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वर्ष २०११ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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“साधिका?” मैंने फिर से पुकारा!

कोई असर नहीं!

अब मुझे क्रोध आया, लेकिन क्रोध को पीना पड़ा मुझे! क्रोध का कोई औचित्य नहीं था वहाँ!

मैंने फिर से त्रिशूल लिया और एक मंत्र पढ़ते हुए अपना थूक अपने हाथ में लिया, फिर से अभिमन्त्रण किया और उसके माथे से रगड़ दिया! वो चौंक के उठ पड़ी! अपने चारों ओर देखा! जैसे उसको किसी ने राह से चलते हुए पटक दिया हो मेरे सामने!

“साधिका?” मैंने कहा,

उसने सर उठाकर मुझे देखा!

उसके लक्षण सही नहीं थे! पहली बार मुझे घबराहट हुई! लगा मैंने जानबूझकर डंगारा मुहार के छत्ते में हाथ दे दिया था!

मैं गुस्से से उसके पास आया, बैठा और फिर उसके सर को धक्का दिया, वो पीछे नहीं गिरी! संभल गयी वो और लगातार ऐसे थूकते रही जैसे उसने मिट्टी निगल ली हो!

“सुन ओ साध्वी?” मैंने कहा,

नहीं सुना उसने!

मैंने फिर से अर्धाम-मंत्र पढ़ा और उस पर थूक दिया! वो झम्म से कटे पेड़ सी गिर पड़ी! मैं फ़ौरन ही अपने आसन पर विराजमान हो गया!

मैंने तब देख लड़ाई उधर!

वहाँ गहन मंत्रोच्चार में लीं था बैजू!

तभी मेरे कानों में वाचाल महाप्रेत के शब्द गूंजे! ‘कर्णाक्षी!’

कर्णाक्षी!

महारौद्र सहोदरी! एक ऐसी महाशक्ति की सहोदरी जिसके इर्द-गिर्द डाकिनी और शाकिनी अपने अपने खप्पर और खड्ग लिए घूमती हैं! महाबलशाली! वपुधारक! भीषण-वपुधारक! यदि चूक उई तो ये आखिरी द्वन्द होगा मेरा! मेरी साध्वी होश में नहीं थी! और मैं अकेला था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी बैजू खड़ा हुआ! और घोर-नृत्य करने लगा! ये कर्णाक्षी का आह्वान था! मुझे भी किसी महारौद्र शक्ति की आवश्यकता थी! तभी मेरे मन में मेरे गुरु के कहे शब्द गूंजे! द्रोमा चंडालिका!

ये भी सहोदरी है एक महाशक्ति की! नभ इसका वास है! तड़ित इसकी दास है! ज्वाल-मालिनी की अभिन्न सखी है ये दरों चंडालिका! ये अत्यंत तीक्ष्ण प्रहार करने वाली, अमोघ और कालरूपा है! ये देव-स्वरूपा होते हुए भी आसुरिक प्रवृति वाली है! इसकी सिद्धि है तो बहुत सरल लेकिन प्रकट होने के पश्चात अपने साधक को तीन दिवस मूर्छित रखती है! एक वर्ष तक साधक की दृष्टि मंद रहती है, श्रवण-शक्ति का ह्रास रहता है! और एक वर्ष पश्चात महाफल और अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती है! किसी भी नदी के अंदर, कमर तक पानी में डूबकर, नित्य ग्यारह रात्रियों तक तीन मंत्र बोलने होते हैं, बाहरवें दिन ये प्रकट होती है! और तब इसकी सिद्धि आरम्भ होती है! इस एक वर्ष तक साधक विक्षिप्त सा रहता है, बोलता कम है, जो बोलता है वो अस्पष्ट होता है! ऐसे कष्टों के बाद ये प्रसन्न हुआ करती है! कामाख्या में एक विशिष्ट स्थान है इसका, जहां इसको सिद्ध करने वाले ही साधक प्रवेश कर सकते हैं!

मैंने अब उसका आह्वान किया!

द्रौं मंत्र गूँज उठे! शमशान सुप्त हो गया! छोटे-मोटे भूत-प्रेत छिप गए! कई भाग छूटे वहाँ से, कइयों ने कहीं और जाकर शरण ली! मेरे मस्तिष्क में चाकी सी चलने लगी, नेत्र बंद होते गए और फिर देह शिथिल हुई!

तभी किसी के स्वर से मेरी तन्द्रा टूटी!

ये बैजू था!

“चला जा!” उसका स्वर गूंजा!

मैंने कोई ध्यान नहीं दिया!

ये माया थी! कर्णाक्षी की माया!

मुझे डिगाने की माया!

मैंने फिर से नेत्र बंद किये! और महामन्त्रोच्चार में लीन हुआ! वहाँ वो भी लगा हुआ था! दोनों ही शत्रु भेदन के लिए लालायित थे! दोनों ही एक दुसरे के रक्त के प्यासे! मैं किसी के सम्मान के लिए लड़ रहा था और वो अपने झूठे दम्भ के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी मेरे यहाँ रक्त की बूँदें बरसने लगीं! घनघोर! मैंने मंत्र पढ़ते हुए ही त्रिशूल को अलख में छुआ कर भूमि पर त्रिकाल चिन्ह खींच दिया! बरसात बंद हुई, मेरे नथुनों से टपकता लहू भी बंद हो गया!

