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वर्ष २०१४ इलाहबाद के समीप की एक घटना! उपाक्ष-भैरवी!

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श्रीशः उपदंडक
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बड़ी ही अच्छी सी जगह, साफ़-सुथरी सी जगह पर ये स्थल बना था, अधिक बड़ा तो नहीं था, लेकिन था बेहद ही बढ़िया! गुलमोहर और जामुन के पेड़ लगे थे यहां, जामुन के पेड़ों पर, कच्ची जामुन आ भी चुकी थीं! गुलमोहर में, बूटे बस बनने ही वाले थे, सामने की तरफ ही, एक छोटी सी बगिया बनी थी, फूलों के बढ़िया पौधे लगाए हुए थे यहां! पीले रंग के फूल और नीले रंग के से फूल, सभी का ध्यान खींचते थे! बीच में, ग्वार-पाठे, लगे थे, गोलाई में, धारदार क्यारी सी बनाई हुयी थी! और बीच में से जो रास्ता था, उसमे, केतकी के पौधे, दोनों ही तरफ लगे हुए थे! बीच बीच में, ईंटें लगा दी गई थीं, खड़ी कर के! कुल मिलाकर, खूबसूरत जगह थी! जो न हंसना चाहे, इधर आ कर, मुस्कुरा ज़रूर पड़ता! यहां लोगों की आमद-जामद लगी थी, जगों में, पानी ले जाया जा रहा था, कुछ कुर्सियां आदि भी लायी जा रही थीं! हम भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए चलते रहे, और एक बड़े से कक्ष में प्रवेश कर गए! यहां एक बड़ी सी दरी पड़ी थी, और भी दरियां बिछाई जा रही थीं! कुछ लोग बैठ चुके थे, और इसी तरह हम भी उस कक्ष में जा बैठे, सामने एक चबूतरा बना था, उस पर सफेद खेस पड़ा था, और साथ ही कुछ कुर्सियां भी रखी थीं, कुर्सियां क्या, मूढ़े ही कहना चाहिए उन्हें!
कुछ समय बीता तो और लोग आते चले गए, कुछ साधक और साधिकाएं, और कुछ नए से बाबा लोग भी! तो इस तरह, कुल बीस या बाइस लोग इकट्ठे हो गए थे, हाँ, वो माधुरी न पहुंची थी, पता नहीं क्या वजह रही थी, शायद आज्ञा मिली हो या न मिली हो, पता नहीं चला था हमें तो!
करीब ढाई बजे, बड़े बाबा ने प्रवेश किया! सभी खड़े हो गए! उनके साथ, चार सहायिकाएं और दो सहायक थे, और चार बाबा लोग! बाबाओं ने स्थान ग्रहण किया! और हमारी ओर इशारा किया! हम भी बैठ गए!
बाबा लोगों ने आपसी मंत्रणा शुरू की, कुछ हाँ कहें और कुछ न कहें, फिर जब एक राय हुई तो हमसे बाबा ने कहा!
"जय महाकाल!" बोले वो,
"जय जय महाकाल!" कहा हम सभी ने!
"संगियों!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम सभी ने,
"आज अंतिम चरण है!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम सभी ने!
"बारह में से, आठ आगे बढ़े हैं!" बोले वो,
''आदेश!" कहा हम सभी ने!
आठ अर्थात, कुल आठ साधक, और आठ ही साधिकाएं!
"आज, घाड़-पूजन होगा!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम सभी ने!
"जो परिपाटी है, ठीक वही रहेगी!" बोले वो,
"आदेश!" हम सब बोले!
"इसके पहचात भी जो, स्वयं जांच करना चाहें तो अपनी साधिका को भेज सकते हैं!" बोले वो,
ठीक वही, जैसा मैंने कहा था!
मेरी साधिका ने, उस क्षण, मुझे देखा था!
"तो कुल, नियम आज के, चार हैं, आप जानते ही हैं!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने!
"क्रिया से पहले, लिया-दिया सब चुकता हो जाना चाहिए, ये आवष्यक है!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने!
लिया-दिया, अर्थात घाड़ का मूल्य, उसको प्राप्त करने का कुल व्यय! कुछ और खर्चा, जो भी हुआ हो, रुपया एक भी कम तो क्रिया से बाहर! अब नियम है एक, जो साधक, घाड़ का प्रयोग करेगा, उस घाड़ का अंतिम-संस्कार तक का व्यय, स्वयं ही करना होता है! यही है सब लिया-दिया!
घाड़ इतनी सरलता से, आसानी से प्राप्त नहीं हुआ करते! इसमें, कई कई दिन और पखवाड़े भी लग जाया करते हैं! इसमें मेहनत होती है, खर्चा भी होता है, इस सभी का वहन, साधक को ही करना होता है, या, साधक को मदद के स्वरुप कोई और भी दे, तो स्वीकार्य हुआ करता है! मदद के लिए, ऐसे कई सज्जन हैं, जो ऐसा कार्य किया करते हैं! बिना किसी लालच के, विनती के! तंत्र-जगत सदैव इनका मान करता आया है और करता ही रहेगा! कई और भी डेरे ऐसी मदद किया करते हैं! तब कहीं जाकर कोई योग्य घाड़ प्राप्त हुआ करता है! तो यहां पर, कुल चार घाड़ प्राप्त हुए थे, इनका पूजन आवश्यक है! इस पूजन में कोई त्रुटि शेष न रहे, ऐसा भरसक पर्यटन किया जाता है! कई कई बार, परकाया-प्रवेश का भय रहता है, उसका भी उचित प्रबंध किया जाता है!
"आज संध्या, सात बजे, सभी महा-अलख पर एकत्रित हों!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने!
"संध्या पांच बजे से, घाड़ का निरीक्षण आरम्भ होगा!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम सभी ने!
"कोई प्रश्न?" पूछा उन्होंने,
एक साधक उठा, नम किया और फिर अपना प्रश्न रखा!
"क्या घाड़-निरीक्षण, घाट पर होगा?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोले वो,
"तब?" प्रश्न किया,
"उत्तर-पूर्व के कक्ष में!" बोले वो,
"आदेश!" बोला वो!
"रमेश?" बोले वो,
"आदेश!" आया एक सहायक रखते हुए!
"पांच बजे, कहाँ, किधर, ये सब बता देना!" बोले वो,
"अवश्य!" बोला वो,
"और कोई प्रश्न?" पूछा बाबा ने,
"अलखादेश!" बोले सभी!
और वे उठ खड़े हुए! उनका कार्य यहां, अब समाप्त हो चुका था, तय, नियामवली और कार्यक्रम में अब कोई अदल-बदल न होनी थी! और हम, सभी, तैयार ही थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम भी उठ खड़े हुए! और चले बाहर की तरफ! आज की क्रिया अंतिम थी, अतः आज तो कोई कसर बाकी न रहनी थी! आज उपाक्ष-भैरवी का आह्वान था, इसके पश्चात, ढाई वर्षों के बाद फिर से, जागरण होता इनका! तो मैं अपनी साधिका को ले, अपने कक्ष में आ गया था, जैसा कि मेरी साधिका ने बताया था कि उसको माहवारी आने में अभी पंद्रह दिन तो थे, तो उस संदर्भ में तो कोई बात न होनी थी, हाँ, आज उसे कुछ समझाना था जो मददगार होता आज की क्रिया में! तो मैंने उस से एक लम्बी बात की, कुछ ऐसी बातें भी बतायीं जो बेहद ज़रूरी थीं, कुछ ऐसे नियम भी जिनका पालन अंत तक होना था! मृणा बहुत ही समझदार युवती है, उसकी मानसिक पकड़, प्रखर है और समझ जाती है शीघ्रता से, यदि कुछ समझ नहीं आये तो पुनः पूछने में कोई देर नहीं किया करती! जब साधिका के वेश में होती है तो सच मानिए, सच में ही एक प्रवीण और प्रबल सी साधिका प्रतीत होती है!
"मृणा?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"इस क्रिया के पश्चात?" पूछा मैंने,
"आप बताएंगे!" बोली वो,
"मैं क्या भला?'' पूछा मैंने,
"जो भी उत्तम रहे!" बोली वो,
"सोचूंगा!" कहा मैंने,
"मुझे कोई जल्दी नहीं!" बोली हँसते हुए! हल्के से!
"कभी घाड़-साधना देखी है?" पूछा मैंने,
"नहीं, सुना है बस!" बोली वो,
"घाड़ तो देखा होगा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"अच्छा...फिर तो.." कहा मैंने,
"क्या फिर तो?" पूछा उसने,
"घबराओगी तो नहीं?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोली वो,
"घाड़-कर्म,
 अति-वीभत्स हो सकते हैं!'' कहा मैंने,
''सुना है!" बोली वो,
"इसीलिए कहा!" कहा मैंने,
"नहीं घबराउंगी!" बोली वो,
"समझाना मेरा कार्य है!" कहा मैंने,
"और समझना मेरा, समझ गई!" बोली वो,
"फिर तो ठीक है!" कहा मैंने,
"मुझ पर विश्वास रखिये!" बोली वो,
"है विश्वास!" कहा मैंने,
"मेरे कारण कोई समस्या न होगी!" बोली वो,
मैंने तब उसके सर पर हाथ फेरा! उसकी आँखों में एक विश्वास था, एक अडिग सा विश्वास! यही तो चाहिए होता है एक साधिका में, कि अपने साधक का अंतिम चरण तक हाथ थामे रहे, साथ डटी रहे, जो भी हो, साधक पर भरोसा बनाए रखे! और ये गुण मृणा में थे! मैं उसे अब तक तो देख ही चुका था! जांच भी चुका था और परख भी चुका था! मसान से ले शाषठेव तक!
तो बजे जी चार!
मैंने अपना सारा सामान भली-भांति सम्भाल लिया था, आज जिस जिस की आवश्यकता थी, उसी के इंतज़ाम में लगा था! कुछ सामान था ही और कुछ मंगवा लिया गया था!
"मृणा?" कहा मैंने,
''जी?" बोली वो,
"वो टोकरी देना?" बोला मैं,
"जो अभी आई?" बोली वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"अभी!" बोली वो,
और उठा उसे, दे दी मुझे! मैंने ज़रा टटोला-टटोली की उसमे! कुल मिलाकर, सारा सामान निकाल लिया!
"इसमें भामर नहीं?" बोला मैं,
"होना चाहिए?" बोली वो,
"देख लो?" कहा मैंने,
"कहीं दूसरी में तो नहीं?" बोली वो,
"देखो ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और देख मारा सारा सामान, लेकिन भामर नहीं मिला! भामर, दरअसल एक वस्त्र हुआ करता है, साधिका के लिए, ये कमर से बाँधा जाता है और नीचे घुटने से ऊपर तक होता है, आज की क्रिया में, उसको भामर धारण करना ही था, और वो ही नहीं था इसमें!
