उसने चुपचाप सुना!
हम शहर से बाहर आ गए, और जा पहुंचे वहां, जहां जाना था, मुझे वहाँ मेरे जानकर मिल गए, स्वागत हुआ और फिर दो कक्ष दे दिए गए हमे वहाँ! उस समय कोई आयोजन नहीं था वहाँ, अतः भीड़ नहीं थी, क्रिया-स्थल भी खाली था! कोई समस्या नहीं होनी थी!
हम अपने कमरे में आये, सामान रखा, नरसिंह को भी मैंने वहीं बिठाया, सहायक आया तो पानी दे गया, मैंने उस से कुछ सलाद और कुछ 'प्रसाद' तैयार करने को कहा, वो गया और आधे घंटे के बाद सारा सामान ले आया!
अब जमा ली महफ़िल हमने! लेकिन उस दिन नरसिंह ने नहीं ली, मै उसका दुःख समझता था, अपने ही शहर में अनजान था वो उस समय! वो वहीं पला बढ़ा था, घर परिवार सब था उसके पास! और आज! आज कुछ नहीं! मैंने उसके साथ पीने की ज़बरदस्ती नहीं की!
"शर्मा जी! आ गया वो समय जब ये नाथू फिर से नरसिंह बनने वाला है" मैंने कहा,
"अवश्य गुरु जी" वे बोले,
"इसको बोलो कि अब घबराए नहीं!" मैंने कहा,
तब शर्मा जी ने समझाया उसको! दिलासा दी!
"नरसिंह, कल मै जाऊँगा उस पद्म नाथ के पास! न्योता देने! चुनौती देने! मत घबराओ!" मैंने कहा,
नरसिंह ने हाथ जोड़े और आंसू न दिखाने के लिए मुंह फेर लिया!
"कितने आंसू बहायेगा नरसिंह! कुछ बचा के रखो! बेटी से मिलन होना है अब तुम्हारा!" मैंने कहा,
नरसिंह दौड़ के आया और मेरे पाँव पकड़ लिए, सर रख दिया उसने, मैंने नहीं हटाया, ये अवसाद था, बह जाए तो बेहतर!
"नाथू? उठ, उठ जा" शर्मा जी ने कहा,
फिर शर्मा जी ने उठाया उसको!
"नरसिंह! ये दाढ़ी मुंडवा ले अब, बाल कटवा ले, नाथू से नरसिंह बन जा! समझा?" मैंने कहा,
उसने हाँ में गर्दन हिलाई!
"तेरे कष्ट ख़तम नाथू" शर्मा जी ने कहा,
"नरसिंह, अब तुझे तेरी बेटी मिल जायेगी! किसी के बाप में दम नहीं जो उसको तुझसे मिलने में अवरोध उत्पन्न कर सके!" मैंने कहा!
"नाथू! अब तैयार हो जा!" शर्मा जी ने कहा!
नाथू को खूब समझाया हमने! और वो....वो भी प्रसन्न था, अन्दर ही अन्दर, बस प्रसन्नता को छूने, महसूस करने से डर रहा था!
खाते पीते समय हआ, भोजन आया तो भोजन किया, और फिर सो गए हम! रात भर मन में कल का ही ख़याल आता रहा, खैर, सुबह हुई, हम उठे, स्नानादि से निवृत हुए, चाय-नाश्ता आया तो चाय नाश्ता किया! शर्मा जी अपना मुंह तौलिये से पोंछते हुए बोले," गुरु जी, कहाँ है ये पद्म बाबा यहाँ?"