और फिर हुआ एक भीषण सा नाद! जैसे हज़ारों लोग एक साथ अटटहास लगाए हों! हज़ारों लोग! मेरे सामने से दृश्य जैसे धूमिल हुआ और जैसे मैं बैजू के पास पहुँच गया! मैंने देखा, बैजू नृत्य करता हुआ “जाग! जाग!” कहता जा रहा था! मैं जैसे खड़ा हुआ था वहीँ किनारे! तभी मुझे मेरी गर्दन पर प्रहार हुआ, ऐसा लगा, मेरे नेत्र खुले! मैंने मंत्र पढ़ते हुए अपने सामने देखा! मेरी साध्वी खड़ी हो गयी थी! मुझे ही घूरे जा रही थी! ठहाके लगा रही थी! तभी मैंने देख लड़ाई! वे दोनों औघड़ जो उसके सहायक थे वे भूमि पर एक मरे हुए सांप से कुछ क्रिया कर रहे थे! तभी समझ आया! समझ आया कि कैसे मेरी साध्वी में प्राण सृजित हुए! कैसे वो खड़ी हो गयी! उन औघड़ों ने उसको वश में कर लिया था! अब मैं खड़ा हुआ, मंत्र पढ़ते हुए, मेरी साध्वी मेरे सम्मुख आयी और चिल्लाते हुए मुझे मारने को झपटी! मैंने तभी एक लात जमाई उस पर! वो पीछे गिरी! फिर उठी! फिर से दौड़ी, मैंने फिर से एक लात और जमाई!

तभी मुझे कुछ दिखा! दिखा वो महासिद्ध कपाल! मैंने कपाल उठाया और साध्वी के मार्ग में रख दिया, वो खड़ी हो गयी वहाँ! कपाल उसके रास्ते में था! वो पार नहीं कर सकती थी उसको! मेरा आह्वान अभी भी ज़ारी था!

उस कमीन बैजनाथ ने युक्ति खेली थी! मेरी साध्वी को वश में करने से मैं उनके हाथ लग सकता था और मेरी इहलीला तो समाप्त होती ही, ये भी नदी में कूद कर प्राण गँवा देती! अक्सर ऐसा होता है! जब कोई औघड़ नियमों के विरुद्ध चला जाता है! परन्तु उस समय केवल प्राणों की ही चिंता रहती है! कैसे भी प्राण बचाये जाएँ अपने! और यहाँ तो मुझे कल्पि के भी प्राण बचाने थे!

तभी बैजू शान्त हुआ!

मदिरा की बोतल उठाई और मुंह से लगा ली!

महानाद किया!

और मेरी ओर घूमा! दहाड़ते हुए!

“सुन ओ औघड़! मैं तुझे दिखाता हूँ कि द्वन्द कैसे लड़ा जाता है!” उसने कहा,

मैंने सुना और अनसुना कर दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरी साध्वी फिर से खड़ी होने वाली थी, अब मैंने अपना त्रिशूल उठाया और त्रिशूल को छुआ और अपने अस्थिमाल से लगाया, और फिर उसको तरफ कर दिया, वो उछल पड़ी, नीचे गिरी और मूर्छित हुई! अब मूर्छित अवस्था में उसका वशीकरण समाप्त हो गया था, वे औघड़ उठे, उनमे से एक ने वो मृत सांप अपने गले में रस्सी की तरह लपेट लिया और इधर बैजनाथ अब बैठा अपने आसन पर, उसकी साध्वियां खूब खेल रही थीं! अटटहास करते हुए! कभी गिरतीं कभी उठतीं! पूरी वश में थीं! अब बैजनाथ अपने आह्वान के द्वितीय चरण में आया, उसने नेत्र बंद किये अपने और फिर से गहन मंत्रोच्चार में लीन हो गया!

यहाँ मैं भी अब निश्चिन्त सा हो, अपने आसन पर बैठ गया! मैं भी अब दूसरे चरण में प्रवेश कर गया! मेरे भी मंत्रोच्चार गहन होते गये! तभी महासिद्ध कपाल में से कोई चिंगारी सी फूटी! वो जागृत हो गया था! मुझे इस से बल मिला, मैं खुश हो गया! मैंने फिर से देख लड़ाई, वहाँ देखा वे दोनों औघड़ झूम रहे थे, बैजू के मंत्रोच्चार में झूम रहे थे वे! कर्णाक्षी वहाँ प्रकट होने ही वाली थी और आरम्भ होने वाली थी मेरी परीक्षा! बैजू परम शक्तिशाली शक्तियों से संपन्न हो लड़ रहा था! मुझे उस से बचाव करना था, इसीलिए मैंने द्रोमा-चंडालिका का पीछे पकड़ा था!

