वर्ष २०११ नेपाल की ...
 
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वर्ष २०११ नेपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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आलीशान की सोफे!

मेरे तो खोपड़े में रई चलने लगी! ये है क्या?

ये किसका प्रासाद है?

कजरी का?

या उस महाशुण्ड का?

दीवारों पर, चित्र बने थे, स्त्रियों के!

भिन्न-भिन्न मुद्राओं में!

और वो स्त्री फिर चली वापिस, और बाबा भोला,

धम्म से जा बैठे बिस्तर पर!

उनकी देखादेख बाबा ऋषभ भी दौड़ पड़े!

'शर्मा जी?' कहा मैंने,

'हाँ?' बोले वो,

'ये है क्या?' पूछा मैंने,

'महल है!!' बोले वो!

'किसका?' पूछा मैंने,

'कजरी का!' बोले वो!

''सजावट देखी?' कहा मैंने,

'हाँ, नेपाली चित्रण है! अंका!!' बोले वो!

'हाँ, थंका और अंका!' कहा मैंने,

'आओ, बैठें उधर!' बोले वो,

'चलो!' कहा मैंने,

और हम दोनों सोफे की तरफ बढ़ गए!

मेरा तो समय काटे नहीं कट रहा था! शर्मा जी जो कहते, उन्हें दो दो बार कहना पड़ता, मेरा शरीर तो यहां था, लेकिन मन वहाँ उत्तमा के पास था! न जाने क्या कर रही होगी? क्या कह रही होगी कजरी उस से? या वो कजरी से? क्या हो रहा होगा? मेरे पास तो कोई फ़ोन-फान भी नहीं था, और न ही उत्तमा के पास ही, नहीं तो कम से कम बात ही कर लेता! कुछ तो कलेजे को ठंडक पहुँचती! मन लग नहीं रहा था, एक एक पल मुझे तो एक एक पखवाड़े जैसा प्रतीत होता था! लगता था समय ठहर गया है उस कक्ष में, और


   
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श्रीशः उपदंडक
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आगे नही बढ़ रहा! जैसे रुक कर, हमें ही देखे जा रहा है! मैं तो बैठना भी भी मुश्किल और खड़े होना भी मुश्किल, बार बार घड़ी देखता था, समय ठहरा सा लगता था उसमे! एक एक सेकंड एक एक घंटे समान! और वो दोनों बाबा! आराम से फन्ना के पलंग पर पाँव फैलाये लेटे हुए थे! शायद सो भी गए थे, कैसे नींद आ गयी उन्हें? यहां मेरी एक एक सांस सांसत में पड़ी थी! वहां के शून्य में भी नागफनी के कांटें चुभते थे! हालांकि शर्मा जी मुझे समझा रहा थे, लेकिन पता नहीं क्या था, मैं इस कान सुनता और उस कान बाहर! और तभी उसी स्त्री ने प्रवेश किया, उसके साथ दो अन्य लड़कियां भी थीं, कुछ लायी थी, शायद रात्रि का भोजन था! रखा उन्होंने भोजन एक मेज़ पर, और वो स्त्री आई मेरे पास, मैं उठ खड़ा हुआ, इस से पहले कि मैं कुछ बोलता वो ही बोल पड़ी!

'भोजन लगा दिया है, भोजन करें!' बोली वो,

'वो तो कर लेंगे, लेकिन वो जो मेरे साथ आयीं थीं, उत्तमा, वो कहाँ हैं?' पूछा मैंने,

'वो और रूपाली जी, अपने विशेष कक्ष में हैं!' बोली वो,

'क्या वहीँ?' पूछा मैंने,

'नहीं, वहाँ कोई न जाता, मात्र रूपाली जी ही' बोली वो,

'और वो कक्ष कहाँ हैं?' पूछा मैंने,

'उधर, दूर है थोड़ा' बोली वो, इशारा करके,

जहाँ इशारा किया था, वहाँ तो अँधेरा था! सन्नाटा पसरा था!

'हमारे पास खबर कब आएगी?' पूछा मैंने,

'एक बजे रात्रि तक' बोली वो,

ये सुनते ही, मैं तो झाग की तरह से बैठ गया नीचे! और वो चली गयी बाहर!

'इनसे कह दो खाना खा लें ये' कहा मैंने,

'कहता हूँ' बोले वो,

और चले जगाने उन्हें!

और मैं! मैं अब शशोपंज में! कौन सा कक्ष?

कोई व्यक्तिगत कक्ष?

वहाँ कोई नहीं जाता?

तो कजरी ही क्यों?