"नहीं है?'' पूछा मैंने,
"नहीं, नहीं दिख रहा!" बोली वो,
"अब?'' बोली वो,
"तो चलो फिर!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोली वो,
"लेने!" कहा मैंने,
"अच्छा, वो तो मैं ले आउंगी!" कहा उसने,
"ले आओ फिर!" कहा मैंने,
''अभी लाती हूँ!" बोली वो,
और चलो गई बाहर! मैंने दूसरी वस्तुएं निकालता रहा, कुछ सुगंधियों, लेपन आदि की वस्तुएं थीं वहां! सभी एक एक कर, अपने झोले में रखता चला गया! जो मोटा-मोटा सामान था, वो रख लिया था अलग ही! सामान बाँधा और फिर बैठ गया वहीं, इंतज़ार किया मृणा का अब, अब वो लौटे तो उसका सामान पूरा हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब दस मिनट में वो लौटी! हाथ में एक थैली थी, आई और मुझे देख मुस्कुराई वो! मैं भी मुस्कुराया उसे देख!
"मिल गया?" पूछा मैंने,
"हाँ, ले आई!" बोली वो,
"भूल कैसे गए वो?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, शायद छूट गया हो!" बोली वो,
"अच्छा, वो माधुरी नहीं दिखी?" कहा मैंने,
"वहां भी नहीं है?" बोली वो,
"इसका क्या मतलब हुआ?" पूछा मैंने,
"शायद चले गए हों?" बोली वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"कोई कमी रही हो?" बोली वो,
"हाँ, नहीं तो आज दीखते वहां!" कहा मैंने,
"यही!" बोली वो,
"चलो, जाने दो!" कहा मैंने,
"इसे पहनूं?" बोली वो,
"स्नान पश्चात!" कहा मैंने,
"हाँ, आज तो?" बोली वो,
"हाँ, युक्त-स्नान होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, तभी पूछा!" बोली वो,
"संध्या-पश्चात!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"आज, यलक्ष्-श्रृंगार होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोली वो,
"हाँ, ये विशिष्ट श्रृंगार है!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"आज तुम, भैरवी समान रहोगी!" कहा मैंने,
"ओह...ऐसा ही होता है?" बोली वो,
"हाँ! यही नियम है!" कहा मैंने,
"समझती हूँ!" बोली वो,
"संध्या, छह के बाद, सूर्यास्त भी नहीं देखना तुम्हें!'' कहा मैंने,
"हाँ, बताया था आपने!" बोली वो,
"आज, महामाया भी देखोगी तुम!" कहा मैंने,
"महामाया?" बोली वो,
"हाँ, देखना, तब जानोगी!" कहा मैंने,
"मसान जैसी?" बोली वो,
"नहीं, भैरवी-मंडल!" कहा मैंने,
"अद्भुत! अद्भुत जान पड़ता है!" बोली वो,
"हाँ, सो तो है ही!" कहा मैंने,
"मृणा!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"ये समय कभी न भूल पाओगी!" कहा मैंने,
"ये तो तय है!" बोली वो,
"खैर!" कहा मैंने,
"जी?'' बोली वो,
"पांच बजे, चलना संग मेरे!" कहा मैंने,
"निरीक्षण करने?" बोली वो,
"हाँ, वैसे तो सब ठीक ही होगा, परन्तु आवश्यक भी है!" कहा मैंने,
"इसमें भी कुछ....." बोली वो,
"हाँ, घाड़ बदले भी जा सकते हैं!" कहा मैंने,
"ओह!" निकला मुंह से उसके!
"इसीलिए, चिन्हांकन करना होता है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"इसी को घाड़-पूजन भी कह सकते हैं!" कहा मैंने,
"समझी मैं!" बोली वो,
उसके बाद, कुछ देर आराम किया मैंने, मृणा भी बैठ गई थी, फिर उसकी भी आँख लग गई थी! हालांकि समय अब कम ही था, कोई पौने घंटा ही शेष था, इतने में आराम की एक झपकी ले ली जाए तो सुकून मिल जाता है! सो हमने ली!
तो जी, बजे पांच!
और मेरी नींद खुली! मृणा तो लम्बी तान लिए सोई थी! मैंने घड़ी देखी तो पांच बज कर दस मिनट हो चुके थे!
''मृणा?" कहा मैंने,
"हूँ?" निकला मुंह से उसके,
"पांच बज गए!" कहा मैंने,
"आ जाओ!" बोली वो,
"आ जाओ?'' कहा मैंने,
"हाँ, आ जाओ!" बोली वो,
"सपने में हो क्या?" पूछा मैंने,
अब चुप हो गई! कोई सपना ही देख रही थी शायद!
"ओ मृणा?" मैंने उसके चेहरे को हिलाते हुए कहा!
"हाँ?" बोली वो,
"उठो?" कहा मैंने,
उसने आँखें खोलीं! पल भर में ही सब समझ गई!
"पांच बज गए?" पूछा उसने,
"हाँ, सवा पांच हुए!" कहा मैंने,
"ओह...सोती रही मैं?" पूछा उसने, जम्हाई लेते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"जल्दी चलो फिर!" बोली वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
बाल्टी से पानी लिया, कुल्लादि किया और हाथ-मुंह पोंछे दोनों ने!
"चलो!" कहा मैंने,
"हाँ!'' बोली वो,
और हम निकल गए! उत्तर-पूर्व में कोई स्थान था ऐसा, जहां घाड़ रखे थे, वहीँ जाना था हमें, तो निकल पड़े! रास्ते में टकरा गया रुद्रनाथ!
"आदेश गुरु कौ!" बोला वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"सफल हो जाओ!" बोला वो!
मैं हंस पड़ा! और बढ़ गया आगे!
"उधर, उधर जाना है शायद!" इशारे से कहा मैंने मृणा से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जब हम वहां के लिए आधे रास्ते में पहुंचे, तो एक स्त्री मिली, उसे पता था कि हम जा कहाँ रहे हैं तो मदद की उसने, और ठीक ठीक रास्ता बता दिया! हम उस पर चलते रहे और फिर एक स्थान पर आ गए!
"यही है!" कहा मैंने,
"हाँ, लगता तो यही है!" बोली वो,
''आओ ज़रा!" कहा मैंने,
हम अंदर चले तो एक सहायक मिल गया, उसने हमें ये बता दिया कि जाना कहाँ है और हम वहीं के लिए निकल पड़े!
अंदर आये तो बाबा मिले एक, नाम था उनका, सोमेंद्र नाथ, उन्होंने हमें अपने साथ लिया और चल पड़े!
"आपके लिए, मैं दो दिखाता हूँ!" बोले वो,
"जी धन्यवाद!" कहा मैंने,
और वे हमें एक कक्ष में ले आये, कक्ष में घुसते ही, ठंडी सी हवा सी लगी! शायद बर्फ की सिल्लियां रखी थीं उधर, जिस से वे घाड़ ठीक अवस्था बनाए रखें! ये घाड़ के आसपास रखी जाती हैं, उस के ऊपर या उसको लिटाया नहीं जाता इस बर्फ पर! नहीं तो कोई भी अंग कठोर हो सकता है!
"ये देखिये!" बोले वो,
ये एक घाड़ था, एक स्त्री का, आयु उसकी करीब बाइस बरस ही रही होगी, लेकिन उसके नेत्रों के नीचे नीले से रंग के निशान से दिख रहे थे, या तो विष का मामला रहा होगा, या फिर ये घाड़ एक दिन पुराना रहा होगा, शेष अंग ठीक-ठाक थे, स्त्री-घाड़ में अंगों की परख बेहद ज़रूरी हुआ करती है! इसीलिए अंग ठीक रहें तो प्रयोग में लिया जा सकता है! ये घाड़ जो मिला करते हैं, ये किसी वयक्ति के, मृत-व्यक्ति के परिजन आदि से बात करके ही प्राप्त किये जाते हैं, बिना स्वीकृति के कोई भी घाड़ क्रिया योग्य नहीं हुआ करता! हाँ, नदी आदि में बह आये, ताज़े घाड़ आदि प्रयोग में लिए जा सकते हैं, परन्तु यदि वे सभी नियमों के अनुसार, योग्य हों तो! सर्प-दंश से मृत घाड़, सर्प-मोचिनी, यमकंटक, माँ मनसा की प्रधान सहोदरी, माँ धौंरि के लिए प्रयोग किये जाते हैं, अन्यथा और किसी भी क्रिया के लिए निषिद्ध हुआ करते हैं! शिशु-बंध घाड़, एकादश-घाड़आसन के लिए प्रयोग होते हैं! पूर्वोत्तर भारत में इसका प्रचलन अधिक है! ये सिद्धि-दायक एवं त्वरित फलदायक हुआ करते हैं!
मैंने उस घाड़ को गौर से देखा था, क्रिया में प्रयोग किया जा सकता था उसका, यदि और कोई विकल्प शेष न हो तो! लेकिन उस समय, उस स्थान पर, एक घाड़ और शेष था, वो भी देखा जाए, तो अच्छा रहता!
"शेष जो दो हैं, वे?" बोला मैं,
"वे तो चुन लिए गए हैं!" बोले वो,
"हमसे पहले आये कोई?" पूछा मैंने,
"हाँ, आये!" बोले वो,
"हमें ही विलम्ब हुआ!" कहा मैंने, मृणा से!
"एक वो गोरखपुर वाले हैं और एक वो वीरभूम वाले!" बोले वो,
''अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
''आइये!" बोले वो,
और हम एक दूसरे घाड़ के पास पहुंचे, ये भी उसी कक्ष में रखा था! उसके ऊपर से कुशासन हटाया गया तो मैंने उस घाड़ को देखा! वो आयु में बीस बरस का रहा होगा, देह भी ठीक-ठाक थी! देह पर कोई निशान भी न था! कोई चोट, ताज़ा, नहीं थी!
"ये थी है!" कहा मैंने,
"तो आप देख लीजिए!" बोले वो,
और निकल गए कक्ष से बाहर!
''मृणा?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"ज़रा इसकी बगलें खोलो?" बोला मैं,
अब वो सकपकाए! घबराए!
"खोलो?'' बोला मैं,
"अभी!" बोली वो,
उसने उस घाड़ की छाती पर रखा और बंधा हाथ पकड़ा ही था कि मैंने टोक दिया!
"ऐसे नहीं!" कहा मैंने,
"मैंने कभी नहीं किया!" बोली वो,
"देख लिया!" कहा मैंने,
"क्षमा कीजिये!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"क्षमा!" बोली वो,
"कोई बात नहीं, देख लो, कैसे!" कहा मैंने,
और मैं, उस घाड़ के सर के पास खड़ा हुआ, और उसकी कोहनी को, अपने बाएं हाथ से बाहर को धकेला, भुजा खुली उसकी, और उसका बायां स्तन, हिला, सरक कर दायीं तरफ हो गया! यही देखना था मुझे, देख लिया!
''घाड़ ताज़ा ही है! ठीक ढंग से रखा गया है!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"ये ही ठीक है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"आओ अब!" कहा मैंने,
"जी! कहा उसने,
और मैं उसको ले, आ गया बाहर!
"बाबा कहाँ गए?" पूछा मैंने, खुद से ही!