"मंडल आश्रम में" मैंने बताया और चाय का एक घूंट लिया,
"वो कहाँ है?' उन्होंने पूछा,
"है कोई यहाँ से दस किलोमीटर" मैंने बताया,
"अच्छा, कब चलना है यहाँ से?" उन्होंने पूछा,
"चलते हैं कोई ग्यारह बजे" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी" वे बोले,
"मंडल आश्रम में मेरे एक जानकार भी हैं, केशव" मैंने कहा,
"ये तो और अच्छी बात हुई!" शर्मा जी बोले,
"हाँ, ये सही हुआ" मैंने कहा,
"उनसे मालूमात भी हो जायेगी" वे बोले,
"हाँ, पता चल जाएगा" मैंने कहा,
और फिर हमने चाय पी ली, नाथू चुपचाप बैठा हुआ था, किसी उधेड़बुन में! मैंने नहीं टोका उसको!
और फिर बजे ग्यारह!
"चलिए शर्मा जी" मैंने कहा,
"चलिए गुरु जी" वे बोले,
नाथू भी खड़ा हुआ तभी!
"नाथू तुम यहीं रहो, मुझे काम है वहाँ, तुमको वो देखेगा तो समझ जाएगा, जो मैं नहीं चाहता, तुम यहीं रहो, दाढ़ी-बाल कटवा लो तब तक" मैंने कहा,
उसने गर्दन हिलाई,
"चलो शर्मा जी" मैंने कहा,
उन्होंने चाबी उठायी और हम निकल लिए वहाँ से! करीब साढ़े ग्यारह बजे पहुंचे वहाँ! मंडल-आश्रम काफी बड़ा है, यहाँ काफी भीड़ रहा करती है! हम अन्दर गए, वहाँ काफी लोग थे, मैंने केशव के बारे में पूछा, तो बता दिया वहाँ के सहायक ने! मै उसी तरफ बढ़ चला, वहां पहुँच तो केशव मिल गए! नमस्कार आदि हुई, और हमे बिठाया उन्होंने, चाय मंगवा ली! हमने चाय पी, तब मैंने उस बाबा पद्म के बारे में पूछा तो पता चला कि वो यहाँ बाबा नागेश्वर के यहाँ साधना कर रहा है, उसके साथ एक और औघड़ भी है, मैं समझ गया कि ये ध्रुव नाथ ही होगा! मैंने ध्रुव नाथ का कक्ष पूछा और पता चलते ही चल पड़ा उसके कक्ष की ओर! क्रोध के मारे हुआ दिमाग गरम और भुजाएं भड़क उठीं! मेरी भी और शर्मा जी की भी! हम आगे चले और सामने वो कक्ष आ गया, कक्ष बंद था! मैंने कक्ष के दरवाजे को खटखटाया, अन्दर से किसी ने दरवाजा खोला, ये कोई सहायक था उनका, मै और शर्मा जी अन्दर गए!
"पद्म बाबा कौन है?" मैंने पूछा,
"मै" एक बोला उनमे से! कद कोई साढ़े पांच फीट, दरम्याने शरीर का, दाढ़ी और सर पर अंगोछा बांधे हुए!
मैंने उसको ऊपर से नीचे तक देखा!
"क्या काम है?" ध्रुव नाथ ने पूछा,
"बताता हूँ" मैंने कहा,
मै पद्म नाथ के सामने गया और एक खींच के दिया उसके चेहरे पर! उसका अंगोछा खुला और वो नीचे गिरा!
"कौन हो तुम? क्या बदतमीजी है ये?" ध्रुव नाथ उठा और ज़ोर से बोला!
"ध्रुव नाथ! आस्तीन में सांप पाले हो तुम!" मैंने कहा,
"सांप? क्या?" ध्रुव नाथ बोला! अब तक पद्म नाथ खड़ा हो गया था!
मै फिर से पद्म बाबा के पास गया तो पद्म बाबा ध्रुव नाथ के पीछे खड़ा हो गया! अब शर्मा जी आगे बढे और पद्म नाथ को उसकी दाढ़ी से पकड़ के सामने ले आये! ध्रुब नाथ ने विरोध किया! चिल्लाया, उसका सहायक भागा भागा गया बाहर और लोगों को बुलाने, मैंने अब दरवाज़ा बंद कर दिया!
