारों तरफ! पल में क्या कर दे, पता नहीं था, मैंने पुनः हलंगा पढ़ा! और घूमता रहा उसके साथ ही साथ!
''सुनो, ऐसा नहीं करना!" कहा मैंने,
चेताया था उसको मैंने!
लेकिन, वो नहीं मानी, पल में ही छलांग मारी उसने मेरे ऊपर, जैसे ही टकराई इस बार चीख मारते हुए, दूर जा गिरी! उसकी नैसर्गिक शक्ति का ह्रास होने लगा! वो गिरी, और झट से खड़ी हो गयी!
"कुछ नहीं कर पाओगी लड़की!" मैंने चिल्ला कर कहा!
वो फिर से दौड़ी, मेरी तरफ, और इस बार मैंने फिर से हाथ आगे किये, जैसे ही आगे आयी, मेरे कंधों तक, उछली, फिर से जा उछली घूमते हुए, जा टकराई दीवार से, और दीवार में से जा पार हुई दूसरी तरफ!
मैं जा दौड़ा! पहुंचा उधर! देखा, नहीं थी! थी, तो उस दीवार के एंड, बस हाथ और सर बाहर निकले थे, कैसे चिन दिया गया हो उसे!
मैं भाग लिया उसकी तरफ, और जैसे ही पहुंचा, वो फिर से लोप हुई! मैं खड़ा हो गया, खुले में आ, सामने देखूं, दायें, बाएं और पीछे!
"लड़की?" चिल्लाया मैं,
नहीं आई वो!
"आ, सामने आ अब!" चीखा मैं!
नहीं आई वो,
"आ? अब आ सामने?" चीखा मैं,
पीछे, आवाज़ हुई, कररकरर के जैसी! मैं पलटा और देखा पीछे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं जैसे ही पीछे पलटा, उसकी देह नज़र आई, मुझ पर हमला करने ही वाली थी, कि जैसे ही मेरी नज़र उस से मिली वो जा छिटकी दूर! हो गयी खड़ी उधर! दीवार की ओट में!
"सुनो लड़की!" कहा मैंने,
अब उसने गौर किया मेरी बात पर!
"सुनो, नुकसान तुम्हारा ही होगा!" कहा मैंने,
वो चुपचाप, गुस्से में फ़ुनफ़ुनाये, सुनती रही!
"तेरी एक न चलेगी!" कहा मैंने,
उसने भरी एक सांस सी!
"जहाँ हो, वहीँ खड़ी रहो!" कहा मैंने,
मेरी धमकी का असर दिखा, कुछ ढीली सी पड़ी वो!
मैं कुछ क़दम आगे गया और जा रुका!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"तू कौन है?'' उसने मुझ से ही पूछा!
"तू बता? कौन है तू?'' पूछा मैंने,
"नाम बता अपना?'' बोली गुस्से से!
"बड़ी ही बद्तमीज़ है तू?'' मैं बोला,
"बता?'' बोली वो,
"ऐसे बाज नहीं आएगी तू?" बोला मैं,
"क्या कर लेगा?'' बोली वो,
"बताऊँ?" बोला मैं,
"बता?'' बोली वो,
अब या तो उसे मालूम नहीं था या फिर वो जानबूझ कर, मेरा जायज़ा ले रही थी! उसके बोलने के लहजे में कड़वाहट भरी थी बहुत!
"साफ़ साफ़ बता दे?" कहा मैंने,
"जा, चला जा!" बोली वो,
"ना! अब न मैं जाँऊगा और न तुझे ही जाने दूंगा!" कहा मैंने,
"अच्छा?'' बोली हिक़ारत से!
"हाँ, जा! आजमा ले?'' बोला मैं,
उसे मालूम नहीं था! नहीं था मालूम कि वो अब, प्रेत-शूल-विद्या में जकड़ी गयी है! अब न वो जा ही सकती थी, और न ही कुछ अहित ही कर सकती थी! अब मैं, जो चाहूँ, कर सकता था, करवा सकता था उस से! यहीं प्रेत सभी, बंध जाया करते हैं! ये भी बंध गयी थी!
