दिसंबर का महीना! ठिठुरती रात! कड़कड़ाती ठंड! बाहर कोहरा! रात के बजे थे करीब सवा बारह! कुछ नज़र नहीं आ रहा था! हम चार लोग थे गाड़ी में! बाहर तो जैसे, सर्दी का जानलेवा नाच चल रहा था! कोहरा, बूँदें बन, गाड़ी की शीशों पर बहे जा रहा था! बाहर प्रकाश तो था, सड़क किनारे लगी बत्तियों का, लेकिन वो प्रकाश कम, धुंध ज़्यादा लगता था! गलती से कभी सर, छू जाता शीशों से तो आँख खुल जाती ऐसे, जैसे करंट लग गया हो! हमारी तरह ही, बेबस से लोग, अपनी अपनी गाड़ियों में, कतार लगाये खड़े थे! गाड़ी हल्की सी आगे बढ़ती और फिर से रुक जाती! हाथों में पहने दस्तानों से भी सर्दी, सेंध मार, अंदर आ घुसती थी! हम चारों, सर्दी से सहमी मुर्गियों की तरह से, अपने अपने दड़बों में पेट दबाये पड़े थे! बाहर कुछ नज़र न आता था, हाँ गाड़ी जब रूकती, तो आगे खड़ी गाड़ी की टेल-लाइट्स दीख जाती थीं और हम रुक जाते थे!
"आज तो बुरा ही हाल है!" बोले शर्मा जी,
"बड़ा ही बुरा!" कहा मैंने,
गाड़ी चला रहे थे हमारे एक जानकार, अज़ीज़ साहब, दरअसल अज़ीज़ साहब के बड़े भाई के यहीं आज दावत थी, खूब दावत उड़ाई थी हमने, अलाव जले हुए थे, हाथ तापे जाओ और माल उड़ाए जाओ! वो अलाव की गर्मी अब याद आये जा रही थी! बढ़िया तो यही रहता कि रात भी वहीँ ही गुज़ार ली होती! लेकिन दिन में काम भी थे, इसीलिए आठ बजे निकल पड़े थे हम वापिस! अब हुआ यूँ कि सर मुंडाते ही ओले पड़े! एक तो ठंड, ऊपर से सुस्त यातायात! सोने पे सुहागा! सर्दी मज़ाक उड़ाए जाए तो हमारी एक एक कंपकंपी हमारी देह ही छीले जाए!
"सो गए गए यार?" पूछा शर्मा जी ने, मेरे साथ बैठे कपूर साहब से!
"अरे यार, ऐसी सर्दी में कोई नींद आती है भला?'' बोले वो,
"पड़े तो ऐसे ही हो?'' बोले वो,
"पड़ा नहीं हूँ, दुबका हूँ!" बोले वो,
"क्या करें फिर?" पूछा शर्मा जी ने,
"कोई ढाबा ज़िंदा हो तो रोक लो यार, चाय ही पी लें?'' बोले कपूर साहब!
"अभी देखते हैं कपूर साहब!" बोले अज़ीज़,
"सड़क किनारे तो नज़र आ नही रहा, धुंध ही इतनी है!" बोले शर्मा जी,
"देखते हैं!" बोले अज़ीज़,
करीब आधे घंटे बाद, एक जगह कुछ दिखा अज़ीज़ साहब को! और उन्होंने बड़ी मेहनत-मशक़्क़त के बाद गाड़ी उतारी सड़क से! ठीक सामने एक ढाबा था, कई गाड़ियां खड़ी थीं वहां! सभी के सभी बेचारे सर्दी से त्रस्त, हमारी तरह!
"ये सही किया यार!" बोले कपूर साहब!
"हाँ, चाय पियो और गर्मी लो!" बोले शर्मा जी,
हम उतरे! और जैसे दौड़ पड़े ढाबे की तरफ! अंदर भागे और एक कोने में, पड़े तख्त पर जा बैठे! बहुत से लोग बैठे थे यहां! सर्दी में, चौगुनी कमाई कर रहा था ये ढाबा! वैसे आसपास के ढाबे भी खुले ही थे! अज़ीज़ साहब, अंदर आने से पहले ही चाय के लिए कह आये थे, और अंदर आ बैठे! अंदर एक अंगीठी जली थी! उसमे लकड़ी का कोयला दहक रहा था! उस से उठती गर्मी ऐसी थी कि जैसे ज़िंदगी की साँसें हों! हमने उतारे दस्ताने और तापने लगे!
"सारी दारु भाप हो गयी!" बोले कपूर साहब!
"ऐसी सर्दी में क्या बचे साहब!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बाहर कोहरा तो देखो! सुबह तक तो जैसे बर्फ ही पड़ जाएगी!" बोले वो,
"इस साल तो, कोहरा है भी ज़्यादा ही!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"वादियों में पड़ी है बर्फ!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, तभी तो सर्दी का ये आलम है!" बोले अज़ीज़,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अज़ीज़?" बोले कपूर साहब,
"हाँ जी?" बोले वो,
"भाई साहब तो आये हैं दुबई से, यहां आते ही ***-तोड़ ठंड! कैसे होगी!" बोले कपूर साहब!
अज़ीज़ हँसे! हम भी हंस पड़े!
"हाँ, परेशानी तो होगी ही!" बोले शर्मा जी!
"कल ही बोलेंगे, टिकट करवा रहा हूँ, अब न आऊं दिसंबर में कभी!" बोले कपूर साहब!
हम फिर से हंस पड़े! और तभी चाय आ गयी! लपक ली जी चाय हमने! और न लगाई देर! उतारने लगे गले के नीचे! गर्म गर्म चाय गले में उतरी तो नाक भी खुली! खुल के सांस आने लगी!
"वैसे एक बात तो है!" बोले कपूर साहब,
"वो क्या?' पूछा मैंने,
"सर्दी का भी एक अलग ही मजा है!" बोले वो,
"हाँ, लेकिन इतनी भी नहीं यार!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो जानलेवा है!" बोले शर्मा जी!
"नहीं यार!" बोले कपूर साहब!
"कपूर साहब, आप तो हो नाभा के, आप तो लो झेल!" बोले अज़ीज़!
"या ज़ीजू, क्या कहता है यार!" बोले वो,
''सच कह रहा हूँ!" बोले अज़ीज़!
"नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"सुनो, एक काम करे हैं!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"जनवरी में, बनाओ प्रोग्राम!" बोले वो,
"कैसा प्रोग्राम?" पूछा शर्मा जी ने,
"आपने क्या सोची?" बोले कपूर साहब, हँसते हुए!
मतलब समझ कर, मैं भी हंस पड़ा! अज़ीज़ साहब भी! और कप्पोर साहब ऐसे हँसे, कि खांसी ही उठ गयी!
"लो! कपूर साहब, छाती फूलती नहीं अब आपकी, और बना रहे हो प्रोग्राम!" बोले शर्मा जी!
अब हम फिर हँसे! इस बार चारों ही!
"तुम्हारी तो फूलती है! हम मोमबत्ती ही पकड़ लेंगे! और बोलो!" बोले कपूर साहब!
अब कि तो हद ही हो गयी! ऐसे हँसे, कि चाय रखनी पड़ गयी तख्त पर! शर्माजी और कपूर साहब में मज़ाकिया तनातनी चल निकली थी!
"ना! मोमबत्ती हम पकड़ लेंगे, तुम फुला लेना छाती!" बोले शर्मा जी,
"क्यों जी? घुटने घिस गए क्या?'' बोले कपूर साहब!
हम फिर से हँसे! घुटने घिस गए का मतलब जानें ज़रा!
कपूर साहब और शर्मा जी, आसपास की उम्र के ही हैं! हाँ, कपूर साहब साल दो साल ज़्यादा ही होंगे! लेकिन हैं जीदार आदमी! वो भी फ़ौज से ही सेवानिवृत हैं! कमाल के आदमी हैं! पास बैठ जाएँ तो समझो हंसी के फुलले फूटते ही रहेंगे, जैसे अभी फूट रहे थे!
"हमारे क्यों घिसेंगे!" बोले शर्मा जी,
"बोल तो ऐसे ही रहे हो!" बोले कपूर साहब!
"यार एक बात बताओ, चश्मे का नंबर हर महीने बढ़ रहा है आपका, क्या पकड़ोगे और क्या ढूँढोगे!" बोले शर्मा जी!
इस बार तो हंसी का गुब्बारा ही फूट पड़ा! पास बैठे, दो चार, जो हमें सुन रहे थे, वे भी हंस पड़े! कपूर साहब भी हंसने लगे थे!
"चलो जी, हमारा कुछ तो बढ़ रहा है! आपका तो लगता है हर महीने कुछ घट रहा है, जन बचा भी हो कुछ कि न!" बोले कपूर साहब!
अब तो मैं खड़ा हुआ! दोनों ही फुल-फॉर्म में आ गए थे! अजी साहब और मैं उठ कर, खड़े हो गए! हंस हंस के पेट में दर्द सा होने लगा था अब तो! शर्मा जी भी हंसने लगे थे!
''तो बनाओ प्रोग्राम!" बोले कपूर साहब!
"बना लो! हमें कैसा डर!" बोले शर्मा जी!
'"डर? देखेंगे पट्ठे! देखेंगे!" बोले कपूर साहब!
"अजी क्या देख लोगे?'' बोले वो,
"अमा जो दिखाओगे!" बोले वो,
"हैं? क्या देखोगे?'' बोले वो,
"देखते हैं, ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है!" बोले वो!
हम हंस हंस के बेहाल!
"कैसा ज़ोर! ज़ोर के लिए तो ये बालक बैठे हैं! हम तो न अगाड़ी में, न पिछाड़ी में!" बोले शर्मा जी!
"अब हमे क्यों लपेट रहे हो शर्मा जी!" बोले अज़ीज़!
"मजे भी तो तुम ही ले रहे हो लाला!" बोले शर्मा जी!
"हमसे हो गयी गलती, हमें कर दो माफ़!" बोले अज़ीज़ साहब!
"वैसे शर्मा जी?' बोले कपूर साहब,
"हाँ जी?" बोले वो,
"सही कहा, न अगाड़ी में, न पिछाड़ी में, हम तो बस गाड़ी में!" बोले वो,
और वो, ठहाका मार हँसे दोनों!
"भई हद कर दी! हद कर दी!" बोले अज़ीज़ साहब!
"मियाँ कैसे हद हो गयी?' बोले शर्मा जी,
"मैं बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ जी, बताओ!" बोले कपूर साहब!
"यार, बुढापे में ये हाल है, तो जवानी में तो सफेदे के पेड़ पर चढ़ जाते होंगे आप लोग तो!" कहा मैंने,
मैंने कही और हम सब खिलखिला कर हँसे!
"कैसा बुढ़ापा?" बोले कपूर साहब!
"क्यों? अभी मोमबत्ती नहीं पकड़ के खड़े थे?'' बोले अज़ीज़!
हम सब, फिर हँसे! ज़ोर ज़ोर से! देखने वाले सब समझ गए थे कि ये दिल्ली के ही ठिठोलिये हैं! हंसोडिये!
"वो तो मदद कर रहा था मैं शर्मा जी की! कि कहीं गलत गोला न दाग दें!" बोले कपूर साहब!
फिर से हँसे हम! शर्मा जी का भी बुरा हाल!
"हैं शर्मा जी? ऐसा क्या?'' पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"ले लो मजे! ले लो भाई ले लो!" बोले वो,
"आप भी तो लोगे? प्रोग्राम न बन रहा?" बोले अज़ीज़ साहब!
"अब कैसा प्रोग्राम!" बोले वो,
"क्यों जी?" पूछा मैंने,
"अब हरे राम!" बोले वो,
"अरे राम जी को रहने दो जोध्या में! उन्हें क्यों बुलाते हो ऐसी ठंड में!" बोले कपूर साहब!
अज़ीज़ साहब उठे, गिलास लिए और चल दिए बाहर, हाथों के इशारे से, बैठे रहने को कह गए थे, मतलब कि अभी और चाय आनी थी!
"कपूर साहब?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो, अपनी डनहिल सिगरेट निकालते हुए पैक से, एक शर्मा जी को दी, मुझे दी तो मैंने भी ले ली!
"मजे हैं कपूर साहब के, डनहिल चल रही है आजकल तो!" बोले शर्मा जी,
"लड़का ले आया था, बोला पापा, क्या यार! पनामा खींचते रहते हो, ये लो!" बोले वो,
"बढ़िया साहब!" बोला मैं,
अज़ीज़ साहब भी आ गए! सिगरेट का पैक, बढ़ा दिया आगे कपूर साहब ने, उनके सामने! उन्होंने भी सिगरेट निकाल ली, और पैक देखने लगे!
"इम्पोर्टेड है!" बोले कपूर साहब!