मेरे तो दिल धड़का! एक बात और भी थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये विद्याधर जहाँ बहुत विद्यावान होते हैं, वहाँ कामुक भी उतने ही होते हैं! कहीं भी इनका चित्रण देखिये आप, सदैव काम-क्रीड़ा में ही उकेरे जाते हैं! ये एक और नयी आफ़त! मैं कजरी और महाशुण्ड के बीच प्रेम नहीं मानता, प्रेम का नाम तो बाद में दिया गया था, ये आकर्षण था, कजरी की देह का आकर्षण, और कुछ नहीं! अब मेरे खोपड़े में चटर-पटर सी बजने लगी! कहीं ऐसा तो नहीं? कहीं वैसा तो नहीं?

ओहो! कहाँ आफ़त मोल ले ली?

कहाँ जाके माथा फोड़ लिया?

और इनको देखो!

कैसे मोटे मोटे गस्से बना कर भोजन जीम रहे हैं! और एक मैं, जो जल में पड़े नमक के समान घुलता जा रहा है, घुलता जा रहा है!

आये शर्मा जी! बैठे मेरे पास! कंधे पर रखा हाथ!

'भोजन?' पूछा उन्होंने,

'मन नहीं है' कहा मैंने,

'क्यों चिंता कर रहे हो?' बोले वो,

'मुझे नहीं पता' कहा मैंने, चिढ़ते हुए,

कुछ अच्छा नहीं लग रहा था! गुस्सा आ रहा था अपने आप पर!

क्या कर दिया था मैंने ये, वो भी जानबूझकर!

'चिंता नहीं करो, सब ठीक होगा' बोले वो,

'होना ही होगा शर्मा जी! यदि नहीं हुआ, तो इस कजरी की आयु का मैं स्तम्भन का रूप प्रलंबन में बदल दूंगा!' कहा मैंने!

'गुस्सा नहीं!' बोले वो!

'सच कहता हूँ, उस महाशुण्ड को भी देख लूँगा!' कहा मैंने!

वे हंस पड़े!

'कहाँ की सोच रहे हो आप भी!' बोले वो!

'अरे? खाना नहीं खा रहे?' बोले बाबा भोला!

'आप खाओ जी, हम खा लेंगे अभी' शर्मा जी ने कहा,

मैंने घड़ी देखी, अभी दो घंटे ही बीते थे! और मैं उबाल खाए जा रहा था!

'कर लो भोजन!' बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उठे, और लेने चले गए थाली, ले आये मेरे लिए भी, मैंने थोड़े से चावल ही खाए, चपाती नहीं! मन ही नहीं था, पता नहीं उत्तमा कैसी होगी? मुझे याद न कर रही हो कहीं? किसी मुसीबत में न हो? उसके साथ बिताया एक एक पल मेरे दिल में कोहराम सा मचाने लगा! मुझे तो जैसे एकाएक प्रेम हो गया उस से! मुझे अपना ही हिस्सा लगे वो! मैं खड़ा हुआ, बाहर आया, शर्मा जी भी आये दौड़े दौड़े! बाहर झाँका मैंने, दूर दूर तक लम्बे हाथ फैलाये Dाँधेरा फैला था! सन्नाटा भी वहीँ था, दोनों की खूब पट रही थी! झप्पी मार नाच रहे थे खुले में!

'गलती कर दी मैंने' कहा मैंने,

'कैसे?' बोले वो,

'इन बाबाओं के चक्कर में नहीं आना चाहिए था मुझे!' कहा मैंने,

'अब जो हुआ सो हुआ' बोले वो,

'हाँ, ये तो सच है' कहा मैंने,

'तो अब आप चिंता नहीं करो!' बोले वो!

'ठीक है, और सुनो?' कहा मैंने,

'कहिये?' बोले वो,

''ज़रा आना मेरे साथ?' कहा मैंने,

'कहाँ?' पूछा उन्होंने,

'आओ तो सही?' कहा मैंने,

'चलो' बोले वो,

पूनम के चाँद की खिली चांदनी थी बस हमारी रौशनी! कुछ फ़ीट दूर तक ही दिखाई देता था, नहीं तो घोरतम तम फैला था, चारों ओर!

'आराम से, यहां पानी पड़ा है' कहा मैंने,

'अच्छा!' बोले वो,

और हम उस आवास क्षेत्र से दूर आ गए! चले आगे, आगे तो कुछ नहीं था, जंगल ही जंगल सा था!