"अब नाम बता?' बोला मैं,
"चला जा यहां से?'' चीखी वो,
"सुना नही?" चीखा मैं,
वो जैसे ही बढ़ी आगे, कि हिल न सकी! उसकी नैसर्गिकता ने जैसे साथ ही छोड़ दिया उसका! ये बड़ी ही तेज और खूंखार प्रेत थी, जो भी आम आदमी इसके आड़े आता, यक़ीन से मार ही डालती ये उसको!
"बस! बस!" कहा मैंने,
और बढ़ चला उसकी तरफ!
"रुक?" चीखी वो,
मैं रुक गया! लेकिन एक मुस्कान के साथ!
"बोल?" कहा मैंने,
"मुझे जाने दे!" बोली वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"जाने दे!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"हाँ, जाने दे" बोली वो,
"अब कोई गुस्सा नहीं? कोई हमला नही?" पूछा मैंने,
"गलती मानी" बोली वो,
"नहीं लड़की!" कहा मैंने,
"नुपुर नाम है मेरा!" बोली वो,
"नुपुर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"यहां कब से है?" पूछा मैंने,
उसने जो बताया, उसके अनुसार वो सत्रह बरस से यहां थी, सत्रह बरस मानो तो, सन छियानवे या सत्तानवें, उस हिसाब से!
"और रहने वाली कहां की है?'' पूछा मैंने,
उसने जो बताया उसके अनुसार वो, पुणे महाराष्ट्र में पढ़ती थी, रहने वाली जबलपुर की थी, पुणे में पढ़ाई किया करती थी, और यहां अपने चार मित्रों के साथ घूमने आई थी! उनको जाना तो मंडी, हिमाचल था, लेकिन वहां वो नहीं पहुँच सकी थी! उसने मुझे उन चारों के नाम भी बताये थे, जिनमे से दो लड़के थे, जिनके बार में अब उसे नहीं पता था, और वे दो दूसरी लड़कियां अब कहाँ थीं, ये भी नहीं पता था, कुल मिलाकर, वो यहां क़ैद हो होकर रह गयी थी!
"तू ऐसे ही यहां लोगों को मारती है?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"लेकिन यहां मरे तो हैं लोग?" कहा मैंने,
"मैंने नहीं मारे" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"यहां और भी हैं" बोली वो,
"कुल कितने?'' पूछा मैंने,
"नौ" बोली वो,
"तू कितनों को जानती है?" पूछा मैंने,
"नौ" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और वो दो बच्चे?'' पूछा मैंने,
"कौन?" पूछा उसने,
"स्वीटी और बब्बल?'' पूछा मैंने,
"वो मिले थे मुझे" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"बाहर" बोली वो,
"बाहर कहाँ?" पूछा मैंने,
"सड़क किनारे" बोली वो,
"तो तू यहां ले आई?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो अकेले थे" बोली वो,
"अच्छा, इसका मतलब, तू देखभाल करती है उनकी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"बचाने के लिए" बोली वो,
"किस से?'' पूछा मैंने,
"हाफुरों से" बोली वो,
हाफुर! प्रेत ही बोलते हैं ऐसा! मतलब, पकड़ने वालों से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तुझे हाफुरों से क्या डर?'' पूछा मैंने,
"ले गए वो, ले गए!" बोली वो,
"किसको ले गए?" पूछा मैंने,
"बहुत गए यहां से!" बोली वो,
"तेरा मतलब, हाफुर ले गए बहुतों को?'' पूछा मैंने,
"हाँ, बहुतों को!" बोली वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"अब जाने दे?'' बोली वो,
"कहाँ जायेगी?" पूछा मैंने,
"बच्चों के पास" बोली वो,
"बच्चे सकुशल तो हैं!" कहा मैंने,
"कोई ले जाएगा?" बोली वो,
"कोई नहीं ले जाएगा!" कहा मैंने,
"नहीं, ले जाएगा!" बोली वो,
"मेरे होते हुए, नहीं ले जाएगा!" कहा मैंने,
"तू रोक लेगा?' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तुझे क्या चाहिए?' बोली वो,
"तू!" कहा मैंने,
अब टूटी उसको डोर! मारे भय के सूख गयी! घबरा गयी! चेहरे के भाव ही बदल गए! और फिर, चीख-पुकार! अब रोने लगी! गिड़गिड़ाने लगी! मुझ से, भीख सी मांगने लगी! ऐसा नहीं था कि मुझे ये अच्छा लग रहा था, नहीं, तो तो पहले से ही दुखी थी, अब उस पर, ये दुःख! मैं तो बस उसे, दिखाना चाहता था कि वो जो कर रही थी, लोगों को डराना, मारना, धमकाना, वो ठीक नहीं था! उसका डर, माना कि ठीक ही था, स्वाभाविक ही था लेकिन फिर भी, उसको समझाना भी ज़रूरी था! अब वो इंसान नहीं थी, हाँ, भावनाएं अभी भी ठीक वैसी ही थीं उसकी!