"हाँ जी! देखा!" बोले वो,
"आप नाभा के ही हो न?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी, वहीँ का हूँ!" बोले वो,
"तभी रंगीले हो!" कहा मैंने,
हंस पड़े वो! शर्मा जी भी!
"तो प्रोग्राम क्या है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"बड़ी जल्दी हुई?'' बोले अज़ीज़ साहब!
"भाई प्रोग्राम है यार! जल्दी न होगी!" बोले कपूर साहब!
"अच्छा! हाँ!" बोले अज़ीज़ साहब!
"तो बताओ?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"कब का बनाऊँ?" बोले वो,
''शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"बताओ?" पूछा मैंने,
"मैं क्या बताऊँ?" बोले वो,
"कब का रखें?" पूछा मैंने,
'"जब चाहो?" बोले वो,
"ओहो! हमेशा ही तैयार!" बोले कपूर साहब!
हम फिर से हँसे! तेज इस बार भी! चाय भी आ गयी!
"नया साल मनाते हैं फिर बाहर?" बोले वो,
"ये बढ़िया है!" कहा मैंने,
"क्यों अज़ीज़ मिया?" पूछा कपूर साहब ने!
"अजी हम तो तैयार ही हैं! हुक्म करो बस!" बोले वो,
"वाह!" कहा शर्मा जी ने,
"अमा अज़ीज़ भाई?" बोले कपूर साहब!
"हाँ जी?" बोले वो,
"शर्मा जी के लिए, तिल के लड्डू बना लेना!" बोले कपूर साहब!
"क्या? मुझे क्या हल जोतना है वहां?" बोले वो, हंस के!
"हमे क्या पता! हल के 'तल' !!" बोले अज़ीज़ साहब!
फिर से ठहाका गूंजा इस बार हमारा!
"तिल के लड्डू दो कपूर साहब को!" बोले शर्मा जी,
"क्यों?" बोले कपूर साहब,
''आपको ही पड़ेगी ज़रूरत गर्मी की!" बोले वो,
"बहुत गर्मी है जी!" बोले वो,
"बहुत लड्डू खाय दीखै हैं!" बोले शर्मा जी!
''अजी बहुत!" बोले वो,
"लड्डू छोडो, बाहर चलो!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"तो इस २५ को!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले कपूर साहब, शर्मा जी से,
"ठीक!" बोले वो,
"अज़ीज़?" पूछा उन्होंने,
"ठीक!" बोले वो,
"तो तय रही फिर!" बोले कपूर साहब!
"बढ़िया!" कहा मैंने,
"और क्या, ज़रा सर्दी के मजे दिलवाऊं!" बोले कपूर साहब!
"मजे लेना आप! हम तो ताप ही लेंगे!" बोले शर्मा जी,
"तापो, या पाथो!" बोले वो,
हंसी फिर से गूंजी!
चाय हुई खत्म, प्रोग्राम हुआ तय! आये बाहर, पैसे चुकाए, और आ बैठे गाड़ी में, गाड़ी लगाई अब कतार में और फिर से, वही सफर शुरू!
अब पच्चीस आने में छह दिन बाकी थे! आज उन्नीस थी! तो जी किसी तरह हम अपने अपने घर पहुंचे! और फिर उसके बाद, दो तीन बाद, फिर से मिले, पच्चीस तारीख को निकलना था, तैयारी कोई ख़ास तो करनी नहीं थी! दो चार गरम कपड़े और कुछ ज़रूरत की चीज़ें! तो तैयार कर ली थीं! इस तरह हम, पच्चीस तारीख को, रवाना हो गए, करीब ग्यारह बजे! अब कोहरा तो था ही, सर्दी जानलेवा! कहीं रास्ते में ही कुछ मसालेदार सा खाना लेना था, तभी ध्यान आया कि ये लाइन तो सारी 'घासाहारी' है! तो जी, दिल्ली से ही पैक करवा लिया था हमने अपना सामान! और चल पड़े, थोड़ा बहुत खा लिया था, और फिर, चल पड़े हम आगे के लिए! यातायात बड़ा ही सुस्त था, दिल्ली से करीब दो सौ इकहत्तर किलोमीटर पड़ता है नाभा, छह घंटे से ज़्यादा लग गए थे, वो तो अज़ीज़ साहब गाड़ी बड़ी ले आये थे, इसीलिए पाँव पसार लेते थे हम! खाते-पीते हम आखिर हम ७ बजे वहां जा पहुंचे! हमारा इंतज़ाम पहले ही करवा दिया था कपूर साहब ने! अभी कपूर साहब का जो पुश्तैनी आवास था, वो दूर था, वहां के लिए, सुबह ही निकलते, रात को, हम नाभा में ही रुक गए थे! सर्दी ऐसी कि हाड़ कंपा दे! वो तो जाड़ा-हरण बूटी साथ लाये थे, इसीलिए गर्माइश ले लिया करते थे! सारा दिन से चले चले, और एक ही जगह बैठे बैठे अकड़न-जकड़न सभी हावी हो चली थीं! गरम जैकेट भी ठंडी पड़ने लगती थी खुले में तो! तो उस रात तो कमर उठा के सोये हम! सोये तो सुबह आराम से उठे! जब उठे तो बाहर शीत-लहर का प्रकोप था! रात में बरसात हुई थी और इस वजह से कोहरा तो छंट गया था लेकिन ठंड ऐसी कि देह में से आर-पार हो जाए! तीर से चुभते थे! गरम अपनी से नहाये-धोये और फारिग हुए, चाय-नाश्ता किया, बाहर बारिश पड़ने लगी थी! एक तो ठंड, ऊपर से बारिश! जन-जीवन पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त तो होना ही था! सो हुआ ही! बारह के करीब भोजन किया! और फिर आराम!
"कपूर साहब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, बड़े बाबू!" बोले कपूर साहब,
''ऐसे ही करवाओगे?" बोले वो,
"ना! अब बारिश है!" बोले वो,
"हाँ!" बोले वो,
"हुक्म करो?" बोले वो,
"कितनी दूर जाना है और?'' पूछा उन्होंने,
"पचास के आसपास!" बोले वो,
"दो घंटे?'' बोले वो,
"हाँ, कम से कम!" बोले वो,
"बहुत बढ़िया!" बोले शर्मा जी!
"ठंड लग रही है?'' पूछा उन्होंने,
"आपको नहीं लग रही?" बोले वो,
"किसको नहीं लग रही!" बोले वो,
"ना, आपको न लग रही हो कहीं?" बोले वो,
"पूछो ही मत!" बोले वो,
"रुकने दो बारिश फिर!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"गोल-बोटी मगवाऊँ?" पूछा कपूर साहब ने!
"ना जी!" बोले शर्मा जी,
मैं और अज़ीज़ साहब हँसे ये सुन कर!
"कैसे? मामला तो ठीक-ठाक है?'' पूछा कपूर साहब ने,
"सब ठीक है!" बोले वो,
''तो मना क्यों करे हो!" बोले वो,
"रहम करो यार!" बोले शर्मा जी,
"लो जी! हमने क्या गलत कही?'' बोले वो,
"गलत थोड़े कही?'' बोले वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"सर्दी के जुगाड़ बताया मैंने तो?'' बोले वो,
"आप ही कर लो जुगाड़!" बोले शर्मा जी,
"हम तो कर ही लेंगे!" बोले वो,
''आपका शहर है साहब!" बोले वो,
"ये तो है ही!" बोले वो,
तभी चाय ले आया, एक लड़का!
"लाओ यार!" बोले कपूर साहब!
और केतली से, सभी के कप में चाय उड़ेल दी उन्होंने!
"ऐसे ही बारिश होती है यहां?" पूछा अज़ीज़ साहब ने,
"हाँ, होती तो है!" बोले वो,
"हाड़-जाम सर्दी है!" बोले वो,
"ऐसी ही पड़ती है यहां!" बोले कपूर साहब!
"अब कपूर साहब ने तो खूब तिल के लड्डू पेले हैं!" बोले शर्मा जी!
''आप लोगे? सेर सेर के लड्डू?" बोले वो,
मेरे मुंह से चाय निकलते निकलते बची! अज़ीज़ साहब कप उठा कर, दौड़े आगे! और वो दोनों हंस हंस के ढेर!
''शर्मा जी?" बोला मैं,
"आप भी कहो?" बोले वो,
"अरे ले लो, सेर सेर भर के लड्डू!" कहा मैंने,
''आप क्यों न लो?" बोले वो,
"मैं क्या करूंगा!" कहा मैंने,
"जो कपूर साहब करते हैं!" बोले वो,
"ना, उनका सिस्टम तो पुराना है, रवां हुआ, हुआ!" कहा मैंने,
"क्यों? आपकी गरारी फेल हो जाएगी?" बोले वो!
सभी की हंसी छूटी! मेरी भी!
''गरारी क्यों होगी फेल?" बोले अज़ीज़ साहब!
"सेर सेर भर के लड्डू खाओगे तो कुछ तो फेल होगा?" बोले वो,
"अपनी बताओ?" बोले कपूर साहब,
"क्या बताऊँ?" बोले वो,
"बोलो? पटे-कमानी तो ठीक हैं?" बोले वो, जांघ पर हाथ मारते हुए शर्मा जी की!
"मेरी छोडो! अपनी बताओ!" बोले वो,
"हम तो टिंच हैं!" बोले वो,
"टिंच ही रहो!" बोले वो,
"आपका हवा-पानी ठीक है?' पूछा उन्होंने,
"मेरे पीछे क्यों पड़े हो?" बोले वो,
"मेहमान न हो?'' बोले वो,
"तो लड्डू खिलाओगे?'' बोले वो,
"और क्या खाओगे? पतीसा?' बोले कपूर साहब!
हमारी हुई हालत खराब इस बात पर, जैसे ही सुना!
"कपूर साहब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, बोलो!" बोले वो,
"मिठाई की दुकान थी क्या?'' पूछा उन्होंने,
"अजी गोदाम!" बोले वो,
"तभी खूब पतीसे उड़ाए हैं!" बोले वो,
"खूब! मन मन भर के!" बोले वो,
मैं तो उठ खड़ा हुआ! दोनों में जम के लगी थी!
''आप बताओ? नमकीन खाओगे?'' बोले कपूर साहब!
"मैं न खाऊं कुछ भी!" बोले शर्मा जी!
"वैसे, समोसा बड़ा अच्छा होता है यहां का!" बोले कपूर साहब!
अब भागे मैं और अज़ीज़ साहब बाहर! अपने अपने कप उठा कर, अंदर कमरे से हंसी-ठिठोली की आवाज़ गूंजी!
"कोई कम न है!" बोले अज़ीज़ साहब!
"देख लो!" कहा मैंने,
अंदर से आई आवाज़, बुलाया था हमें, हम आये अंदर! और जा बैठे! लेकिन सोच सोच के, अभी तक पसलियां चढ़े जा रही थीं!
"हाँ जी, बड़े बाबू! मंगवाऊँ गरमा-गरम समोसे?'' बोले कपूर साहब!
"अरे! हम तो रोटी खाने वाले आदमी हैं यार!" बोले शर्मा जी,
"लो! तो बोलो! मंगवाऊँ फुलैरा-रोटी?" बोले वो,
हंसी का ठहाका गूंजा! मैं और अज़ीज़ साहब तो हंस हंस के हुए बेहाल!
"कपूर साहब?" बोले अज़ीज़!
"ये कौन सी रोटी हो? फुलैरा?" पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"दोनों तरफ से फूली हुई!" बोले कपूर साहब!
उन्होंने बोला और हम हंस हंस के हुए दुल्लर-तिहल्लर! शर्मा जी भी हंस हंस के बेहाल! और कपूर साहब भी!
"अरे बस यार! बस!" बोला मैं,
"बस साहब बस! नहीं हम हो जाएंगे फुलैरा!" बोले अज़ीज़ साहब!
"है? बोलो शर्मा जी?" बोले कोंचते हुए कपूर साहब, शर्मा जी को!
"आप ही खाओ, फुलैरा-तिलैरा! हम ऐसे ही भले!" बोले वो,
"ऐसे थोड़े ही जाने देंगे!" बोले कपूर साहब!
"अब ये तिलैरा क्या हो?" पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"बड़े बाबू ने खायी तो होगी, बताओ बड़े बाबू?" बोले कपूर साहब!
हम फिर से हंस के बेहाल!
"मैं न खाऊं कुछ भी!" बोले शर्मा जी!
"बाम मंगा दूँ?" बोले कपूर साहब!
"बाम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, बाम?" बोले वो,
"लगाने वाला?" पूछा उन्होंने,
"खाने वाला तो मिलता नहीं है यहां! तुम्हारी साइड मिलता हो, तो खिलाओ कभी!" बोले कपूर साहब!
हम फिर से फट के पड़े! पेट फट जाता अब बस थोड़ी देर में ही!
"मंगवाऊँ?" बोले कपूर साहब!