"ध्रुव नाथ, मै बताता हूँ, इत्मीनान से सुनो तुम, चुप रहना!" मैंने कहा,
अब मै बढ़ा पद्म बाबा के पास!
"नरसिंह! जानता है उसको?" मैंने पूछा,
"को.....कौन नरसिंह?" पद्म बाबा बोला!
"ज्योति? याद आया?" मैंने पूछा,
"नहीं, मैं नहीं जानता" वो बोला,
"जान जाएगा!" मैंने कहा और अब मैंने अब शर्मा जी को देखा! शर्मा जी ने उसके गाल पर एक दिया तमाचा खींच के! वो तो पहले से ही आगबबूला थे!
"याद आया?" मैंने पूछा,
"न...न.....नहीं" वो अपने गाल को सहलाते हुए बोला!
"अब आएगा याद!" मैंने कहा और फिर उसकी दाढ़ी पकड़ कर हिलाया दो-चार बार!
"छोड़ दो मुझे" पद्म बाबा बोला,
"रश्मि!" याद आया?" मैंने कहा,
अब फटी आँखें उसकी! ध्रुव नाथ भी चौंका!
"रश्मि?" ध्रुव नाथ चौंका!
"हाँ, उसका बाप आया था तुम्हारे आश्रम में उस से मिलने, याद है ध्रुव नाथ?" मैंने कहा,
"हाँ याद है" उसने कहा,
अब बाहर लोग दरवाज़ा पीट रहे थे!
"ध्रुव नाथ, इस हरामजादे की कहानी बताता हूँ तुम्हे, पहले लोगों को हटाओ यहाँ से" मैंने कहा,
ध्रुव नाथ गया दरवाज़े तक, दरवाज़ा खोला और लोगों को समझा बुझा कर वापिस कर दिया उसने! अब मैंने ध्रुव नाथ को उस हरामजादे की करनी और नाथू की कहानी सब बता दी! उसके नथुने फूल गए!
"ये सच है?" ध्रुव नाथ ने पूछा पद्म से!
पद्म बाबा को सांप सूंघ गया!
"बता? ये सच है?" ध्रुव नाथ को गुस्सा आया अब!
कुछ नहीं बोला बाबा पद्म!
अब मैंने उसकी धुनाई शुरू की! लात-घूसे, थप्पड़! मै थकता तो मोर्चा शर्मा जी संभालते! हालत खराब कर दी उसकी! मैंने उसको उसके बालों से पकड़ा और खींच के ध्रुव नाथ के सामने लाया!
"अब बता, ये सच है या नहीं?" मैंने पूछा,
"सच है" वो डर के बोला!
अब धूव नाथ ने अपनी छड़ी से मार लगानी शुरू की! ध्रुव नाथ उसकी असलियत जान गया था!
"रश्मि कहाँ है कुत्ते की औलाद?" मैंने पद्म बाबा से पूछा,
"मेरे आश्रम पर है" ध्रुव नाथ ने बताया,
'सकुशल?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मुझे संतोष हुआ!
"सुन हरामज़ादे! तूने तंत्र से एक परिवार बर्बाद किया! मै भी देखता हूँ तू कितना बड़ा खिलाड़ी है! तुझे चुनौती दे रहा हूँ! आज, बाखड़ के शमशान में! ध्रुव नाथ! ले आना इसको!" मैंने कहा,
"ले आऊंगा आज रात!" ध्रुव नाथ ने कहा,
"ध्यान रखना, कहीं भाग न जाए, या मैं इसे अपने साथ ले जाऊं?" मैंने कहा,
"मै ले आऊंगा इसको, मेरा वचन है, चुनौती स्वीकार नहीं करेगा तो मै मार डालूँगा इसको" ध्रुव नाथ ने कहा! |
चुनौती स्वीकार हो गयी थी! आज रात! बाखड़ के शमशान में! हम निकले वहां से अब!