'यहां तो कुछ नहीं?' बोले वो,

'हाँ, कुछ नहीं है' कहा मैंने,

'वो वहाँ क्या है?' बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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'क्या दिखा?' पूछा मैंने,

'वो देखो, यहां आओ' बोले वो,

'अरे हाँ, कोई इमारत सी है शायद' कहा मैंने,

'चलो, देखते हैं' बोले वो,

'चलो' कहा मैंने,

अब हम चल पड़े वहां, कोई टोर्च होती तो काम बन जाता!

और तभी मुझे ध्यान आया!

'आपके सेलफोन में टोर्च है न?' पूछा मैंने,

'अरे हाँ!' बोले वो,

'चालू करो' कहा मैंने,

उन्होंने फ़ोन निकाला जेब से, चालू किया,

'ओहो!' बोले वो,

'क्या हुआ?' पूछा मैंने,

'बैटरी की तो माँ ** पड़ी है!' बोले वो!

'जितनी है, उतना ही प्रयोग करो!' कहा मैंने,

'ठीक!' बोले वो,

अब जलायी टोर्च! लेकिन वो तो दीये से भी कम! बस, नीचे रास्ता ही दिखाए!

'चलो सामने' बोले वो!

'हाँ' कहा मैंने,

हम चले तो हमारा रास्ता बुगन-बेलिया की झाड़ियों ने रोक लिया, सफेद फूल लगे थे उस पर!

'यहां तो रास्ता ही बंद है!' बोले वो,

'ये फ़ोन दो ज़रा' कहा मैंने,

फ़ोन लिया और उसके सहारे हम दायें चले, लेकिन कोई रास्ता नहीं!

'यहाँ कोई रास्ता नहीं है!' बोले वो,

'बाएं चलें?' कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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'चलो' बोले वो,

और हम बाएं चले फिर!

'साला यहां भी कोई रास्ता नहीं दीख रहा!' बोले वो!

'हाँ, है ही नहीं!' बोला मैं,

'अब?' बोले वो,

'वापिस चलो' कहा मैंने,

और हम वापिस हुए!

आ गए वहीँ जहाँ थे! पता नहीं कैसा भूगोल था यहां का! अक्कर-चक्कर!

'कैसी जगह है ये?' बोले शर्मा जी,

'जानबूझकर बनायी गयी है!' कहा मैंने,

'हाँ' बोले वो,

'अब?' बोले वो,

'आओ, कजरी के यहीं चलते हैं!' कहा मैंने,

'चलो!' बोले वो,

और हम चल पड़े!

जा पहुंचे वहाँ! लेकिन वहाँ तो घुप्प अँधेरा?

न आदमी न आदमी की जात?

न कहीं से रौशनी, न ही कोई दिखे?

ये क्या?

'कहाँ गए सब?' शर्मा जी ने मुझ से पूछा,

'कहीं भूतिया जगह तो नहीं आ गए!' मैंने मज़ाक सा किया!

'भूतिया हो तो देख लें, ये तो आदमिया भी नहीं!' बोले वो!

'आना ज़रा?' कहा मैंने,

और हम दूसरे कक्षों की तरफ बढ़े!

जैसे ही आगे बढ़े, एक कक्ष से सुगंध सी आई बड़ी तेज!

जैसे कचनार की सी सुगंध!


   
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श्रीशः उपदंडक
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'ये सुगंध कैसी?' बोले वो,

'पता नहीं?' कहा मैंने,

'यहां से आ रही है' बोले वो,

एक कक्ष था वो, लेकिन बंद था, ताला लटका हुआ था!

'ये तो बंद है?' कहा मैंने,

'कहाँ मर गए सारे के सारे?' बोले वो,

'अजीब सी बात है?' कहा मैंने,

'सबकुछ अजीब ही है यहां!' बोले वो,

'हाँ! अब लग रहा है!' कहा मैंने,

'साला ये तो बियबां सा लग रहा है!' बोले वो,

'बिलकुल!' कहा मैंने,

'कहीं प्रेत तो क़ैद नहीं कर रखे कजरी ने?' बोले वो!

मैं हंस पड़ा!

घड़ी देखी, अभी भी ढाई घंटा बाकी था!

और तभी दूर एक जगह प्रकाश दिखा!

'वो देखो!' बोले वो,

'आओ, चलो!' बोला मैं,

और हम दौड़ लिया वहाँ के लिए,

लेकिन ये क्या? ये तो खम्बा था! एक बल्ब जल रहा था उसमे! कीट-पतंगों ने सजा दे रखी थी उसे! बीच बीच एम लुपलुप कर जाता था!

'ये क्या है?' बोले वो,

'क्या?' पूछा मैंने,

'ये, किले की सी दीवार लग रही है!' बोले वो!