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"बड़े बाबू लगाएंगे ना?'' बोले वो,
"क्यों?" बोला मैं,
मैं जानता था, फिर से हंसी का कोई विस्फोट होने वाला है! इसीलिए तैयार था मैं!
"हाँ, बड़े बाबू? लगाओगे ना?" बोले वो,
"मैं क्यों लगाउँगा?'' बोले शर्मा जी,
"अब हम तो लगाएंगे नहीं आपके?" बोले वो,
मेरी हंसी निकली अब, धीरे धीरे, विकराल रूप धारण करने ही वाली थी, बस कुछ ही देर में, अज़ीज़ साहब भी तैयार थे!
"आम-बाम लगाओ आप!" बोले शर्मा जी, हंस कर!
"हाँ! आम! आम भी खिला देंगे! कहते जाओ बस!" बोले कपूर साहब!
"इस मौसम में आम?" पूछा मैंने,
"चौबीसों घंटे! बड़े बाबू जी के लिए!" बोले वो,
''सीताफल के बराबर के आम?" बोले अज़ीज़ साहब!
और मैं उठा! हटा वहां से, अज़ीज़ साहब भी!
"हाँ, सीताफल के बराबर के भी मिल जाएंगे!" बोले वो,
और फिर से विस्फोट हुआ! भयंकर इस बार तो! शर्मा जी तो हँसते हुए पीछे ही लुढ़क गए बिस्तर पर!
"अरे! अरे!" बोले शर्मा जी!
"हाँ जी?" बोले कपूर साहब!
"बहन**! एक बात तो बताओ! कोई चीज़ यहां छोटी मिले है या नहीं?" बोले वो,
"न! सब ओवर-साइज़ मिले हैं! बोलो? मंगवाऊँ?" बोले कपूर साहब!
"बस यार बस! हा! हा! हा! ओवर-साइज़!" कहा मैंने,
"अरे हाँ, वो बाम?" बोले अज़ीज़ साहब!
''वो तो हाँ कह दी बड़े बाबू ने!" बोले वो,
"बाम लगाओ आप!" बोले शर्मा जी,
"ना!" बोले वो,
"क्यों?" बोले वो,
"हम तिल के लड्डू खाते हैं!" बोले वो,
"तो जी, हम भी खा लेंगे!" बोले शर्मा जी!
"ये हुई न बात!" बोले वो,
"देखो यार, बारिश हुई बंद या नहीं?" बोले वो,
मैं उठा, खिड़की से झाँका बाहर, हो रही थी अभी भी! आया वापिस!
"हो रही है!" कहा मैंने,
"क्या परेशानी है?'' बोले कपूर साहब!
"कोई ना?" बोले शर्मा जी,
"जगह अपनी, दिन अपना, रात अपनी! फिर?'' बोले वो,
"कोई बात ही नहीं!" बोले शर्मा जी,
"और सुनाओ बड़े बाबू!" बोले वो,
"मेरे पीछे क्यों पड़े हो?" बोले वो,
"आप बुज़ुर्ग हैं!" बोले कपूर साहब!
"आप ना हो?" बोले वो,
"अजी आपके सामने कहाँ?" बोले वो,
"हाँ, ये तिल के लड्डू बोल रहे हैं!" बोले वो,
"आप खाओ, तो भी बोलेंगे!" बोले वो,
"अच्छा, प्रोग्राम क्या है?'' पूछा मैंने,
"बड़े बाबू बताएंगे?" बोले वो,
"बड़े बाबू क्या नेल्सन मंडेला के जंवाई हैं?'' बोले शर्मा जी!
और हमारी हंसी फूटी!
"ओहो!" बोले कपूर साहब!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"ओहो जी!" बोले वो,
"हुआ क्या?" पूछा मैंने,
"पहले क्यों न बताई?" बोले कपूर साहब!
"क्या?" पूछा शर्मा जी ने,
"कि कमी है?" बोले वो,
"कैसी कमी?'' पूछा मैंने,
"ब्लैक-ब्यूटी की!" बोले वो,
पहले तो मुझे समझ नहीं आई! और जब आई, तो मत पूछो क्या हाल हुआ! मेरे तो हलक से शब्द ही बाहर न निकले! और जब मैंने बताई सभी को, तो हँसते हँसते हुए घायल हम सब!
"बहुत रंगीन मिज़ाज हो आप तो!" बोले शर्मा जी,
"पहले बताते! तो ले आते!" कहा उन्होंने,
"छोडो, बस!" कहा मैंने,
"बड़े बाबू!" बोले वो,
"हाँ?" बोले शर्मा जी,
"फिर तो घोड़ा-पछाड़ रम मंगवानी पड़ती!" बोले कपूर साहब!
और मैं, अज़ीज़, आपस में गुत्था हो, हँसते ही चले गए! अब तो जान पर बनी थी जैसे! घोड़ा-पछाड़ रम!
"बड़े बाबू! छुपे रुस्तम हो आप तो! शौक़ ही निराले हैं आपके तो!" बोले कपूर साहब, हँसते हुए!
"बस जी बस! अब नहीं बस!" बोले अज़ीज़ साहब!
"मान गए बड़े बाबू! हम तो कहते हैं हम जी अजीब हैं, आप तो अजीबोगरीब हैं!" बोले कपूर साहब!
"बस कपूर साहब, नहीं तो उठ भी नहीं पाएंगे!" कहा मैंने, पेट पकड़ते हुए!
"कपूर साहब, वो बाम दे देना, आज तो पेट पर लगाना पड़ेगा!" बोले अज़ीज़ साहब!
"ना! वो बड़े बाबू जी के लिए है!" बोले वो,
"अब जो घोड़ा-पछाड़ रम झेल लेता हो, उसके भला बाम की क्या ज़रूरत!" बोले अज़ीज़ साहब!
"हाँ! ये भी है!" बोले वो,
फिर से हंसी छूटी हम सभी की! बाहर गरजे बादल!
शाम हुई, सोया-चांप मंगवा ली थीं, साथ में फौजी लाल पानी! दमदार चीज़ थी! गरमी आ गयी थी! खूब हंसी-मज़ाक हुआ! खाना-पीना निबटाया और फिर सो ही गए! रात भर बारिश की टिप-टिप सुनाई देती ही रही! सुबह हुई तो मौसम खुला सा लगा! हालांकि सूरज महाराज से जो अक्सर गुप्त-संधि हो जाती है सर्दी की, वही नुमाया थी! सर्दी तो बेहिसाब थी, परिंदों ने भी अभी तक अपना बसेरा न छोड़ा था, हाँ हमारे कमरों की खिड़की पर रखे तो बसेरे कबूतरों ने कब्ज़ा लिए थे, वहां कबूतर ज़रूर अपनी प्रेयसि कबूतरी को बार बार जगा देता था गुटर-गूं-गुटर-गूं कर! कबूतरी अपने पंख फ़ड़फ़ड़ा कर, धमका दिया करती थी! अब राम ही जाने कौन क़िस्मत वाला था और कौन क़िस्मत को कोस रहा था, या कोसा था रात भर!
सुबह फारिग हो, इत्मीनान से चाय-नाश्ता किया! चाय-नाश्ते में आलू-पूरी, कचौरी उड़द की दाल की और पकौड़ियाँ लायी गयी थीं! शानदार नाश्ता किया था हमने!
"आज तो मौसम बढ़िया है!" कहा मैंने,
"हाँ, बारिश नहीं है!" बोले शर्मा जी,
"तो क्या बोलते हो?" बोला मैं,
"खाने के बाद, निकल चलते हैं?'' बोले कपूर साहब!
"हाँ, ये ठीक है!" कहा मैंने,
"वहां भी क्या कमरे में ही रहना है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"ना! स्वीमिंग-पूल में तैरोगे?'' बोले कपूर साहब!
हंसी छूटी मेरी! अज़ीज़ साहब के मुंह में कचौरी अटकी!
"मरवाओगे क्या?'' बोले शर्मा जी,
"तो?" बोले वो,
"मैंने पूछी वहां भी ऐसे ही रहना पड़ेगा?" बोले वो,
"मौसम साफ़ है! खिला देंगे फुटबॉल!" बोले कपूर साहब!
"फुटबॉल?'' बोले अज़ीज़ साहब!
"हाँ जी!" बोले वो,
"लेकिन शर्मा जी तो टेनिस खेलते हैं!" बोले अज़ीज़ साहब!
"अच्छा? मैंने तो सोची थी, कंचे खेलते हैं!" बोले वो,
हंसी छूट पड़ी फिर से!
"तुम फिर से शुरू हो गए?'' बोले शर्मा जी!
"अरे कहाँ जी!" बोले वो,
"काम की बात करो!" बोले वो,
"काम की ही तो बात कर रहा हूँ!" कहा उन्होंने,
"कपूर साहब? कौन सा काम?" पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"बड़े बाबू सब जानते हैं!" बोले वो,
"बड़े बाबू की तो इज़्ज़त ही उतार दी!" बोले शर्मा जी,
"हमारी क्या बिसात!" बोले कपूर साहब!
"काम की बात करो? कहाँ चलना है?" बोले वो,
''आपको कहीं नहीं चलना काम के लिए, कहा तो!" बोले वो,
"हाँ जी?" बोले मुझ से वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"इनके मग़ज़ में गरमी चढ़ गयी है ज़्यादा!" बोले शर्मा जी!
''हमारी छोडो! हमारे तो मग़ज़ में ही चढ़ी है! आपका तो गियर-बॉक्स फेल है गर्मी से! कूलैंट चाहिए!" बोले वो,
हंसी का फव्वारा फूटा! मेरा फिर से पेट दुखना शुरू हुआ!
"हद है यार!" बोले शर्मा जी!
''अच्छा सुनो!" बोले कपूर साहब!
"हाँ, सुनाओ?'' बोले वो,
"मौसम साफ़ रहा, तो आज जंगली माल!" बोले वो,
"जंगली माल? वो कैसा हो?" पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"रै अज़्ज़ू! अब बोलूंगा न! तो भागेगा तू फिर!" बोले कपूर साहब!
"ना! फिर तो न ही बोलो!" बोले हँसते हुए वो!
"तूने क्या सोची? बड़े बाबू और आदिवासन?" छोड़ा पटाखा उन्होंने!
अब तो हंसी का गोदाम खुला! शर्मा जी भी हंस पड़े!
"जंगली माल मायने शिकार!" बोले वो,
"अच्छा!" बोले अज़ीज़ साहब!
"क्या मिले हैं इधर?" पूछा शर्मा जी ने,
"सबकुछ! हुक्म करो!" बोले वो,
"यार, तुम तो हद ही करो हो!" बोले वो,
"आपका ख्याल रखना होता है जी!" बोले वो,
"अच्छा ख़याल है!" बोले वो,
"इसीलिए!" बोले वो,
"फिर तो बढ़िया रहेगा!" कहा मैंने,
"हाँ, कड़ाही अज़ीज़ मियाँ चढ़ा ही देंगे!" बोले वो,
"अजी पक्का!" बोले अज़ीज़ साहब!
"तो जंगल में मंगल!" बोले शर्मा जी!
"ये मंगल क्या बड़े बाबू? दंगल?" बोले कपूर साहब!
हम फिर से हँसे! कपूर साहब खुल के पड़े थे पीछे शर्मा जी के! कोई बात नहीं चूकते थे!
"जंगल में दंगल!" बोला मैं,
''और क्या!" बोले कपूर साहब!
"बढ़िया जी!" कहा मैंने,
"बड़े बाबू?" बोले कपूर साहब,
"बोलो साहब?" बोले वो,
"राइफल चला लोगे के हाथ काँपै?'' बोले कपूर साहब!
"चला ही लेंगे!" बोले वो,
"फिर क्या!" बोले वो,
"एक और हो जाएगा साथ हमारे!" बोले वो,
''बढ़िया साहब!" कहा मैंने,
''अज़ीज़?" बोले कपूर साहब!
"जी?" बोले वो,
"याद है, नंगल?" बोले वो,
अज़ीज़ साहब हंस पड़े!
"याद है?'' बोले वो,
"हाँ, याद है!" बोले वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"अरे उस दिन तो बच गए!" बोले वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"शिकार पर ही गए थे, शिकार मिला नहीं!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"सोचा मच्छी ही मार लें!" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"गए थे उधर! चार का वक़्त होगा!" बोले वो,
''अच्छा, फिर?'' पूछा मैंने,
"लोग तो और भी थे वहां, लेकिन हमने सोची, थोड़ा अलग जाकर, मारें मच्छी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो मैं, अज़ीज़, और एक और था हरिहरन, फिरोज़पुर का है वो, तो हम बैठ गए एक जगह! एक पेड़ के पास!" बोले वो,
"डोरी डाले हुए?' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मच्छी तो खैर क्या फंसी!" बोले वो,
"तो क्या फंसा?" पूछा मैंने,
"एक सांप, बड़ा सा, काला-पीला! साला दो मीटर लम्बा! अब जैसे ही देखा, हम में मच गयी भगदड़!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! शर्मा जी भी!