शमशान! रात्रि ग्यारह बजे! शर्मा जी और नाथू मेरे साथ ही आये थे! मैंने उनको एक विश्राम कक्ष में ठहरा दिया था! और सहायकों से क्रिया-स्थल की शुद्धि, साफ़-सफाई करवा ली थी! मेरा आवश्यक सामान वहाँ सज चुका था! मैंने अपना त्रिशूल उठाया और उसको नमन किया! फिर नाथू से बोला, "नाथू! घबराना नहीं! बस समझो कि रश्मि आने ही वाली है! बहुत दुःख झेला तुमने! बस अब और नहीं!"
वो बेचारा आंसू बहाता हुआ मेरे पाँव पड़ गया!
"घबराओ मत नाथू!" मैंने उसको उठाकर कहा,
"शर्मा जी, इसको यहीं रखना, मै स्वयं आऊंगा आपके पास! आप नहीं आना! क्रिया-स्थल यहाँ से दूर नहीं है" मैंने कहा,
"जो आज्ञा!" वे बोले,
अब मै चला वहाँ से! पहले ध्रुव नाथ के कक्ष तक गया, ध्रुव नाथ मुझे देख खड़ा हुआ! मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया उसने मुझे आशीर्वाद दिया! मुझसे उम्र में बहुत बड़ा है ध्रुव नाथ! परन्तु सच्चा औघड़ है वो! "पद्म बाबा गया?" मैंने पूछा,
"हाँ, और उसके साथ एक और औघड़ है, उसका गुरु" उसने मुझे बताया,
"समझ गया, वो काली?" मैंने पूछा,
"हाँ!" उसने कहा,
अब मै चला वहाँ से, अपने स्थल पर आया, आसन लगाया, आसन-मंत्र पढ़ते हुए, बैठा और मंत्र पढ़कर त्रिशूल भूमि में गाड़ा! फिर चिमटा लिया और बजाया चारों दिशाओं में मंत्र पढ़ते हुए! ये दिशा-कीलन होता है! फिर मैंने एक नर-कपाल लिया और उसको मंत्राहूत करते हुए त्रिशूल के मध्य फाल पर टांग दिया, नेत्र-कूप से! फिर एक अलख-नाद किया! अलख उठाई और अलख-भोग अर्पित कर दिया! अलख भड़क उठी! अलख सदैव एक औघड़ की माँ स्वरुप होती है, अपने पुत्र का सदैव ख़याल रखती है! और औघड़ अपनी माँ का सदैव आदर करता है, जब तक अलख उठती रहेगी तब तक औघड़ को कोई चिंता नहीं! आहवान करता रहेगा वो! मैंने भी यही किया! अब मैंने श्री चक्रेश्वरी की सहोदरी ज्वाल-मालिनी का आह्वान किया! वो प्रकट हुई और फिर लोप! ज्वाल मालिनी-प्रत्यक्ष समय में अर्थात वर्तमान समय में सारी जानकारी देती रहती है! इसीलिए मैंने उसका आह्वान किया था! ताकि वहाँ की खबर निरंतर मुझ तक आती रहे!