'अरे हाँ! चारदीवारी है शायद!' कहा मैंने,

'दूर तलक गयी है!' बोले वो,

''आओ ज़रा?' कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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'चलो' कहा उन्होंने,

और हम चल पड़े उस दीवार की साथ साथ!

हम दोनों ही उस चारदीवारी के साथ साथ चलते हुए आगे बढ़ने लगे, दीवार ऐसी कि ख़त्म होने का नाम ही न ले! बड़ी ऊंची और मज़बूत दीवार! एक तो अँधेरा और ऊपर से झाड़-झंखाड़! ऊपर से सर्दी का दंश! लेकिन ठाना तो यही था कि किसी तरह से बस कुछ पता चले! अभी कोई दो घंटे शेष थे, उस से पहले तहक़ीक़ात कर रहे थे मैं और शर्मा जी, यहां तो अचानक से ही सबकुछ रहस्यमय हो चला था! कुछ अता-पता नहीं! ये डेरा था या कोई भूतिया स्थान!

'ये क्या है बहन **!!' शर्मा जी बोले!

दरअसल उनके और मेरे सामने फिर से एक दीवार आ गयी थी!

'दीवार! अब?' कहा मैंने,

'यहां तो कोई रास्ता भी नहीं?' बोले वो,

'हाँ, और ये क्या है? लोहे की रेलिंग है क्या?' पूछा मैंने,

'हाँ, रेलिंग ही है!' बोले वो,

'क्या मुसीबत है!' कहा मैंने,

'यहां नहीं लगने वाला कुछ पता! एक काम करते हैं, वापिस ही चलते हैं' बोले वो,

बात तो सही थी! वापिस चलने में ही गनीमत थी, कहीं वापसी का रास्ता भूल गया या भटक गए तो सुबह तक यहीं घूमते रहते! चिंता पर दोहरी परत चढ़ जाती!

'हाँ, ठीक कह रहे हो, चलते हैं वापिस' कहा मैंने,

और हम फिर वापिस हुए! उस सुनसान से चले वापिस! आ पहुंचे वहीँ, उसी कक्ष के पास! कक्ष में आये तो दोनों बाबा ख़ुसर-फ़ुसर कर रहे थे, हमें देखा तो सहज होने का नाटक सा करने लगे!

'अरे कहाँ चले गए थे?' बोले बाबा भोला!

'यहीं थे पास में' कहा शर्मा जी ने,

'अब डेढ़ घंटा बचा है, खबर कभी भी आ जायेगी!' बोले वो!

'हाँ, उसी का इंतज़ार है!' कहा शर्मा जी ने!

मैं तो पिस रहा था, मुझे उत्तमा की याद आ रही थी, बहुत तेज याद! पता नहीं कहाँ है मेरी उत्तमा? मेरी? हाँ! मेरी, उस पल तो मेरी ही थी! मेरी अपनाr! मेरा हिस्सा! अब पता नहीं कहाँ थी वो? क्या खेल चल रहा था पता नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बड़ी मुश्किल से मैंने समय काटा! शर्मा जी सब समझ रहे थे, वे मेरी चिंताओं को बार बार झांग देते थे, लेकिन मेरी चिंताओं की शाखें बार बार बढ़ जाती थीं, मुझे अब कजरी और उस महाशुण्ड से कुछ लेना-देना नहीं था, मुझे तो बस उत्तमा मिल जाए सकुशल! बस, यही चाहता था मैं! कम से कम उस पल तो!

और फिर बजा एक! घड़ी ने बहुत रहमत की थी मुझ ग़रीब पर! तन ढकने के लिए जाम दे दिया था मुझे! और फिर समय हुआ कोई एक बजकर पंद्रह मिनट, अब मेरे सब्र का इम्तिहान हुआ पूरा, अब हुआ मैं बेबाक़! खड़ा हुआ, और चला बाहर, देखा तो दो स्त्रियां आ रही थीं, मैं हुआ चौकस! और खड़ा कर दिया सभी को! वे स्त्रियां आयीं हमारे पास. और साथ चलने को कहा अपने! मैं तो था ही तैयार, बस वो बाबा लोग, अपना अंगोछा और जूतियां संभाल रहे थे, शर्मा जी आ ही गए थे मेरे पास!

'कहाँ हैं वो?' पूछा मैंने एक स्त्री से,

'आप चलिए साथ, हम ले जा रहे हैं' बोली वो,

'अरे हैं कहाँ?' पूछा मैंने,

'चलिए तो सही!' बोली एक,

अदाएं दिखाते हुए, मुझे तो बहुत फ़ूहड़ लगा वो सब!