आसपास देखा तो एक कक्ष में दो-तीन लोग दिखे,
"आओ, शायद वहाँ होंगे!" बोला मैं,
'''हाँ!" बोली वो,
और हम उस कक्ष की तरफ बढ़ लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम उस कक्ष में जा पहुंचे, दो-तीन लोग मौजूद थे वहां, हमें देख वे, छितरा कर अलग हो गए, बाबा वहीँ बैठे थे, एक तख़त पर, हमसे नज़रें मिलीं उनकी और उनसे हमारी!
"बाबा, वो दूसरे वाला उचित लगा है!" कहा मैंने,
"अच्छा, ठीक है!" बोले वो,
और एक थैली में से कुछ निकालने लगे, एक नीले रंग का धागा सा निकाला और फिर मुझे देखा,
"सात बजे आ जाएँ" बोले वो,
"जी, उचित है!" कहा मैंने,
"जय भालेश्वर!" बोले वो,
"जय भालेश्वर!" कहा मैंने,
हाथ जोड़े हमने और फिर वापिस हो गए! वो दूसरा घाड़, हमारे लिए तय हो गया था, अब सात बजे उसकी जांच होनी थी, इस जाँच में, मुझे तो खैर कुछ करना नहीं था, जो जांच होनी थी, वो तो मौसर स्त्रियों ने ही करनी थी, हाँ, जांच कैसे होती है, ये मृणा को देखना था, अगर देख पायी तो!
"सात बजे तुम आ जाना!" कहा मैंने,
"अकेले?" बोली वो,
"तो क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"आप भी आना साथ!" बोली वो,
"आ जाऊंगा, लेकिन अंदर नहीं आ सकता!" कहा मैंने,
"तब मैं ही क्या करूंगी!" बोली वो,
"इच्छा है तुम्हारी!" कहा मैंने,
"है तो सही, लेकिन मुझे अजीब सा ही लगता है!" बोली वो,
"समझता हूँ, मुर्दे से छेड़खानी!" कहा मैंने,
"हाँ यही!" बोली वो,
"हाँ, अच्छा तो नहीं लगता!" कहा मैंने,
"दिल से गवाही नहीं निकलती!" बोली वो,
"सच बात कही!" कहा मैंने,
"वैसे आपने देखा तो सही?" बोली वो,
"हाँ, देखा तो!" कहा मैंने,
"तो उनकी जांच होने दीजिये, मैं क्या करूंगी!" बोली वो,
"मन बदल गया तुम्हारा!" कहा मैंने,
"हाँ, उस शव को देख!" बोली वो,
"समझता हूँ!" बोला मैं,
इसी बीच हमारा कक्ष आ गया, कक्ष में घुसने से पहले ही मैं रुक गया, 
"आओ" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
मैं हाथ-मुंह धोने के लिए आया था यहां, तो धोए हाथ-मुंह अच्छी तरह से, पोंछे और फिर वापिस हुआ! अब आया अपने कक्ष में!
"बैठो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और बैठ गई वो भी!
"अभी समय है, देखो, चाय मिलेगी क्या?'' पूछा मैंने,
"अभी देखती हूँ!" बोली वो,
और चली गई बाहर, और मैं आज की महा-क्रिया के विषय में सोचने लगा! ये क्रिया, अति-तीक्ष्ण क्रिया होती है! इसका उद्देश्य होता है, माँ भैरवी का आशीष प्राप्त करना और सिद्धि-मार्ग में आने वाले विघ्नों को दूर करना! सिद्धि-मार्ग को लघु रूप देना, ऐसा ढाई वर्ष में एक बार अवश्य ही किया जाता है! सिद्धि कोई भी हो, उसको संचारित अवश्य ही किया जाता है, जैसे कि किसी चाक़ू को हमेशा धार लगाई जाती है, पैना रखने के लिए, ठीक वैसे ही!
पर्दा हटा और वो आई!
"आ जाइये!" बोली वो,
"लायी नहीं?" पूछा मैंने,
"आइये तो!" बोली वो,
"चलो मृणा! आया!" कहा मैंने,
और मैं उठ कर, उसके साथ चला फिर!
"क्या हुआ?'' पूछ मैंने,
"बनाने रखी है!" बोली वो,
''कौन बना रहा है?" पूछा मैंने,
"कहा था किसी को!" बोली वो,
"चलो कोई बात नहीं!" बोला मैं,
और हम आ गए एक कक्ष में, चाय बन चुकी थी और उन्हें हमारा ही इंतज़ार था, वे दो स्त्रियां थीं, वहीं की रहने वाली! हमें चाय दे गई और हमने अपने अपने गिलास पकड़े!
"इन्हें जानती हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
हम फुसफुसा कर बात कर रहे थे!
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने पूछा था तो यहां ले आई!" बोली वो,
"अच्छा, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
तो हमने चाय पी, और नेग भी दे दिया, क्रिया के दिनों में नेग देना आवश्यक होता है, ये भी एक नियम है!
"आओ ज़रा, उस तरफ चलें!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"आज पूर्ण हो जाएगी क्रिया, कल मेरे साथ चलना होगा!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोली वो,
"अभी कक्ष में कुछ बताऊंगा तुम्हें!" कहा मैंने,
"जी, अवश्य!" बोली वो,
तब तक छह बज चुके थे और फिर हम कक्ष में चले गए! अंदर आये और बैठ गए नीचे ही!
"आज किसी और साधिका से कोई वार्तालाप नहीं!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"किसी साधक से भी नहीं!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"मुझ से आगे पग नहीं!" कहा मैंने,
वो थोड़ी सी चौंकी ज़रूर, लेकिन मान गई, हाँ में सर हिलाया उसने, और इस प्रकार दो या तीन बातें और समझा दीं उसे!


   
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इस तरह, बजे सात! अब यूँ माना जाए, कि क्रिया का समय हो ही चला था, अब जैसे, हम पहले चरण में ही थे! अब बस जांच होनी थी उस स्त्री-घाड़ की और उसके बाद उसका पूजन! पूजन, रात्रि-समय, क्रिया-स्थल पर ही होना था, अतः, अब बस उस घाड़ की जांच हो और हमें फिर एकत्रित हो जाना था रात्रि नौ के आसपास! कुछ क्रिया-निर्देश, और फिर हम अग्रसर! तो सात बजे हमारे पास एक सहायक आया, और हमें उस विषय में बताया, हम चल पड़े थे उसके बताए स्थान के लिए! हम वहां पहुंचे तो तीन मौसर स्त्रियां खड़ी थीं! ये आयु में पकी हुईं, सफेद बालों वाली, काले वस्त्र पहने हुए थीं, एक के हाथ में, छोटी सी ढोलकिया थी, कोई चार इंच चौड़ा पर्दा था उसका, ये ढोलकिया जोड़े में थीं, अर्थात जुड़े हुए से, पात्र वाली! एक के हाथ में एक छोटा सा अलगोज़ा था, इसमें से पीपनी सी आवाज़ आती है! अब ये मौसर स्त्रियां कैसे जांच करती हैं, मैंने कभी नहीं देखा था, फलां स्त्री को हमल है या नहीं, ये, ये जान लेती हैं, फलां स्त्री काम-क्रीड़ा की अभ्यस्त थी या नहीं, या कौमार्यरहित है या सहित, ये भी जान लेती हैं! इनको एक विद्या द्वारा ये पता चलता है! ये विद्या कौन सी है, ये भी नहीं पता, ये गुप्त ही रखी गई है! ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती रही है! जैसे कि ज़हरमोहरा पत्थर बनाने की विधि! हर सपेरे को ये विद्या नहीं पता, बस, जो सपेरा काले रंग का फुल्लन-साफ़ा बांधता है, वही ये पत्थर बनाना जानता है! सामग्री आदि तो मिल जाती है, परन्तु, इसमें मोहरा-विद्या का संचार कैसे होता है, कौन करता है, ये भी गुप्त है! कई विदेशियों ने इस विषय में लिखा भी है, पत्थर भी बना लिया है परन्तु वो ज़हर को नहीं सोखता! जबकि ज़हरमोहरा पत्थर, सांप काटे ज़ख्म पर चिपक जाता है और ज़हर सोखने के बाद स्वतः ही गिर जाता है! ज़हर कैसा भी हो, ये पत्थर उसको सोख लेता है! ठीक ऐसे ही कई पत्थर हैं, जैसे बवासीर आदि जैसे रोगों को हरने वाला रग्गा-मोहरा, इसे संग-ए-मरियम भी कहते हैं, लेकिन संग-ए-मरियम की एक अलग ही खासियत है और रग्गा की अलग, रग्गा, इन रोगों को जड़ समेत खत्म कर देता है! नगौटी पत्थर, रक्त और हड्डी से संबंधित रोगों का उन्मूलन कर देता है! हिज्जन पत्थर, मानसिक रोगों को दूर करने में सहायक है! तो ऐसे बहुत से पत्थर हैं, जो प्राकृतिक रूप से भी मिलते हैं और कुछ बनाए भी जाते हैं, जो बनाए जाते हैं, वो मोहरा श्रेणी के होते हैं! आज भी, आदिवासी लोग, भील, संथाल आदि ऐसे पत्थरों को बनाते हैं! ये विद्या उनको, पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त होती रही है!
खैर, अब ये घटना!
"मृणा?" कहा मैंने,
''जी?" बोली वो,
"जाना है इनके साथ?" पूछा मैंने,
"क्या करुँगी!" बोली वो,
"देख ही लेना!" कहा मैंने,
"चलो, देखती हूँ!" कहा उसने,
"जब बुलाएं तो चली जाना!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
तो मैं, उधर, एक रखी हुई पत्थर की पटिया पर बैठ गया, दो-तीन साधिकाएं भी वहीं खड़ी थीं, हाथों में कुछ थैली सी लिए, शायद जख-बंधन के लिए लायी हों वो! इसमें शव के पाँव में कुछ बाँध दिया जाता है, जिस से पहचान रहे! मैं ऐसा कुछ भी न लाया था! 
तो वो तीनों स्त्रियां अंदर चली गईं, संग उनके, एक साधिका भी, मैं उधर ही रहा, एक तरफ अलग ही! करीब दस मिनट बाद वे लौट आईं और इस तरह, हमारा भी क्रमांक आ गया!
"जाओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
वो चली गई और मैं वहीँ बैठ रहा! करीब दस मिनट तक ही! और फिर लौट आई मृणा! 
मैं खड़ा हुआ और चला उसके पास!
"देख लिया?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या किया उन्होंने?" पूछा मैंने,
"कुछ भी नहीं, बस दो बार वो अजीब सा बाजा बजाया, एक ने कुछ कहा, पता नहीं क्या, पेट पर हाथ रखा और बस!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर कुछ नहीं, चलो!" बोली वो,
"तो कर ली जांच!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने,
"ठीक, आओ फिर!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वापिस! आ गए कक्ष में! हाथ-मुंह साफ़ कर ही आये थे, तो तब, आराम किया हमने!