और वहाँ दूर! दूर भी एक अलख उठी हुई थी! उसके पास दो औघड़ बैठे थे! उनके चेहरे कभी कभार ही दिखाई देते थे जब अलख की लौ हवा के झोंके से तिरछी हो जाती थी! अब मैंने ही वार करने की सोची, वार मेरा ही बनता था! क्योंकि चुनौती मैंने ही दी थी! मैंने यम-रूढ़ा का आह्वान किया! उसके लिए मांस-मदिरा का सजा हुआ थाल लगाया! और एक गिलास मदिरा डकोस ली! और अब आह्वान का मंत्रोच्चार आरम्भ किया! मित्रगण जब कोई साधक किसी शक्ति को सिद्ध करता है तब भी उसके पुनः आह्वान के लिए उसी मंत्र की एक निश्चित संख्या का जाप करता है, ये नियम है! मेरा ये मंत्रोच्चार एक सहस्त्र था! मैं मंत्र पढता जाता और झूमता जाता! जाप पूर्ण हुआ! मेरा शरीर गर्म हुआ! यम-रूढ़ा का आह्वान हुआ और वो शक्ति-पुंज के रूप में प्रकट हुई! उसकी प्रधान सहोदरी कित्की भी प्रकट हुई, मैंने उद्देश्य बताया! कित्की वहाँ से रवाना हुई! पद्म बाबा के यहाँ रक्त और मांस की बौछार होने लगी! अलख मंद पड़ने लगी! और तभी एक क्षण में यम-रूढ़ा और कित्की लोप हो गयीं! काली बाबा ने यम-रूढ़ा को सिद्ध किया होगा इसीलिए! अब तय करना था कि कौन अगला प्रहार करेगा! मै कुछ समय थमा, एक लकड़ी में कलेजी के तीन टुकड़े पिरोये और अलख में भूनने के लिए रख दिए! भून लिए और फिर मैंने वो चबाये! ऐसा करने से सशक्तिकरण हो जाता है देह का! फिर मैंने महानाद किया! सहसा मेरे समक्ष एक दूधिया रौशनी प्रकट हुई! मैंने फ़ौरन कपाल उतरा, उसको उलटे हाथ में रखा और अपना त्रिशूल उखाड़ कर खड़ा हो गया! ये कन्डक-शाकिनी थी! महा-विकराल! ज़ाहिर था ये पद्म बाबा के बसकी बात नहीं थी, ये उसके गुरु काली की सिद्ध डाकिनी थी! मैंने तब ताम-मंत्र पढ़ते हुए अपनी देह को पोषित किया! और त्रिशूल उसकी ओर कर दिया! उसने मेरे स्थान के चक्कर काटने
आरम्भ किये! मैंने तब महा-क्रातिका का आह्वान किया! कन्डक से विशाल एवं शक्तिशाली शाकिनी! एक सहस्त्र डाकिनियों द्वारा सेवित है ये! अस्थि से बना मुकुट धारण करती है! दोनों पसलियों से रक्त बहता रहता है इसके! कान के छेद बहुत दीर्घ होते हैं, उसमे मानव-हस्तांगुल के झुमके जैसे धारण करती है! मुख-मुद्रा रौद्र रहती है सदैव! कद में छोटी होती है, और, स्थूल शरीर की होती है! महा-क्रातिका के आह्वान समय तक कन्डक वार नहीं कर सकती, ये महा-क्रातिका का अपमान होगा और ये शक्तियां अपने से बड़ी शक्तियों के सम्मुख नहीं आतीं कभी भी! महाक्रातिका की प्रधान सहोदरी कुम्भिका भन्न से प्रकट हुई! ऐसा स्वर जैसे पीतल के बड़े बड़े तो थाल आपस में टकरा दिए हों! उसके प्रकट होते ही कन्डक लोप हुई! मैंने नमन किया! अपना भोग ले वे लोप हो गयीं! जो शक्ति एक बार प्रकट होती है वो दुबारा उसी समय प्रकट नहीं हो सकती, जब तक कि उस तिथि का दूसरा करण-भोग आरम्भ न हो, तब तक!
मैं नीचे बैठा! अपना त्रिशूल तीन बार भूमि में मारा! एक वृत्त बनाया! और उसमे मदिरा का पात्र रखा! मै काली को अपना सामर्थ्य दिखाना चाहता था! मैंने अपने शरीर का पञ्च स्थान का रक्त लिया और एक एक बूंद टपका दिया उस वृत्त में! फिर एक गिलास मदिरा पी और आह्वान किया! आह्वान क्षेत्राणि का! महाशक्ति! प्रबल महा-शक्ति! क्षेत्राणि को मुझे मेरे गुरु भाई स्कन्द नाथ ने सिद्ध करवाया था, उनको नमन हो! क्षेत्राणि की भनक सुन वहाँ काली का काला चेहरा सफ़ेद पड़ गया! हाथों से वस्तुएं छूटने लगीं उसके! पद्म बाबा को कोई आभास नहीं हुआ कि अब क्या होने वाला है! काली उठा और अपना त्रिशूल उखाड़ा! देह-रक्षा मंत्र जागृत किया! और यहाँ मेरा महा-मंत्रोच्चार आरंभ हुआ महा-शक्ति क्षेत्राणि का!