"फिर?'' पूछा शर्मा जी ने,
'फिर क्या! कपूर साहब राइफलें ले कर, लगाने लगे निशाना! वो जब भी भागने को हो, निशाना ही न बंधे! पता चला, गोली ही न डाली थी! पिट-पिट दबाये जा रहे थे! जब देखा है नहीं, तो हरिहरन को दे दी राइफल!" बोले वो,
हम हंस पड़े सभी!
"फिर?'' पूछा मैंने,
"फिर क्या! छोड़ आये साले को वहीँ!" बोले कपूर साहब!
''अरे जाओ यार!" बोले शर्मा जी!
"तो क्या करते? अजगर जैसा था वो!" बोले वो,
"है जाओ?" बोले वो,
"अच्छा? सामने आ जाता तो बड़े बाबू भाग ही जाते आप!" बोले वो,
"अब कड़ाही चढ़ानी ही थी, तो जी, खरीद के ले आये! ये रहा शिकार हमारा!" बोले अज़ीज़ साहब!
"बढ़िया किया!" कहा मैंने,
"है जाओ यार! सांप से डर गए!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, डर गए!" बोले कपूर साहब!
"बात करते हो, फुटबॉल की!" बोले शर्मा जी,
"वो सांप था, फुटबॉल नहीं!" बोले कपूर साहब!
"है? जाओ यार!" बोले वो,
"तुम्हें देख लेंगे!" बोले वो,
"क्या?'' बोले वो,
"केंचुआ देख न उछल जाओ?" बोले वो,
"कपूर साहब? केंचुए भी ओवर-साइज़ हैं क्या यहां?'' पूछा मैंने हँसते हुए!
"हाँ! सांप जैसे!" बोले शर्मा जी!
"बाम लगाया दीखै?" बोले कपूर साहब!
"मैं क्यों लगाउँगा! मैं कोई सांप से डरता हूँ!" बोले वो,
"कह लो! कह लो बड़े बाबू! बता देंगे!" कहा उन्होंने,
"अजी बता देंगे!" बोले वो,
और मज़ाक चलता रहा! बातें होती रहीं! जंगल की, मंगल की! दंगल की! आदि आदि! फिर किया भोजन और और थोड़ा आराम! अज़ीज़ साहब, गाड़ी चैक कर आये थे, सब ठीक-ठाक था! तो हम करीब ढाई बजे, वहां से, चल पड़े! अब जाना था पैतृक आवास कपूर साहब के! यहां उनके छोटे भाई और चाचा जी के लड़के रहते थे! संयुक्त-परिवार है! आपसी प्रेम है! अच्छा लगता है, संयुक्त परिवार! परन्तु अब तो एकल का ही युग है! अपना ही पूरा हो जाये तो गनीमत मानो!
तो हम उस रास्ते पर बढ़ते चले गए! रास्ता था तो ठीक, लेकिन बारिश ने जैसे उसके पैबंद उधेड़ दिए थे जगह जगह! अब गड्ढे भी खुल गए थे, जैसे दूसरी गाड़ियां हिचकोले खातीं, वैसे हम भी खाते! फिर भी हिलते हिलाते, हम जा ही पहुंचे!
बढ़िया जगह थी ये! एकदम खुली सी! शानदार! प्रकृति के नज़दीक! खुली-हरियाली भरी! उनके यहां पहुंचे, खबर तो पहले से ही थी, फ़ोन भी आ रहे थे! उनके भाई के लड़के लेने भी आ गए थे हमें, दूसरे रास्ते से ले जाने वाले थे, मुख्य रास्ते पर काम ज़ारी था, कोई परेशानी न हो, इसीलिए आ गए थे!
तो हमें हाथ-मुंह धोये, सर्दी का जमाल तो था ही, हाँ, बारिश नहीं थी, यही सबसे अच्छी बात थी! नहीं तो फिर से क़ैद ही हो कर रहना पड़ता दीवारों के बीच! उसके बाद, हम दूसरी मंजिल पर बने कमरों में आ गए, यहीं इंतज़ाम किया गया था हमारा! मकान काफी खुले खुले और बड़े बड़े थे! लगता था जैसे हर घर में बाग़-बगीचा हो!
"खेती होती है यहां?" पूछा मैंने,
"बहुत!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस तरफ हैं वो खेत" बोले वो,
"यहां कुछ पुरानी सी इमारतें भी हैं?" मैंने कहा, एक तरफ देख कर,
''हाँ जी!" बोले वो,
"इतिहास रहा है इसका भी!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, होगा!" कहा मैंने,
"रहा है जी!" बोले कपूर साहब!
"जगह तो अच्छी लग रही है!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छी है!" बोले अज़ीज़ साहब!
"शान्ति पसरी है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले वो,
"अच्छा है, शहरों में तो बुरा ही हाल है!" बोले वो,
"बहुत बुरा!" कहा मैंने,
"हाँ, आजकल तो दमघोंटू माहौल है!" बोले शर्मा जी,
"सही बात है!" कहा मैंने,
"रहने का असली मजा वैसे ऐसी ही जगह है!" बोले वो,
''सो तो है ही!" बोले वो,
"आधी बीमारियां तो वैसे ही खत्म हो जाएँ!" बोले अज़ीज़ साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी चाय लायी गयी, साथ में कुछ खाने के लिए भी! तो हम कमरे में आ गए, अब बाहर वैसे भी धुंधलका छाने लगा था! अब कहीं निकला तो जा नहीं सकता था, सर्दी बेहिसाब ही पड़ रही थी, बस शीत-लहर नहीं चल रही थी, ये शुक्र था!
रात करीब आठ बजे, हम खा-पी रहे थे, सामान लाया जा रहा था, गर्मागर्म, मसालेदार सामान! ताज़ा ही मिलता है यहां अक्सर तो मजा भी दोगुना हो जाता है! यहां का मुर्गा देख कर तो लगता है की जो हम शहर में खाते हैं, वो सभी कुपोषण के शिकार हैं या पोलिओग्रस्त हैं! यहां की तो बात ही अलग थी! और वैसे भी कपूर साहब का परिवार, कुनबा फौजी ही रहा है, तो खाने-पीने के शौक़ीन तो हैं ही!
तभी एक लड़का आया अंदर! सामान रखा उसने, लौटने लगा वो तो कपूर साहब ने रोका उसे,
"जीते?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"कमल कहाँ है?'' पूछा उन्होंने,
"नीचे है" बोला वो,
"क्या कर रहा है?" पूछा उन्होंने,
"लेटा है जी!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा उस से,
"बुखार है जी!" बोला वो,
"कब से?'' पूछा उन्होंने,
"दो दिन हो गए" बोला वो,
"देख, बोल उसे, आये ज़रा यहां?" बोले वो,
''अभी जी" बोला वो, और चला गया,
और हम फिर हो गए शुरू! कुछ ही देर में, सर पर मफलर बांधे, शॉल ओढ़े, एक तीस साल के आसपास का युवक आया अंदर! नमस्कार की उसने, और दरवाज़ा बंद कर, बैठ गए कुर्सी पर!
"क्या हो गया तुझे?'' पूछा उन्होंने,
"बुखार, खांसी!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
"ठंड लग गयी!" बोला वो,
"गया था कहीं?" पूछा उस से,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
"भीग गया था" बोला वो,
''अच्छा, तो कड़क पानी नहीं लिया?'' पूछा उन्होंने,
"लिया था!" बोला हँसते हुए वो,
"कैसा जवान है यार!" बोले वो,
"अब क्या कहूँ!" बोला वो,
"तेरी उम्र में, दो डुब्बक में पार करते थे टोंस हम!" बोले वो,
"अजी आपके क्या कहने!" बोले शर्मा जी!
''और ये, ये तो अंदर ही अंदर पार कर लें, आज भी!" बोले शर्मा जी की तरफ इशारा करते हुए!
मैं हंस पड़ा! शर्मा जी भी! कमल भी हंस दिया!
"ये पक्के खिलाड़ी हैं यार!" बोले कपूर साहब!
"खिलाड़ी?' बोला कमल,
"हाँ, खिलाड़ी!" बोले वो,
"किसके खिलाड़ी?" पूछा उसने,
"जिसमे तो फेल है!" बोले वो,
कमल समझा नहीं! और हम हंस पड़े!
"कपूर साहब, लड़का है वो!" बोले वो,
"तो?" बोले वो,
"समझा करो?'' बोले वो,
"तभी तो समझा रहा हूँ?" बोले वो,
"ठीक!" बोले शर्मा जी,
"और वो तेरा दोस्त अरविंदर कहाँ है?" पूछा उस से,
"उसका एक्सीडेंट हो गया जी" बोला वो,
"एक्सीडेंट?" पूछा कपूर साहब ने,
"हाँ जी" बोला कमल,
"ज़िंदा है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी" बोला वो,
"अरे?'' बोले वो,
"पेड़ में दे मारी गाड़ी उसने" बोला वो,
"कैसे? नशे में था क्या?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं जी" बोला वो,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
"वहां तो रोज से ही होते हैं एक्सीडेंट" बोला वो,
"कब से?'' पूछा उन्होंने,
"साल भर हो गया होगा?'' बोला वो,
''और कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"वो हवेली नहीं है?'' बोला वो,
"अच्छा? पुरानी वाली?" बोले वो,
"हाँ, वही!" बोला वो,
"अच्छा?'' बोले वो,
"हाँ" कहा उसने,
"कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"होगा कोई दस बारह किलोमीटर" बोले वो,
"कोई खबर मिली?'' पूछा उन्होंने,
"यूँ कहते हैं कि नज़र आता है कोई?" बोला वो,
"कौन?" पूछा उन्होंने,
"ये नहीं पता, कोई कुछ और कोई कुछ कहता है!" बोला वो,
"यहां किसी ने देखा?" पूछा उन्होंने,
"करन ने देखा था कुछ" बोला वो,
"कौन करन?'' पूछा उन्होंने,
"वो, माधो ताऊ का लड़का?'' बोले वो,
''अच्छा, बुला है तो?'' बोले वो,
"पता करता हूँ" बोला वो,
उठा वो, और चला गया बाहर!
"कहाँ है ये हवेली?'' पूछा मैंने,
"अधिक दूर नहीं है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
हम फिर से शुरू हो गए अपने अपने क्रिया-कलाप में!
"वैसे यहां है तो बहुत कुछ ऐसा!" बोले कपूर साहब,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, अब ये तो हर जगह ही होता है!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
कुछ देर बाद, करन आ गया! पच्चीस साल का लड़का होगा वो, हंसमुख लगता था, कपूर साहब के पाँव छुए, शर्मा जी के भी!
"बैठ बेटे!" बोले कपूर साहब,
बैठ गया करन!