हो गए हम सब तैयार और फिर चल पड़े उनके साथ!

वे तो हमें एक नए ही रास्ते से ले कर चलीं! सामने से नहीं, पीछे से, रास्ते में फूलों की सुगंध आ रही थी, रात की रानी के फूल खिले हों जैसे!

हम चलते रहे, आ गए एक जगह, वही चारदीवारी थी, लेकिन एक लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था उसमे, काफी बड़ा, चाहें तो भी न कूद सकें उसे! एक ने खोला,

'आइये यहां से' बोली वो,

और सबसे पहले मैं अंदर गया, फिर सभी आये,

'वो सामने देख रहे हैं?' बोली एक,

'हाँ, वो जहां प्रकाश है?' कहा मैंने,

'हाँ, वहीँ' बोली वो,

'क्या करना है?' पूछा मैंने,

"आप वहीँ जाइए" बोली वो,
और मैं लपका! सभी मेरे पाछे!
ऊषल के फूल खिले थे वहाँ, छोटे छोटे सफ़ेद गुलाब जैसे!
मैं तो जैसे भाग रहा था! आ गया वहाँ पर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये क्या?
ये तो एक सपाट मैदान था! बस घास लगी थी, और कुछ नहीं, हाँ, सामने एक कक्ष था, अँधेरे में इतना ही दिखा, न दरवाज़ा दिखा और न कोई खिड़की या रौशनदान! हम सब वहीँ थे,
"आइये" आवाज़ आई किसी की,
किसकी? शायद कजरी की, मैंने घूम के देखा पीछे, दायीं तरफ!
"आप आइये?' बोली कजरी!
वहाँ मात्र कजरी ही थी, और कोई नहीं! उत्तमा कहाँ है? मेरी नज़रें खोजें उसे!
मैं लपका कजरी के पास!
"आइये इधर!" बोली वो,
बिन कुछ कहे, मैं चला पड़ा उसके साथ! वो मुझे ले जाती रही, और एक कक्ष में ले आई! मैं अंदर घुसा, कक्ष खाली था, नहीं थी उत्तमा वहाँ!
"उत्तमा कहाँ है?" पूछा मैंने,
"यहीं है!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"है यहीं!" बोली वो,
"मुझे मिलवाओ उस से?" कहा मैंने,
"अभी नहीं" बोली वो!
अभी नहीं? इसका क्या अर्थ? मेरे सब्र का इम्तिहान लिया जा रहा था उस समय!
"अभी क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"सुनिए, वो सामने देख रहे हैं?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आप सभी वहीँ रहना" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"वहाँ से ही आप देख पाओगे!" बोली वो,
"लेकिन उत्तमा हैं कहाँ?" पूछा मैंने,
"वहाँ!" बोली वो,
सामने की तरफ इशारा करते हुए!
मैंने सामने देखा, एक और कक्ष था, वहाँ प्रकाश भी नहीं था, और था भी तो मद्धम सा!
"अब आप वहीँ जाओ! मैं जाती हूँ अब" बोली वो, और लौट चली, लौटी, उसी कक्ष के लिए, जाएं मद्धम सा प्रकाश था! क्या अजीब माहौल था! मेरे तो खोपडे में छेद होने लगे थे, दिमाग़ रिसने लगा था उसमे से!
खैर,
मैं लौटा, और सभी को बताया इस बारे में, और हम उसी स्थान पर चले आये जहां के लिए बताया था कजरी ने! यहां एक पेड़ था, चम्पा का, बड़ा सा पेड़! यहीं खड़े हुए हम! सामने देखते हुए!
कुछ पल बीते!
कुछ और पल!
मेरी साँसें तेज!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दिल, मुंह को आये,
धड़कन बेलग़ाम!
रगों में खून, तेज बहे!
अब तो सर्दी भी न लगे!
बदन में रासायनिक क्रियाएँ होने लगी थीं!
घटक, अपघटक और पता नहीं क्या क्या!
और तभी सामने, एक जगह मुझे कजरी दिखाई दी! लेकिन ये क्या? नग्न? पूर्ण नग्न? ऐसा कैसे? कहीं ये प्रणय-रात्रि तो नहीं? क्या ये, प्रणय-स्थल तो नहीं? अब तो दिल कुलांच मारे! जी किया, सर फोड़ लूँ अपना उस पेड़ के तने से टकरा टकरा के! ये मैंने क्या कर दिया? न जाने कैसे कैसे ख़याल मेरे मन में घुसने लगे! मैं तो जैसे पागल होने की कगार पर खड़ा था! ये हो क्या रहा है?
और वो कजरी, एक जगह चढ़ी, वो था क्या? कोई आसन? इतना बड़ा? आँखें खोलीं अपनी, तो लगा कि जैसे फूलों का बनाया हुआ कोई ढेर है! वो जा लेटी उस पर!
और उत्तमा?
वो कहाँ है?
कहाँ है मेरी उत्तमा?
मैं अपने आप ही बड़बड़ा रहा था!
खुद ही सवाल करता और खुद ही हवा में उड़ा देता!
तभी मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने, मैंने घूम के देखा! ये शर्मा जी थे!
"ये क्या हो रहा है?" बोले वो,
"पता नहीं" कहा मैंने,
"कुछ अजीब है" बोले वो,
"हाँ, यहां सब अजीब ही है!" कहा मैंने,
और तभी प्रकाश कौंधा!
हरा और नीला सा प्रकाश!
नीले प्रकाश के कण बिखर गए! वहाँ, थी कजरी के ऊपर! कोई दस फ़ीट ऊपर!
हमारी साँसों पर लगी लग़ाम!
मैं आँखें फाड़ सब देखता रहा, सब! वो प्रकाश और वो चमक!
और तब!
तब कजरी खड़ी हुई!
और!
और उठने लगी ऊपर!
ऊपर हवा में!
ऐसा कैसे?
वो घूमते घूमते ऊपर उठने लगी!
और तब, तब वो प्रकाश के कण, समाते चले गए उसमे!
वो दैदीप्यमान हो गयी! चमक उठी!
लेकिन वो विद्याधर?