अब जैसे फैसले का समय आ पहुंचा था! मेरा प्रबल शत्रु इस समय पद्म बाबा न हो कर वो औघड़ था जो मुझसे द्वन्द कर रहा था, इसीलिए मैंने अब क्षेत्राणि का आह्वान किया था! मैंने घोर मंत्रच्चार किया और तब! तब प्रकाश में नहाई हुई एक सुन्दर कन्या प्रकट हुई! मैंने उसको नमन किया, ये महा-शक्ति की शास्त्र-वाहिनी शक्ति त्रिषटा होती है! शस्त्रों से सुसज्जित रहती हैं! नौ सहस्त्र शाकिनियों से सेवित और द्वादश सहस्त्र महाभीषण महाप्रेतों द्वारा सेवित है! मैंने उद्देश्य बताया, यहाँ एक बात बताता हूँ आपको, ये उद्देश्य मुख से नहीं मस्तिष्क से प्रेषित होता है, सम्प्रेषण होते ही अभीष्ट फल प्राप्ति होती है! त्रिषटा सखी डिम्बा बढ़ चली काली की ओर! डिम्बा के वहाँ प्रकट होते ही काली कांपा थर थर! जैसे ही उसके ऊर्जा क्षेत्र से बचने के लिए वो भागा, डिम्बा ने पकड़ कर उसकी गर्दन मारा फेंक कर भूमि
पर! पद्म बाबा ने ये जब देखा तो मूत्र-त्याग कर दिया! डिम्बा की रौद्रता से अलख मंगल हो गयी! काली को एक बार और उठाकर हवा में फेंका, करीब चालीस फीट!
वो नीचे गिरा ऐसे, जैसे भयानक अंधड़ में कोई छान गिर जाती है! वो अचेत हुआ! शरीर के प्रत्येक भाग से रक्त-धारा प्रवाहित हुई! अब मै भागा वहाँ! पद्म बाबा ऑखें चौड़ी किये इधर-उधर, ऊपर-नीचे देख रहा था! वो डिम्बा को नहीं देख सकता था, उसमे ये सामर्थ्य नहीं था, वो तो बस ये देख रहा था कि उसका गुरु धराशायी हो गया है! जब तक मै पहुंचा, पद्म बाबा को डिम्बा ने एक लात मारी, वो चला पीछे की तरफ, झाड-झंकाड़ में! कराहने की आवाजें आ गयीं फ़ौरन जैसे किसी सिंह ने घात लगा कर किसी मनुष्य को अधमरा कर दिया हो! मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ! मैंने फ़ौरन भूमि पर लेट त्रिषटा और डिम्बा का नमन किया! और व्युत्मंत्र पढ़कर उनसे प्रार्थना की! वे लोप हुईं!
अब मैंने अपना त्रिशूल उखाड़ा और भागा शर्मा जी की तरफ, हांफते हाँफते पहुंचा, सब कुछ बता दिया! वहाँ सहायक आये मुझे देख! सहायक फ़ौरन भागे वहाँ, हम भी आ गए वहां, उन्होंने तभी काली को उठाया, वो कराह रहा था, शरीर का कोई ऐसा भाग शेष नहीं था जो आहत न हआ हो! हइडियां टूट गयीं थीं! सहायकों ने पद्म बाबा को ढूँढा! मैंने बता दिया! पद्म बाबा की छाती में प्रहार हुआ था, भीषण प्रहार, उसकी पसलियाँ टूट कर बाहर आ गयीं थीं! सहायकों ने उसको उठाया और ले भागे उसको वहाँ से! मैंने तभी सिंहनाद किया! भूमि पर बैठा और भूमि को नमन किया! अपने गुरु और अघोर-पुरुष को नमन किया! और चला वहाँ से! शर्मा जी भी आये पीछे पीछे नाथू के साथ साथ! मै स्नान करने चला गया और फिर स्नान करने के पश्चात वापिस आया! जब वापिस आया तो ध्रुव नाथ वहीं बैठा मिला! वो उठा और मेरे पास आया!