"सुनो" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कुछ हे तेरे लिए" बोली वो,
"वो क्या?'' पूछा मैंने,
"मुझे छोड़ पहले?'' बोली वो,
"तुझे मैं पागल लगता हूँ क्या लड़की?" बोला मैं,
"फिर कैसे ले जाउंगी?" बोली वो,
"क्या ले जाना है?" पूछा मैंने,
"तेरे काम आएगा" बोली वो,
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"पहले छोड़?'' बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मैं तेरे किस काम की?'' पूछा उसने,
"बहुत काम की!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"तेरे जैसे गुस्सैल ही तो काम आते हैं!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोली वो,
"नहीं समझी?" बोला मैं,
"नहीं, मैं नही करूंगी!" बोली वो,
"मैं तो करूंगा!" कहा मैंने,
"तरस खा?" बोली वो,
"तुझ पर?'' बोला मैं,
"हाँ, मुझ पर, बच्चों पर?'' बोली वो,
"बच्चों पर खाया, तुझ पर नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"तू जवान! सुंदर! क्या नहीं कर सकती तू!" किया मज़ाक मैंने!
कपड़ा सा चिर गया मेरी बात सुन कर! हवाइयां उड़ने लगीं उसकी तो!
"तू बहुत काम आएगी!" कहा मैंने,
"लानत है!" बोली वो,
"मंज़ूर!" कहा मैंने,
"रहम खा!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या करेगा?' बोली वो,
"तुझे प्रवेश कराऊंगा!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली, काँपी वो!
"और क्या!" कहा मैंने,
"नहीं, तरस खा! तरस, देख मैं हाथ जोड़ती हूँ!" बोली वो,
"तेरी जैसी को कौन छोड़ेगा!" कहा मैंने,
"मान जा?'' अब बोली प्यार से!
"ना!" कहा मैंने,
"मान जा ना?'' बोली वो,
"ना!" कहा मैंने,
"नहीं मानेगा?" अब बोली गुस्से से!
"ना!" कहा मैंने,
अब गुस्से से फुफ्कारे! बंधी न होती तो टुकड़े कर देती मेरे! कागज़ सा फाड़ देती मेरा तो! आँखें कभी चौड़ी करे, कभी बारीक सी!
"सुन?" बोला मैं,
न दे जवाब!
"आएगी न काम?' बोला मैं,
दांत पीसे! काटने को भागे!
"तू तो सच में आग है नुपुर!" बोला मैं,
फुफ्कारे! गुस्से में आगबबूला हो!
"तेरे जैसी बंध कर, क्या क्या नहीं करतीं!" बोला मैं,
और चला पास उसके! आमने सामने! जहाँ छूने लगूँ, वहीँ से मुड़ जाए! देह मोड़ ले अपनी वहीँ से!
"बला है तू तो!" बोला मैं,
"मान जा?'' बोली धीरे से!