समय जैसे लंगड़ा हो गया! एक एक पल एक एक घटी समान व्यतीत हो रहा था! आकाश में तारगण और चन्द्र साक्षी बने देख रहे थे वो द्वन्द! जड़! पूर्ण जड़ रूप से!

और तभी मेरे यहाँ दुर्गन्ध फैली! महादुर्गंध! नथुनों में बस गयी वो दुर्गन्ध! जैसे सड़ा हुआ मांस! जैसे सड़े मांस को सिरके में डाल दिया गया हो, जी मिचला सा गया, मुंह का स्वाद कसैला सा हो गया, खट्टापन भर गया दांतों में, दांत कटकटाने लगे उसके कारण! ये कर्णाक्षी का आह्वान था! जिसके लिए मैं उद्देश्य था! इसी कारण ऐसा हुआ था! मैंने मंत्र और तेज किये!

और फिर अगले ही पल!

अगले ही पल चार उपसहोदरियां और चार सेवक मेरे यहाँ प्रकट हुए! भयानक स्वरुप उनका! आँखें जैसे अंगारे! मेरे मंत्र ज़ारी थे! तभी मुझे हंसी के स्वर सुनायी दिए! ये बैजू था!

मैं फ़ौरन ही उठा, सामने भागा और अपनी साध्वी को ढक कर लेट गया, और फिर मेरे समक्ष कर्णाक्षी प्रकट हो गयी! साक्षात मृत्यु को समक्ष देखा मैंने उस समय! मैंने अब उसके समक्ष हाथ जोड़े और तभी! तभी! कड़ाक! कड़ाक! की आवाज़ हुई! मृदंग से बज उठे! अब मैं खड़ा हो गया! द्रोमा-चंडालिका का आगमन हो चुका था! सभी उपसहोदरियां और सेवक कर्णाक्षी के पीछे चले गए! द्रोमा-चंडालिका की नौ उपसहोदरियां जैसे सीढ़ी से उतरी वहाँ! मैंने घुटनों के बल बैठ गया! और फिर एक नीला सा पुंज प्रकट हुआ, वो बड़ा होता गया और उसमे वृत्त में बैठी द्रोमा-चंडालिका प्रकट हुई! मैंने द्रोमा का मंत्र पढ़ा! और ये पढ़ते ही कर्णाक्षी अपने सेवक और


   
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श्रीशः उपदंडक
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सेविकाओं सहित लोप हो गयी! मैंने उस वृत्त के नीचे लेट गया! आँखों में आंसू आ गए! मुझे मृत्यु का ग्रास बनने से पहले ही मेरी संजीवनी बन गयी थी द्रोमा-चंडालिका! मैंने भोग अर्पित किया और फिर एक मंत्र पढ़ा! मंत्र पढ़ते ही -चंडालिका पुष्प-वर्षा करती हुई लोप हो गयी!

मैं लेट गया था अपनी साध्वी पर! प्राण बचाने के लिए! वो मूर्छित थी, अतः उसका कोई अहित नहीं हो सकता था, मैं उसके ऊपर लेता था, इसीलिए प्राण बचाने के उद्देश्य से मैंने ऐसा किया था, नहीं तो कर्णाक्षी मेरे शरीर के असंख्य टुकड़े कर देती उसी क्षण!

मैं तभी अपनी साध्वी के पास गया! उसको सीधा किया, वो मूर्छित थी! लेकिन उसने पूर्छित होते हुए भी मेरे प्राण बचा लिए थे! मैं ऋणी हो गया था उसका! मैंने फिर से उसे छोड़ अपने आसन पर बैठ गया!

वहाँ!

वहाँ कर्णाक्षी को लोप होते देखा बैजू जैसे पागल हो गया! वो पाँव पटकता हुआ इधर उधार दौड़ कर गाली-गलौज कर रहा था! और मुझे हंसी आ रही थी अब! उसने मुझे कम आँका था! या खेवड़ ने मुझे कम आंक कर बताया था! एक बात स्पष्ट थी, मतंगनाथ ने भी नहीं बताया था उसको!

बेचारा बैजू!

वे दोनों औघड़ उसका कोपभाजन बन रहे थे! वो लताड़ रहा था उनको! जबकि बांसुरी उसकी टूटी थी, तो बजाने वाले का क्या दोष!

अब मैंने महासिद्ध कपाल उठाया, अपनी गोद में रखा, उसको मदिरा से धोया और फिर उसको चूमा! अब मैं ऐसी यन्त्र-शक्ति प्रयोग करने वाला था कि बैजनाथ तो क्या खेवड़ भी भय के मारे भूमि छोड़ देता!

मैंने भूमि पर मूत्र-त्याग किया, फिर गीली मिट्टी उठायी, उसकी दो मानव-आकृतियां बनायीं और उनको एक त्रिकोण खींच कर उसमे वे आकृतियां रख दीं! फिर उस त्रिकोण के मैंने नौ चक्कर लगाए!