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो कहाँ है?
हम सब हैरान! स्तब्ध!
मित्रगण!
कजरी हवा में थी, और लेट गयी! हवा में ही! जैसे शयन-स्थल हो उसके नीचे!
केश नहीं लटके, टांगें नहीं लटकीं!
जाइए, किसी शयन-स्थल पर लेटी हो! ऐसे लेट गयी!
फिर से स्वर्णिम प्रकाश फूटा!
और इस बार!
इस बार एक आकृति प्रकट हुई!
आकृति!
एक पुरुष की, एक दिव्य पुरुष की!
हम करीब तीस फ़ीट दूर थे वहां से, देख सब रहे थे!
आँखें फाड़े और गाड़ के!
वो पुरुष!
क्या रूप उसका! कैसा दैदीप्यमान!
कैसी देह! कैसा रूप!
साक्षात कोई देव!
लम्बे केश! चौड़ा वक्ष! चौड़े ही स्कंध!
आभूषण ही आभूषण!
वक्ष पर आभूषण, कोई वस्त्र नहीं!
हाँ, जंघाओं पर एक गहरा लाल वस्त्र! आभूषणयुक्त!
चौड़ा ललाट! बलिष्ठ भुजाएं! शैलरूपी देह उसकी!
वो उतरा नीचे!
जैसे किसी झूले पर झूल रहा हो!
ऐसे नीचे! उस शयन-स्थल पर!
यही था महाशुण्ड! विद्याधर महाशुण्ड!

बड़ा ही विहंगम सा दृश्य था वो! प्रकाश-पुंज नाच रहे थे! एक दूसरे के संग! जैसे टकरा रहे हों एक दूसरे से! टकराते और फिर एक हो जाते, घूमते और फिर टूट कर चार या अधिक हो जाते! कैसा अद्भुत नज़ारा था वो! चमकती हुई कजरी की देह, मुझे तो संग-ए-मरमर सरीखी लग रही थी! जैसे दूध में नहायी हो और दूध त्वचा से लेपित हो गया हो! उसका रूप भी दैविक हो चला था! हम सब मंत्रमुग्ध खड़े, ये दृश्य देखे जा रहे थे! नज़रें हटती ही नहीं थीं! वो विद्याधर नीचे उतर आया था, शयन-शय्या पर, धरातल तो दीख ही नहीं रहा था, या हम नहीं देख पा रहे थे उस शय्या-स्थल का! पल भर में ही दिव्यता फ़ैल गयी थी वहां पर! और तभी, अपना हाथ बढ़ाया उसने उस लेटी हुई कजरी की तरफ! कजरी ने भी हाथ बढ़ाया अपना! और उठा लिया खींच कर कजरी को! वहाँ लगे शाल के वृक्ष हवा के शीतल झोंके से, सलसला उठे! वो झोंका हमारे आस भी आया, तो मेरी गरदन की पीछे के रोएँ भी खड़े हो गए! एक दिव्य सी सुगंध फैली थी वहां! जैसे तपते सूरज की तपती दोपहरी में, पलाश के फूल की कच्ची कली छोड़ा करती है सुगंध! कुछ ऐसा ही अंगार सा था उस सुगंध