"मैं जानता था कि उनका क्या हश्र होगा!" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"आप शांडिल्य के पौत्र हैं ना! इसलिए!" उसने बताया,
"ओह, जी हाँ, मै हूँ" मैंने कहा,
"मै आपके दादा श्री के शिष्य बजरंग का शिष्य हूँ!" उसने कहा,
"ओह!" मेरे मुंह से निकला!
"रश्मि मेरे आश्रम में ही है, वो साध्वी नहीं है, वो मेरे सरंक्षण में रहती है, मुझे अब सारी कहानी समझ आ गयी है, जिस दिन नाथू वहाँ आया था तो उसने नाथू को पहचाना नहीं था, परन्तु मेरे हृदय में खटका हुआ, मैंने उस से पूछा, उसने कुछ नहीं बताया, लोक-लज्जा से, मैंने कभी शोषित नहीं होने दिया उसको, हमारे आश्रम द्वारा संचालित एक विद्यालय में शिक्षिका है वो" उसने कहा,
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद!" मैंने कहा और तब ध्रुव नाथ ने मुझे गले से लगा लिया!
"यदि मुझे वो लड़की बता देती तो मै स्वयं ही उसका ऐसा हाल करता जैसा आपने किया!" उसने कहा,
"बहुत लोग हैं ऐसे पद्म बाबा जैसे इस देश में, आपने बहुत बढ़िया किया" उसने कहा,
"रश्मि?" मैंने पूछा,
"मैंने नाथू से बात कर ली है, हम कल निकल रहे हैं वहाँ के लिए आपके साथ" उसने बताया,
"धन्यवाद!" मैंने कहा,
और फिर अगले दिन के बाद पहुँच गए ध्रुव नाथ के आश्रम! बहुत बड़ा आश्रम है ये! कई सामाजिक कल्याण कार्य होते हैं यहाँ से संचालित! ध्रुव नाथ ने हमको बिठाया और बोला, "मै स्वयं बुला कर लाता हूँ उसको, आप ठहरिये" ध्रुव नाथ ने कहा और चला गया, हमारे लिए शरबत आ गया, सभी का गिलास खाली हुआ केवल नाथू के अलावा! वो टकटकी लगाए देख रहा था बाहर दरवाज़े को! कान वहीं लगे थे उसके! करीब आधा घंटा बीता, घोर शान्ति छाई थी कक्ष में! और तभी बाहर से 'पापा! पापा!' के स्वर सुनाई दिए! नाथू भाग छूटा वहाँ से 'रश्मि! रश्मि! कहता!! शर्मा जी उठे तो मैंने उनका हाथ पकड़ कर बिठा लिया! कुछ क्षणों के उपरान्त नाथू और रश्मि के करुण स्वर सुनाई दिए! रोने के! यहाँ मेरा और शर्मा जी का दिल पसीजा! अश्रु जैसे नेत्र-बाँध को तोड़ ही देने वाले हों! ध्रुव नाथ अन्दर आ गया! अपने नेत्र पोंछते हुए! उसका दिल भी पसीज गया था एक बाप और बेटी के निर्मल प्यार को देख कर! बैठ गया!
"ले जाइए रश्मि को" वो बोला,
"ध्रुव नाथ! मै आजीवन आपका ऋणी रहूँगा! भविष्य में यदि किसी काम आ सकूँ तो अवश्य आज्ञा दीजियेगा, मै उपस्थित हो जाऊँगा!" मैंने हाथ जोड़कर कहा!