बैजू ने देख लड़ाई और उसकी आँखें फट गयी! भौमड़-क्रिया! हाँ भौमड़-क्रिया! यही! यही करने जा रहा था मैं! मैंने उस त्रिकोण को अपनी दोनों टांगों के बीच रखा और फिर मंत्र पढ़ने आरम्भ किये! वे आकृतियां हिलने डुलने लगीं, जैसे कोई तेज वायु प्रवाह चल रहा हो! बैजू ने काट के लिए फ़ौरन मूत्र त्याग किया और फिर उसने भी वही किया जो मैंने किया था! मगर उसने आकृति केवल एक ही बनायी! उसको त्रिकोण में रखा! और उसके ऊपर खड़ा हो गया! बेचारा


   
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श्रीशः उपदंडक
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बैजू सोच रहा था कि मैं उसका अहित करना चाहता हूँ! नहीं! ऐसा नहीं था, मैं उन दोनों औघड़ों को सबक सिखाना चाहता था!

और तब यहाँ जैसे जैसे वो आकृतियां खंडित होने लगीं वहाँ वे दोनों औघड़ रक्त से नहाने लगे! चिल्लाते हुए! चीखते हुए! रूदन करते हुए! देखता रहा! बैजू केवल देखता रहा!

और फिर..

बैजू ने उसको देखा! समझ गया! भांप गया वो चाल! उसने तभी वो मिट्टी उठायी और उन औघड़ों के ऊपर मंत्र पढ़ते फेंक दी! वे झट से ठीक हो गए! अब केवल हांफ रहे थे! उनका रक्त बंद हो गया था! घाव भर गए थे! परन्तु जो मैं चाहता था करना वो कर चुका था! भय! उनको औघड़ों को भय! इसी का अहसास कराना चाहता था और करवा दिया था!

“औघड़?” बैजू गर्राया!

मैंने सुना!

“नहीं बचेगा!” उसने कहा,

मैंने सुना!

“तेरी मौत होगी!” उसने कहा,

मैंने सुना!

“अवश्य होगी!” उसने कहा,

मैंने फिर से सुना!

“मेरे हाथों से मौत होगी तेरी!” उसने त्रिशूल गुस्से में ज़मीन में गाड़ते हुए कहा,

मुझे इस बार हंसी आ गयी!

मेरी हंसी जैसे छील गयी उसे!

वो गुस्से में अपनी साध्वी तक गया, उसको बालों से पकड़ कर बिठाया और फिर उसके केश पकड़ कर उसने एक मंत्र पढ़ा! उसकी साध्वी की जीभ बाहर निकल आयी! उसी क्षण!

“हा! हा! हा! हा!” उसने अट्ठहास लगाया!

और तभी मेरे कानों में वाचाल की आवाज़ सुनाई दी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“द्रूप बालिका!”

अच्छा!

समझ गया!

वो अब द्रूप बालिका का आह्वान करना चाहता था! जान गया मैं!

द्रूप बालिका एक भयानक शक्ति है! नदी का तल इसका वास है! आग, पानी आदि का इसपर कोई प्रभाव नहीं होता! द्रूप बालिका किसी की सहोदरी नहीं! ये उन्मुक्त शक्ति है! चौरासी रात की इसकी साधना है! नदी में कंधे तक डूबकर इसकी साधना होती है! खड़े होकर! जल-कुम्भी अथवा, जलसोख अथवा समुद्र-सोख के फूलों से इसकी माला बनायी जाती है, ये फूल कुल चौरासी होते हैं, नित्य एक माला रोज बनाई जाती है, वाराणसी, कामरूप और उड़ीसा में ऐसे कई साधक हैं जिन्होंने इसको सिद्ध किया है! और ये बैजू भी उनमे से एक था! इसकी लम्बाई बहुत अधिक, वर्ण में धूसर, मलिन और देह भारी होती है, आयु में ये एक बालिका समान ही होती है, पलक कभी नहीं मारती, रूप धरने में अव्वल है, सभी सजीव प्राणियों का रूप धर सकती है! एक समय में चौरासी स्थान पर प्रकट हो सकती है! आसुरिक है! अब बैजू इसका आह्वान कर रहा था! उसकी साध्वी से इसका आह्वान हो सकता था! और इसीलिए उसने अपनी साध्वी को अपने समक्ष बिठाया था!

यहाँ,

अब मुझे उसकी काट करनी थी! उसके लिए और उस से उन्नत लघुन्डा ही थी! लघुन्डा भी एक उन्मुक्त शक्ति है! पर्वत शिखर पर इसका वास है, महा-आसुरिक और महा-तामसिक होती है! मुंडमाल धारण करती है! देह नग्न होती है! सहोदरी किसी की नहीं परन्तु कहीं भी विचरण करती है! ये गण आदि के कुल में से है! लघुन्डा की साधना किसी पर्वत या टीले के ऊपर एक सौ दस दिन की, निन्यानवे मेढ़ा-बलिकर्म से सम्पूर्ण होती है! इसकी साधना में एक बात खास और अहम् है, इसको साधक अकेला नहीं ध्या सकता, इसके लिए एक ऐसा समर्थ गुरु चाहिए जिसने इसको ध्या रखा हो! अकेला ही करे तो निश्चित रूप से मृत्यु होगी ही होगी! कोई नहीं बचा सकता! मैंने इसके लिए अपने दादा श्री के बताये हुए एक गुरु नभनाथ की शरण ली थी, और फिर मैंने उनके सरंक्षण में इसको ध्याया था! ये महा-भीषण, अतिरौद्र और भक्षणकारी होती है! कई सिद्ध नाथों ने और पूज्नीय महा-नाथ ने इसकी दी हुई माला धारण की हुई थी! मैंने तो केवल ध्याया था, वे तो इसके लोक में भी विचरण करते थे! इतने सामर्थ्यवान थे वे!