"सुना है, कमल ने बताया कि अरविंदर का एक्सीडेंट हो गया?'' बोले वो,
"हाँ जी" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा उन्होंने,
"गाड़ी मार दी पेड़ में" बोला वो,
"टक्कर हुई थी क्या?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी" बोला वो,
"गड्ढा था कोई?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी" बोला वो,
"फिसल गयी? बैलेंस गड़बड़ाया?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं जी" बोला वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"पुलिस को तो कुछ न मिला" बोला वो,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
"उसे भी कुछ दिखा होगा!" बोला वो,
"दिखा होगा?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ जी, दीखता है वहां कुछ" बोले वो,
"क्या?'' पूछा उन्होंने,
"बताता हूँ" बोला वो,
"तुझे कुछ दिखा?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"बता?'' बोले वो,
"मैं और वो, मदना नही है?" बोला वो,
"हाँ?" बोले वो,
"रात को आ रहे थे हम वहां से" बोला वो,
"गाड़ी में?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" बोला वो,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
"जैसे ही आगे गए उस हवेली के पास से, तभी एक आवाज़ सी सुनाई दी!" बोला वो,
"कैसी आवाज़?" पूछा उन्होंने,
"जैसे, कोई चीखा हो" बोला वो,
''आदमी या औरत?" पूछा उन्होंने,
''औरत" बोला वो,
"चीख कैसी थी?" पूछा मैंने,
"जैसे डर गयी हो" बोला वो,
"अच्छा, फिर?'' पूछा मैंने,
"आवाज़ हमने सुनी तो देखा पीछे!" बोला वो,
"पीछे से आई थी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
''अच्छा" कहा मैंने,
"हमने गाड़ी रोक ली, देखें, क्या मामला है, कोई बदतमीज़ी तो नहीं कर रहा किसी के साथ?" बोला वो,
''अच्छा, फिर?'' पूछा मैंने,
"रुक गए हम, खड़े रहे" बोला वो,
"हम्म" कहा मैंने,
"तो जी, कोई आवाज़ नहीं फिर" बोला वो,
''अच्छा, कितनी देर रुके?'' पूछा मैंने,
"करीब पांच-सात मिनट" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो जी, हम फिर से चले आगे!" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"करीब दस मिनट के बाद, फिर से वैसी आवाज़, इस बार दो बार!" बोला वो,
"फिर से रुके?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
''फिर?'' पूछा मैंने,
"आसपास देखा, पीछे देखा, कोई नहीं!" बोला वो,
"अच्छा, क्या बजा होगा?" पूछा मैंने,
"सात बज रहे होंगे" बोला वो,
"गर्मी थी?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी, जुलाई थी" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"जब कुछ न दिखा, तो फिर से चले हम आगे!" कहा उसने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"फिर से आवाज़ आई!" बोला वो,
"वैसी ही?" पूछा मैंने,
"हाँ, वैसी ही जी!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"रुक गए हम फिर!" बोला वो,
"वहीँ?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" कहा उसने,
"अच्छा, आगे?' पूछा मैंने,
"मदना ने कहा कि पीछे चल कर देख लेते हैं!" बोला वो,
"गए पीछे?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"दिखा कुछ?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
''फिर?'' कहा मैंने,
"हम वापिस हो लिए और तब...." बोला वो,
"क्या तब?" पूछा मैंने,
"हमारी बायीं तरफ, एक खुली सी जगह में, कोई भाग कर आ रहा था, चिल्लाता हुआ!" बोला वो,
"आदमी कोई?" पूछा मैंने,
"औरत! बाल खुले, खूनमखान!" बोला वो,
"ओह! फिर?'' पूछा मैंने,
"होश उड़ गए, हम भाग लिए!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"पीछे देखा, तो भागी आ रही थी वो, बीच सड़क में!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमने पूरी रफ़्तार पर भगा दी गाड़ी!" बोला वो,
"हो सकता है कोई ज़रूरतमंद ही हो?" पूछा मैंने,
"इंसान ऐसे नहीं भागता जी!" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"उड़ता सा!" बोला वो,
"उड़ रही थी वो?" पूछा मैंने,
"नहीं जी! बहुत तेज! बहुत तेज भाग रही थी!" बोला वो,
"इसका मतलब, आपके अनुसार, वो प्रेत थी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, प्रेत!" बोला वो,
"ये सात के आसपास की बात है?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"सड़क सुनसान ही रहती है क्या?" पूछा मैंने,
''अक्सर!" बोला वो,
"मतलब यहां, इस ओर आने वाले या यहां से जाने वाले ही इस्तेमाल करते हैं?" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"कुल कितनी दुर्घटनाएं हुई होंगी?'' पूछा मैंने,
"करीब, साल भर में नौ या दस?" बोला वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
''सभी में मौतें हुईं?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं जी" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"करीब चार हुई होंगी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां का तो अब कोई जाता नहीं शाम के बाद वहां से" बोला वो,
"समझ गया" कहा मैंने,
"ज़्यादातर कब होती हैं?" पूछा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"मतलब, रात में या दिन में?'' पूछा मैंने,
"शाम के बाद" बोला वो,
"इसका मतलब, रात में ही सक्रिय है!" कहा मैंने,
"लगता तो यही है!" बोले शर्मा जी!
"अभी बजे नौ!" कहा मैंने,
"हाँ?' बोले शर्मा जी,
"चलें?" पूछा मैंने,
करन की उडी हवाइयां! घबरा ही गया वो!
"हाँ, कपूर साहब?" बोला मै,
"चलो जी!" बोले वो,
"अज़ीज़ साहब?" पूछा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"कुछ रखना है?'' बोले कपूर साहब,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"असलाह?" बोले वो,
"वहाँ ये असलाह काम नहीं करता!" बोले शर्मा जी,
"अरे खुला इलाका है, इसलिए!" बोले वो,
"हाँ, फिर रख लो!" कहा मैंने,
"करन?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"बिन्दर को बोल तैयार हो!" बोले वो,
"अभी बोलता हूँ जी!" बोला वो, उठा और चल दिया बाहर!
"ये भी देखें!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अज़ीज़ साहब!
"जिसको पतीसे पसंद हों, वो भला क्या करेगा!" बोले शर्मा जी,
"बड़े बाबू! हमारे बिना भटक जाओगे!" बोले वो,
"अरे हाँ जी!" बोले वो,
"तो हो जाओ तैयार!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
अब पहने होते अपने, पहनी टोपी, दस्ताने, जैकेट और हम निकल पड़े बाहर! बिन्दर नीचे ही मिले, कपूर साहब ने कुछ खुसर-फुसर की उस से, और हम गाड़ी में आ बैठे! कुछ देर में वे दोनों आ गए!
"टोर्च लाये हो?'' पूछा मैंने,
''अरे हाँ!" बोले वो,
उतरे बिन्दर, और चले वापिस!
आये तो दो टोर्च ले आये थे, टोर्च भी बढ़िया वाली थीं! चार्जिंग वाली, फुल-चार्जड!
"चलो जी!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले कपूर साहब!
उनको आगे बिठाया था, रास्ता बताने के लिए! बिन्दर साहब की हवा ज़रा टाइट थी, तो कपूर साहब ने हिम्मत बंधाई उनकी! और हम चल पड़े उस जगह के लिए! सड़क पर आये, तो इक्का-दुक्का वाहन दिखे! कोहरा फिर से फ़ैल गया था! दृश्यता कम ही थी, लेकिन फॉग-लाइट में दीख ही रहा था इतना तो!
"बिन्दर?'' बोले कपूर साहब,
"जी?" बोले वो,
"कुछ देखा उधर कभी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"सुना?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"भूत हैं उधर!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"रास्ते पर!" कहा मैंने,
"अच्छा! कितने?" पूछा शर्मा जी ने,
"ये नहीं पता जी!" बोले वो,
"किसने बताया?'' पूछा उन्होंने,
"करने ने!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"कई लोगों ने बताया!" बोले वो,
"कभी देखे हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"जो सामने आ जाए तो?'' पूछा अज़ीज़ साहब ने!
"क्यों डरा रहे हो!" बोले हँसते हुए!
''डर जाओगे?'' बोले वो,
"कौन नहीं डरेगा!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा अज़ीज़ साहब ने,
"गोली भी क्या बिगाड़ेगी उसका?'' बोले वो,
"ये तो है!" बोले वो,
"उठा कर, पटक और देगा!" बोले वो,
"हाँ, जान भी जा सकती है!" बोले अज़ीज़ साहब!
"यार, क्यों डरा रहे हो!" बोले वो!
"कुछ नहीं होगा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"गुरु जी हैं न?" बोले वो,
"तो ये तो एक को ही बचाएंगे ना?" बोले वो,
"वाहे गुरु!" बोले वो,
"हाँ!" बोले वो,
"मन रखो मज़बूत!" बोले वो,
"सीधा?" पूछा अज़ीज़ साहब ने,
"हाँ, सीधा!" बोले वो,
"यहां तो जंगल है?'' पूछा मैंने,
''हाँ जी!" बोले बिन्दर!
"हाँ!" कहा मैंने,
"माधो ताऊ बता रहे थे!" बोले बिन्दर,
"क्या?'' पूछा कपूर साहब ने,
"कि रोशनियाँ नाचती हैं यहां!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"जंगल में!" बोले वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
बिंदर साहब ने अभी रौशनियों की बात कही थी! ऐसा अक्सर सुनने में भी आता है, कि अमुक जगह पर रोशनियाँ देखी गयीं! देखी जाती हैं! आदि आदि! रौशनियों की दरअसल कई वजह हैं! कहीं भौगोलिक कारण हैं, भूगर्भ से निकलती गैसेस आदि! और कई जगह जल से निकलती गैसें! लेकिन इनमे कुछ फ़र्क़ हैं! प्रेतों में से जो रौशनी निकलती हैं, वो दूधिया चमक की होती हैं! ये रौशनी ऐसी तेज होती है कि आप उसमे सीधा नहीं देख सकते! देख भी लें तो आरपार नहीं देख पाएंगे! ये उनकी नैसर्गिक चमक हुआ करती हैं! आँखें चुंधिया जायेंगीं आपकी और सम्भव है आप कई घंटों तक नेत्रहीन सा भी महसूस करने लगें! प्रेतों की जो चमक होती है वो, एक जगह ही घूमा करती हैं, जैसे, चक्कर लगा रही हों! ये ऊपर-नीचे नहीं होतीं! हाँ, जब स्थान बदलती हैं तो हवा में ज़ोर से छलांग सी लगाती हैं! ऊपर की तरफ! छूने में ये काफी सर्द होती हैं! जैसे बर्फीली हवा का सा झोंका! आप यदि टकरा जाएँ तो जून की भरी दोपहरी में भी सर्दी का सा अनुभव करने लगेंगे! ये प्रेतों की है! जिन्नात में ये बेहद गरम हुआ करती है! जिन्न से यदि आप टकरा गए तो आप झुलस जाएंगे, चकत्ते पड़ जाएंगे, फफोले पड़ने लगेंगे! अमूमन जिन्न टकराते नहीं! वे हमेशा हवा में ऊँचा ही उठ कर बातें करते हैं या विचरण करते हैं! अब बाइंडर साहब ने जिन रौशनियों की बात की, वो असल में क्या थीं, इस बारे में मैं निश्चित रूप से नहीं कह सकता! सम्भव है, भूमि में, तैलीय स्थिति के कारण ऐसा हुआ हो, अक्सर, तेल हो, तो ऐसा होता है! उत्तर प्रदेश के एक गाँव में, सुना था मैंने, शामली की तरफ की, बोरवैल के बाद, कुछ दिनों तक, चिकना तरल निकला था! बाद में पानी ही सूख गया! एक और जगह के बारे में भी पढ़ा था, जहाँ ज़मीन में आग लग जाती हैं अपने आप! तो ये भौगोलिक कारणों से हुई थीं, इसमें किसी प्रेतादि का कोई लेना-देना नहीं था!
खैर, अब घटना...
"अभी और कितना?'' पूछा मैंने,
"रास्ता तो शुरू हो गया!" बोले कपूर साहब!
''और वो जगह कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"वो बस पास ही!" बोले वो,
"वहीँ चलो फिर!" कहा मैंने,
''हाँ, बस आगे ही है!" बोले वो,
तो हम चलते रहे उस रास्ते पर, बड़ा ही भयानक सा रास्ता है वो! दोनों तरफ पेड़, झाड़ियाँ और सुनसान! आदमी तो दिन में में डर जाए, अकेला सफर न करे इधर! कोई आम आदमी भी जा रहा हो सामने, तो वैसे ही लौट जाए तो छाती पर हाथ रख कर आगे बढ़े!
"अज़ीज़?" बोले वो,
"हाँ जी?' बोले वो,
"यहां, आगे, बस, लेफ्ट में, रुको!" बोले वो,
"यहां?" पूछा उन्होंने,
"थोड़ा आगे, हाँ, हाँ यहीं!" बोले वो,
रुक गयी गाड़ी, बत्तियां जली हुई थीं अभी तक! सामने कोहरा था घना! हवा में तैर रहा था!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
''आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और मैं उतर आया नीचे! जैसे ही उतरा, लगा हिमालय पर्वत पर खड़ा होऊं! रास्त भटक गया होऊं! ऐसी भयानक ठंड! कोहरा ऐसा, कि मुंह में घुसे! शर्मा जी भी आ गए! और साथ में कपूर साहब भी! फिर एक एक करके, सभी आ गए बाहर! सभी अलग अलग दिशाओं में देखने लगे!
"टोर्च?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले बिंदर!
दी मुझे टोर्च, मैंने जलायी! तो ऐसे जले, कि जैसे मोमबत्ती!
"भयानक ठंड है जी!" बोले कपूर साहब!
''हाँ!" कहा मैंने,
"यहां तो नज़र ही कुछ नहीं आ रहा!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा!" बोला मैं,
"बिंदर जी, अज़ीज़ साहब?" बोला मैं,
"हाँ जी" आगे आते हुए बोले वो,
"आप गाड़ी में बैठो?" कहा मैंने,
अज़ीज़ साहब, हंसने लगे, बिंदर साहब के पाँव उखड़े!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"यहीं ठीक हैं!" बोले दोनों!
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले बिंदर साहब,
"आगे चलो!" कहा मैंने,
''आगे कुछ नहीं है!" बोले वो,
"चलो तो सही!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
आगे गए हम, धीरे धीरे! सम्भलते हुए!
"बिंदर?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?'' बोले वो,
"ऐसे में अगर सामने हो कोई बहुत तो?" बोले शर्मा जी,
"गुरु जी हैं न?" बोले वो,
"मान लो, उस समय न हों?" बोले वो,
"शर्मा जी, क्यों मारने पर तुले हो!" बोले हँसते हुए!