"वैसे?" बोली वो,
"क्या वैसे?" पूछा मैंने,
"नौ बजे ही चलना है न?" बोली वो,
"हाँ, नौ बजे!" कहा मैंने,
"वैसे, कुल कितनी देर?" पूछा उसने,
"समाप्ति तक?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"शायद चार भी बज जाएँ!" बोला मैं,
"इतना समय!" बोली वो,
"देखना तो ज़रा!" कहा मैंने,
"समझती हूँ, पर इतना समय?" बोली वो,
"हाँ, एक एक कर, सब आएंगे!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा उसने,
"ये नहीं बता सकता!" कहा मैंने,
''जी!" बोली वो,
"इतना समय भी कम ही लगता है!" कहा मैंने,
"हूँ?'' बोली वो,
"हूँ!'' कहा मैंने,
"दस बजे से, पूजन आरम्भ होगा शायद!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"उसके बाद, स्थान सम्भालना होगा!" बोला मैं,
"अच्छा!" कहा उसने,
"फिर तो तल्लीन ही समझो!" बोला मैं,
''समझ गई!" बोली मुस्कुरा कर वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर बजे साढ़े आठ! आदेश तो आठ बजे ही आ गया था कि लख पर नौ बजे सभी एकत्रित हों! तो अब, स्नान करना था, श्रृंगार करना था, चिन्हांकन करना था, आधे घंटे में ही सबकुछ निबटा लेना था! तो मैंने, अपनी साधिका को स्नान करवाया अपनी देख-रख में, फिर मैंने भी किया, भस्म-स्नान आदि श्रृंगार पूर्ण किये, चिन्हांकन भी कर दिया और स्वयं भी कर लिया था, अपने तांत्रिक-आभूषण धारण कर लिए थे, साधिका को भी चौदह-श्रृंगार से पूर्ण कर दिया था! इसमें हमें नौ बजकर, दस मिनट हो चुके थे, मैं अपना त्रिशूल आदि, रख अपने साथ, झोला काँधे टांग, चल पड़ा था महा-अलख की ओर! आज वायु-परवाह तेज था! धूल उड़ने लगी थी! अलख की लपटें भी, बाईं ओर करवटें लेने लगती थीं! वो श्मशान, आज पूर्ण रूपेण जागृत था! क्या एवत और क्या खेवत, क्या पिशाच और क्या महाप्रेत आज सभी दावत उड़ाने की फ़िराक़ में थे!
"आदेश!" कहा मैंने वहां बैठे सभी संगियों को!
"आदेश!'' बोले वे सभी!
और मैंने अपना स्थान ग्रहण कर लिया, संग अपने, अपनी साधिका को भी बिठाल लिया! बड़े बाबा अभी तलक नहीं पहुंचे थे, आज उन्हें भी क्रिया-शुद्धि की आवश्यकता थी, अतः उन्हें समय लग रहा था, ये समझ में आता था, हालांकि क्रिया का आरम्भ ग्यारह के बाद ही होना था, परन्तु, दिशा-निर्देशन तो स्वयं बाबा ही दे सकते थे, इसीलिए हम सभी उनके इंतज़ार में बैठे थे! तब तक अलख में ईंधन डाल, हम, उसको उसका भोग देते जा रहे थे, दो एक साधक, औघड़-गान कर रहे थे, जब वे समाप्त करते तो सभी महानाद सा करने लगते थे!
ठीक साढ़े नौ बजे, बाबा आते दिखाई दिए! काले रंग के चोगे में, चिमटा काँधे रखे और हाथ में त्रिशूल पकड़े, वे आ रहे थे, आज सर पर, काले रंग का साफ़ा सा बाँधा था उन्होंने, पीछे पीछे सहायक और शायिकाएं कुछ सामान उठाये चले आ रहे थे! वे आ गए और हमने उठ कर, उनका अभिवादन किया! उन्होंने एक सहायक से एक लोटा लिया और जल के अभिमंत्रित छींटे पहले अपने आसन पर, फिर उसके बाद, हम सभी पर छिड़क दिए!
"स्थान ग्रहण करो संगियों!" बोले वो,
''आदेश!" कहा हम सभी ने!
और वे अपने आसन पर विराजमान हो गए! अपना चिमटा और त्रिशूल अपने एक सहायक को दे दिया!
"संगियों!" बोले वो,
"आदेश गुरु कौ!" बोले सभी!
"आज क्रिया का अंतिम एवं मूल चरण है, आप सभी जानते हैं!" बोले वो,
"आदेश! आदेश!" बोले हम सभी!
"इस स्थान पर चार स्थान हैं, जो नियत किये गए हैं, सभी को उनका स्थान बता दिया जाएगा! समस्त पूजनोपरांत आप उस स्थान पर चले जाएंगे!" बोले वो,
''आदेश! अलखादेश!" बोले सभी!
"त्रुटि हो, बंधन हो, विवशता हो, क्रिया नहीं बढ़नी चाहिए आगे, क्षमा मांगें और लौट आएं!" बोले वो,
"आदेश गुरु कौ!" बोले हम सभी!
"घाड़-पूजन में साधिका घाड़ को स्पर्श न करें!" बोले वो,
"आदेश!" बोली साधिकाएं!
"साधक के सम्मुख भी न रहें, पश्चावस्था का निरंतर ध्यान रखें!" बोले वो,
"आदेश!" बोली साधिकाएं!
"करिए का समय पौने बारह, नियत रखा गया है, तब तक आप समस्त औपचारिकताएं निबटा सकते हैं!" बोले वो,
"ब्रह्मादेश!" बोले सभी साधक अब!
"क्रिया का निष्पादन, नियमानुसार ही हो!" बोले वो,
"आदेश! सत्यादेश!" बोले हम सभी!
"सामग्री, महाशुद्धि एवं भोगादि पहुंचा दिए जाएंगे!" बोले वो,
"अथादेश!" बोले हम सभी!
और फिर वे खड़े हो गए, उनके खड़े होते ही, हम सभी खड़े हो गए!
"संगियों! बाबा सोमेंद्र आपको, स्थान के बारे में बता देंगे! जय कालेश्वर!" बोले वो!
और तब बाबा सोमेंद्र आगे आये, आसन के सम्मुख खड़े हुए, और अभी साधकों के नाम लेते हुए, उन्हें, स्थानों के बारे में बता दिया, मुझे पूर्व में स्थान मिला था! जहां मिला था, वहां दीये जलाए गए थे, टिमटिमा रहे थे वे दीये! ऐसा वहां, चार स्थानों पर था, उन स्थानों में दुरी तो बहुत थी! कोई किसी की पहुँच में नहीं था, अर्थात, न श्रवण के तौर पर, न ही मौखिक तौर पर, न ही, दृष्टि के तौर पर!
"जय ब्रह्मेश्वर!" बोले बाबा!
"जय भदन्तेश्वर!" बोले हम सभी!
"आपकी क्रिया सफल हो! श्री अलखराज आपकी क्रिया फलदायक हो, अवश्य ही पूर्ण करें!" बोले वो,
"जय जय श्री अलखराज!" बोले हम सभी!
"साधिकाओं?" बोले वो,
"आदेश!" बोलीं वो!
"आगे आओ!" बोले वो,
सभी साधिकाएं आगे बढ़ीं, और बाबा ने, सभी के मस्तक पर, भस्म के छींटे छिड़क दिए!
"अब आप, तत्पर रहिये!" बोले वो, हम सभी से!
''आदेश!" बोले हम सभी!
वे झुके, और हाथों में उस अलख की भस्म उठायी! और तब, एक एक करके साधक उनके पास जाता, अपना मुख खोलता, बाबा उसके मुख में एक चुटकी भस्म डालते, साधक मुख बंद करता और अपनी साधिका को ले, कूच  कर जाता अपने स्थान के लिए! मैंने भी ऐसा ही किया, और मैं भी कूच कर गया!
''वो सामने?" बोली साधिका!
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और हम चलते रहे! वहां पहुंचे, स्थान साफ़ करवा दिया गया था वैसे तो, लेकिन पेड़ से लतलकि झाड़ू हमें दिखाई दी!
"उसे उतार लाओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और चल पड़ी झाड़ू उतारने के लिए, यहां अपने हाथों से झाड़ू लगानी थी! तब जाकर, अपना आसन जमाना था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो वो झाड़ू ले आई, ये झाड़ू, खजूर के चौड़े पत्ते से बनाई जाती है, इसकी संकेरनी बड़ी और साफ़ करने वाली होती है, ये बैठ कर ही लगाई जा सकती है! तो मेरी साधिका ने, मेरे बताए हुए स्थान पर झाड़ू लगाई, मैंने अपने त्रिशूल के फाल से, उस भूमि को मापन-विधि से अभिमंत्रित कर दिया था! ऐसा अक्सर ही किया जाता है, ये करना आवश्यक भी होता है! अब चूँकि वहां दीप जले ही थे, उनका हल्का सा प्रकाश फैला हुआ था, हाँ चार दीप तो बुझ ही गए थे, चूँकि, वायु-प्रवाह तेज था उस रात!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"आओ, अलख उठायी जाए!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"तुम, चौखंटा काढ़ो!" कहा मैंने,
"जी, नाथ!" बोली वो,
और मैं चल पड़ा, चिता की जलती हुई लकड़ी लेने के लिए! अब ये जगह काफी दूर थी, कम से कम दस मिनट तो लग ही जाते एक तरफ से! खैर, चल पड़ा और जा पहुंचा, हैरत की बात, आज कोई नहीं था वहां, और चिताएं भी बहुत सी सुलग रही थीं! कोई सहायक भी नहीं था, कोई साधक भी नहीं, एक बार को तो लगा कि गलत जगह पर आ गया मैं! चलो, फिर भी, एक चिता के पास पहुंचा, और एक बड़ी सी लकड़ी निकाल ली, ताप ऐसा था कि देह भुन जाए कूकड़ी की तरह! आहिस्ता और देखभाल कर मैंने वो जलती लकड़ी निकाली, नमन किया और माथे से उसकी भस्म रगड़ी! चला पड़ा वापिस फिर!
उस दस मिनट के रास्ते पर, मैं, श्री ज्वालेश्वर का जप करता रहा! करो तो ठीक, न करो तो भी ठीक, ऐसा कुछ नहीं कि ये किसी नियम के निहित हो! तो मैं आ गया उधर!
"जय त्रिनेतश्वर!" बोली साधिका!
"जय जय हो!" कहा मैंने भी!
उसने वो लकड़ी ले ली मेरे हाथों से और रख दी वहीं अलख के बीच! मैंने सामग्री निकाली, फूंक डाली उस पर! अलख उठ चली! और मेरे नाद, निकलने लगे! मैंने समस्त दिशाओं में नाद किये, भूमि पर थाप देकर और आकाश में हुंकार भर कर! तो इस तरह से हमारी अलख तैयार हो गई!