उनको जय हो सर्वदा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ,

तो वहाँ बैजनाथ आह्वान करने में लीन था और मैं भी! वे दोनों औघड़ भी उस जाप में लीन थे! ये सहायक थे उसके! उसकी एक साध्वी नीचे गिरी थी और एक पर अब कोई सवारी आने वाली थी! वो झूम रही थी! दूसरी झूमते झूमते गिर चुकी थी!

अब मैंने ज़मीन पर एक चतुर्भुज बनाया, उसमे तीन आड़ी रेखाएं खींचीं और फिर तीन सीढ़ी, अब मैंने उसमे मांस के टुकड़े रखे, कुल चार और फिर उस यन्त्र की परिक्रमा की! अब मैंने लघुन्डा के बीज मंत्र पढ़ने आरम्भ किये! वहाँ बैजू अपने आप में मगन था, उसको बहुत अहंकार था अपने आप पर! और यही उसको ले डूबने वाला था अब! मैं उसको और उकसाता था! इसीलिए मैंने चाम-मंत्र पढ़ते हुए( लघुन्डा के मंत्र में ग्यारह उपकर्म किये जाते हैं, शत्रुभेदन के लिए) वहाँ गले-सड़े चर्म की बरसात की! अपने पाँव के अंगूठे से ज़मीन छुआ कर उसने बंद किया वो मेह!

और मेरे यहाँ उसने अब राख, अंगार की आंधी सी चला दी! मैंने तभी भूम-मंत्र पढ़कर माया का नाश किया!

दोनों डटे थे! अपने अपने मार्ग पर!

द्वन्द दूसरे चरण में प्रवेश कर गया था!

और फिर हम दोनों ने अपने अपने नेत्र बंद किये! और अब गहन मंत्रोच्चार आरम्भ हुआ! वो भी खोया और मैं भी! उसकी आराध्या द्रूप बालिका थी और मेरी लघुन्डा! लघुन्डा और द्रूप बालिका, दोनों की कोई सहोदरी नहीं, कोई सेवक नहीं! ये शमशान में भी वास नहीं करतीं! दोनों ही उन्मुक्त और स्वछंद शक्तियां हैं! मैंने अब अपने नेत्र बंद कर लघुन्डा के मंत्र पढ़े, मन में तस्वीर बना एक एक भाग का पूजन किया, उसके अस्त्र-शस्त्र सभी का पूजन किया! समाय बीत रहा था अब पल दर पल! ये द्वन्द अब अपने अंजाम की तरफ बढ़ने लगा था! ये मैं भी जानता था और वो बैजू भी!

मेरी साधिका मूर्छित पड़ी थी, मुझे उसका कोई सहयोग प्राप्त नहीं हुआ था! लेकिन इसमें उसका कोई दोष भी नहीं था, वो यहाँ मुझ पर विश्वास करके आ गयी थी, ये ही कम नहीं था! और फिर उसने तो मेरे प्राण भी बचाये थे!

और तभी जैसे मेरे नेत्र-पटल पर बिजली कौंधी! लगा सामने कोई बड़ा सा, कोई दीर्घ प्रकाश-पिंड प्रकट हो गया हो! मैंने अपने नेत्र बंद ही रखे, वो प्रकाश वहाँ अनवरत बना रहा! समझ आया मुझे इसका कारण, लघुन्डा जागृत होने को थी! और फिर मैंने मंत्र सही साढ़े श्वास


   
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श्रीशः उपदंडक
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नियंत्रित कीं और फिर से फट्ट मंत्र मेरे मस्तिष्क में गूंजने लगे! लगा कि जैसे बहुत सारे वृक्ष भूमि पर गिरने के लिए विवश किये गए हों! सभी परिंदे अपना घरौंदा छोड़ भाग रहे हों! वायु ऐसी कि पाँव उखाड़ दे! चेतावनी मिल चुकी थी! परन्तु मुझे यहाँ अपने कानों में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था! कोई पवन-प्रवाह नहीं! कुछ नहीं!

वहाँ वे औघड़ अब अलख में ईंधन डाल रहे थे! भड़का रहे थे! सामने बैठी दोनों साध्वियां किसी प्रेतग्रस्त महिला की तरह से झूम रही थीं! श्मशान बेहद खुश था इस क्रिया-कलाप से! जैसे श्मशान की खोई हुई जवानी लौट आयी हो और वो उसकी रौ में खड़ा हुआ इठला रहा हो!