मैं हंस पड़ा! कुछ तेज ही!
"अरे पागल लड़की!" कहा मैंने,
चुप हुई वो!
"गलत न सोच!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोली मिमियाती आवाज़ में!
"हाँ, न सोच गलत!" कहा मैंने,
"जाने दो!" बोली वो,
"जाने दूंगा नुपुर! जाने दूंगा!" कहा मैंने,
ओहो! फूल सा खिल गया चेहरे पर उसके!
"हाँ, बस! बहुत हुआ!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोली वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"घबरा नहीं नुपुर!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मत घबरा नुपुर!" कहा मैंने,
वो हैरत से मुझे देखती रही!
"हाँ, अब और नही!" कहा मैंने,
"क्या और नहीं?" पूछा उसने,
"अब चिंता न कर!" कहा मैंने,
"नहीं समझ आ रहा मुझे?" बोली वो,
"तुम कितने हो यहां?" पूछा मैंने,
"कुल नौ" बोली वो,
"बच्चो समेत?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और कौन कौन है?' पूछा मैंने,
"और भी हैं" बोली वो,
और मुझे, नाम बता दिए उसने सारे, हैरत की बात ये कि तजिंदर नहीं था उनमे!
"कोई तजिंदर भी है क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"यहाँ कोई नहीं ऐसा" बोली वो,
"अच्छा , कभी घर लौटी हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कोई आया ही नहीं" बोली वो,
आया नहीं! समझ गया मैं!
"चल नुपुर!" कहा मैंने,
"कहाँ?" अब घबरा के बोली वो,
"अब तेरा समय खत्म हुआ यहां का" कहा मैंने,
"कैसा समय?" बोली वो,
"बता दूंगा" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"तुम सभी को इकट्ठा करो" कहा मैंने,
"सभी को?" पूछा उसने,
"हाँ, सभी को!" कहा मैंने,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"बहुत भटकाव हुआ!" कहा मैंने,
"भटकाव?" बोली वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"हम कहीं नहीं जाएंगे" बोली वो,
"तब कोई हाफुर आ जाएगा, ले जाएगा संग!" कहा मैंने,
"मैं मुक़ाबला कर सकती हूँ" बोली वो,
"जैसे मेरा?" पूछा मैंने,
"मुझे समझ नहीं आ रहा" बोली वो,
"सब समझ आ जाएगा!" कहा मैंने,
"समझाओ?" बोली वो,
"जाओ" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोली वो,
"इकट्ठा करो सभी को!" कहा मैंने,
"कहाँ ले जाओगे?" बोली वो,
"मुक्त करने!" कहा मैंने,
"हम मुक्त ही तो हैं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोली वो,
"तुम सब अटके हुए हो!" कहा मैंने,
"अटके हुए?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन कहता है?" बोली वो,
"मैं क्या, सभी!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"हाँ नुपुर!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली रुआंसी सी,
"नहीं, तुम सभी कैदी हो!" कहा मैंने,
"कैदी?" पूछा उसने,
"हाँ, अँधेरे के कैदी!" कहा मैंने,
"मुझे कछ समझ नहीं आ रहा?" बोली वो,
"सब समझा दूंगा!" कहा मैंने,
"कब?" बोली वो,
"आज ही!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"बता रहा हूँ!" कहा मैंने,
"कैसे विश्वास करूँ?" बोली वो,
"करना तो होगा!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोली वो,
"जाओ, इकट्ठा करो?" कहा मैंने,
"अभी?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सभी?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"इस वक़्त?" बोली वो,
"इसी क्षण!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं पता कुछ भी, कैसे?'' बोली वो,
"सभी को बुलाओ!" कहा मैंने,
"अभी?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैं जाऊं?" बोली वो,
"हाँ, यहीं आना!" कहा मैंने,
"न आऊँ तो?' बोली वो,
"तो ज़बरन लाऊंगा!" कहा मैंने,
घबरा गयी! सहम गयी बुरी तरह से!


   
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