   
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श्रीशः उपदंडक
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में! मेरी नाक और मुख में, नीचे हलक़ में, गहरे से बैठ गयी थी वो सुगंध! और तभी, तभी कजरी से आलिंगनबद्ध हुआ वो विद्याधर! कजरी की देह पर उसकी बलिष्ठ भुजाओं का दायरा जकड़ गया! कजरी के शरीर में जुम्बिश होती दिखी! जैसे चिंहुक रही हो, जैसे आह निकल रही हो उसके मुख से! जैसे ही महाशुण्ड के एक भुजा कजरी की कमर में पहुंची, तो नितम्ब और बाहर को आ गए! ऐसा अनायास ही हुआ था! ऐसा वक्र सा पड़ा जैसे कोई शिल्पकार किसी मूर्ति में विशेष रूप से डालता है! उसकी पिंडलियों की पेशियां, अकड़ कर, ऊपर को हो गयीं! कजरी साक्षात किसी अप्सरा समान लग रही थी! और वो विद्याधर किसी यक्ष समान! उस पूर्णिमा की रात्रि में खिलती चांदनी को मैंने जीवन में पहली बार किसी से पिछड़ते देखा! हारते देखा! शरमाते देखा! और चाँद, उनको पहली बार मैंने आँखें फेरते देखा! ऐसा रूप था उन दोनों का! वो विद्याधर और वो कजरी! जैसे किसी और लोक से अवतरित हो गए हों उस स्थल पर! और सहसा ही मुझे ध्यान हो आया उस उत्तमा का! वो कहाँ है? नहीं दीख रही कहीं भी? कहाँ है? मैं दोहरी सोच में था! मैंने झट से पीछे मुड़कर देखा, बाबा भोला और बाबा ऋषभ, एकटक उन दोनों को ही देखे जा रहे थे! क्या करते! दृश्य ही ऐसा था!
और तभी, अपनी मज़बूत भुजाओं से उठा लिया कजरी को अपनी गोद में! अपनी नाभि तक और मुख से मुख भिड़ गए उनके, मात्र यही दिखा था! कजरी ने, उस विद्याधर की गरदन में हाथ डाल रखे थे, कस कर पकड़ा हुआ था उसको, और अचानक ही, वो विद्याधर कजरी को, ऊपर लेकर उठा! घूमते हुए! जैसे किसी रस्सी में अलबेटे हुआ करते हैं, ऐसे! जिसे कोई नाग और नागिन, आलिंगनबद्ध हुआ करते हैं! ऐसे! और फिर हुई आरम्भ पुष्प-वर्षा, लाल रंग के अज्ञात से, पुष्प गिरने लगे नीचे! वे गिर तो रहे थे, लेकिन बहुत धीरे धीरे! जैसे गुरुत्व हार गया हो उनसे! या कोई प्रक्रिया चल रही थी वहाँ ऐसी! हवा का झोंका आया सर्द एक! बेहद सर्द था वो झोंका! रोएँ खड़े कर गया हमारे! और तेज प्रकाश कौंधा! और वे दोनों! वे दोनों लोप हो गए! हमारी आँखों के सामने लोप हो गए! मैंने किसी मानव को पहली बार लोप होते हुए देखा था! अद्भुत! कल्पना से परे! सोच से परे!
कुछ पल ऐसे ही गुजरे! ऐसे ही!
एक जड़ता में! मैं जड़! सभी जड़!
कुछ और पल बीते!
फिर कुछ और!
और शाल के वो वृक्ष फिर से सलसलाये!
सर्द झोंके आये! अंदर तक शीतल कर गए थे हमने!
मेटे हाथ और पाँव जैसे सुन्न से पड़ने लगे थे! लेकिन वे दोनों?
वे कहाँ गए?
कहाँ लोप हुए?
मैं आगे बढ़ा थोड़ा, तो शर्मा जी ने कंधा पकड़ा मेरा! मैं रुका,
और देखा उनको!
सहसा ही प्रकाश कौंधा! और वे दोनों आलिंगनबद्ध हुए, फिर से प्रकट हुए! मैं पीछे लौटा, हल्के से! जहाँ हम खड़े थे, वहाँ शाल के वृक्ष लगे थे! बड़े बड़े! ऊंचे ऊंचे! उनकी शाखों के मध्य से, खिलती चांदनी हम पर कभी कभार पड़ ही जाती थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अद्भुत!" मेरे मुंह से निकला!
"हाँ, अद्भुत!" बोले बाबा भोला!
मेरे संग ही आ खड़े हुए थे वे!
"बस, प्रणय आरम्भ हो!" बोले वो!