अब आसन बिछाना था, भूमि से आज्ञा मांगी, अनुनय किया और उसके बाद अपना आसन बिछा दिया, सवा हाथ पर ही, अपनी साधिका के लिए भी आसन जमा दिया मैंने!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और मदिरा दी दी उसने मुझे, मैंने माथे से लगाया उसको, और उसका ढक्कन खोल दिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"पात्र!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
उसने पात्र निकाला और दे दिया मुझे!
अब मैंने उस पात्र में मदिरा भरी लबालब! मंत्र पढ़ा, नौ बार, भूमि-भोग दिया! नथुनों पर रगड़ा और सारा प्याला, झोंक दिया अलख में! चर्राट सी बजी अलख! और ऊपर तक, लपटें उठ चलीं उसकी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"अपना पात्र दो!" कहा मैंने,
"नाथ, आदेश!" बोली वो,
और झोले में से, पात्र दे दिया उसने मुझे!
मैंने पात्र लिया, और नीचे भूमि पर रख दिए दोनों ही पात्र, एक साथ, साथ में ही मदिरा की बोतल भी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"कपाल!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और दे दिया मुझे, कपड़े में लिपटा हुआ कपाल मुझे! मैंने उसे अलख में दिखाया, भस्म से उसके माथे पर टीका किया और रख दिया पास ही, सम्मुख! मुझे देखते हुए!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"पात्र!" कहा मैंने,
"नाथ! आदेश!" बोली वो,
और एक पात्र दे दिया उसने मुझे! अब मैंने उसको भी संग ही रखा! और मदिरा की बोतल उठायी!
"चौरासी कोस फलांगें! एक कोस यहां आय! करकै गोरख-चाकरी, चाकर वीर न लजाय!!" बोला मैं हँसते हुए! और एक पात्र भर दिया मदिरा से!
"उत्तर बांधू, दक्खन बांधू, बांधू पूरब पच्छम! एक चोट पर आवै बंधा कालू वीर सच्छम!!" अब दूसरा पात्र भी भर दिया मैंने मदिरा से!
"मुण्ड कटै तो मुण्ड हंसै! धड़ कटै तो रहवै जान! भोग सजा थाल रखूं, आवै डार, वीर मसान!" बोला मैं!
और अब तीसरा पात्र भी भर दिया!
"आइयो रे! रह न जावै! तिहारी मैया की में *!!" बोला मैं! करते हुए तिरस्कार, भूतों का, प्रेतों का, जो, हालू हो कर, टुकड़े खाने के लिए बैठे थे! इस हुंकार से, वे जा छिपते हैं पेड़ों में, गुफाओं में, नदी किनारे, खंडहरों में आदि आदि!
"जय जय श्री भैरवनाथ निराला!" कहा मैंने
और दे दिए पात्र एक साधिका को, एक रख दिया उस कपाल के सर पर! और एक उठा लिया खुद के लिए!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलो साधिके! भोग लगाओ!" कहा मैंने,
"जय अघोरनाथ!" बोली वो,
''जय अघोरनाथ!" कहा मैंने,
और हम दोनों ने ही, अपने अपने पात्र मुंह से लगा लिए! अब गटकने लगे हम मदिरा! और जब खत्म की, तब एक नाद सा भर, रख दिए पात्र वहां!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"दीप निकालो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और उसने एक दूसरे झोले से, पांच दीप निकाल लिए! रख दिए वहीं पर, मैंने मदिरा ले, अलख-मंत्र पढ़, अलख के समीप ही रख दिया उन्हें!
''तेल-बाती लगाओ साधिके!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और तेल-बाती निकाल, मथा उसने बातियों को दोनों हाथों से, बंटा और फिर, दीयों में स्थान दे दिया उन्हें! एक शीशी खोल, तेल, उन दीयों में डाल दिया!
"जय त्रिकालेश्वर! तेरी ही सत्ता!" बोला मैं!
और तब दीयों को अलग अलग रखा, और अलख की अग्नि से उनको प्रज्ज्वलित कर दिया!
"साधिके?'' बोला मैं,
"नाथ?" कहा उसने,
"ये उत्तर, पश्चिम, पूरब, दक्षिण में रख दो! शेष एक को, ठीक हमारे पीछे स्थान दे दो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
उसने, एक थाली में दीये रख लिए और पहले सम्मुख गई! सत्ताइस हाथों की दूरी पर पहला दिया रख दिया! फिर दूसरा, तीसरा और फिर चौथा भी! शेष एक को, हमारी पीठ पीछे, सत्ताइस हाथ की दूरी पर, रख दिया! पाँचों दीये मैंने देखे, वायु-प्रवाह तो तेज था ही, लेकिन, दीये खूब लड़-भिड़ रहे थे उस से! कभी वायु हावी तो कभी लौ हावी! खेल ज़ारी था उनका! इसी बीच साधिका लौट आई और खड़ी हो गई!
"बैठो साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"अभी सामान आ जाएगा!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"आज काम बहुत रहेगा!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
तभी कोई दिखाई दिया, बाईं तरफ! ये कोई स्त्री थी, हमारे पास ही आ रही थी, सर पर एक टोकरी सी लिए!
"वो देखो!" कहा मैंने,
"हाँ, सहायिका है कोई!" बोली वो,
"सामान, फूल आदि ला रही होगी, मदद करो उसकी साधिके!" कहा मैंने,
"जो आदेश नाथ!" बोली वो,
खड़ी हो, चल पड़ी उस स्त्री की तरफ! वो स्त्री आई, कुछ बातें कीं साधिका से और फिर सामान दे, लौट गई वापिस! अब साधिका आई मेरे पास, सामान रखा मेरी तरफ ही! सामान, अखबार के कागज़ से बंधा था, ज़्यादा बोझा नहीं था उसमे, मैंने अखबार हटाया तो मुझे कुछ पात्र, फूलों की मालाएं, कुछ फूल, कुछ पत्ते और सुईं-धागा सा मिला! मैंने सारा सामान निकाल लिया, टोकरी एक तरफ रख दी! सामान आदि सामने ही रख दिया!
"ये सुईं-धागा नाथ?" बोली वो,
"घाड़-पूजन के लिए!" कहा मैंने,
"ओह!" बोली वो,
"कुछ बताया उसने घाड़ के बारे में?" पूछा मैंने,
"नहीं तो!" बोली वो,
"आ जाएगा वो भी!" कहा मैंने,
"जी, आदेश!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"कोई प्रश्न?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" कहा उसने,
"कोई शंका?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कोई विवशता?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कोई ऋण?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" कहा उसने!
"कोई उद्देश्य?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"मुक्त हो तुम, उद्देश्य-पूर्ति हेतु!" कहा मैंने,
"मेरे नाथ!" बोली वो, हाथ जोड़ते हुए!
"साधिके?" तेज बोला मैंने,
''नाथ?" बोली वो,
"मृत्यु भी सम्भव है!" कहा मैंने,
"नाथ,आदेश!" बोली वो,
"तत्पर हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"आरम्भ करें?" पूछा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
"जय महेश्वर त्रिकालाधिपति श्री महाऔघड़ नाथ की जय! जय! जय!" कहा मैंने और तब, खड़ा होकर, अलख की परिक्रमा की, और झोंक दिया ईंधन उसमे! फिर मैं बैठ गया, लिया चिमटा...........और............!!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चिमटा खड़खड़ा दिया! इस खड़खड़ में कोई सुर-ताल हो न हो, लेकिन उसकी खनन-खनन, सच में ही मन में एक विश्वास और सिद्धि हेतु जैसे हुलारा सा जगा देती है! इस खड़खड़ से श्मशान में जैसे भगदड़ मचने लगती है! भूत-प्रेत, चुड़ैल, सामणी, हारुड आदि, सभी पर जैसे कोड़े से पड़ने लगते हैं! 
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"जय जय?" बोला मैं!
"डमरू वाले!" बोली वो,
"अरे जय जय?" बोला मैं,
"डमरू वाले!" बोली वो!
"जय जय डमरू वाले! तेरी ही सत्ता!" कहा मैंने,
"जय जय डमरू वाले!" बोली साधिका!
"आगे तू! पीछे तू! मेरा तू! तेरा मैं! डमरू वाले स्वीकार कर!" कहा मैंने,
और एक मुट्ठी ईंधन, झोंक दिया अलख में! अलख चटमटाई! सबकुछ लील लेने को, अलख ने मुंह खोल दिया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"अलख को भोग दे!" कहा मैनें,
"नाथ!" बोली वो,
और उसने अलख में दोनों हाथ भर, ईंधन झोंक दिया! अलख ने आसुरी रूप धरा और ऊपर उठ गई!
"नाथ?" बोली वो,
"बोल साधिके?" कहा मैंने,
"वो आ रहे हैं!" बोली वो,
इशारा किया था मेरे पीछे, मैंने देखा पीछे, दो सहायक आ रहे थे, अब लाये थे भोग वे! वे आ गए, कुछ ही दूर, जा खड़े हुए, मैं उठा और चला उनके पास जाने के लिए, पहुंचा, उनसे, प्रणाम हुई और मैंने वो सामान ले लिया, वे लौट गए! बुलाया अपनी साधिका को, और तब, उसने और मैंने, सामान उठा कर, अपने क्रिया-स्थल पर पहुंचा दिया!
सामान खोला, इसमें फिर से फूल, फूल मालाएं, मांस एवं मदिरा थीं, दो बड़े थाल भी, अगरबत्तियां और धूपबत्ती भी, मैंने सबसे पहले धूपबत्ती और अगरबत्ती ही सुलगाईं, कपाल के पास रख दीं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"भोग अर्पित करो!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और मांस के दो टुकड़े लिए, माथे से लगाए, फिर सर से छुआ उन्हें, अलख के एक चक्कर काटा और भोग अर्पित कर दिया! मैंने भी फिर ठीक वैसा ही किया! और फिर हम वापिस आ बैठे! कुल मिलाकर, सभी औपचारिकताएं पूर्ण हो चुकी थीं, बस देर थी, और कुछ शेष था तो था उस घाड़ का आगमन! परन्तु उस घाड़ की आवश्यकता सीधे ही उपाक्षम्-लक्ष्यम् में थी, अभी नहीं! अभी तो जैसे, चाकरों, भाटों को मनाना था!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" कहा उसने,
"हमने प्रवेश किया!" कहा मैंने,
"नाथ! धन्यम्!" बोली वो,
"आओ! यहां आओ!" कहा मैंने,
और उसे अपने दाएं बिठा लिया!
"नेत्र बंद!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"दोनों हाथ आगे!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और उसने ठीक ऐसा ही किया, मैंने उसके केश, आधे आधे उसके कंधों से नीचे ढुलका दिए! उठाया अपना त्रिशूल और उसके सर से लगाया! उसका एक चक्कर काटा, और उठायी भस्म! भस्म अभिमंत्रित की, और फेंक के मारी उसकी देह पर!
"हूँ! हूँ! हूँ!" मुंह से निकला उसके!
"साधिके?" कहा मैंने,
उसने नेत्र खोले अपने! गम्भीर मुद्रा में चली आई! मुझे देखा, दांत पीसे! और मैं हंस पड़ा!