"बिंदर?'' बोले कपूर साहब,
"हाँ जी?" बोले वो,
"लोड है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"ठीक!" बोले कपूर साहब!
"तो सबसे आगे चलो!" बोले शर्मा जी!
"क्यों जी?'' पूछा उन्होंने,
"हथियार होते डरते हो?" बोले अज़ीज़ साहब!
''आप ले लो?" बोले वो,
"चलानी नहीं आती!" बोले वो,
"अपने आप चल जायेगी!" बोले बिंदर!
"अरे रहने दो, पता चले कुत्ते को गोली मार दी!" बोले शर्मा जी!
सभी हंस पड़े!
"जाना कहाँ है?" पूछा बिंदर ने,
"रास्ता नापना है!" बोले शर्मा जी,
"हैं?" बिंदर साहब चौंके!
"और क्या?' बोले वो,
"रास्ता तो बहुत लम्बा है?" बोले वो,
"तो क्या हुआ?'' पूछा शर्मा जी ने,
"गाड़ी में चलो?" बोले वो,
"कपूर साहब?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"यहीं है वो जगह?" पूछा मैंने,
"कोहरा बहुत है!" बोले वो,
तभी गाड़ी की लाइट चमकी! हम सब रुके!
"कोई टकराया गाड़ी से!" कहा मैंने,
अब तो भय का माहौल!
बिंदर साहब, बीच में जगह ढूंढें!
"कोई जानवर होगा?'' कहा मैंने,
''आओ, देखते हैं!" बोले शर्मा जी!
"बिंदर?'' बोले कपूर साहब!
'हूँ?" बोले वो,
"आओ यार?" बोले वो,
"जी!" बोले वो,
लाइट, फिर से चमकीं! बज़र की आवाज़ हुई! कोई तो टकराया था दुबारा भी! लेकिन कौन? जानवर तो डर जाता! फिर?
"आओ?" कहा मैंने, और.........
गाड़ी का बज़र दो बार बजा था, निश्चित ही था कि कोई न कोई टकराया तो था ही उस से! जानवर होता, तो एक बार टकरा कर, दुबारा नहीं टकराता! शायद डर जाता! या हो भी सकता है कि कोई दूसरा जानवर रहा हो, या कोई अन्य रात्रि-पक्षी! कुछ भी सम्भव था, ये ही हो सकता था कि शायद कोई और ही टकरा गया हो! रात के समय तो वैसे भी खरगोश, हिरण आदि भी सड़क पार करते ही रहते हैं, पक्का यक़ीन से कुछ नहीं कहा जा सकता था, इसीलिए हम सभी वहां के लिए चल पड़े थे! जहां गाड़ी खड़ी थी, हम वहां तक आये, मैं आगे था सबसे, रुका, तो सभी रुक गए! अज़ीज़ साहब को आई छींक! जैसे ही छींके, सभी के सभी उछल से गए! दूर तलक उनकी छींक की आवाज़ गूँज उठी थी! उन्होंने माफ़ी सी मांगी! खैर, ये कोई बड़ी बात नही थी, सर्दी थी ही ऐसी उस समय, वो क्या, हमें भी छींक उठ जातीं तो कोई बड़ी बात न होती!
"कुछ दिखा?'' पूछा कपूर साहब ने!
"नहीं, कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"तो कौन होगा?' पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, शायद कोई जानवर!" कहा मैंने,
"दो बार?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"क्या करें?" बोले वो,
"गाड़ी में ही बैठ जाओ!" बोले बिन्दर जी!
वैसे बात तो ठीक थी! बाहर ठंड बहुत थी, और फिर, दीख भी नहीं रहा था साफ साफ़, अंदर बैठते, कुछ पल रुकते तो शायद कुछ दीखता, अब भले ही कोई जानवर ही!
"हाँ, बात सही है! अंदर ही बैठते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ जी! बाहर तो बर्फ पड़ रही है!" बोले बिन्दर जी!
दरवाज़ा खोल हम गाड़ी में घुस गए! संभाल ली अपनी अपनी सीट! गाड़ी में आये तो कुछ राहत हुई! बाहर से तो बचे!
"बड़ा बुरा हाल है बाहर तो!" बोले अज़ीज़ साहब!
"हाँ जी, पीक है ये सर्दी का!" बोले कपूर साहब!
"हाँ, बुरा ही हाल है!" बोले अज़ीज़ जी!
"एक काम करो?" कहा मैंने,
"वो क्या?'' बोले अज़ीज़ साहब,
"थोड़ा आगे चलो!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
और किया एंजिन स्टार्ट! एक दो बार में स्टार्ट हो गया और हम आगे चल पड़े!
"कपूर साहब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?'' बोले वो,
"कैसे बीहड़ में रहे हो आप?" बोले वो,
''अब तो सड़क दीख रही है, हमारे ज़माने में कच्चा रास्ता था, जंगल ही जंगल!" बोले वो,
"अब भी तो जंगल ही है!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो,
"ये उलटे हाथ पर क्या है?'' पूछा मैंने,
"पुलिया है!" बोले वो,
"ओह! मैंने सोचा कोई इमारत है!" कहा मैंने,
"वो तो पीछे गयी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बताओ, जंगल में भी इमारत तामीर की होगी किसी ने, उस ज़माने में!" बोले अज़ीज़ साहब,
"पुराना ज़माना था यार! तब तो यही चलता था, सराय या हवेली, तिजारती लोग आया करते थे, फिर फ़ौज और फिर न जाने क्या क्या!" बोले कपूर साहब!
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"बाहर की आवाज़ तो आएगी नहीं अंदर?" बोला मैं,
"हाँ?' बोले अज़ीज़ साहब,
"फिर कैसे बने बात?" पूछा मैंने,
"खोलूं क्या?" बोले वो,
"फिर ठंड के थपेड़े!" बोला मैं,
"ये तो है!" बोले वो,
"कपूर साहब?'' बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"कोई जगह नहीं जहां सर पर ठंड न पड़े?'' बोले वो,
"बिन्दर?" बोले वो,
"आगे है!" बोले वो,
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"है तो नया सा ही!" बोले वो,
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"चौकी-फौकी है शायद!" बोले वो,
"कोई होता नहीं?'' पूछा मैंने,
'ऐसी जगह कौन रुकेगा!" बोले वो,
"ये बात भी है!" कहा मैंने,
"कितनी दूर?" पूछा शर्मा जी ने,
''आगे है, एक तो अँधेरा है, रुको, देखूं!" बोले बिन्दर!
गाड़ी रोक दी गयी, बिन्दर ने दरवाज़ा खोला, उतरे बाहर, देखा आसपास, फिर बैठ गए अंदर,
''आगे ही चलो!" बोले वो,
गाड़ी आगे बढ़ी!
आगे जाकर, दो रास्ते से हुए, उसी के पास, एक चौकी सी बनी थी, पक्की, और कुछ न था वहां, इतनी बड़ी भी नहीं थी कि सभी अंदर आ जाएँ उसके, हद से हद तीन ही आदमी!
"मैं देखूं?" बोले बिन्दर,
"नहीं!" कहा मैंने,
''सामने?" बोले वो,
"कोई जानवर ही न हो!" कहा मैंने,
"यहां नहीं आता!" बोले वो,
"अच्छा?'' कहा मैंने,
"हाँ, देखता हूँ!" बोले वो,
जैसे ही उतरने लगे, गाड़ी पर पीछे से जैसे किसी ने हाथ मारा! ये सुनते ही हम सभी पीछे देखने लगे, उतरे हुए बिन्दर, झट से अंदर! दरवाज़ा किया बंद!
"ये क्या था?" पूछा शर्मा जी ने,
"कोई सामान तो नहीं गिरा?" पूछा मैंने,
देखा गया, सामान तो गिरा नहीं था कुछ भी!
''आओ ज़ार!" कहा मैंने,
"हम भी आएं?" बोले अज़ीज़ जी,
"ना!" कहा मैंने,
"अंदर ही रहो!" बोले शर्मा जी,
और हम दोनों, टोर्च ले, उतर आये बाहर!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हम गाड़ी के पीछे तक आये, कुछ नहीं था वहां!
अभी हम पीछे देख ही रहे थे, कि गाड़ी के दोनों तरफ के दरवाज़े खुले और वे सभी दौड़ के हमारे पास चले आये! हम भी चौंके!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"वो, वहाँ!" बोले अज़ीज़ साहब,
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"कुछ देखा मैंने!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"किसी ने सड़क पार की!" बोले वो,
''सड़क पार की?" पूछा मैंने,
"हाँ, गाड़ी की लाइट में!" बोले वो,
"क्या था?'' पूछा मैंने,
"इंसान सा!" बोले वो,
"आपने देखा, कपूर साहब?" पूछा मैंने,
"नहीं, मैं तो आपको देख रहा था!" बोले वो,
"मैं भी!" बोले बिन्दर जी,
"अज़ीज़ साहब?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो, उधर ही देखते हुए!
"किसने पार की?' पूछा मैंने,
"कोई उधर से आया, छलांग मारते हुए, एक कदम बीचे में रखा और पार सड़क से!" बोले वो,
"कोई जानवर तो नहीं था?" पूछा मैंने,
"नहीं कह सकता!" बोले वो,
"कोई जानवर ही होगा!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"वैसे था कैसा?'' पूछा मैंने,
"इतना होगा!" बोले वो,
''चार फ़ीट? या तीन?" पूछा मैंने,
"इतना मान लो!" बोले वो,
"तीन फ़ीट!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"पक्का कोई जानवर रहा होगा!" बोले शर्मा जी,
"हो सकता है!" बोले कपूर साहब!
"दो पाँव पर था, चार पर या?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं, लबादा सा ओढ़ रखा था!" बोले वो,
"जानवर ही होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई हिरण या नीलगाय!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सड़क इतनी चौड़ी है, आमदी कैसे एक कदम में पार करेगा?'' पूछा शर्मा जी ने,
"कर तो सकता हैं अगर...." बोले कपूर साहब!
"हाँ, तब तो है!" कहा मैंने,
"रुका नहीं था?" पूछा बिन्दर ने!
"रुकता क्यों?" बोले शर्मा जी,
"तो देख लेते न?" बोले बिन्दर!
"वो क्या नाम पूछता यार?" बोले अज़ीज़ साहब!
मैं हंस पड़ा!
"यहां तो कोई नहीं! शायद कोई लकड़ी-लुकड़ी टकरा गयी हो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले कपूर साहब!
"आओ, गाड़ी में बैठें!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले अज़ीज़ साहब!
तो हम गाड़ी में आ बैठे! बातें करने लगे कि कोई जानवर ही होगा! कि अचानक से एक तेज आवाज़ आई! पीछे की तरफ, जैसे किसी ने तेजी से ब्रेक मारे हों! जैसे कोई वाहन, भरभरा गया हो अचानक से! सभी के सर पीछे घूमे, कहीं कोई वाहन टकरा ही न जाए! अज़ीज़ साहब ने फौरन ही गाड़ी आगे बढ़ा दी! और रोकी! तब शान्ति छा गयी! कोई आवाज़ नहीं फिर!
"ये क्या है?" बोले शर्मा जी,
"कोई वाहन तो नहीं?" पूछा मैंने,
"बत्तियां तो जल नहीं रहीं?" बोले अज़ीज़ साहब,
''आओ, देखें!" कहा मैंने,
"अज़ीज़?" कहा कपूर साहब ने,
"जी?" बोले वो,
"घुमाओ गाड़ी?" बोले वो,
"अभी!" बोले वो,
"कोई ज़रूरतमंद ही न हो कहीं?" बोले कपूर साहब!
"हाँ, देखते हैं!" कहा मैंने,
गाड़ी घुमायी, और अब चल पड़े पीछे की तरफ! धीरे धीरे ही चलने लगे! लेकिन कुछ नज़र नहीं आये! कोई बत्ती न चमके! और निशान नहीं ऐसा!
"कोई सड़क से नीचे तो नहीं उतर गया?'' पूछा मैंने,
''देखते तो आ रहे हैं!" बोले अज़ीज़ साहब,
"और चलो ज़रा?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हम, धीरे धीरे आगे चलते रहे! कोई नज़र न आये!
"ये तो भूतिया चक्कर है!" बोले बिन्दर!
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"और आगे?" पूछा अज़ीज़ साहब ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो, और आगे आये हम!
अचानक से ब्रेक लगाए उन्होंने! हमने सामने की खिड़की से बाहर झाँका! सामने तो पत्थर पड़े थे, बीच सड़क पर ही! सड़क के निर्माण के लिए, जो रखे जाते हैं!