और तभी!

तभी वो जीभ निकाले हुए साध्वी चिल्लाई! आँखें खोलीं बैजू ने! बैजू ने फ़ौरन ही हाथ जोड़े और उसके सामने लेट गया!

“जाग द्रूपा! जाग!” वो बोला,

वो साध्वी जीभ निकाले घूर घूर के देख रही थी सभी को!

हाथ विशेष मुद्रा में उठ गए थे!

“जाग! जाग द्रूपा जाग!” फिर से याचना की बैजनाथ ने!

साध्वी में मसानी जागी थी!

“जाग! द्रूपा! द्रूपा जाग!” वो चिल्लाया!

फुफकारी उसकी साध्वी!

फ़ौरन ही कपाल कटोरे में मादिरा परोसी बैजू ने और मदिरा उस साध्वी के मुंह से लगा दिया! गटक गयी मसानी साड़ी मदिरा!

फिर गुर्रायी!

खड़ी हुई!

बैजू भी खड़ा हुआ!

अब हिलोरें काटीं उस साध्वी ने!

और नाच बैजू अब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मसानी आने का ये संकेत था कि द्रूप-बालिका बस किसी भी क्षण आने को है वहाँ!

यहाँ!

यहाँ मैं लगातार मंत्रोच्चार करता जा रहा था! गहन, और गहन!

और फिर तभी!

तभी मेरा महासिद्ध कपाल उछला! हवा चली तेज! त्रिशूल में लटका डमरू खड़खड़ाया और अलख एक ओर झुक गयी! लघुन्डा भी प्रकट होने वाली थी!

मैं खड़ा हुआ!

महानाद किया!

चिमटा खड़खड़ाया!

और फिर मदिरा की बोतल उठा कर खींच गया बहुत सारी! अब अलख को नमन किया और अब मैंने कुछ गिनती के बचे हुए मंत्र पढ़ने आरम्भ किये! ये मंत्र खड़े खड़े पढ़े जाते हैं! मैंने अपना त्रिशूल उखाड़ा और फिर कपाल उठाया! और फिर एक नृत्य-मुद्रा में नृत्य करने लगा! और मंत्र पढ़ने लगा!

वहाँ!

वहाँ वो साध्वी चिल्ला रही थी! अपना पेट पीट रही थी! वे दोनों औघड़ मांस भरा थाल लिए घुटनों के बल बैठे थे! और बैजू अट्ठहास लगा रहा था!

“जाग द्रूपा!” उसने कहा,

अपना त्रिशूल उठाकर लहराया!

महानाद किया!

फिर उसने अपनी साध्वी को नमन किया!

विक्षिप्त सा हो गया!

यही होता है औघड़-उन्माद!

तर्राट की सी आवाज़ हुई! भयानक सा शोर हुआ जैसे हज़ारों लोगों का नरसंहार हुआ हो वहाँ! बैजू शांत हो गया! अपने हाथ आकाश की ओर करते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी झन्न!

झन्न से एक अग्नि पिंड प्रकट हुआ!

द्रूप-बालिका का आगमन हो चुका था!

पकट हो गयी वहाँ द्रूप बालिका! घनघोर शोर करते हुए! जैसे पानी के भंवर का शोर होता है! वे औघड़ सभी झुक गए उसके सामने! और फिर भोग अर्पित किया बैजू ने, वो साध्वी जिस पर मसानी विराजी थी ‘हक-हक-हक’ की आवाज़ें करते हुए साँसें लेने लगी!

“भ्राम सः नेपुति हुं फट्ट!” मंत्र से उसका स्वागत किया! इस मंत्र से शमशान गुंजायमान हो गया! दंडवत प्रणाम करने के बाद बैजू के मस्तिष्क-पटल पर मेरी तस्वीर उभरी! एक शत्रु की तस्वीर!

यहाँ!

मैंने नेत्र खोले और आसन से उठा! कपाल-कटोरा मदिरा से भरा और फिर गटक गया! अब मैंने त्रिशूल से एक वृत्त खींचा, स्व्यं को उसके अंदर रखा! ऑंधिया को फ़टाकार लगयी वहाँ बने रहने के लिए! और फिर मैंने अपनी जीवा में खंजर की सहायता से छेड़ किया! रक्त बह निकला और मैंने अंतिम मंत्र पढ़े! रक्त से मेरे होंठ सन गए, रक्त होंठों से होता हुआ मेरी ठुड्डी के रास्ते मेरे वक्ष-स्थल पर दौड़ पड़ा!

“ठह खः ख्राम हुं हुं मदमालिनी होम ऐम लघुन्डा हुं हुं फट्ट!” के मंत्र से शमशान में सन्नाटा पसर गया! चमगादड़ लौट पड़े! उल्लू उड़ चले! सोये हुए परिंदे जाग पड़े! समय शिथिल हो गया! पसीने उभर आये और अब मेरे सर में शूल उठा, मैं नीचे बैठ गया और अंतिम मंत्र पढ़ा!

और फिर!