"जा! बहुत हुआ!" कहा मैंने, और उसके सर से छुआया त्रिशूल! रीढ़ अंदर हुई उसके, छाती बाहर और एक झटका खाया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"क्या देख रही हो?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और हो गई खड़ी! मैंने सम्भाला अपना आसन तब! 
"साधिके?" कहा मैंने,
और उसने, खड़े खड़े ही मुझे देखा!
 
 
 

 
 
 

Jun 14, 2016#1198

"आ! परोस! आ!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराई और आई मेरे पास!
"बैठ जा!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और बैठ गई! ली मदिरा की बोतल, और परोस दी दो पात्रों में उसने, एक मुझे दिया और एक स्वयं ने ले लिया!
"दे चौरासी!" कहा मैंने,
और अपना पात्र मुंह से लगा लिया!
"दे चौरासी!" बोली वो,
और उसने भी अपना पात्र लगा लिया मुंह से! दोनों ने ही खाली किये पात्र अपने अपने, और रख दिए वहीँ कपाल के पास!
"ही! ही! ही! ही!" गूंजी आवाज़!
साधिका, घूम घूम के देखे! मैं जान गया था कि कौन है! ये औँधिया था, अपनी जोरू के साथ, अक्सर ही आ पहुंचता है ये!
"ए औँधिया!" कहा मैंने,
"हो!" आई एक आवाज़!
"आ लिया?" बोला मैं,
"हो!" बोला वो,
"अच्छा रुक!" कहा मैंने,
और मांस का थाल किया आगे, एक छोटे से पात्र में, मांस, मदिरा डाल दी, रख दी वहीं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"ये, नौ हाथ पर रख दे!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और उठाकर, थाली को, रख आई नौ हाथ पर ही! वो पलटी ही थी, कि थाली उछली ऊपर! और सब गायब उसमे से!
"जा! अब जा!" कहा मैंने,
साधिका खड़ी खड़ी मुझे ही देखे!
"उठा ले, उठा ले वो थाली!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और उठा लायी थाली, औँधिया ने तो, धो-मांज दी थी पूरी की पूरी ही! और अब चला गया था वहां से! औँधिया को उसका हिस्सा देना, नियम है! ये नुक्सान नहीं पहुंचाता साधकों का! बल्कि चेताने आता है! कोई कच्चा साधक हो, तो समझाने चला आता है! नहीं समझे तो डराता भी है! और फिर भी न समझे, तो साधक को छोड़ ही आता है! इसको एक बार भोग दिया, तो बार बार आएगा आपके पास! अपना हक़ मांगता है! युवक जैसा रूप है इसका, और इसकी जोरू भी युवती जैसी! अक्सर काले ही वस्त्रों में रहते हैं ये दोनों! दोनों के ही हाथों में, छाज और झाड़ू हुआ करती है! इसकी जोरू के गले में रस्सी बंधी रहती है, ये रस्सी, औँधिया की कमर में बंधी होती है! अक्सर, श्मशान में एक सफेद पिंडी हुआ करती है, घेरा गोल हुआ करता है उसका, ये औँधिया की ही पिंडी हुआ करती है! औँधिया, श्मशान में ही वास करता है, बाहर नहीं, अर्थात इसकी शक्ति, श्मशान में ही काम किया करती है, बाहर नहीं! इसे भोला-मसान भी कहते हैं! ये रक्षण भी करता है! इसकी भी आ लगती है, ऊपरी बाधाओं से बचने के लिए!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"आ!" बोला मैं,
और बिठा लिया उसे अपनी जांघ पर!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
मैंने भस्म ली, और हाथ में रख, अभिमंत्रण किया उसका, नीचे हाथ किया और फिर उसके बदन पर, रगड़ दिया! उसके नेत्रों पर हाथ रखा, और उसका बदन झूलने लगा! मैंने तभी उसको उतार दिया! वो बैठ गई! और मैं खड़ा हुआ! उसकी कमर पर, त्रिशूल छुआया! और फिर मैंने ठहाका मारा! मैं जैसे जैसे ठहाका मारता, साधिका पने आप में सिकुड़ती चली जाती! अचानक से हतह खोले उसने, उकड़ू बैठ गए, आगे हाथ किये दोनों, और सर लगा घूमने! आमद हो गई उस पर उस समय किसी की!
"कौन?" पूछा मैंने,
"रौरा!" बोली वो,
"चल भाग!" कहा मैंने,
उसने मुंह खोला, और लगी लेने साँसें तेज! फिर से सर नीचे! ऊपर-नीचे करें बार बार!
"कौन?" पूछा मैंने,
"रोड़ला!" बोला कोई,
"भेज!" कहा मैंने,
"नआ!" बोली वो,
"भेज?" बोला मैं,
"नआ!" बोली वो,
त्रिशूल का किया अभिमंत्रण! और सर से छुआ दिया! दोनों ही टांगें उठ पड़ी ऊपर, एक पल के लिए! और धम्म!
"कौन?" बोला मैं,
कोई उत्तर नहीं!
"कौन?" पूछा मैंने,
कोई नहीं था उस समय!
मैंने पढ़ा मंत्र, अपने त्रिशूल को छुआ! और ठहाका मारा!
"आओ? आओ!" कहा मैंने,
साधिका एक झटके से, पीछे उठी! और एड़ियों पर बैठ गई! सर नीचे, लेकिन काँपता हुआ! दोनों ही हाथ, अपने घुटनों पर रखते हुए!
"कौन?" पूछा मैंने,
"कलूटी!" आई एक बुढ़िया की सी आवाज़!
"कौन लाया?" पूछा मैंने,
"तू!" बोली वो!
"क्या करने?" बोली वो,
"भो!" बोली, जीभ निकालते हुए, जीभ निकाले और दिखाये मुझे! आँखें चौड़ी करें और मुंह से गुर्राए! ऐसी आवाज़ निकाले!
"कलूटी?" बोला मैं,
"ही??" बोली वो,

   
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श्रीशः उपदंडक
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"कलूटी?" बोला मैं,
"हो!" बोली वो,
"कै हैं?" पूछा मैंने,
"चौवन!" बोली वो,
"ले जा संग!" बोला मैं,
"ना!" बोली वो,
और दिया सर को एक झटका!
"जा?" बोला मैं,
"ना!" बोली वो,
"कलूटी?" बोला मैं,
"हो!" बोली वो,
"भोग लेगी?" बोला मैं,
"हो!" कहा उसने,
"फिर?" बोला मैं,
"लौटूंगी!" बोली वो,
"ले फेर!" कहा मैंने,
और थाली में रखा कुछ मांस, भिगोया मांस के टुकड़ों को शराब में! भस्म मिला दी! पढ़ा एक जामकार-मंत्र! दरअसल, कलूटी को भोग देना अनिवार्य है! ये आगे श्मशानी शक्तियों का टोला भेजती है! चौरानवे परकोट पूजे जाते हैं! ये बेहद ज़रूरी होता है!
"ले कलूटी!" कहा मैंने,
"हो!" भोली वो,
और उसने, श्वान की भांति, चबा चबा कर सारा मांस खा डाला! तृप्त होने पर, लेट गई कलूटी! और तीन बार, हुंकार भरी! रीढ़ की हड्डी, धनुषाकार हुई! और तेज चीख मारते हुए, निकल चली उसकी देह से! निकलते ही, साधिका की देह कई बार हिली, इतनी बार, कि उसकी छाती पर, मुझे अपना पाँव रखना पड़ा!
" हट! हट!" कहा मैंने,
उसने पेट पर मुक्के मारे अपने!
"हट! हट! चुल जा! हयो! (पुचकारा मैंने) हयो! चुल जा! चुल जा!" बोलता रहा मैं, जब तक पूरी शांत न हो गई वो! कई कई साधिका, इस अवस्था में, मल-मूत्र त्याग तक कर देती हैं, इसीलिए, उन्हें शराब पिलाई जाती है! शराब से ऐसा नहीं होता!
और वो शांत हो गई!
"साहिके?" कहा मैंने,
"हम?" बोली वो,
"उठ जा!" कहा मैंने,
"ना!" बोली वो,
"कौन?" बोला मैं,
"हम!" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"हम!" बोली वो,
"बता?" कहा मैंने,
"हम, छह!" बोली वो,
रुक्न, भदन, एलनि, भदवन, छोरा-जैतन और छोरी जतली! ये रक्त-पिपासु हैं! ये पिशाच हैं! श्मशान में वास करने वाले पिशाच! इनमें, एलनि माँ है, भदन, बाप, रुक्न, बहन, छोरा-जैतन, बड़वासी पिशाच, और जतली, चौराहे की ग्राम-देवी! हर श्मशान में, ये अलग अलग ही होती है! कई कई बार तो देवी चामड़, हुंडा, तपोधरी, सौशूली या, पड़वाली आ जाती हैं! नदी किनारे के श्मशान में, जतली ही आती है! ये छह होते हैं! भोग में, पेटा(तौलिया), बकरे का बेहद पसंद है इन्हें! तब मैनें, सामान में से पेटा निकाला! उसको छह जगह से काटा और रख दिया थाल में! शराब पलट दी उसमे! और रख दी, उस साधिका के पेट पर! उसने हंसी भरी, और मारा एक हाथ थाली में! थाली गई हवा में और सारा सामान गायब हुआ! गायब होते ही, साधिका ने आँखें खोल दीं! मुंह से थूक टपक रहा था, मैंने अपने वस्त्र से उसका मुंह पोंछा! और उसको खड़ा किया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोला मैं,
"बैठ जा!" बोली वो,
"नाथ!" बोली वो,
और बैठ गई!
मैं बैठा अलख पर, और पढ़े मंत्र! अब आमद-जामद लगी थी, इसका अर्थ था, मैं सही था! क्रिया सही ढंग से आगे बढ़ती जा रही थी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"जा! जा!" कहा मैंने,
उसने मुझे जैसे ही देखा, मैंने भस्म उछाल दी उसकी तरफ!
साधिका खड़ी हो गई! आँखें चौड़ी कर लीं! बाल, अपने मुंह में भर लिए! अपनी कमर पर, हाथ रख लिए! और एक टांग उठा कर, घूमने लगी, उछल-उछल कर!
"नटनी?' बोला मैं,
"हु!" बोली वो,
"आ गई?" पूछा मैंने,
"हु" बोली वो,
"लेने आई, देने आई?" पूछा मैंने,
"हू!" बोली वो, दोनों हाथ आगे करते हुए! और गिर पड़ी! मैं भागा उसकी तरफ! और दौड़ कर, उसकी छाती चढ़ गया!
वो लगी हंसने! दहाड़ मार मार हंसने लगी! कभी दाएं फ़ुफ़्कारे, कभी बाएं! कभी उठने को हुए, कभी आँखें मींचे!
"ओ री नटनी!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"देके जा या लेके जा!" बोला मैं!