मैं मुड़ा! उनको देखा!
क्या कहा?" प्रणय आरम्भ हो?
किसलिए?
"किसलिए बाबा?" पूछा मैंने,
"आप देखते रहो बस!" बोले वो!
और फिर से प्रकाश कौंधा! और फिर से लोप!
इस बार मैंने कजरी का चेहरा देखा था! रंग ऐसा था, जैसे कच्चा सेब होता है! ठीक वैसा ही! शायद कामोन्माद के कारण था ऐसा!
"प्रणय किसलिए?" पूछा मैंने,
"आप देखो!" बोले वो,
"मुझे बताओ?" कहा मैंने,
"बता दूंगा!" बोले वो!
"अभी बताओ?" कहा मैंने,
"बता देंगे?" बोले बाबा ऋषभ!
"अभी क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"अभी नहीं!" बोले बाबा भोला!
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"अभी वो पल नहीं आये!" बोले बाबा भोला,
"कौन से पल?" पूछा मैंने,
"प्रणय के पल!" बोले वो,
"उस से क्या होगा?" पूछा मैंने,
अपने होंठ पर ऊँगली रखते हुए उन्होंने मुझे चुप रहने को कहा!
"मुझे बताओ बाबा?" कहा मैंने!
"बता दूंगा!" बोले वो,
और तभी अपनी जेब से कुछ निकाला बाबा ऋषभ ने!
कोई काले से रंग का धागा सा था, उसमे कपास का सा फूल बंधा था!
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
इस से पहले मैं देखता या छीनता वो, सामने फेंक मारा उन्होंने वो गंडा!
"ये क्या है?" पूछा मैंने!
"आप चुप ही रहो!" कहा उन्होंने!
"क्या?" कहा मैंने,
"हाँ, चुप रहो!" बोले वो!
"क्या कर रहे हो आप दोनों?" पूछा मैंने,
"जो करने आये हैं!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो भड़का मेरा गुस्सा!
मैं आगे बढ़ा और हाथ पकड़ लिया मैंने बाबा ऋषभ का!
वे हंसने लगे! जैसे मेरा उपहास उड़ा रहे हों!
"निकल जाओ यहां से!" मैंने गुस्से से कहा,
"नहीं! ऐसा अवसर कौन छोड़ता है?" बोले बाबा ऋषभ!
"और जाना है तो तुम जाओ?" बोले बाबा भोला!
"ज़ुबान सम्भालो बाबा!" कहा मैंने!
वे हंसने लगे! जैसे मैंने कोई चुटकुला सुनाया हो!
"हाँ, जाओ!" बोले बाबा ऋषभ!
मित्रगण!
अब स्थिति बदल गयी थी! ये दोनों क्या करने वाले थे, मुझे नहीं पता था! लेकिन जो कुछ भी करते, वो उस विद्याधर से ही संबंधित था! अब मैंने भी चुप रहने का फैंसला लिया! एक शुबहा और कलेजा बींध गया मेरे उसी क्षण की कहीं उत्तमा भी तो शामिल नहीं इस कारगुजारी में?
शर्मा जी ने मुझे देखा, मैंने उन्हें! इशारा हुआ! और हम दोनों समझ गए!
"वैसे आप करोगे क्या?" पूछा मैंने,
"देख लेना!" बोले वो,
"प्रणय?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो!
"इन दोनों का प्रणय?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो?" मैंने पूछा,
मेरे दिल में हौल उठा! कलेजा मुंह को आया मेरा!
"तो?" पूछा मैंने,
दिखाया उनको कि जैसे मैं गिड़गिड़ा रहा हूँ!
"तो?" पूछा मैंने,
कुटिल नज़र से देखा मुझे बाबा भोला ने!
"इस विद्याधर का प्रणय, रमण उस उत्तमा के साथ!" बोले बाबा भोला!
"क्या?????" कहा मैंने,
मेरे मुंह से अपने आप ही निकला!
"हाँ! आने तो दो वो क्षण!" बोले वो!
"क्या उत्तमा जानती है ये?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"क्या?" मैंने हैरानी से पूछा!
"नहीं जानती! उसे अपना होश ही न होगा!" बोले वो!
अब तो जैसे पहाड़ सा टूटा मेरे सर पर!
दगा?
धोखा?


   
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