ऑंधिया की चीख सुनायी दी! व्योम जैसे फट पड़ा और उस क्षण एक लाल रंग की ऊर्जा-रेखा और प्रकाश आपस में गुंथे हुए प्रकट हुए! मैंने तभी नीचे साष्टांग मुद्रा में आ गया! और उसी क्षण लघुन्डा प्रकट हो गयी!

“हे रूपकुंड वासिनी! उद्धार कर!” मैंने विनती की!

लघुन्डा के दैदीप्यमान नेत्रों की जड़ में मेरा पूरा शरीर आ गया! मैं उसके तेज से नहा गया!

और उसी क्षण अपना उद्देश्य जान द्रूप-बालिका वहाँ प्रकट हो गयी! लघुन्डा की गर्दन घूमी और नज़र द्रूप बालिका पर पड़ी! द्रूप बालिका ने उसको नमन किया और शून्य में लोप हो गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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‘उद्धार! उद्धार!” मैंने याचना की!

लघुन्डा ने मुझे देखा,

मैंने भोग अर्पित कर दिया!

महातामसी लघुन्डा ने मुझे प्राण-दान दिए! मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ था! मैंने तभी एक विशेष मंत्र पढ़कर उसको नमन किया और फिर वो लोप हो गयी! उसके लोप होते ही मैं अपने वृत्त से खींचता हुए चला गया, मेरे पाँव भूमि पर टिके नहीं रह सके, मैं गिर पड़ा!

मेरा हाथ अलख से टकराया था, मैं झट से उठा और अपना त्रिशूल सम्भाला! फिर अपनी साध्वी को देखा, वो मूर्छित पड़ी थी!

अब मैं अपने आसान पर आ बैठा!

मैंने तभी देख लड़ाई!

बैजू का तो जैसे प्राण-संचार रुक गया था!

औघड़ मारे भय के एक दूसरे से सट गए थे!

साध्वी नीचे गिर पड़ी थी!

बैजू की आँखें फटी की फटी रह गयीं थीं!

“बैजू?” अब मैं चिल्लाया!

“तीन!” मैंने कहा,

अट्ठहास किया मैंने!

“तीन!” मैंने फिर से पुकारा!

घिग्घी बंध गयी उसकी!

अब मैंने त्रिशूल उठाया! और अपने पाँव की तरफ इशारा किया! अर्थात, अभी भी समय है, मान जा! क्षमा मांग ले!

“बैजू? मान जा!” मैंने कहा,

उसने अनसुना किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करना ही था!

“बैजू?” मैंने हंस के कहा,

वो चुप!

बेबस सा!

खेवड़ की खेवड़ी नहीं काम आयी उसके!

और तभी!

तभी बैजू ने अपना खंजर उठाया और अपने उलटे हाथ में धंसा लिया! मैं समझ गया और साध्वी की ओर भागा! जब तक मैं वहाँ पहुँचता साध्वी के मुख से रक्त की धार फूट पड़ी! उसके फंदे लगने लगे श्वास के!

और तब वो ज़ाहिल इंसान हंसने लगा! उसने इस बेचारी पर प्रहार किया था! जो किसी भी प्रकार से इस द्वन्द से अभी तक अलग थी! मैंने तभी जंभाल-मंत्र पढ़ा और अपने हाथ में अपना थूक लिया, और फिर साध्वी के माथे पर रगड़ दिया! उसको श्वास आनी आरम्भ हो गयी! रक्त=प्रबाह बंद हो गया उसी क्षण! और तब बैजू ने एक और अट्ठहास लगाया!

अब मुझे क्रोध आ गया!

भयानक क्रोध!

मैंने अपना अस्थिमाल उतार और अपनी साध्वी के गले में पहना दिया, अब वो सुरक्षित थी!

मैं गुस्से में अपने आसन पर बैठ गया!

और मुझे उस समय बैजू के ठहाके सुनायी दिए!

“बैजनाथ नाम है मेरा!” जांघ ठोक कर कहा उसने!

मैं क्रोध में था!

नथुने फड़क उठे मेरे!

“तुझे यहीं मारूंगा! भस्म कर दूंगा तुझे!” बैजू गर्राया!

अब बिन बोले नहीं रहा गया मुझसे!

“बैजू?” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बोल?” उसने गाली देकर कहा,

“तुझे मैं मारूंगा नहीं, नहीं तो मौत का नाम बदनाम होगा! तेरा वो हाल करूँगा कि ज़िंदगी पल पल भागेगी तुझसे और मौत तुझे आएगी नहीं!” मैंने कहा,

“अरे जा! मैं बैजू हूँ! बैजू! वो घमंड से बोला!

हाँ, उसके सहायक औघड़ डर गए थे, अब इस हाल में थे कि कुछ वहाँ होता तो सर पर पाँव रख के भाग लिए होते!

“औघड़! तूने द्वन्द किये होंगे, ज़िंदा रहा होगा! लेकिन आज तेरा अंतिम द्वन्द है!” उसने चिल्ला के कहा!