"आफ्फ्फ्!" बोली वो,
और मारी पिचकारी खून की मेरे पेट पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! ये नटनी या नटी या नटुआ-रानी सबसे वीभत्स एवं क्रूर हुआ करती है, मसानी शक्तियों में! कोई भी तांत्रिक, अगर इसके लपेटे में आया और ये न रीझी, न प्रसन्न हुई तो उस तांत्रिक का ही भक्षण कर लिया करती है! इस नटनी से, आमतौर पर, सभी जी चुराते हैं! आयु में वृद्धा, लाठी लेकर चलने वाली, मलिन-वस्त्र धारण किये हुए, जिव्हा, सदैव मुख से बाहर रखे, पीले रंग की आभा वाली, कृशकाय हुआ करती हैं! शुक्रवार की प्रेत-वेला में, इसका पूरे श्मशान पर आधिपत्य हुआ करता है! न मसान आड़े आता है और न ही महामसानी! जब रीझ जाती है तब, कंचन-वर्णी, षोडशी, उन्नत अंगों वाली, सुकाम्या एवं कामसुख से पूर्ण होती है! इसके साधक से, मलिनता की दुर्गन्ध सदैव ही आया करती है! जब जब भी, इसका प्रहार, कोई तांत्रिक किसी शत्रु पर करवाता है, तब उस व्यक्ति जे तन से ऐसी ही दुर्गन्ध आती है! इसका वार, लगभग पूर्ण ही होता है, अर्थात, ये लक्ष्य को बींध ही देती है! इसे मानव-मांस, रक्त, अस्थि-मज़्ज़ा बहुत पसंद है! हाँ, आपने यदि, चक्रेश-सुंदरी की साधना की हो तो ये तब वार नहीं किया करती! चक्रेश-सुंदरी के समक्ष ये लघु पड़ने लगती है! आपने देखा होगा, या सुना होगा, गाँव-देहात में, जब किसी का शव-संस्कार, संध्या-समय हुआ करता है, तब जल के पात्र रखे जाते हैं, और पीली सरसों को उस शव के चारों ओर बिखेर दिए जाते हैं! ये सब, इसी को दूर रखने के उपाय हैं! पीली सरसों, अभिमंत्रित हुआ करती है, जल श्मशान का न हो, बाहर का हो! बहता हुआ जल, सबसे उत्तम माना जाता है! अब ऐसा कोई ध्यान नहीं रखता, इसी कारण से, मृत व्यक्ति की आत्मा का क्या हुआ, कोई ध्यान नहीं रखता!
खैर, अब ये घटना!
उसने मेरे पेट पर, पिचकारी छोड़ी खून की! गरम गरम खून! दुर्गन्ध वाला खून! 
"लोहन! लोहन!" बोली वो,
"नटनी?" कहा मैंने,
"लोहन लोहन!" बोली वो,
"नटनी?" कहा मैंने, फिर से,
"लोहन लोहन!" बोली फिर से वो!
लोहन मायने, पुट्ठे का मांस! मर्द या औरत के पुट्ठे का मांस!
"नटनी? जा!" बोला मैं!
"ना जाऊं! ना जाऊं!" बोली वो,
"तू जाती है या?" बोला मैं,
"दे और ले!" बोली वो,
और मारा एक ज़ोरदार सा ठहाका!
"नहीं! तू जा! नहीं तो जानती है न तू?" बोला मैं,
"लोहन! लोहन दे!" चिल्लाई वो!
"जा! तू जा!" कहा मैंने,
"लोहन दे! लोहन दे!" बोली वो,
तब मैंने त्रिशूल का फॉल आगे किया, उसके बाएं, फाल से, अपना अंगूठा छेदा ज़रा सा, खून के बुलबुले से भर आये!
"लोहन लोहन लोहन!" बोली वो,
मैंने एक नाद किया, ज़ोर से! और अंगूठे से रक्त बहने दिया!
"माई भूखी! माई भूखी! लोहन लोहन!" चीखी वो!
"ओ नटनी! ले! मिटा अपनी भूख!" कहा मैंने,
उसने जिव्हा आगे निकाली और मैंने, अपने अंगूठे का रक्त, उसकी जिव्हा पर रख दिया! वो झट से चाट गई!
"माई जा रही है! माई जा रही है!" बोली वो,
"दे के तो जा नटनी?" बोला मैं,
"जा! जा मेरे पूत!" बोली वो,
और मेरे सर से हाथ फ़िर दिया! और अगले ही पल, कराह सी उठी साधिका! कंधे उठा लिए उसने, और चीख मारती हुई, नटनी, छोड़ कर चली गई उसे!
"साधिके?" कहा मैंने,
और उठ गया उसके ऊपर से!
"साधिके!" कहा मैंने,
और उसके गालों पर हाथ फेरा! बर्फ की तरह से ठंडी पड़ चुकी थी वो! मैंने उठाया उसको, उसकी गर्दन के नीचे हाथ कर!
"उठ जा साधिके!" कहा मैंने,
और तभी नेत्र खोल दिए उसने!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ! उठ जा!" कहा मैंने,
वो उठ अबितहि, अपने स्तनों पर पड़ा रक्त देखा, मुझे देखा और मैंने वस्त्र से पोंछ दिया उसका रक्त!
"उठ! बैठ?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और मैं अलख पर जा बैठा, अलख में ईंधन झोंका और अलख को जवान किया! मांस का एक टुकड़ा उठाया, थोड़ा सा चबाया, निकाला मुंह से और दिया साधिका को!
"साधिके?" कहा मैंने,
"ले, खा ले!" कहा मैंने,
उसने झट से मुख में रख लिया वो टुकड़ा और चबाने लगी! जैसे ही चबाया उसे हिचकी शुरू हुई! हिचकी बढ़ने लगीं!
"रुक!" कहा मैंने,
और झोले में से, शराब निकाल ली!
"ले! **** जी का अमृत!" कहा मैंने,
और दे दिया उसे! उसने फौरन ही, अपने मुंह से लगा ली शराब!
"शाबास!" कहा मैंने,
और मैंने, अलख से उठायी भस्म, और फेंक मारी उस साधिका पर! भस्म पड़ते ही, साधिका खड़ी हो गई! बोतल हाथ से छूट गई! अंगड़ाई ली! और देखा मुझे!
"आ! आ जा! आ! ** दूँ तुझे!" कहा मैंने,
उसने जमकर ठहाका लगया!
"तू?" बोली हँसते हुए!
"हाँ! मैं!" कहा मैंने,
"अरे जा!" बोली वो,
"आ तो सही!" कहा मैंने, उसको एक अश्लील सा इशारा करते हुए! किये जाते हैं ऐसे इशारे! भड़काई जाती हैं कुछ शक्तियां! चुलताई कहा जाता है इसे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरे! चेचा!" बोली वो,
"आ! दमखम तो देख!" कहा मैंने,
उसने जमकर ठहाका लगाया! और मेरा एक चक्कर काटा! फिर सामने आई और अपनी नाभि पर, हाथ रख खड़ी हो गई!
"मैं कौन!" बोली वो,
"छरमा!" कहा मैंने,
वो हंसी फिर ज़ोर से!
"किसलिए आई?" बोली वो,
"तू जाने!" कहा मैंने,
"चेचा!" बोली वो,
और बैठ गई, अपनी योनि पर हाथ रखा, और फिर, एक धार में मूत्र-त्याग किया थोड़ा सा, मेरे पांवों के पास, गिरा उसका मूत्र!
"चेचा!" बोली वो,
"बोल छरमा!" कहा मैंने,
"क्या देगा!" बोली वो,
"क्या लेगी?" पूछा मैंने,
"तेरे प्राण!" बोली वो और फिर जमकर हंसी!
"छरमा!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली, इठलाते हुए!
"प्राण तो तू नहीं हर सकती!" कहा मैंने,
"अवसर तो दे!" बोली वो,
"पा सके तो औघड़ न रोके!" कहा मैंने,
"हो जा खड़ा फिर!" बोली वो,
"कर दे मुझे खड़ा!" कहा मैंने,
और उखाड़ लिया त्रिशूल मैंने ज़मीन से!
"ना! ना!" बोली वो,
और उकड़ू ही, पीछे चल पड़ी! वो पीछे चले, और मैं आगे उसके!
"प्राण लेगी तू? हैं ** की ****!!" चीखा मैं,
"ना! ना चेचा!" बोली वो,
'जा, दौड़ यहां से?" कहा मैंने,
"इसे ले जाऊं?" बोली वो,
"सोचियो भी मत!" कहा मैंने,
"तो तिरिप्त ही कर दे!" बोली वो,
"भाग!" कहा मैंने,
और आगे बढ़, त्रिशूल छुआ दिया उसके सर से! उसने दोनों आँखों से त्रिशूल को देखा! हाथ चौड़े किये! स्तन आगे बढ़ाए, पेट, रीढ़ में धंसा उसका!
"बोल?" बोला मैं,
"हारी मैं चेचा!" बोली वो,
और मेरी साधिका, हवा में उछली, करीब एक फ़ीट, धम्म से नीचे गिरी! छरमा या छद्मा, लौट गई! मैं लपक के गया अपनी साधिका के पास, टटोल के देखा, सब ठीक ही था! कोई चोट नहीं थी, कोई खरोंच नहीं थी उसके देह पर!
"साधिके?" बोला मैं,
नहीं कोई जवाब!
"साधिके?" कहा मैंने,
न जवाब कोई!
मैं लौटा पीछे, शराब उठायी और हाथ में ली, उसके माथे से छुआ दी, होंठ गीले कर दिए उसके! और तभी, एक अट्ठहास सा गूँज उठा! मैंने पलट कर पीछे देखा! अँधेरा था, दीप वहां का, मंगल हो चुका था!
मैं खड़ा हो गया! उठाया त्रिशूल सामने की तरफ!
अट्ठहास फिर से गूंजा! और मेरी साधिका के नैन खुले, उसने हैरानी से मुझे देखा!
"श्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने उस से,
वो थोड़ा सा आगे बढ़ी, और मेरी जांघ पकड़, बैठ गई, अट्ठहास होने के बाद, इधर-उधर देखने लगी थी मेरी साधिका!
"सामने आ!" कहा मैंने,
हंसी सी गूंजी!
"सामने आ!" कहा मैंने,
फिर से अट्ठहास!
ये, महाप्रेत होता है! इस से सामना लाजमी ही है! ये अदृश्य रूप में प्रकट हुआ करता है! रूप में, महाभीषण, गंजा, केशरहित, देह में स्थूल, भारी और अस्थि-आभूषण धारण किये हुए रहता है! नाम है, गजधर! ये भैरवी-संधान में, सदैव ही प्रकट होता है! अच्छे से अच्छा, साधक भी इस से बच नहीं सकता! ये रूपधारी, अत्यन्त ही कुशल, मन को पढ़ने वाला, भय को उजागर करने वाला, पाषाणरूपी और ज़िद्दी, अड़ियल हुआ करता है! इस से तो जिन्नात भी भय खाते हैं! इसको, कोड़ेबाज कहते हैं! कोड़े से पड़ते हैं इस से वार्तालाप में भी!
"गजधर?" कहा मैंने,
अट्ठहास फिर से गूंजा!