"ऋणी? ऋणी कैसे? आपने तो मुझे घोर-पाप से मुक्ति दी है!" उसने कहा,
"नहीं, आपकी कृपा से ही इस नाथू को उसका खोया संसार मिला है ध्रुव नाथ!" मैंने कहा,
"नहीं! मुझे नहीं पता था कि मैंने एक घोर पापी और उसके अक्षम्य पाप को सरंक्षण दिया हुआ है, और एक व्यक्ति के संसार का गला घुटा हुआ है, मुझे नहीं पता था!" उसने कहा,
मै कुछ कहता कि अन्दर आये नाथू और उसकी बेटी रश्मि! आते ही मेरे पाँव पकड़ लिए! रोते रोते! मैंने नाथू को उठाया! और कहा, "मैंने कहा था ना नरसिंह! तुम्हारी बेटी मिल जायेगी तुमको!"
कोई शब्द ना निकले उसके मुंह से बस मुंह चला के बोलता रहा कुछ!
"रश्मि, बहुत दुःख उठाये हैं इस नरसिंह ने तुम्हारे लिए! सदैव ख़याल रखना इसका! हम तो कभी मिलें या ना मिलें, परन्तु इसका सम्मान ही हमारा आदर होगा!" मैंने कहा!
वो बेचारी मेरे गले लग के रो पड़ी!
बाप-बेटी का मिलन हो गया था! उस रात ध्रुव नाथ ने दावत दी! बहुत बातें हुईं उस से! और अगले दिन हम रवाना हो गए वहाँ से वापिस हरिद्वार के लिए! वापसी में ध्रुव नाथ ने कुछ रकम दी रश्मि को! बोला कि "कन्या -दान है, रख ले!"
वो उसके गले लग रो पड़ी! कितना दुःख झेला होगा रश्मि ने! कल्पनातीत!
मित्रगण! अब हम पहुंचे हरिद्वार! शर्मा जी ने गाड़ी निकाली और पहुंचे नरसिंह के घर! नरसिंह के वृद्ध पिताजी जीवित थे! बहुत खुश हुए! नरसिंह के परिवारजनों ने हाथों पर उठा लिया उनको!
और फिर एक दिन बाद!
अब मेरा कर्तव्य पूर्ण हो चुका था! अब वापसी का समय था!
मैंने नरसिंह से कहा, "नरसिंह! अब हम चलते है
मैंने इतना कहा तो रश्मि और नाथू चिपक गए मुझ से! फिर शर्मा जी से!
"मै आता रहूँगा, जब भी कभी हरिद्वार आऊंगा तुमसे अवश्य ही मिलूंगा!" मैंने कहा,
और बड़े भारी मन से और इन्तहाई खुशी से हम वहाँ से निकले! निकले अपने शहर के लिए!
करीब दो महीने बाद नरसिंह ने फ़ोन किया, पद्म बाबा की मौत हो गयी थी संक्रमण से! हाँ, काली बच गया था परन्तु विस्मृति का शिकार हो गया था! रश्मि ने फिर से पिता के व्यवसाय में हाथ बंटाना आरम्भ कर दिया था! घरवालों ने बहुत साथ दिया उनका!
आज नरसिंह खुश है! रश्मि भी खुश और मै भी खुश! और सबसे अधिक खुश शर्मा जी! करीब दस दिन पहले रश्मि और नरसिंह मिलकर गए हैं हमसे!
वे सदैव खुश रहें! सदैव! किसी के साथ ऐसा कभी ना ही, मै सदैव कामना करता हूँ! श्रद्धा रखिये, परन्तु श्रद्धा को छानते भी रहिये! क्यूंकि इस संसार में कोई भी प्राणी सम्पूर्ण नहीं है, है तो केवल एक इस संसार में! और वो है स्वयं रचियता!
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