“तेरा भी ये आखिरी द्वन्द है बैजू! समय देता हूँ, खेवड़ को भी बुला ले, जो कर सकता है कर ले!” मैंने चेताया उसको!

“तेरे इतने टुकड़े करूँगा कि चील कौओं को भी चुनने में परेशानी नहीं होगी!” उसने फिर से गाली गलौज की!

“वार कर बैजू! वार कर! मैं सिखाता हूँ तुझे कि द्वन्द कैसे लड़ा जाता है!” मैंने कहा,

“तो देख फिर!” उसने कहा,

और फिर नेत्र बंद कर लिए उसने!

मैं चाहता था कि वो ही वार करे! ये एक नीति है! इस से समय मिलता है और सामने वाले की शक्ति का भी जायज़ा हो जाता है!

बैजू डूबा अब मंत्रोच्चार में!

और मैंने अब यहाँ अभय मंत्र साधा!

अभय-मंत्र सध गया, अब मैं गम्भीर होकर द्वन्द करना चाहता था, इसलिए मैंने भी अपने नेत्र बंद कर लिए और एकाग्रचित हो गया! वहाँ वो भी नेत्र बंद किये गहन मंत्रोच्चार में लगा हुआ था! तभी मेरे कानों में कारण-पिशाचिनी का स्वर पड़ा “एडाल सुंदरी”

एडाल सुंदरी! महा सहोदरी! इस सहोदरी के चौरासी सेवक और चौरासी उपसहोदरियां हैं! ये उत्तर दिशा में वास करती है, कंदरा में इसका वास है! गढ़वाल में इसके कुछ खंडित मंदिर भी हैं, मध्यकाल में ये मंदिर तोड़ दिए गए थे! इसके मंदिरों में कंदरा अवश्य हुआ करती थी, आज


   
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श्रीशः उपदंडक
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भी प्राचीन मंदिरों में कंदरा होने का इसी से अभिप्राय है! इसको अन्य नामों से भी जाना जाता है! एडाल सुंदरी महाबलशाली और महारौद्र है! महातामसिक शक्ति है! शत्रु-भंजन हेतु ये अमोघ और अचूक वार करती है, मानवदेह इस से टकराते ही अस्थिहीन हो जाती है, अस्थियों का चूर्ण बन जाया करता है!

अब मुझे इस से उन्नत और ऊंची शक्ति का आह्वान करना था, इसके लिए मैंने कुछ सोचा! और फिर मैंने मोहम्म्दा वीर की अलख उठाने के लिए सोचा! हाँ, यही सही था! मोहम्म्दा वीर की अलख उठने से साक्षात मृत्यु भी कदम नहीं बढ़ा सकती! मैंने आसन पर बैठा और फिर अलख से कुछ लकड़ियां बाहर निकाली, जलती हुई लकड़ी से मैंने एक समभुज बनाया और फिर उसको हाथों से खोदा, जब गड्ढा इतना हो गया कि उसमे लकड़ी आराम से आ सकें तो मैंने उसमे अब समस्त सामग्रियां डालकर लकड़ियां लगा दीं और अलख भड़क उठी! मोहम्म्दा वीर के बारे में मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ, ये परम महासिद्ध शक्ति हैं! इन्होने ही पांच नाहर पकडे थे, आप इनकी शक्ति को यूँ जानिये कि एक नाहर आज भी कामाख्या में विराजित है! ये नाहर सिंह वीर मोहम्म्दा वीर ने ही पकड़ा था! एडाल सुंदरी को रोकने के लिए मोहम्म्दा वीर सटीक थे! मैंने अब फातिमा का नाम लेकर अलख भड़काई! अलख भड़क उठी! अब मैंने क्लिष्ट मंत्र पढ़ने आरम्भ किये और उनमे खो गया!

तभी मेरी नज़र अपनी साध्वी पर गयी! उसने करवट बदली थी, मुझे धोखा नहीं हुआ था, मैंने देखा था उसको करवट बदलते हुए! मेरी निगाह उस पर टिक गयी! वो अभी भी लेटी थी, दीखने में मूर्छित ही लगती थी!

वहाँ!

तभी बैजू ने आँखें खोलीं! उसने औघड़ों को कुछ इशारा किया! औघड़ उठे और अँधेरे में चले गए, जब आये वापिस तो उनके साथ एक काले रंग का मेढ़ा था, बलि-पट्ट बनाया गया, लकड़ी के शहतीर से, ये पहले से ही तैयार था! बलि-पट्ट पर बाँधा गया उस मदहे को और फिर बैजू ने फरसा उठाया! फरसा उठाकर उसने एक मंत्र पढ़ते हुए उस मेढ़े की गर्दन धड़ से अलग कर दी! रक्त का फव्वारा बह पड़ा! उन दोनों औघड़ों ने पहले से ही वहाँ एक पात्र रखा था, उसमे रक्त इकठ्ठा कर लिया, अब बैजू ने अपने शरीर पर वो रक्त मला और फिर कुछ घूँट पी गया!

और उसने फिर से एक अट्ठहास लगाया!

“ओ औघड़?” उसने कहा,

मैंने सुना!


   
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