"प्रकट हो!" कहा मैंने,
नहीं हुआ!
"गजधर? आदेश सुन!" कहा मैंने,
उसने हुंकार भरी!
"चौरासी नाथ....................................बैठा!" बोला मैं, और ये प्रबल-शाबर, पढ़ता चला गया!
और अचानक ही!
मेरी अलख में आग भड़क उठी! जैसे किसी ने फूंक मारी हो और कोई, दौड़ता हुआ चला गया वहां से! हजधर, लौट गया था! मैंने तब, अलखनाद लिया! वाहुनाद किया! अपनी साधिका को खड़ा किया, अपने कंधे बजाए, गाल बजाए, त्रिशूल लहराया! और अलख की भस्म से, और श्री महाऔघड़ की स्तुति की!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"कुशल से हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"अब एक बाधा और! बस!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो!
और................................


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आदेश नाथ!" बोली वो, और बैठ गई वहीँ!
"अलख को भोग दो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और उसने, अलख में भोग दिया! अलख किरमिरा पड़ी! जैसे महीनों से भूखी हो!
"और साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और अलख में और ईंधन झोंक दिया!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"वो उधर!" बोली वो,
मैंने उसके इशारे की तरफ वाली दिशा में देखा, दो सहायक, एक रेहड़े को धकेले ला रहे थे, स्पष्ट था क़ि वे घाड़ को ला रहे हैं!
"घाड़ आ पहुंचा है!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"पंचकोण में, उधर, झाड़ू लगा लो!" बोला मैं,
"उधर, नाथ?" बोली वो,
"हाँ, पंचम-अवस्था में!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
वो आगे गई और वो झाड़ू उठा लायी, उसने, पंच-फलक में, झाड़ू बुहेरनी शुरू कर दी! ये एक अलग ही तरीका होता है, इसमें, बैठ कर झाड़ू लगाई जाती है, एक बार जिस जगह संकेर दिया, पुनः नहीं संकेरना होता! ये पांच हाथ में किया जाता है, चारों तरफ! तो वो, बुहारने ली थी, और मैं उठ कर, उन दोनों सहायकों के पास, जाने को उठ लिया था! वहां पहुंचा, रेहड़े पर, एक टाट बिछा था, उसी पर, घाड़ को लिटाया गया था, घाड़, एक कपड़े में लपेटा गया था!
"आदेश!" बोला एक सहायक!
"आदेश!" कहा मैंने,
"आदेश कीजिये!" बोला वो,
"उधर!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और उस स्थान पर, जहां बुहारा गया था, फूस बिछा कर, घाड़ को रख दिया गया, घाड़ पर सुगन्धि आदि मली गई थी, उसकी गंध आने लगी थी! तो घाड़ को छोड़, वे विदा ले, चले गए थे, रेहड़े को खींचते हुए!
साधिका, वहीँ खड़ी थी, मुझे देखा तो पीछे की तरफ चली गई! मैंने घाड़ का कपड़ा हटाया! घाड़ ऐसी स्थिति में था क़ि अब कुछ कहो तो बात कर ले! मैंने उसको कपड़ों से मुक्त किया, और अपना झोला लिया, झोले में से, एक काला, मज़बूत सूती धागा निकाल लिया, मन्त्र पढ़ा और उस घाड़ की पिंडलियाँ कस कर, बाँध दीं, एक दूसरे से, फिर पांवों के पंजे और फिर, पांवों के दोनों अंगूठे! इस प्रकार, मैंने उसके बाजू बांधे आपस में, हाथों से, फिर अंगूठे बाँध दिए, उसके सर को उठाया, केश आधे आधे किये और कंधों के पीछे से आगे लाते हुए, उनमे भी, गर्दन पर गाँठ बाँध दी, इसमें मैंने नौ मंत्र पढ़े थे, इस से घाड़ में, शक्ति-संचार हो, इसलिए था!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"घाड़!" बोली वो, वहीँ खड़े खड़े ही!
"आ जाओ साधिके!" कहा मैंने,
वो करीब चली आई, घाड़ से काफी दूर थी, घाड़ के पांवों की तरफ!
"ये स्त्री है या पुरुष?" पूछा मैंने,
"स्त्री, नाथ!" बोली वो,
"हम क्रिया में हैं!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"उद्देश्य ज्ञात है?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"उपाक्ष-भैरवी संधान नाथ!" बोली वो,
"कोई प्रश्न?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" कहा उसने,
"उत्तम क्या?" पूछा मैंने,
"आपका आदेश!" बोली वो,
"प्राण भी आहूत हो सकते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"कोई शंका?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"क्या हम अग्रसर हों?" पूछा मैंने,
"अविलम्ब नाथ!" बोली वो,
"धन्य है तू साधिके! धन्य! तेरा ऋणी हुआ ये साधक! कुछ माँगना है?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"इस क्रिया में, सफल बना मुझे एक शक्ति-स्वरूपिणि!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और तब मैं खड़ा हुआ, मदिरा की बोतल उठायी! चला उसके पास!
"ले साधिके!" कहा मैंने,
उसने ओख बनाई और मैंने मदिरा परोसी!
"है उपाक्षा! माँ! शरण दे! शरण दे माँ!" कहा मैंने,
और इस प्रकार चार घूंट उसको पिला दिए!
और पलट चला मैं उस घाड़ की तरफ! मदिरा ली हाथ में और उस घाड़ के मुख पर उड़ेल दी!
"साधक का प्रणाम!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर छींटे दिए उसकी देह पर!
"हे सुरांगि! साधक का प्रणाम!" कहा मैंने,
और फिर से छींटे दिए मदिरा के!
"हे श्वेतेश्वरी! साधक का प्रणाम स्वीकार हो!" कहा मैंने,
और फिर एक महामंत्र पढ़ा! पढ़ते ही, उसकी देह पर फिर से मदिरा की छींटे छिड़क दिए! और अब चला उसके पांवों की तरफ! त्रिशूल, भूमि में गाड़ा और बैठ गया उसके पांवों के पास! दोनों हाथ जोड़ लिए! नेत्र बंद कर लिए अपने! और मन ही मन, मैंने विनती की उस महाऔघड़ से जिसकी सत्ता है अपरम्पार! विनती क़ि इस साधक की साधना को सफल बनाएं, आशीर्वाद प्रदान करें! हम माटी के पुतले ही हैं, जो कुछ सम्भव था, जुटा ही लाया हूँ, अधिक की हैसियत नहीं, जितना बन सका ले आया हूँ! प्राण चाहो, तो प्राण ले लो, लेकिन, मेरा कार्य सिद्ध कर दो! ऐसी ही विनती! अनुनय! और फिर मैं खड़ा हुआ!
"जय अघोरेश्वर!" कहा मैंने,
और उखाड़ लिया त्रिशूल अपना! उस घाड़ के चक्कर काटने के लिए, डमरू खोल लिया, और बजाते हुए, नाद लगाते हुए, चक्कर काटने लगा उसके!
"जय हे महामोक्षदाता! जय है शिव! मेरा कण कण तेरा ही तेरा! मेरा कुछ नहीं! कुछ नहीं मेरा!" बोला मैं, और मेरे नेत्रों से अश्रु-धारा बह निकली! लगा, मेरा मुक्तिदाता मुझे देख, प्रसन्न है! मुस्कुरा रहा है! 
"जय जय हे शिव! जय जय मेरे भैरव नाथ!" बोला मैं,
और अगले ही पल! भृकुटियां तन गईं! त्रिशूल पर, पकड़ कड़ी हो गई! और उस गाहद के पास जा, मैंने क्रोध से देखा!
"तू! बस तू ही तू! आदेश! यमादेश!" कहा मैंने,
और लौट पड़ा एक झटका खाते हुए!
"साधिके?" चीखा मैं,
मेरी साधिका, मेरा क्रोध देख, थोड़ा घबरा सी गई!
"साधिके?" चीखा मैं,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और मैंने अपना त्रिशूल उछाल दिया उसकी तरफ! उसने लपक कर पकड़ लिया मेरा त्रिशूल!
"इसे, स्थान दे!" कहा मैंने,
उसने एक मेरा सिखाया हुआ मंत्र पढ़ा, बैठी, और मेरे आसन के साथ ही, दोनों हाथों से जान लगा, भूमि में स्थान दे दिया उसे!
"जा! ले आ अमृत!" कहा मैंने,
और मैं तब, झट से, आगे बढ़ा और सम्भाल लिया आसन अपना!
"कटोरा!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और कटोरे में उसने मदिरा परोसी!
"ला!" कहा मैंने,
ली, मैंने, और गटक गया एक ही सांस में!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"यहां, यहां बैठ!" कहा मैंने,
वो बैठ गई, मेरे आदेश का पालन कर!
मैं उठा, और चला उसके पास! उसकी कमर पर, दो थाप दीं और कन्याओं में एक मंत्र पढ़ा! जैसे ही मंत्र समाप्त हुआ, वो हँसते हुए उठ गयी! अंगड़ाई ली और दौड़ पड़ी उस घाड़ के पांवों के पास जाने के लिए!
"बैठ जा!" कहा मैंने,
बैठ गई वो, लेकिन हंसना नहीं छोड़े!
"इस घाड़ पर क्या देखती है?" पूछा मैंने,
"वो तो बैठी है!" बोली वो,
"क्या कर रही है?" पूछा मैंने,
"वार्तालाप!" बोली वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"आप से!" बोली वो,
आह! घाड़ जागृत हो चला था! यही तो उद्देश्य था उसके कानों में मंत्र पढ़ने का! मंत्र पढ़ते ही, स्थूल सुप्त हुआ और सूक्ष्म जागृत! चेतन लोप अवचेतन सम्मुख!
"चल उठ?" कहा मैंने,
और वो उठ गई!
"जा, पीछे?" कहा मैंने,
वो पीछे चली गई!
और मैं, तब उस घाड़ के पास गया!
"हे, शव-रूढ़ा! जाग!" कहा मैंने,
और मारी भस्म खींच कर उसकी छाती पर!
"शव-रूढ़ा! जाग!" कहा मैंने,
अब एक मंत्र पढ़ा, और एक पाँव उसकी गर्दन पर रख दिया! दूसरा भूमि पर टिका दिया! अट्ठहास लगाया!
"शव-रूढ़ा! जाग!" कहा मैंने,
"मांग!" कहा मैंने,
"श्रृंगार!" कहा मैंने,
"भोग!" कहा मैंने,
"शव-रूढ़ा! जाग!" कहा मैंने,
"भल्लवी शव-रूढ़ा! जाग!" कहा मैंने,
"देख तेरा साधक आया!" कहा मैंने,
"देख तेरा साधक आया!" कहा मैंने,
"शव-रूढ़ा! जाग!" बोला मैं,
और तब, दौड़ दौड़ कर उसके चक्कर लगाने लगा! बार बार 'जाग! शव-रूढ़ा! जाग! चिल्लाता जाता! दौड़ता रहा! दौड़ता रहा! बार बार! बार बार, वही सब कहते हुए! 


   
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