"बीच सड़क में?" बोले बिन्दर,
"हाँ, हैं तो बीच में ही!" कहा मैंने,
"अज़ीज़?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोले वो,
''बत्ती बंद नहीं करना!" बोले वो,
"नहीं जी!" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"कपूर साहब, आओ?" बोला मैं,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम, उतर आये तीनों नीचे, दोनों ही टोर्च लेकर!
"सामने!" कहा मैंने,
और चल पड़े हम सामने की और! पत्थरों तक पहुंचे! पत्थर, ओंस में गीले हो चुके थे!
"बीच में कौन डाल गया इन्हें?" बोले शर्मा जी,
''सब हरामी हैं साले!" बोले कपूर साहब!
"शाम को फेंक गए होंगे!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रास्ता ही बंद कर दिया!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अरे कहीं.........?" बोले शर्मा जी, सामने रौशनी मारते हुए!
"क्या कहीं?" पूछा मैंने,
"कोई इन पत्थरों के पीछे तो नहीं था?" बोले वो,
"अरे हाँ, आओ, देखें!" कहा मैंने,
तो हम, उन पत्थरों से रास्ता बनाते हुए चले ज़रा पीछे की तरफ! सड़क पर यहां पानी भरा था, जैसे बारिश का पानी जमा हो! उस से बच बचे के हम आगे बढ़ चले! ठंड के मारे जूतों का चमड़ा भी लोहे जैसा सख्त हो चला था! लोहे के जूते पहने हों, ऐसा लगा रहा था! हमने जब वो पत्थर पार किये तो होश ही उड़ गए! वहां तो हर जगह पत्थर ही पत्थर पड़े थे! ऐसे, जैसे किसी स्टोन-क्रशर के मैदान में आ गए हों! न सड़क ही दीख रही थी, और न ही कोई और रास्ता! हम ठिठक कर रुक गए वहां!
"ये क्या माज़रा है कपूर साहब?" पूछा मैंने,
"सड़क तो यहीं थी?" बोले वो,
''अब?" पूछा मैंने,
"कहीं रास्ता तो नहीं भटक गए हम?'' बोले वो,
"वो रही पीछे गाड़ी!" कहा मैंने,
गाड़ी की लाइट टिमटिमा रही थी, फॉग-लाइट जल रही थी!
"रास्ता तो यही है?'' बोले वो,
"लेकिन, सड़क कहाँ है?" पूछा मैंने,
"ये नही पता?" बोले वो,
"जहां हम पहले थे, वहां तो थी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
''आओ ज़रा?'' बोला मैं,
और हम पीछे चले फिर, यहाँ आये, तो सड़क थी!
"अरे?" बोले वो,
"ठीक ठीक!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"ये पत्थर सड़क के बीच में नही हैं!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
''सड़क उधर है, वो रही!" कहा मैंने,
"अरे हाँ!" बोले वो,
"कमाल है!" बोला मैं,
"रात की कारण मुग़ालता हो गया!" बोले वो,
"टाइम क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"साढ़े ग्यारह!" बोले वो,
"आओ, गाड़ी पर चलें!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम वापिस हुए, आगे आये, गाड़ी तक!
"कुछ दिखा?'' पूछा अज़ीज़ साहब ने,
"कुछ नहीं!" बोले वो,
"आओ फिर?" बोले अज़ीज़ साहब!
"हाँ, सुबह आते हैं, चलो!" कहा मैंने,
हम आ बैठे गाडी में!
"आय हाय!" बोले कपूर साहब!
"क्या हो गया?" पूछा मैंने,
"बाहर तो बर्फ पड़ रही है यार!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"घुटने ठिर्रा गए यार!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"वापिस?'' बोले अज़ीज़ साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और गाड़ी घुमा ली हमने! चल पड़े उसी रास्ते पर वापिस! बातें करते जा रहे थे हम! गाड़ी धीरे ही चल रही थी! सामने से एक ट्रक आता दिखा! ट्रक ने मार डिपर! हमने गाड़ी की साइड! ट्रक वाला निकला बाहर, खिड़की से, और रोक लिया ट्रक! हमारी गाड़ी आगे बढ़ी, तो ट्रक वाले ने रोका हमें! अज़ीज़ साहब से बात की कुछ! और बढ़ चला आगे, खिड़की बंद कर!
"क्या कह रहा था?" बोले शर्मा जी,
"रास्ता?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले अज़ीज़ साहब!
"चलो!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े फिर से आगे के लिए!
"रात में तो अँधा ही है आदमी!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, दीखता नहीं दूर तक!" कहा मैंने,
"हाँ, ऊपर से ये कोहरा!" कहा शर्मा जी ने,
"यही तो?'' बोले अज़ीज़ साहब!
तभी गाड़ी की छत पर ऐसी आवाज़ हुई, जैसे कोई कूदा हो! झट से ब्रेक लगाये! कोई जैसे, उछला ऊपर! हम सभी सन्न! छत को देखने लगे! मैंने फौरन ही बाहर रौशनी डाली! आसपास बस, झाड़ियाँ, पेड़, पौधे, और कुछ नहीं!
"कोई कूदा न?" बोले कपूर साहब,
"हाँ, जैसे पेड़ से कूदा हो!" बोले अज़ीज़ साहब!
"यहां बंदर, लंगूर हैं क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ, लेकिन यहां तो नहीं?" बोले बिन्दर!
फिर से कूदा कोई!
"आओ!" मैं दरवाज़ा खोलते हुए बाहर आया!
"हाँ!" शर्मा जी भी बाहर आये!
मैंने फौरन ही रौशनी डाली छत पर! कोई नहीं था! आसपास देखा, कोई नहीं! शर्मा जी भी देख रहे थे, कोई नहीं दिखा! हम आये गाड़ी के पास तक!
"कोई नहीं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, कोई नहीं!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"कोई तो था?'' पूछा मैंने,
''वो!!!!!" आई आवाज़!
मैंने झट से देखा अज़ीज़ साहब को! वो हाथ दिखा रहे थे एक तरफ! फौरन ही रौशनी डाली उधर मैंने, कोई न आया पकड़ में!
"क्या था?'' पूछा मैंने,
"कोई था?" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"कोई आदमी था!" बोले वो,
"कहाँ गया?'' पूछा मैंने,
"नीचे, सड़क के नीचे!" बोले वो,
मैं दौड़ पड़ा उधर के लिए! वहां पहुंचा, रौशनी मारी उधर! कोई नहीं! हाँ, कुछ झाड़ियाँ ज़रूर हिल रही थीं उधर! जैसे कोई भागा हो उधर!
वहां कुछ नहीं था! इस बार भी लगता था कि जैसे कोई जानवर ही रहा होगा! वो तेजी से भाग कर, सड़क पार गया होगा! भय से भूत बन जाता हे और कई बार झाड़ियाँ, पेड़, पौधे या उनकी परछाइयाँ भी भूत, प्रेत सी दिखने लगती हैं! यही वजह हो सकती थी! मैंने, हालांकि, टोर्च की रौशनी में अच्छी तरह से देखा था, नीचे तो गड्ढा सा दिखाई देता था, जैसे अक्सर सड़क किनारे खायी सी हुआ करती हैं! और कुछ नहीं था!
"कुछ दिखा क्या?" शर्मा जी ने पूछा, वे भी आ गए थे!
"नहीं, कुछ नहीं है!" बोला मैं,
"जानवर ही होगा?'' बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"आओ फिर" बोले वो,
और हम लौट पड़े वहां से, वापिस आये, अज़ीज़ साहब अंदर ही बैठे थे, कपूर साहब ने दरवाज़ा खोल रखा था, हम पर नज़र रखे हुए थे!
"कुछ दिखा?'' पूछा कपूर साहब ने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या देखा था अज़ीज़?" पूछा मैंने,
"मुझे लगा कोई आदमी है!" बोले वो,
"क्या कर रहा था वो?' पूछा मैंने,
"जैसे हमें देख रहा हो, खड़े हो कर!" बोले वो,
"पक्का, कोई आदमी ही था?" पूछा मैंने,
"इस बार तो आदमी ही लगा था!" बोले वो,
"तो इतनी जल्दी कहाँ भाग गया?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
उनके हाव-भाव देख कर, लगता था कि ज़रूर कुछ न कुछ तो, न समझ आने वाला, देखा ही था उन्होंने!
"चलो, देखेंगे!" कहा मैंने,
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम वापिस गाड़ी में आ बैठे!
"बंद करो ज़रा!" कहा मैंने,
गाड़ी बंद कर दी उन्होंने!
"बज गए स्व बारह, अब बेहतर ये.........." कहा मैंने और तभी!
तभी हमारी गाड़ी को पीछे से उठाया किसी ने!
धम्म! एक बार! धम्म! दो बार! और सब शांत!
अब तो गाड़ी में जैसे भय महाराज आ बैठे! वे तीनों ही सर से लेकर नाख़ून तक, काँप उठे! ऐसा तो मैंने कभी ज़िंदगी में नहीं देखा था! न ही महसूस किया था! अब भला ऐसा कौन होगा, जानवर भी, सांड और बैल के सिवाय जो गाड़ी को पीछे से ऐसा उठा देगा? न वहां सांड ही था और न कोई बैल ही! गाड़ी कोई ऐसे ही नहीं उठी थी! कम से कम एक फ़ीट उठा दी गयी थी! टायर हवा में उठ गए होंगे! मैंने देर न की! और फौरन गाड़ी से बाहर आ गया! मैं आया, तो सभी आ गए बाहर! ये जिसने भी किया था, यक़ीनन उसे हमारा वहां बने रहना पसंद नहीं आया था! वो नही चाहता था कि हम वहां रहें!
"अरे बाप रे!" बोले बिंदर साहब!
"हे भगवान!" बोले कपूर साहब!
"ये क्या था गुरु जी?" बोले घबराये हुए से अज़ीज़ साहब!
"हट जाओ गाड़ी के पास से!" कहा मैंने,
मैं हटा और सभी मेरे साथ हो लिए, मैं करीब चार फ़ीट, पीछे आ खड़ा हुआ था! तभी गाड़ी की छत से, पेड़ की एक शाख गिरी नीचे! ये देख सभी डर गए वे! आधी ऊपर और आधी नीचे! ऐसा लगे, जैसे उसने गिरफ़्त में ले लिया हो गाड़ी को! बज़र, बार बार बजे और बंद हो!
''शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"इनका ध्यान रखना!" कहा मैंने,
और मैं आगे बढ़ा गाड़ी की तरफ! इग्निशन तक गया और चाबी निकाल लाया! और वापिस आ खड़ा हुआ, वो टंगी हुई शाख भी नीचे आ गिरी तभी के तभी!
"खेल शुरू!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"रुको सब यहीं!" कहा मैंने,
और तब, मैंने माँ ज्वाला का ज्वाल-मण्डिका भालन जप दिया! इस से, प्रेत-बाधा शांत हो जाती है! सबसे सरल और लघु है ये मण्डिका! ग्रहण काल में, मात्र एक सौ एक मंत्रोच्चार से सिद्ध हो जाती हैं! इस से स्थान-कीलन किया जा सकता है! प्रेत-मार्ग बंद किया जा सकता है! अपने ऊपर पढ़ा जाए, तो तत्क्षण ही देह-रक्षा भी हो जाती हैं! दस मिनट हम वहीँ रहे, कुछ न हुआ!
"ये लो!" कहा मैंने,
और चाबी दी अज़ीज़ साहब को!
"चलो!" बोले शर्मा जी,
सभी लपक कर गाड़ी में जा घुसे!
"दबा लो अज़ीज़ भाई!" बोले बिंदर!
अज़ीज़ साहब ने गाड़ी की स्टार्ट! और मोड़ ली! भगाने लगे, बदहवास से!
"आराम से!" कहा मैंने,
"घबराओ नहीं यार!" बोले वो,
"हां, आराम से!" कहा मैंने,
हम चलते रहे और तभी फिर से ब्रेक मारे अज़ीज़ साहब ने! हमने देखा सामने! सभी सकते में!
"ये?" बोले शर्मा जी,
''श्ह्ह्ह!" कहा मैंने,
मरघट जैसी शान्ति!
मेरी जैकेट की बाजू, जैकेट से रगड़ी, खसर की सी आवाज़ हुई!
चिटक!
दरवाज़ा खोला मैंने, और उतरा नीचे!
इशारे से, सभी को अंदर रहने को कहा!
शर्मा जी ने, इशारा किया कि क्या वो भी? मैंने इशारे में ही कहा कि हाँ! मैं चल पड़ा आगे, सामने, सड़क के बीच में, चीथड़े से पड़े थे, सड़क के बाएं कुछ धुंआ सा उठ रहा था, शायद आग लगी थी! कहीं कोई एक्सीडेंट ही न हुआ हो, ऐसा लग रहा था, मैं आहिस्ता से आगे बढ़ता चला गया! पीछे देखा, गाड़ी वहीँ खड़ी थी! मैं और आगे बढ़ा, पहुंचा उन चीथड़ों के पास! कोई लाश आदि तो नहीं थी वहाँ!
मैंने चीथड़ों को पाँव से टटोला! जले हुए से थे वो!
"क्या है?" आई आवाज़,
मैंने पीछे देखा, ये शर्मा जी थे! आ गए थे मेरे पास!
"चीथड़े ही हैं!" कहा मैंने,
"ये कहाँ से आये?" बोले वो,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"और वो आग?" बोले वो,
"आओ?" कहा मैंने,
और हम चले उधर तक! देखा, ये भी चीथड़े ही थे, आग अब बुझने पर ही थी! ये चेक का सा कपड़ा था, जैसे कोई कंबल रहा हो! जलने की तेज गंध उठ रही थी, लेकिन मांस की दुर्गन्ध नहीं थी, कोई वाहन नहीं था, ऐसा कुछ भी नहीं कि जिस से लगे कि कोई दुर्घटना हुई हो!
"ये साले, चीथड़े-गुदड़ी कहाँ से आ गयीं?" बोले वो,
"कहीं किसी ने फेंकी तो नहीं? मतलब कोई अलाव आदि तो नहीं?" पूछा मैंने,
"इस बीहड़ में, जंगल में, भला कौन जलाएगा अलाव?" बोले वो,
"हाँ, बात तो सही है!" कहा मैंने,
"और ये, यही भी कंबल ही?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी गाड़ी की तरफ से आई चीख-पुकार!
"वहां क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
और हम दोनों ही भाग लिए वहां के लिए! वे सभी बदहवास से थे, बाहर आ खड़े हुए थे!
"भगवान के लिए, निकल लो यहां से!" बोले बिंदर!
''अरे हुआ क्या?" पूछा मैंने,
"गाड़ी फिर से उठी, इस बार आगे से!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"आप देखो? वाइपर?" बोले वो,
ओहो! वाईपर दोनों ही मुड़ गए थे, ऐसे खड़े थे अब जैसे किसी ने खोंच लिए हों!
''आप सभी अंदर बैठो?" कहा मैंने,
वे तीनों अंदर जा बैठे!
मैं और शर्मा जी ही बाहर बस!
मैंने आसपास देखा, कोहरा ही कोहरा! मेरे मुंह से, दो-चार भद्दी-भद्दी गालियां निकलीं! कोहरे के लिए, साफ़-साफ़ दीखता तो कुछ सम्भव था करना!
"कोई तो है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"छिप रहा है!" बोले वो,
"डरा रहा है!" कहा मैंने,
"तो सामने आये ना?" बोले वो,
"नहीं आएगा!" कहा मैंने,
"हाँ, पता है!" बोले वो,
"क्या करें?" पूछा मैंने,
"थोड़ा इंतज़ार!" कहा मैंने,
''और ये?" बोले वो, अंदर की तरफ, आँखें करते हुए!
मैंने सर हिलाकर, रुकने को कहा!
तभी शर्मा जी को कुछ सुनाई दिया, उन्होंने, आगे जाकर, कान लगाये, मैं भी आगे गया, और कान लगाये अपने, गौर से सुना!
"ये?" बोले वो, फुसफुसा कर,
"कोई हंस रहा है?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"श्ह्ह्ह्ह्ह्ह!" मैंने कहा,
वहां सच में, कोई हंस रहा था, तेज नहीं, ऐसे, जैसे ताश की बाजी लगी हो, और जीतने वाला, लगातार जीते जा रहा हो! हंसी के अंत में, 'हूँओ' की जैसे लम्बी सी सांस निकलती थी!
"कोई मर्द है?'' पूछा मैंने,
"लगता है" बोले वो,
तभी एक आवाज़ गूंजी!
"पिंकी?"
ये नाम गूंजा था!
"पिंकी?" बोला मैं,
"हाँ, यही आवाज़ आई है!" बोले वो,
"पिंकी?" फिर से आवाज़ आई,
"हाँ, पिंकी ही है!" मैंने खुसफुसाया!
तभी, पास में से, क़दमों की आवाज़ आई! जैसे कोई भागा हो! हम वहीँ देखते रहे! बाएं से दायें, दायें से बाएं! सामने और पीछे, पीछे और फिर आगे!
और फिर, क़दम, रुक गए! साँसों की आवाज़ आई! जैसे थक गया हो कोई!
"श्ह्ह्" मैंने फिर से कहा,
तभी फिर से आवाज़ गूंजी क़दमों की, और सड़क पर थप-थप की आवाज़ करते हुए, आगे चला गया कोई, उन चीथड़ों की तरफ! हम फौरन गाड़ी की आड़ से निकले, सामने चीथड़ों को देखा! सच कहता हूँ! सच! जैसे कोई आग बुझाता है, पांवों से, ऐसी आवाज़ हुई! चीथड़े, हवा में उड़ते चले! बड़ा ही ख़ौफ़नाक सा मंज़र था वो!
''आओ?" कहा मैंने,
''उधर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
हल्के से क़दमों से, हम आगे चल पड़े!
और, अचानक रुके! अचानक! शर्मा जी के कंधे पर, किसी ने जैसे लात मारी थी! उनकी 'हुंह' सी निकली और मैंने फौरन ही उनको समेटा बाजूओं में!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"किसी ने, लात मारी या कोहनी!" बोले वो,
"हे?" मैं चीखा!
और चला उनका हाथ पकड़ कर आगे!
''सामने आ?" बोला मैं,
कोई नहीं आया!
"आ? आ तो ज़रा?" बोला मैं,
ना! कोई नहीं!
"बस? आ? सामने आ?" बोला मैं,
कोई नहीं!
"सुनो?" बोला एमी,
"हाँ?" बोले वो,
"आप जाओ, गाड़ी में!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"मानो?" कहा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"यार सुनो?" कहा मैंने,
"नहीं?" बोले वो,
''समझो?" कहा मैंने,
"नहीं!" उन्होंने तो नहीं कहा, और तभी!
तभी हमारे चारों तरफ, हुई तेज सी चहलक़दमी! आवाज़ के साथ! जैसे कोई हव-चक्की(बच्चे लोग जो कागज़ काट कर, चौखंड सा बनाते हैं, हवा में लहराओ तो घूमती है, जैसे विंड-मिल की पंखड़ियाँ) ऐसी आवाज़ सी हुई! लगा कि जैस एकिसी बालक ने, साइकिल में, यही लगाई हो, आइसिस आवाज़, हमारे चारों तरफ! मैंने झट से शर्मा जी को खींचा, और उनके दोनों कंधों पर हाथ टिका दिया अपना! आवाज़, लगातार आती रही, लगातार! और कोई एक मिनट के बाद, जैसे, किसी साइकिल का चक्का रुकने को हुआ, कचर-कचर की आवाज़ में दम तोड़ता हुआ! ठीक हमारे पीछे!
हमने पीछे देखा तभी, और................!!
आवाज़ रुकी और हम पलटे! अब हम चौकस थे! पल भर में ही न जाने क्या हो! कब कोई हमला ही कर दे! उस जगह पर जहां पानी पड़ा था, पानी में छप-छप सी हुई! कुछ पलों तक, और फिर शांत! स्पष्ट था, कोई छह क़दम दूर खड़ा था हमसे! कोई हरकत नहीं, न हमारी तरफ से, और न उसकी तरफ से ही! कुछ पल ऐसे ही बीत गए, उस भयानक ठंड में भी, एक गरमी का सा अहसास ठीक गर्दन के पीछे हो चला! कानों के नीचे गर्माइश फ़ैल गयी थी! कान गरम हो चले थे! और तभी, जैसे साइकिल की चैन घूमी, उलटी चैन! कच्च की सी आवाज़ हुई और चैन का घूमना बंद हुआ!
"कौन है?" मैंने पूछा,
उत्तर तो नहीं आया, लेकिन पानी में छप्प छप्प हुई पीछे की तरफ!
"रुको?" कहा मैंने,
मुझे लगा था कि कोई लौट रहा है!
"ठहरो?" बोला मैं,
छप! बंद हुई! और जैसे किसी ने सुन ली मेरी बात!
"रुको!" कहा मैंने,
पानी में छप्प छप्प सी हुई, फिर आगे की तरफ!
कोई बढ़ रहा था आगे, दो क़दम पहले ही रुक गया!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
न बोला कोई भी! ये इतनी आसानी से नहीं बोला करते!
"बताओ?" कहा मैंने,
नहीं आई कोई आवाज़, और जैसे किसी ने छलांग लगाई, ठीक ऊपर की तरफ! हमारे सर ऊपर उठे, और धम्म की सी आवाज़ हुई हमारी बायीं तरफ! कोई रुक गया था यहां, उछल कर!
मैंने शर्मा जी का हाथ दबाया, और खींचा, इशारा था, कि यहीं रुको! और मैं आगे बढ़ा, उसकी तरफ! बढ़ा, तो जैसे मेरे पाँव जमे! मैंने नीचे देखा, कीचड़ में पाँव सन गए थे मेरे, मेरे जूते, मिट्टी में से पानी रिसने लगा था, मैं पीछे हुए, सूखी ज़मीन पर चला आया! ठीक सामने देखा, और तब! तब मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने! कंधे से नीचे तक रगड़ा! मेरी जैकेट जैसे कराह सी उठी! साफ़ था, कोई था उस जगह मेरे साथ! अगले ही पल वो हाथ हटा! और ठंडी सी सांस मेरे होंठ पर पड़ी! दो-तीन बार, बिना आवाज़ की सी सांस! मेरी ऊनी टोपी के छेदों से, हवा अंदर आई, जैसे किसी ने फूंक मारी हो!
''सुनो! ज़ाहिर करो!" कहा मैंने,
मैंने कहा था और मेरे कान पर जैसे किसी ने चिकोटी काट ली! सर्द से हाथ से! अब स्पर्श तो समझ गया था मैं, ये कोई स्त्री या लड़की का हाथ नहीं था, ये किसी अच्छे से डील-डौल वाले मर्द का हाथ था, या किसी लड़के का! दर्द ऐसा हुआ कि मुझे कान सहलाना पड़ा अपना! चाहता तो रुक्का पढ़ देता, शाही-रुक्का! इबु का! लेकिन नहीं, अभी कोई नुकसान नहीं हुआ था, और फिर इबु के हाज़िर होते ही, सभी जा छिपते, न निकलते बाहर सालों तक! मेहनत खराब ही हो जाती!
"सुन?" कहा मैंने,
मेरे कंधे पर फिर से हाथ रखा किसी ने!
"मैंने हाथ रखने की कोशिश की, तो मेरा कंधा दबा दिया! न उठा सका अपना हाथ में! वो चाहता तो मुझे उठा कर, ठीक पीछे फेंक सकता था! लेकिन मैंने, न तो उसको कुछ गलत बोला था, न गलत ही व्यवहार किया था कोई!
"तजिंदर अच्छा था..." कान में एक मद्धम सी आवाज़ गूंजी!
जैसे मरी सी सांस में कुछ कहा हो किसी ने!
"तजिंदर?" मैं फुसफुसाया!
"अच्छा था तजिंदर..............हूँ" आवाज़ फिर से गूंजी,
"कौन तजिंदर?" पूछा मैंने,
"तजिंदर अच्छा था........." फिर से आवाज़ गूंजी!
"कौन था ये तजिंदर?" फुसफुसाया मैं!
"तजिंदर..................अच्छा था..." आई आवाज़,
और अगले ही पल, मेरे गले में लिपटा मफलर कड़ा हुआ गया! उसकी गाँठ कस दी थी किसी ने! इतनी भी नहीं की दम ही घूंट जाए, एक समय तक, जैसे, ठीक कर दिया हो!
"तुम, तजिंदर हो?" पूछा मैंने,
''अच्छा था." आई आवाज़,
''अच्छा होगा" कहा मैंने,
"तजिंदर अच्छा था............." बोला कोई,
"बताओ तो?" बोला मैं,
"हाँ........अच्छा था......." आई फिर से आवाज़!
"होगा अच्छा, अब कहाँ है?" मैंने जानबूझ कर पूछा,
''सामने!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
''अच्छा था..........." आई आवाज़,
एक ही रट लगाये था वो, वो, जो कोई भी था!
"तजिंदर...................." आई आवाज़, इस बार साँसों की,
"अच्छा था, यही न?'' पूछा मैंने,
"हाँ" आई आवाज़,
"अब कहाँ है?' पूछा मैंने,
"सामने" आई आवाज़,
"मेरे?" पूछा मैंने,
"अच्छा था...." फिर से पकड़ी रट!
"अच्छा था, हाँ अच्छा था तजिंदर!" कहा मैंने भी,
''अच्छा था....तजिंदर......अच्छा था..........." आई फिर से आवाज़!
''तुम तजिंदर ही हो न?" पूछा मैंने,
"अच्छा था................." आई फिर से आवाज़ उसी की!
